बिना पतेवाला पोस्टकार्ड

जब भी कोई पत्र लेकर महेन्द्र भाई की दुकान पर जाता हूँ तो पहले तो वे और उनका बेटा नितिन खुश होते हैं और अगले ही क्षण ताज्जुब में डूब जाते हैं। महेन्द्र भाई का पूरा नाम महेन्द्र जैन (पाणोत) है और नगर के प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र में उनकी, स्टेशनरी की अच्छी-खासी दुकान है। ईश्वर की कृपा है कि वे और नितिन, दुकान पर रहते हुए कभी फुर्सत नहीं पाते। स्टेशनरी व्यवसाय के साथ ही साथ वे कूरीयर से भेजे जाने वाले पत्रों की बुकिंग भी करते हैं। मुझे देखकर वे खुश इसलिए होते हैं क्यों कि वे मुझे पसन्द करते हैं (भगवान करे मेरा यह भ्रम बना रहे) और ताज्जुब इसलिए करते हैं क्योंकि वे भली प्रकार जानते हैं कि पत्र भेजने के मामले में मैं भारत सरकार की डाक सेवाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता देता हूँ और निजी कूरीयर कम्पनियों को बिलकुल भी पसन्द नहीं करता।

डाक विभाग को मैं अपना ‘अन्नदाता विभाग’ मानता हूँ। अपने ग्राहकों को बीमा सेवाएँ उपलब्ध कराने में यह विभाग मुझे मेरी आशा/अपेक्षा से अधिक सेवाएँ उपलब्ध कराता है। किन्तु बीमा एजेन्सी का काम तो मैंने अभी उन्नीस बरस पहले ही शुरु किया है जबकि इस विभाग से मेरा जुड़ाव मेरे स्कूली दिनों से ही बना हुआ है। दादा ने सूत्र दिया था - ‘पत्राचार वह एक मात्र माध्यम है जिसके जरिए, अपने घर से निकले बिना ही सारी दुनिया से जुड़ा जा सकता है।’ किन्तु दादा ने यह सूत्र वाक्य ही नहीं दिया। उनसे मुझे पत्राचार भी संस्कार में मिला। ‘पत्र-मैत्री’ (पेन फ्रेण्डशिप) को अपना शौक बताकर मैं अपने से बेहतर लोगों के बीच आसानी से जगह बनाता रहा हूँ। सो, जब भी पत्राचार की बात होती है तो मुझे डाक विभाग के सिवाय और कुछ न तो सूझता है और न ही अच्छा लगता है। इस विभाग के प्रति, इसकी सेवाओं के प्रति और इसके कर्मचारियों के प्रति मेरे मन में अतिरिक्त प्रेम, सम्मान, आदर और सदाशयता का भाव शुरु से ही बना हुआ है।

यह कड़वा और अप्रिय सच है कि डाक सेवाओं की गुणवत्ता और विश्वसनीयता में घातक कमी आ गई है। इतनी कि खीझ और झुंझलाहट होने लगती है। आज की पीढ़ी के लिए यह सूचना ‘सफेद झूठ’ हो सकती है कि किसी जमाने में पत्र, देश के किसी भाग में, केवल तीन दिनों में ही अपने मुकाम पर पहुँच जाया करता था। आज स्थिति यह हो गई है कि स्थानीय पत्र भी पाँच-पाँच दिनों में पहुँच रहे हैं। खीझ का चरम यही है कि मुझ जैसा आदमी भी कभी-कभी कह उठता है कि अंग्रेजों की डाक व्यवस्था ही अच्छी थी।

इसके बावजूद, मैं भारतीय डाक सेवाओं का मुरीद हूँ। कोई एक पखवाड़ा पहले इस विभाग ने मुझे ‘सुखद आश्चर्य’ का ‘जोर का झटका, धीरे से’ दिया। विक्रम सम्वत् 2067 की चैत्र प्रतिपदा, 16 मार्च 2010 की डाक में मुझे आदरणीय श्रीयुत भगवानलालजी पुरोहित का, नव वर्ष अभिनन्दन एवम् शुभ-कामना पत्र मिला। त्यौहार के दिन किसी पवित्रात्मा की शुभ-कामनाएँ और आशीर्वाद मिल जाएँ तो मन पुलकित हो ही जाता है। इसी पुलक भाव मग्न हो मैंने पोस्ट कार्ड पलटा तो देखकर चकित रह गया। पोस्ट कार्ड पर मेरा पता ही नहीं था! डाक विभाग का यह कृपापूर्ण चमत्कार मुझ पर पहला नहीं था। इससे पहले, स्थानीय डाककर्मी, अनगिनत बार मुझ पर कृपा वर्षा कर चुके हैं। पते के स्थान पर केवल ‘विष्णु बैरागी, रतलाम’ लिखा होने पर तो पत्र मुझे मिलते ही रहे किन्तु पते के स्थान पर ‘बैरागी को मिले’, ‘मनासावाले बैरागी को मिले’, ‘बीमा एजेण्ट बैरागी को मिले’ जैसे जुमले लिखे पत्र भी मुझे मिलते रहे। विस्मय की बात यह कि ऐसे सारे पत्र सचमुच में मेरे लिए ही थे जबकि मेरी निजी जानकारी के अनुसार, विष्णु बैरागी नामवाले कम से सोलह व्यक्ति तथा तीन बीमा एजेण्ट रतलाम में हैं। ऐसे तमाम पत्रों को ‘अपूर्ण पता’ की टिप्पणी के साथ प्रेषक को लौटने के कानूनी अधिकार और सुविधा डाक विभाग के पास सुरक्षित है। किन्तु इस ‘अधिकार और सुविधा’ को परे धकेलकर, विभाग ने पत्र अपने मुकाम पर पहुँचाने को प्राथमिकता दी। आदरणीय श्रीयुत भगवानलालजी पुरोहित का भेजा, ताजा पत्र तो पत्र-छँटाई के समय ही अलग निकाला जा सकता था। किन्तु ऐसा न कर, वह पत्र भी मुझे तक पहुँचाया गया।

मैं यह सम्भावना लेकर चलता हूँ कि डाक विभाग के कर्मचारी निजी स्तर पर मुझे जानते-पहचानते होंगे इसलिए मुझ पर यह अतिरिक्त कृपा की गई होगी। किन्तु तनिक कल्पना कीजिए कि यदि ऐसा कोई पत्र, किसी निजी कूरीयर सेवा को मिलता तो उसकी क्या दशा होती? ऐसा पत्र अपने मुकाम तक पहुँचाना तो दूर की बात रही, उसे लौटा देने के सिवाय और कुछ सोचा ही नहीं जाता। यह इसलिए कह पा रहा हूँ कि दो-एक बार ऐसा हुआ है कि जो पत्र मैंने महेन्द्र भाई के माध्यम से कूरीयर सेवा के जरिए भेजे थे, वे न तो अपने मुकाम पर पहुँचे और न ही मुझे लौटाए गए। इसके उल्टे, उनके ऐसे पीओडी (प्रूफ ऑफ डिलीवरी) मुझे दिए गए जिन पर, जिन सज्जन को मैंने पत्र भेजे थे उनके स्थान पर पता नहीं किसके हस्ताक्षर थे। ऐसी दशा में मैं और मेरे साथ महेन्द्र भाई असहाय हो, टुकुर-टुकुर देखने और मन ही मन कुढ़ने के सिवाय और कुछ नहीं कर सके।

नहीं जानता कि निजी कूरीयर सेवा की अवधारणा देशी है या विदेशी किन्तु अच्छी तरह अनुभव करता हूँ कि उनकी कार्यशैली और ग्राहकों के प्रति व्यवहार, उनकी विदेशी प्रकृति और मानसिकता ही प्रकट करती है। लगता ही नहीं कि उन्हें ग्राहक की और उसके सरोकारों की तनिक भी चिन्ता है। इसके विपरीत, भारतीय डाक सेवाओं में अभी भी आत्मीयता की ऊष्मा और ग्राहकों की चिन्ता का भाव बना हुआ है। आप-हममें से कइयों को आज भी ऐसे पत्र मिलते होंगे जिन पर हमारा पुराना पता होता है। उस पते की बीटवाले डाकिए को जब मालूम पड़ता है कि पानेवाले का पता बदल गया है तो वह (पुराने पते पर रह रहे लोगों से और/या आसपास के लोगों से) हमारा परिवर्तित पता पूछ कर, उस नए पते की बीटवाले पोस्टमेन को वह पत्र सौंप देता है। ऐसा पत्र हमें जब-जब भी मिलता है, तब-तब हम उसे अत्यन्त सहजता से लेते हैं और डाक कर्मियों के इस अनदेखे परिश्रम और हमारे प्रति बरती गई उनकी चिन्ता के प्रति धन्यवाद देना तो दूर, उनके परिश्रम और चिन्ता की कल्पना भी नहीं करते। इसके विपरीत, डाक कर्मियों की प्रत्येक गलती और चूक को उजागर करने, उसकी आलोचना करने का और उनकी खिल्ली उड़ाने का कोई भी अवसर नहीं चूकते।

हमारा (सामान्य मनुष्य का) सामान्य स्वभाव ही है। हमारे बिना कहे यदि किसी ने (विशेषकर किसी शासकीय विभाग/कर्मचारी ने) ‘फेवर’ किया (वह भी तब, जबकि वैसा न करने की कानूनी सुविधा और अधिकार उसे प्राप्त था) तो हम उसकी अनदेखी करते हैं। ऐसी बातों की चर्चा भी नहीं करते।

बुराइयों की चर्चा आज समूचे परिदृश्य पर छाई हुई है। अखबारों में ‘दुर्जनता और दुष्कर्म’ प्रमुखता पाए हुए हैं। यह सब देख कर, पढ़कर हम निराश, हताश और अवसादग्रस्त होते हैं। सोचते हैं, कुछ अच्छा देखने को, पढ़ने को मिले। किन्तु तब हमारे आसपास कुछ अच्छा होता है तो हम ही चर्चा नहीं करते। अच्छाई किस कदर उपेक्षित है, यह इसीसे अनुमान लगाया जा सकता है कि पुरोहितजी के इस पत्र की फोटो प्रति मैंने एक अग्रणी अखबार को, सत्रह मार्च को दी तो वहाँ इसे तत्काल सराहना तो मिली किन्तु अखबार में जगह आज तक नहीं मिली। यदि हम अच्छाइयों की चर्चा करना शुरु कर दें तो

माहौल बदला जा सकता है। तब बुराइयों के लिए जगह शायद बचे ही नहीं। मैं ऐसी ही छोटी-छोटी कोशिशों में विश्वास करता हूँ।

यह ऐसी ही एक छोटी सी कोशिश है।



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आपकी बीमा जिज्ञासाओंध्समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासाध्समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।




यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

अधर्मी और धर्म-विरोधी मैं


मेरे कस्बे में आए दिनों किसी न किसी साधु-सन्त के प्रवचन आयोजित होते रहते हैं। जब-जब भी ऐसा होता है, मेरी शामत आ जाती है।

साधु-सन्त के अथवा/और उनके मत के अनुयायी आग्रह करते हैं कि मैं ऐसे प्रवचनों में नियमित रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराऊँ। कोई पन्द्रह बरस पहले तक मैं ऐसा कर लिया करता था। अब नहीं करता। कर ही नहीं पाता।

बरसों तक ऐसे प्रवचन सुनने के बाद मुझे लगने लगा कि कोई भी साधु-सन्त नया कुछ भी नहीं कह रहा है। सनातन से चली आ रही, चिरपरिचित बातें दुहराई जा रही हैं। केवल भाषा का, वक्तृत्व शैली का और प्रस्तुति का अन्तर होता है। बातें सबकी सब, वही की वही। कुछ चीजों में जरूर अन्तर आया। ऐसे आयोजनों की संख्या बढ़ने लगी है, आयोजन अधिक व्यवस्थित होने लगे हैं, आयोजनों का प्रचार-प्रसार अधिक व्यवस्थित तथा अधिक आकर्षक तरीकों से होने लगा है। प्रचार-प्रसार में पहले आयोजन को प्राथमिकता दी जाती थी, अब सम्बन्धित साधु-सन्त को दी जाती है। याने, प्रचार अभियान व्यक्ति (साधु-सन्त) केन्द्रित हो गया है। साधु-सन्तों के नाम पर उनके अनुयायियों के संगठन बनने लगे हैं। आयोजनों की भव्यता और इस भव्यता के प्रदर्शन को प्रमुखता दी जाने लगी है। पाण्डालों में भीड़ बढ़ने लगी है। किसी-किसी साधु-सन्त के प्रवचानों में पाण्डाल छोटा पड़ जाता है।

एक घटना ने मेरा मोह-भंग न किया होता तो मैं भी इस सबका हिस्सा अब तक बना रहता। कोई पन्द्रह वर्ष पहले एक सन्त के, सात दिवसीय प्रवचन सुनने गया था। दो दिन तक तो सब ठीक-ठाक चला। तीसरे दिन गाड़ी पटरी से उतर गई। बिना किसी सन्दर्भ-प्रसंग के सन्तश्री ने अकस्मात कहना (इसे ‘सूचित करना’ कहना अधिक उचित होगा) शुरु कर दिया कि उनके अनुयायियों को आयकर विभाग के छापों का डर नहीं सताता। सन्तश्री के अनुसार, अनुयायियों का कहना था कि उन्होंने, सन्तश्री के चित्र अपने विभिन्न कमरों में और स्नानागारों के बाहर लगा रखे हैं। आयकर विभाग वाले जब-जब भी आते हैं, तब-तब वे, उन कमरों, स्नानागारों की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखते। मुझे लगा, ये सन्त नहीं, साधु वेश में आयकर विभाग से सेटिंग कराने वाला कोई कुशल और प्रभावी मध्यस्थ है।

एक और सन्त की कथनी और करनी में दुस्साहसपूर्ण अन्तर देखकर मैं हतप्रभ रह गया। विचित्र शैली में व्याख्यान देनेवाले ये सन्त अपने प्रत्येक प्रवचन में राजनीति को शौचालय निरुपित करते। किन्तु, उनके प्रवास के दौरान एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब उनके हाथों किसी राजनेता का सम्मान न हुआ हो। इन सन्तश्री ने मेरे कस्बे से प्रस्थान का अपना निर्धारित कार्यक्रम एक-एक कर पूरे तीन दिन स्थगित किया। वे चाहते थे कि राष्ट्रीय अथवा राज्य स्तर का कोई न कोई राजनेता उनके प्रस्थान के समय उपस्थित हो, उन्हें विदा दे। इसके लिए उन्हें मोबाइल पर एक के बाद एक अनेक राजनेताओं से बात करते देख कर मुझे गहरी निराशा हुई।

ये और ऐसे ही कुछ प्रसंग ऐसे रहे कि मैंने साधु-सन्तों के ऐसे प्रवचनों में जाना बन्द करना ही श्रेयस्कर समझा। सो, अब मैं ऐसे प्रवचन सुनने नहीं जाता और लोगों से चर्चा करने के बाद अनुभव करता हूँ कि मेरा निर्णय बिलकुल सही है।

लोग मुझसे पूछते हैं - ‘आप प्रवचन सुनने नहीं गए?’ मैं प्रति प्रश्न करता हूँ - ‘आप गए थे?’ वे हाँ में उत्तर देते हैं तो मैं पूछता हूँ - ‘महाराजजी की कौन सी बात आपको अच्छी लगी?’ जवाब मिलता है - ‘बात तो याद नहीं लेकिन महाराजजी व्याख्यान बहुत अच्छा देते हैं।’ मैं पूछता हूँ - ‘महाराजजी का कौन सा उपदेश आप अपने आचरण में उतार रहे हैं?’ जवाब मिलता है -‘उनका काम है कहना, अपना काम है सुनना। उन्होंने कह दिया, अपन ने सुन लिया। यह आचरण बीच में कहाँ से आ गया?’ मैं पूछता हूँ - ‘जब आप उनकी बात मानते नहीं तो सुनने क्यों जाते हैं?’ जवाब मिलता है - ‘जाना चाहिए। सब जाते हैं सो अपन को भी जाना चाहिए। नहीं जाएँगे तो लोग क्या कहेंगे? वहाँ जाकर आप भले ही कुछ मत सुनो। पर सबको नजर आना चाहिए कि आप धार्मिक हो, वहाँ गए हो।’ ऐसे जवाब सुनकर मुझे निराशा होती है।

मेरा विश्वास है कि इस देश के केवल सौ साधु-सन्त तय करलें तो देश की दशा और दिशा बदल सकती है। किन्तु एक भी सन्त ऐसा करने को तैयार नजर नहीं आता। मैं अनुभव करता हूँ कि सब अपने आप को, बड़ी सावधानी से केवल उपदेश तक सीमित रखते हैं, उपदेश से आगे बिलकुल नहीं बढ़ते। वे चाहें तो अतिक्रमण न करने, कर-चोरी न करने, यातायात के नियमों का पालन करने, वृक्षारोपण करने, पोलीथीन का उपयोग न करने जैसी ज्वलन्त बातों के लिए अपने अनुयायियों को संकल्पबद्ध कर सकते हैं। किन्तु एक भी साधु-सन्त यह जोखिम लेने को तैयार नजर नहीं आता। इन बिन्दुओं पर कुछ सन्तों से मेरी विस्तृत बात हुई। सबने निराश किया। मेरी धारणा है कि ये सब डरते हैं कि यदि इन्होंने लोगों को संकल्पबद्ध करना शुरु कर दिया तो इनके पाण्डाल खाली रह जाएँगे। कभी-कभी लगता है, सब अपनी-अपनी मार्केटिंग कर रहे हैं।

मेरे एक आत्मीय, अपने समाज के धार्मिक आयोजनों की व्यवस्थाएँ अत्यन्त सतर्कता, चिन्ता, समर्पण और निष्ठा से करते हैं। कभी-कभी ये आयोजन एक-एक माह की अवधि के होते हैं। वे अपना काम-धन्धा छोड़ कर आयोजन की व्यवस्थाएँ देखते हैं। मैं ने जब-जब उनसे कहा - ‘आप तो प्रतिदिन महाराजजी के प्रवचन सुनते हैं। आप भाग्यशाली हैं जो आपको इतना धर्म-लाभ होता है।’ तब-तब (हाँ, प्रत्येक बार) उन्होंने कहा - ‘मैं कोई व्याख्यान-आख्यान नहीं सुनता। व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी लेता हूँ, सो व्यवस्थाओं तक ही सीमित रहता हूँ। बाकी सब फालतू बाते हैं। सब धतिंगेबाजी है।’ मैं हतप्रभ रह जाता हूँ और हर बार कहता हूँ - ‘आप सचमुच में धार्मिक हैं। इतनी स्पष्टता तथा ईमानदारी से सच बोल रहे हैं और अपना धर्म निभा रहे हैं।’


लोगों के आग्रह के बाद भी मैं प्रवचन सुनने नहीं जाता हूँ तो वे कहते हैं - ‘आप अधर्मी और धर्म विरोधी हैं।’ मैं प्रति प्रश्न करता हूँ -‘मैं प्रतिदिन अपने घर में देव पूजा करता हूँ, हनुमान चालीसा, आदित्यहृदय स्तोत्र और श्रीगणेश अथर्वशीर्ष का तथा प्रति मंगलवार और शनिवार को सुन्दरकाण्ड का पाठ करता हूँ। वैष्णव सम्प्रदाय का हूँ सो तुलसीमाला पहनता हूँ। फिर भी मैं अधर्मी और धर्म विरोधी हूँ?’ वे कहते हैं - ‘क्या गारण्टी कि आप सच बोल रहे हैं? आपको यह सब करते हमने तो एक बार भी नहीं देखा!’ मैं कहता हूँ - ‘आप किसी भी दिन, अकस्मात चेकिंग कर लीजिए।’ वे कहते हैं -‘हमें अब यही काम रह गया है?’ मैं कहता हूँ -‘आप न तो मेरी बात पर विश्वास करने को तैयार हैं और न ही चेकिंग करने को। बताइए! आपकी तसल्ली के लिए मैं क्या करूँ?’ मुझे उत्तर मिलता है - ‘आप कहते हो तो मान लेते हैं। पर आप धार्मिक दिखते तो नहीं।’


मुझे लगता है, लोगों की इसी बात में हमारे साधु-सन्तों के प्रवचन आयोजनों का लक्ष्य उजागर हो जाता है। लोग धार्मिक बनें, इसमें किसी की रुचि हो न हो, लोग धार्मिक दिखें, इसमें सबकी रुचि अवश्य है। यह भी एक बड़ा कारण है जो मुझे ऐसे आयोजनों में जाने से रोकता है। मैं आचरण में, धार्मिक होने में विश्वास करता हूँ, प्रदर्शन में, धार्मिक दिखने में नहीं।


ऐसे क्षणों में मुझे विवेकानन्द याद आते हैं जिन्होंने साधु-सन्तों की अकर्मण्य सामाजिक भूमिका के प्रति असन्तोष प्रकट करते हुए कहा था कि देश के साधु-सन्तों को कृषि कार्य में लगा देना चाहिए और जिस किसान के पास बैल न हों, वहाँ बैल की जगह साधु-सन्तों को जोत देना चाहिए। विवेकानन्द का कहना था कि (उस समय) देश के प्रत्येक गाँव में औसतन तीन साधु पाए जाते हैं। ये साधु यदि इन गाँवों को अक्षर-ज्ञान देना शुरु कर दें तो पूरा देश मात्र एक महीने में साक्षर हो जाए।
हिन्दी साहित्य का भक्ति-काल, सामाजिक चेतना और सामाजिक परिवर्तन के सन्दर्भों में साधु-सन्तों की नेतृत्ववाली भूमिका का सुन्दर उदाहरण है। साधु-सन्तों की बातों को लोग चूँकि श्रद्धा-भाव से सुनते हैं, इसलिए सामाजिक बदलाव में वे (साधु-सन्त) चमत्कारी भूमिका निभा सकते हैं।


माकपा के पूर्णकालिक कार्यकर्ता और प्रगतिशील लेखक जसविन्दरसिंहजी गए दिनों रतलाम आए थे। मैं उनके लेखों का मुरीद हूँ। उनसे मुलाकात हुई और ऐसी ही तमाम बातें हुईं तो उन्होंने प्रख्यात शायर मुनव्वर राना का यह शेर मुझे थमा दिया -
ये शेख-ओ-बरहमन हमें अच्छे नहीं लगते।

जितने हम हैं, ये उतने भी सच्चे नहीं लगते।

यह भली भाँति जानते हुए कि सभी साधु-सन्त एक जैसे नहीं होते। अपवाद सब जगह होते हैं और मैंने चीजों का साधारीकरण करने की मूर्खता नहीं करनी चाहिए-मेरी धारणाएँ, मेरे विश्वास, मेरे निष्कर्ष मेरे साथ।

मैं जैसा भी हूँ, हूँ। मैं ऐसा ही अधर्मी और धर्म विरोधी ही ठीक हूँ।

आज मेरा चौंसठवॉं जन्‍म दिनांक है। मैं स्‍वयम् को यही उपहार दे रहा हूँ।

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धर्म और चक्करदार जलेबी

यह निठल्ला चिन्तन है। एकदम रूटीन वाला। फुरसतिया चिन्तन। जब करने को कोई काम न हो तो फिर यही काम हो जाता है।
हमारे जीवन में धर्म की भूमिका क्या है? वह हमें रास्ता दिखाता है या रास्ता रोकता है? बिना किसी बात के, गए कुछ दिनों से ये सवाल मेरी आँखों के आगे नाच रहे हैं।
नहीं। मैंने गलत कह दिया। बिना किसी बात के नहीं। बात तो हुई। तभी तो ये बातें मेरे मन में उगीं! कोई बात नहीं होती तो इन बातों की नौबत ही भला क्यों आती?
बढ़ती उम्र के साथ कुछ और बातों/चीजों में बढ़ोतरी होती जाती है। कुछ बीमारियाँ चुपचाप साथ हो लेती हैं और उन्हीं के साथ कुछ दवाइयाँ साथी बन जाती हैं। लेकिन इन सबसे पहले बढ़ोतरी होती है - चिन्ता में। परिवार छोटे हो गए, बच्चे पहले तो पढ़ने के लिए और अब पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरियों के लिए बाहर चले गए। घर में बूढ़े पति-पत्नी ही रह गए। ये पति-पत्नी अपनी जवानी के दिनों में अपने माता पिता का कहा/बताया काम करते थे, अब बच्चों का कहा/बताया काम करते हैं। तन साथ नहीं देता। मन तो उससे पहले ही साथ छोड़ चुका होता है। किन्तु काम तो करने ही पड़ते हैं। कभी बिजली का बिल भरना है , कभी टेलीफोन का तो कभी पानी का। कभी पेण्ट रफू करानी है तो कभी वाशिंग मशीन की दुरुस्ती के लिए मिस्त्री की तलाश करनी है। मन ही मन भुनभुनाते रहते हैं, खीझते, चिड़चिड़ाते रहते हैं और इसी तरह ‘भन्न-भन्न’ करते हुए सारे काम करते रहते हैं। ये और ऐसे सारे काम करते हुए एक चिन्ता सबसे ऊपर सवार रहती है - कहीं बीमार न पड़ जाएँ। पराश्रित न हो जाएँ। ऐसा कुछ हो गया तो सेवा-सुश्रुषा तो दूर की बात रही, पूछ-परख करने कौन आएगा? सो, बिना किसी के कहे, अपनी ही ओर से, जबरन ही बीसियों परहेज खुद पर लाद लेते हैं। हाथ-पैर चलते रहने चाहिएँ-यह बात चेतन और अचेतन में चैबीसों घण्टे बराबर बनी रहती है।
इसी चिन्ता से ग्रस्त हो, मैं और मेरी उत्तमार्द्ध प्रति शाम एक छोटे से जिम में जाते हैं। बीस-बीस मिनिट ट्रेड मिल पर चलते हैं और पाँच-पाँच मिनिट की कसरतें कुछ अन्य मशीनों पर करते हैं। सबसे अन्त में ‘योगा’ के नाम पर थोड़ी-बहुत कसरत कर लौट आते हैं। कोई पचास-पचपन मिनिट का यह उपक्रम हमें ‘फिट’ बने रहने के भ्रम का सुख प्रदान करता है।
गौशाला के सामने स्थित इस जिम पर जाने के लिए हमें काटजू नगर, सुभाष नगर, हाट रोड़ पार करना होता है।
कुछ दिन पहले, यही कोई पाँच-छः दिन पहले हमने जैसे ही काटजू नगर में प्रवेश किया तो सड़क बन्द मिली। ‘जगराते’ के लिए सड़क को तीनों ओर से घेर कर पाण्डाल बना दिया गया था। मंच बना था जिसके दोनों ओर, भारी-भरकम आकार वाले चार-चार स्पीकर चिंघाड़ रहे थे। सब तरफ मिला कर कोई अठारह-बीस हेलोजन जल रही थीं। बिजली का अस्थायी कनेक्शन लेने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। बिजली के तार से सीधे ही करण्ट ले लिया गया था। न तो मंच पर कोई था न पाण्डाल में। और तो और साउण्ड सिस्टम के पास भी कोई नहीं था। हमें चिढ़ तो हुई किन्तु मुख्य सड़क के पास ही छोटा रास्ता उपलब्ध था। हम उसी से निकल लिए।
किन्तु यह क्या? जैसे ही सुभाष नगर में जैसे ही घुसे तो पाया कि वैसा ही एक धर्म-पाण्डाल और मंच रास्ता रोके, तना खड़ा है। वैसी ही कानफोड़ू-प्राणलेवा ध्वनि व्यवस्था और वैसी ही चोरी की बिजली। फर्क एक ही था-काटजू नगर में मंच हमारे सामने था, यहाँ हम मंच के पिछवाड़े बाधित हो खड़े थे। यहाँ पास में कोई छोटा रास्ता नहीं था। श्रीकृष्ण सिनेमा के परिसर में होकर, लम्बा रास्ता पार कर हमने हाट रोड़ पकड़ी और जिम पहुँचे - लगभग दस/बारह मिनिट विलम्ब से।
लौटते में जानबूझकर बाजारवाला लम्बा रास्ता पकड़ा ताकि बिना किसी व्यवधान के घर पहुँच सकें। किन्तु ‘मेरे मन कछु और है, कर्ता के मन कछु और’ वाली बात हो गई। चाँदनी चौक वाले चक्कर पर पहुँचते ही देखा, हरदेवलाला की पीपली वाला चैराहा, चारों दिशाओं से बन्द था। यहाँ का पाण्डाल और मंच तो पहलेवाले दोनों पाण्डालों और मंचों का परदादा था और इसी कारण यहाँ लगी हेलोजन भी ‘शतकवीर’ बनी हुई थीं। हाँ, एक अन्तर था। पहलेवाले दोनों पाण्डालों के लिए एक-एक स्थान से ही बिजली चोरी की गई थी। यहाँ आठ-दस खम्भों से बिजली के तार जोड़े गए थे। पहलेवाले दोनों पाण्डालों के दोनों ओर ही स्पीकर लगे हुए थे जबकि यहाँ सड़क के दोनों ओर, छः-छः स्थानों पर दो-दो स्पीकर (याने कुल जमा चैबीस स्पीकर) टँगे हुए थे।
हमें कुछ देर रुकना पड़ा-यह तय करने के लिए कि अब कौन से रास्ते से घर जाया जाए। मैं कोई फैसला लेता उससे पहले ही, परम धर्मिक मानसिकतावाली मेरी उत्तमार्द्ध (वे, देव पूजा किए बिना अन्न ग्रहण नहीं करतीं और एकादशी, पूर्णिमा पर सत्यनारायण व्रत कथा का पाठ करती हैं) भन्ना गई। मानो दसों दिशाओं से पूछ रही हो, कुछ इसी तरह से, जोर से बोलीं - ‘यह सब क्या है?’ उन्होंने न तो मुझसे यह सवाल किया था और न ही मैं इस सबके लिए जवाबदार ही था। किन्तु उनक सवाल का जवाब देनेवाला वहाँ और कोई था भी तो नहीं? सो मैंने तसल्ली से कहा - ‘धर्म का मामला है।’ वे बोलीं - ‘ये ऐसा कैसा धर्म है? धर्म रास्ता रोकता है या रास्ता देता/बताता है?’ झुंझलाहट तो मुझे भी भरपूर हो रही थी (मोटरसायकिल जो मुझे चलानी पड़ रही थी!) किन्तु हम दोनों मिलकर भी वहाँ कर ही क्या सकते थे? सो मैंने और अधिक तसल्ली से कहा - ‘धर्म के मामले में मेरी जानकारी आपसे कम है। आप बेहतर जानती हैं। मैं क्या कहूँ?’ चूँकि जवाब देने की मूर्खता मैं कर चुका था सो पलटवार भी मुझ पर ही होना था। वे अधिक तैश में बोलीं -‘मुझे चिढ़ा रहे हैं? तो सुनिए! यह धर्म नहीं है। यह तो अधर्म है। धर्म तो जीवन को आसान और सहज-सुगम बनाता है। अवरोधों को हटाता है। मनुष्य को चक्करों में डालता नहीं, चक्करों से बचाता है। वह चोरी-चकारी के लिए प्रेरित और प्रवृत्त नहीं करता। वह तो खुद प्रकाश है। उसे प्रकाशवान बनाने की कोई भी कोशिश पाखण्ड है।’
मुझे अच्छा तो लगा किन्तु अचरज भी हुआ। सुनता आया हूँ कि आवेश के आते ही व्यक्ति का विवेक साथ छोड़ देता है। किन्तु यहाँ तो ‘भरपूर आवेशित’ मेरी उत्तमार्द्ध, विवेकवान बनी हुई थीं। मैंने उकसाया - ‘तो यह जो आज अपन दोनों ने देखा है, वह धर्म नहीं, पाखण्ड है?’ तुर्शी-ब-तुर्शी वे अविलम्ब बोलीं - ‘और नहीं तो क्या? यह पाखण्ड के सिवाय और क्या है?’
इसके बाद मेरे पास कहने-सुनने को कुछ भी नहीं बचा था। श्रीमतीजी ने धर्म को व्याख्यायित कर दिया था। देख रहा था कि उनका गुस्सा कम नहीं हो रहा था। उन्हें सहज करने के लिए पूछा -‘बताओ! कौन से रास्ते से चलें?’ मानो उन्हें इस सवाल का अनुमान हो गया था। छूटते ही बोली -‘जिस रास्ते में धर्म आड़े नहीं आए।’ चौमुखी पुल की तरफ गाड़ी मोड़ते हुए मेरी हँसी छूट गई। उन्होंने पूछा -‘क्यों? हँसे क्यों? मैंने कुछ गलत कहा?’ मैंने कहा -‘आपने बिलकुल गलत नहीं कहा। धर्म तो कभी किसी के आड़े नहीं आता। धर्म का निर्माण तो मनुष्य ने ही किया है। सो, वह तो अपने जन्मदाता के साथ ही चलता है। उसके आचरण से प्रकट होता है। धर्म के नाम पर किए जानेवाले कर्मकाण्ड, प्रदर्शन की शकल लेते हुए पाखण्ड में बदल जाते हैं। और तब, धार्मिक होने के बजाय धार्मिक दिखना अधिक जरूरी तथा अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।’
मेरी बात सुनकर वे आवेश-मुक्त हो बोलीं - ‘आप तो उपदेश देने लगे। जल्दी चलिए वर्ना मुझे डर है कि आप इन तीनों में से किसी एक मंच पर विराजमान न हो जाएँ। इस क्षण आपका धर्म यही है कि जल्दी घर पहुँचाएँ। भूख लग रही है। आप तो कुछ करेंगे-धरेंगे नहीं। रोटी मुझे ही बनानी है। आप घर पहँचाने का धर्म निभाइए ताकि मैं पेट भरने का उपक्रम सम्पन्न करने का धर्म निभा सकूँ।’
तब से लेकर अब तक, इतना सारा विवेचन हो जाने के बाद भी मैं, मनुष्य के जीवन में धर्म की भूमिका को लेकर निठल्ला चिन्तन किए जा रहा हूँ। यह ऐसी चक्करदार जलेबी है जिसका न कोई आदि है न कोई अन्त।
इन दिनों इसी में व्यस्त हूँ।
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

दादाजी का व्यवहार और मेरा भय

‘हाँ भई! हाँ, मुझे तो इस घर में होना ही नहीं चाहिए।’ अड़सठ वर्षीय दादाजी क्षुब्ध, कुपित और आक्रोशित होकर अपने, दस वर्षीय पोते पर कटाक्ष कर रहे थे-घर के बाहर, ऐन सड़क पर आकर। इतनी जोर से कि आसपासवाले और आने-जानेवाले, न चाहकर भी सुन लें। ऐसा ही हुआ भी। सुनकर कुछ ने चैंककर देखा और अगले ही क्षण अनदेखा-अनसुना कर अपने-अपने काम में लग गए। मैं वहाँ पहुँचा ही था। सो, सुना तो मैंने भी। मैने भी कुछ नहीं कहा। पोते की तरफ देखा। वह कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। समझता भी कैसे? उसकी उम्र तो अभी ‘अभिधा’ समझने की भी नहीं थी और दादाजी ‘व्यञ्जना’ में कहे जा रहे थे! सकपकाया हुआ पोता कुछ क्षण दरवाजे पर खड़ा रहा, फिर अन्दर चला गया।


दादाजी से मेरा परिचय कोई बीस वर्षों से है। घनिष्ठता और अनौपचारिक सहजता की सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ यह परिचय आज घरोपा बन गया है। मैं उनके रसोईघर तक आता-जाता हूँ, खाने की कोई मनपसन्द चीज हो तो उठा लेता हूँ और बाज वक्त उनकी बहू से फरमाइशकर अपनी मनपसन्द चीज बनवा भी लेता हूँ। वास्तविकता तो भगवान ही जाने किन्तु मुझे लगता है कि मेरी ऐसी हरकतों से दादाजी ही नहीं, पूरा परिवार प्रसन्न होता है।


गुस्से के मामले में दादाजी अपने ‘पिता के आज्ञाकारी सुपुत्र’ हैं। उन्हें कब, किस बात पर गुस्सा आ जाएगा, वे खुद नहीं जानते। किन्तु जब तक उनकी पत्नी जीवित थीं तब तक वे फिर भी स्वयम् को नियन्त्रित कर लेते थे। कोई साढ़े चार-पाँच वर्ष पूर्व उनकी पत्‍नी की मृत्यु के बाद से उनके व्यवहार में अनपेक्षित परिवर्तन आ गया है जिसके चलते गुस्सा करना उनका मूल, प्राथमिक, अन्तिम तथा एक मात्र काम हो गया है। घर से बाहर वे पहले भी लोकप्रिय थे और आज भी हैं। किन्तु बाहरवालों के साथ किए जाने वाला उनका व्यवहार घर में तो पल भर भी नजर नहीं आता। यूँ तो हम सब दोहरी जिन्दगी ही जीते हैं - घर में कुछ और तथा बाहर कुछ और। किन्तु इतना अन्तर तो मैंने अब तक किसी के व्यवहार में नहीं देखा जैसा कि दादाजी के व्यवहार में है। घर में तो अब उनका ‘तामस स्वरूप’ ही स्थायी भाव बन गया है। इकलौता बेटा, उसकी पत्नी, एक पोती और एक पोता - सब चौबीसों घण्टों दहशत में ही रहते हैं। ये चारों कुछ भी करें, दादाजी सदैव कुपित, आक्रोशित ही रहते हैं। बेटा-बहू पूछते हैं - ‘आज खाने में क्या बनाएँ?’ दादाजी कहते हैं -‘जो तुम्हें जँचे, बनालो। मैं सब खाता हूँ।’ लेकिन जब थाली सामने आती है तो आँखें तरेरते हुए, सब्जी में से आलू निकाल कर एक तरफ कर देते हैं। इससे सबक लेकर अगले दिन बहू, भरवाँ शिमला मिर्च परोसने से पहले उसमें से आलू निकालने लगती है तो दादाजी कहते हैं -‘क्यों निकाल रही हो? मुझे आलू से परहेज थोड़े ही है।’ सवेरे बहू पूछती है -‘नाश्ते में क्या लेंगे? उपमा या पोहा?’ दादाजी कहते हैं -‘जो जँचे, बना लो। मैं सब खाता हूँ।’ बहू जब प्लेट में उमपा रखती है तो खिन्न हो, दादाजी कहते हैं -‘उपमा बना लिया? चलो, खा लेता हूँ। वैसे, पोहा बनाती तो अच्छा होता।’


‘थ्री इडियट्स’ लगी। पहले ही सप्ताह में बच्चों ने देखने का कार्यक्रम बनाया। चारों ने दादाजी से आग्रह किया। दादाजी ने तत्क्षण, दो-टूक मना कर दिया - ‘तुम लोग जाओ। सेकण्ड (नाइट) शो मुझे सूट नहीं करता। यह मेरे सोने का समय होता है।’ बहू ने कहा - ‘तो वहीं सो जाइएगा।’ दादाजी तैयार नहीं हुए। चारों ने सिनेमा हॉल में अपनी कुर्सियाँ सम्हाली ही थीं कि दादाजी ने बेटे को मोबाइल घनघनाया - ‘मेरे लिए टिकिट की व्यवस्था करो। मैं भी फिल्म देखने आ रहा हूँ।’ एडवांस बुकिंग वाले पहले सप्ताह में, करण्ट बुकिंग में एक टिकिट मिलना सम्भव ही नहीं था। बेटे ने कहा -‘टिकिट तो नहीं मिलेगा लेकिन आप तैयार रहिए। मैं आता हूँ। मेरे टिकिट पर आप फिल्म देख लीजिएगा। मैं घर पर रह लूँगा।’ दादाजी बिदक गए। फौरन बोले -‘मत आ। वहीं रह। तू मेरे साथ फिल्म नहीं देखना चाहता इसलिए बहाने बना रहा है।’ कल्पना की जा सकती है कि बेटे ने फिल्म कैसे देखी होगी और उसे कितना आनन्द आया होगा।


शाम को पोता पूछता है - ‘दादाजी! मैं खेलने जाऊँ?’ रूखेपन से दादाजी का जवाब होता है -‘मुझसे क्या पूछता है? जो तेरे जी में आए, कर।’ पोता किलकारी मारकर बच्चों के झुण्ड में शरीक हो जाता है। पाँच मिनिट भी नहीं बीतते कि दादाजी की टेर पूरे मुहल्ले में गूँजने लगती है - ‘क्यों रे! कहाँ चला गया तू? यह खेलने का वक्त है या पढ़ने का?’


छुट्टी के दिन, सवेरे-सवेरे पोती ने टेलिफोन की तरह हाथ बढ़ाया ही था कि दादाजी ने टोका -‘किसे फोन कर रही हो?’ सहमी हुई पोती ने घुटी-घुटी आवाज में कहा - ‘मेरी फ्रेण्ड का बर्थ डे है। उसे विश कर रही हूँ।’ ‘तो इसमें इतना डरने की क्या बात है? करो! करो! बर्थ डे पर ग्रीट करना तो बहुत अच्छी बात है।’ दादाजी ने कहा। उत्साहित हो, पोती ने फ्रेण्ड को फोन लगाया, विश किया और ‘कल मिलते हैं। तभी बात करेंगे।’ कह कर फोन रख दिया। दादाजी फौरन बोले -‘जब कल मिलना ही है और कल बात करनी ही है तो आज फोन करने की क्या जरूरत थी? फालतू में पैसा और वक्त बरबाद किया। ये फोन-वोन करने की आदत बदलो और पढ़ाई पर ध्यान दो।’


दादाजी यूँ तो रेल्वे में हेड क्लर्क थे किन्तु पढ़ाने का काम बहुत अच्छा कर सकते हैं। जिस भी घर में मिलने जाते हैं, वहाँ बच्चों को पढ़ाई में मदद करते हैं। किन्तु घर में ऐसा नहीं करते। बेटे ने जब-जब भी पोते को पढ़ाने का कहा तो हर बार जवाब मिला -‘मुझसे नहीं होता यह सब। अपने बच्चों की पढ़ाई की चिन्ता और व्यवस्था खुद करो।’ किन्तु अभी-अभी, जब परीक्षा शुरु हुई तो पोते को घेर कर बैठने लगे। उसकी कॉपियाँ देख-देख कर उसकी अध्यापिकाओं को कोसते हैं, उनकी आलोचना करते हैं और उनसे पूछे जाने वाले सवाल अपने पोते से करते हैं। अब दादाजी चाहते हैं कि उनका पोता लगातार छः-छः घण्टे उनके पास बैठकर पढ़े। इतनी देर, लगातार बैठ पाना और पढ़ते रहना पोते के लिए सम्भव नहीं होता। सो, वह ऊँचा-नीचा होने लगता है। उसकी ऐसी किसी भी हरकत पर दादाजी उसे प्रताड़ित करते हैं। उस दिन भी यही हुआ था। परेशान होकर पोते न कह दिया -‘क्या दादाजी! आप तो बहुत परेशान करते हैं।’ उसी के जवाब में, घर से बाहर, सड़क पर आकर दादाजी ने जोर से कहा था-‘हाँ भई! हाँ, मुझे तो इस घर में होना ही नहीं चाहिए।’


दादाजी का यह व्यवहार मुझे भयभीत कर रहा है। जो कुछ मैंने लिखा है, वह सब मेरे सामने ही हुआ है। उनके बेटे-बहू और पोती-पोते की दशा देखी नहीं जाती। किन्तु मैं उनकी कोई मदद भी नहीं कर पाता। दो-तीन बार दादाजी को टोका तो हर बार मासूमियत से प्रति प्रश्न किया -‘क्या कर रहा हूँ मैं? मैं तो कुछ भी नहीं करता। जो ये देते हैं, खा लेता हूँ। जैसा कहते हैं, वैसा कर लेता हूँ। मैं तो कभी कोई फरमाइश भी नहीं करता। ये जैसा रख रहे हैं, वैसा रह रहा हूँ। मैं तो किसी से कुछ नहीं कहता।’


मैं जब-जब उनसे मिल कर लौटता हूँ, अपने आप से डरने लगता हूँ। वे अड़सठ के हैं, मैं तरेसठ का। मैं उनके पीछे-पीछे ही चल रहा हूँ। कल को मैं भी दादाजी बनूँगा। क्या मैं भी ऐसा ही हो जाऊँगा? क्या मेरे कारण भी मेरे बेटे-बहू, पोते-पोती इसी तरह त्रस्त, चौबीसों घण्टे भयभीत, सहमे-सहमे रहेंगे? यह एक व्यक्ति विशेष का प्रकरण है या सामान्य मानव मनोविज्ञान का? क्या सब ऐसे ही हो जाते हैं?


दादाजी के इस व्यवहार का सीधा प्रभाव इस समय तो मुझ पर यह हुआ है कि घर में मेरा बोलना एकदम कम हो गया है। दो-दो, तीन-तीन घण्टे मैं बिना बोले रहने लगा हूँ। कहीं यह भी घरवालों पर अत्याचार तो नहीं?


जीवन के इस मोड़ पर स्वयम् के प्रति इतना अविश्वस्त, इतना भयभीत रहना मुझे असहज कर रहा है।
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महिला दिवस का क्षेपक

यह घटना मेरे कस्बे में आठ मार्च को घटी। आठ मार्च याने अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस।

इन दिनों यहाँ नौंवीं और ग्यारहवीं कक्षाओं की परीक्षाएँ चल रही हैं। ये परीक्षाएँ स्थानीय स्तर पर हो रही हैं, बोर्ड स्तर पर नहीं। जैसा कि चलन हो गया है, नकल करने (और अध्यापकों द्वारा नकल कराने) का काम धड़ल्ले से चलता है। इसकी रोकथाम के लिए जाँच मण्डलियाँ घूम-घूम कर छापामारी करती रहती हैं। इसी क्रम में एक जाँच मण्डली ने, एक शासकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय पर छापा मारा। वहाँ परीक्षा प्रारम्भ हुए दस-पाँच मिनिट ही हुए थे। एक-एक कमरे का चक्कर लगाने के बाद मण्डली के सदस्यों को सुखद आश्चर्य हुआ कि लगभग सवा दो सौ (नवमीं कक्षा की लगभग 150 और ग्यारहवीं कक्षा की लगभग 70) लड़कियों में से एक भी लड़की नकल नहीं कर रही थी।

किन्तु जाँच मण्डली की यह खुशी कुछ पल भी नहीं ठहर पाई। अचानक एक लड़की कसमसाई तो मण्डली के एक अनुभवी सदस्य को सन्देह हुआ। उसने लड़की को टोका और उसकी तलाशी ली। लड़की की जेबों में से अधिक नहीं, कोई पाँच-सात पर्चियाँ बरामद हुईं। बस! फिर क्या था? एक के बाद एक, सब लड़कियों की तलाशी ली गई तो सब हक्के-बक्के रह गए और सबके छक्के छूट गए। लगभग प्रत्येक लड़की के पास से, नकल करने के लिए तैयार की गई एक से अधिक पर्चियाँ बरामद हुईं। सब पर्चियों को एकत्र किया गया गया तो विद्यालय के कार्यालय की, कचरे की दो टोकरियाँ (डस्ट बिन) लबालब भर गईं।

प्रकरण तो खैर एक भी लड़की का नहीं बना क्योंकि नकल करते हुए कोई नहीं पकड़ी गई थी किन्तु जाँच दल के सदस्य हतप्रभ थे। घटना का विवरण सुनाते हुए उनमें से एक ने मुझसे कहा - ‘नकल करने के मामले में लड़कों को दुस्साहस की सीमा छू जाते देखना तो अब हमारी आदत में आ गया है। किन्तु लड़कियाँ ऐसा साहस प्रायः नहीं करतीं। लेकिन यहाँ? बाप रे! इन्होंने तो लड़कों को एक मुश्त, थोक के भाव, पीछे छोड़ दिया। यहाँ तो सबकी सब साहसी निकलीं।’

यह समाचार अलगे दिन अखबारों में तीन कॉलम शीर्षक सहित प्रकाशित हुआ। मुझे अपना जमाना याद आ गया। तब यदि कोई लड़का नकल करते पकड़ा जाता तो उसके माँ-बाप लज्जा के मारे, दो-तीन दिनों तक सहज नहीं हो पाते थे और लड़के की दुर्गत हो जाती थी। किसी लड़की के नकल करने की बात तो तब कल्पनातीत ही होती थी। आज मैं सोच रहा हूँ कि अखबारों में यह खबर पढ़कर कितने पालकों को शर्म आई होगी और कितनों ने अपनी लड़कियों को टोका होगा।

मेरी चिन्ता सुन कर मेरी उत्तमार्द्ध ने अपने सम्पूर्ण आत्म विश्वास से कहा - ‘माँ-बाप पूछते और उन्हें शर्म तब आती जब उन्होंने अखबार पढ़ा होगा। मँहगाई के इस जमाने में अखबार खरीद पाना उनके बस की बात नहीं। और रही पढ़ने की बात! तो उन बेचारों को दो जून की रोटी और अपनी बेटी की फीस की जुगाड़ से फुर्सत मिले तो अखबार पढ़ें। और योग-संयोग से यदि किसी ने पढ़ भी लिया होगा तो यही कहा होगा कि उनकी बेटी ने कौन सा अनोखा काम कर दिया? सारा जमाना यही तो कर रहा है?’

मैं निरुत्तर हो गया।

यह सब मेरे कस्बे में हुआ और ऐन अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर हुआ।
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हिन्दी का आश्वस्ति पुरुष

भगवान भला करे, कर सलाहकार इन्दरमलजी जैन वकील साहब का जो उन्होंने मुझे आयोजन का निमन्त्रण-पत्र दे दिया और मुझे अनामन्त्रित श्रोता होने से बचा लिया। यह निमन्त्रण-पत्र नहीं मिलता तो भी मैं उस आयोजन में जाता ही। आयोजन था - रतलाम चार्टर्ड अकाउण्टण्ट्स सोसायटी और कर सलाहकार परिषद् रतलाम द्वारा, केन्द्रीय बजट 2010 के प्रस्तावों पर परिचर्चा। बजट के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव मुझ पर भी वे ही और उतने ही होते हैं जो एक सामान्य मध्यमवर्गीय व्यक्ति पर होते हैं। किन्तु ऐसी परिचर्चाओं का लाभ मुझे मेरे बीमा व्यवसाय में मिलता है। ऐसी परिचर्चाओं में मिलनेवाली, विशेषज्ञता वाली महत्वपूर्ण सूचनाएँ मेरे भावी और वर्तमान पालिसीधारकों के बीच मुझे समझदार और प्रभावी बनाती हैं।


सूचनाएँ तो इस बार भी मुझे बहुत सारी मिलीं किन्तु इस बार मुझे, हिन्दी के सन्दर्भ में बोनस भी मिला। यह बोनस था - इन्दौर के युवा कर सलाहकार श्री मनीष डफरिया को सुनने का रोमांचक और आश्वस्तिदायक अनुभव।



मनीष अभी चालीस पार भी नहीं हुए होंगे। उनकी जड़ें रतलाम में ही हैं। उनका जन्म रतलाम में ही हुआ। उनके बारे में न तो पहले कुछ सुना और न ही उन्हें देखा। बस, दैनिक भास्कर में उनकी कुछ टिप्पणियाँ अवश्य पढ़ी थीं। किन्तु मुझ जैसा कुटिल व्यक्ति, ऐसी टिप्पणियों से आसनी से प्रभावित नहीं होता। सो, मैने मनीष का नोटिस कभी नहीं लिया। किन्तु सात मार्च को उनका व्याख्यान सुनने के बाद उनकी अनदेखी कर पाना न तो उस समय सम्भव हो पाया और न ही आगे हो सकेगा।



स्थिति यह रही कि कार्यक्रम समाप्ति के बाद मनीष से मिलने के लिए मैं देर तक रुका रहा और उनके उद्बोधन के लिए उन्हें विशेष रूप से बधाइयाँ दीं।



अपने उद्बोधन के पहले ही वाक्य से मनीष ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। मुझे उम्मीद थी कि अपनी बात कहने के लिए वे अंग्रेजी का ही सहारा लेंगे जिसे समझने के लिए मुझे अतिरिक्त रूप से सतर्क/सावधान रहना पड़ेगा और अतिरिक्त परिश्रम भी करना पड़ेगा। किन्तु मनीष ने सुखद रूप से मुझे नाउम्मीद किया। वे हिन्दी में ही न केवल शुरु हुए अपितु आज के दौर के युवाओं की अपेक्षा बहुत ही सुन्दर और लगभग निर्दोष हिन्दी में बोले। किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने अंग्रेजी से परहेज किया। वे अंग्रेजी में भी बोले और पूरी सहजता और धड़ल्ले से बोले। कोई पचहत्तर मिनिट का उनका व्याख्यान सचमुच में धाराप्रवाह था। वे या तो साँस लेने के लिए रुके या पानी पीने के लिए या फिर बिजली चले जाने के कारण। किन्तु केवल धराप्रवहता ही उनके व्याख्यान की विशेषता नहीं थी। स्पष्ट उच्चारण, धीर-गम्भीर स्वर, शब्दाघात का उन्होंने सुन्दर उपयोग किया। उन्हें शायद भली प्रकार पता था कि उनका विषय भाषा के सन्दर्भ में नीरस और ‘निर्जीव तकनीकी’ है। सो, रोचक उदाहरणों से उन्होंने इन दोनों दोषों को सफलतापूर्वक दूर किया। यही कारण था कि सवा घण्टे के उनके भाषण में लोगों को झपकी लेने का एक भी क्षण नहीं मिल पाया। उन्होंने श्रोताओं को भरपूर गुदगुदाया और लोगों की मुक्त कण्ठ वाहवाही लूटी। उनकी सफलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वे सहायक वक्ता थे किन्तु प्रमुख वक्ता के रूप में पहचाने और स्वीकार किए गए। किन्तु जिस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह थी - उनका व्याख्यान, अधिकार भाव और आत्म विश्वास से लबालब था। ये दोनों तत्व उन्हीं व्यक्तियों के व्याख्यानों में आ पाते हैं जिन्हें अपने विषय की केवल विशेषताएँ ही नहीं, कमियाँ और दोष भी मालूम हों। विषय मनीष पर क्षण भर भी हावी नहीं हो पाया। उल्टे, पूरे पचहत्तर मिनिट तक वे विषय को, एक कुशल नट की तरह, मन माफिक अन्दाज में अंगुलियों पर नचाते रहे।
बजट जैसे, तकनीकी शब्दावली वाले विषय पर निर्दोष हिन्दी में ऐसे अधिकार भाव और आत्म विश्वास से धाराप्रवाह बोलते हुए मैंने अब तक किसी को नहीं देखा। सो, मनीष डफरिया तो मेरे लिए ‘हिन्दी के आश्वस्ति पुरुष’ बन कर सामने आए। यही मेरे लिए बोनस रहा। हिन्दी की वर्तमान दुर्दशा को लेकर मेरे मन में जो निराशा, क्षोभ और आक्रामक-आवेश उपजता रहता है, मनीष के इस व्याख्यान से इस सबमें थोड़ी देर के लिए ही सही किन्तु भरपूर कमी मैने अपने आप में अनुभव की।



मुझे बाद में मालूम हुआ कि मनीष को ऐसे व्याख्यान देने का यथेष्ठ अभ्यास है और उनके श्रोताओं की संख्या प्रायः की ढाई-तीन सौ तो होती ही है। वे इन्दौर स्थित, आई आई एम में, आयकर विषय के प्राध्यापक भी हैं।



मनीष की सफलता और शिखरों पर उनकी कीर्ति पताका का लहराना सुनिश्चित और असंदिग्ध है। उम्मीद करें कि वे हिन्दी का हाथ और साथ कभी नहीं छोड़ेंगे अपितु हिन्दी को तथा हिन्दी के माध्यम से खुद को विशिष्ट रूप से स्थापित कर वैसी ही अपनी पहचान भी बनाएँगे।



मनीष! अच्छी हिन्दी आपकी और आप हिन्दी की पहचान बनें। यह आज की आवश्यकता है।



शुभ-कामनाएँ।
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मूर्तिभंजक शिल्पकारों का देश

देश के एक सौ सर्वाधिक विश्वसनीय लोगों की सूची बनाने के लिए, ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ द्वारा कराए गए सर्वेक्षण के परिणामों वाला समाचार मैंने ध्यान से, एकाधिक बार पढ़ा। पढ़कर मुझे खुशी कम और हैरानी तथा चिन्ता अधिक हुई।


इस सूची के प्रथम दस व्यक्तियों में एक भी राजनीतिक व्यक्ति शामिल नहीं है। प्रथम दस में वैज्ञानिकों, उद्यमियों, कलाकारों, खिलाड़ियों को स्थान मिला है जबकि राजनीतिक व्यक्तियों को, सूची के अन्तिम दस में स्थान मिला है। मायावती ने, अन्तिम से प्रथम अर्थात् सौवें स्थान पर कब्जा किया। प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह को अवश्य ही सातवाँ स्थान मिला है किन्तु उन्हें ‘राजनीतिक’ मान लेना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पा रहा है। मेरे कस्बे में आनेवाले किसी भी अखबार ने ग्यारहवें से लेकर नब्बेवें स्थान तक की सूची नहीं छापी है इसलिए नहीं पता कि इन अस्सी स्थानों पर कौन-कौन विराजमान हुए।


व्यावसायिक वर्गों की सूची में शिक्षकों को पहला, अग्नि शमन सेवाओं को दूसरा, किसानों को तीसरा, वैज्ञानिकों और सशस्त्र बलों को संयुक्त रूप से चैथा स्थान मिला है। चिकित्सकों, विमानचालकों और शल्य चिकित्सकों को इनके बाद स्थान मिला है।
‘रीडर्स डाइजेस्ट’ ने साफ-साफ कहा कि सर्वेक्षण के ये परिणाम पूरी तरह से वैज्ञानिक नहीं हैं किन्तु इसके बावजूद, ये जनमानस को प्रतिबिम्बित तो करते ही हैं।


इस सूची पर मैंने जितने भी मिलनेवालों से चर्चा की, राजनीतिक लोगों को खारिज किए जाने पर प्रत्येक ने, चहकते हुए प्रसन्नता ही व्यक्त की। साफ था कि यदि उन्हें भी सर्वेक्षण में शामिल होने का मौका मिलता तो वे भी नेताओं को अन्तिम स्थान ही देते।


मैं हैरान हूँ। चिन्तित भी। मैं अपने राजनेताओं को प्रथम दस में देखना चाहता हूँ। हमने संसदीय लोकतन्त्र अपनाया है जिसके संचालन और क्रियान्वयन का एक मात्र माध्यम है - राजनीति। यह त्रासद विडम्बना ही है कि आज राजनीति सबसे गन्दी चीज और राजनेता सबसे घटिया, सर्वथा अविश्वसनीय साबित किए जा चुके हैं। हमारे नेताओं को हमने ही तो ‘नेता’ बनाया हुआ है! हम ही इन्हें चुन कर भेजते हैं। जैसे हम हैं, वैसे ही हमारे नेता हैं। यदि ‘नेता’ हमारे समाज का सबसे घटिया और हेय कारक बन कर रह गया है तो यह तो हमारी ही विफलता नहीं है? हम अपने आप को ही नहीं लतिया रहे हैं? हम कैसे लोग हैं कि अपनी ही बनाई हुई मूर्तियों को अपूजनीय घोषित कर, उन्हें तोड़ कर खुश हो रहे हैं? हम ही तो वह कच्चा माल हैं जिससे नेता नामवाला ‘फिनिश्ड प्रॉडक्ट’ ‘लोक फैक्ट्री’ से बाहर आ रहा है। अपनी ही बनाई मूर्तियों को तोड़कर खुश होनेवाले हम लोग कब विचार करेंगे कि अपनी घटिया गुणवत्ता के लिए खुद मूर्ति कभी दोषी नहीं होती। कहा गया है कि मूर्ति इसलिए पूजनीय नहीं होती क्योंकि उसमें देवता वास करते हैं। वह तो इसलिए पूजनीय होती है क्योंकि वह हथौड़े-छेनियों के असंख्य प्रहार सहती है। हम मूर्तियाँ तो बनाते हैं किन्तु तराशने का परिश्रम करने से बचते हैं। भाटे (पत्थर) पर सिन्दूर पोत कर उसे देवता बना कर छोड़ देते हैं और जब यह देवता हमारी मनोकामनाएँ पूरी नहीं करता तो हम देवता को ही खारिज कर देते हैं।


मेरी सुनिश्चित धारणा है कि यदि ‘लोक’ अपनी भूमिका नहीं निभाएगा तो ‘तन्त्र’ हावी होकर ‘लोकतन्त्र’ को ‘तन्त्रलोक’ में बदल देगा। दिन-प्रति-दिन, आईएएस अफसरों के बिस्तरों, पेटियों से बरामद हो रहे करोड़ों रुपये यही साबित भी कर रहे हैं।


सो, नेताओं को सर्वाधिक अविश्वसनीय साबित कर, खुश होने के बजाय हमें अपनी गरेबाँ में झाँकना पड़ेगा और नेताओं को चुनने के बाद उन्हें नियन्त्रित करने की जिम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी। हमारी, स्वार्थपरक चुप्पी के चलते प्रत्येक नेता यह मानने लगता है कि वह जो कर रहा है, कह रहा है वही उचित है क्योंकि उसकी किसी भी कारस्तानी पर लोग तो प्रतिवाद करते ही नहीं। मेरा सुनिश्चित मानना है कि हममें से प्रत्‍येक को ‘राजनीतिक’ होना चाहिए और होना पडेगा। ध्‍यान देनेवाली बात है कि मैं ‘राजनीतिक’ होने की बात कर रहा हूँ, ‘राजनीतिज्ञ’ होने की नहीं। आज हम राजनीति को सडांध मार रही गन्‍दी नाली मान कर, अव्‍वल तो उसके पास से गुजरने में ही परहेज करते हैं और यदि गुजरना पडता है तो नाक पर रूमाल रख कर, उससे ऑंख बचाकर निकल जाते हैं। अपने इस व्‍यवहार पर हमें अविलम्‍ब ही पुनर्विचार करने की आवश्‍यकता है।

मुझे इस बात की तो खुशी है कि विश्वसनीय व्यावसायकि वर्गों की सूची में शिक्षकों को पहला स्थान मिला किन्तु इससे अधिक चिन्ता इस बात पर हुई कि न्यायपालिका और पत्रकारिता को इस वर्ग-सूची में कहीं स्थान नहीं मिला। मैं बीमा एजेण्ट हूँ और प्रतिदिन अनेक लोगों से मिलता हूँ। मैंने अनुभव किया है कि तमाम स्खलनों के बाद भी लोगों को आज तीन संस्थानों में सर्वाधिक विश्वास और सर्वाधिक अपेक्षा है। ये हैं शिक्षक, न्यायपालिका और पत्रकारिता। किन्तु इस सूची में अन्तिम दो कहीं नहीं हैं।


तो क्या हमारे लोकतन्त्र के चारों स्तम्भ रसातल में धँस गए हैं? विधायिका (राजनेता) का नम्बर अन्तिम दस में आता है, कार्यपालिका (अधिकारी/कर्मचारी) के करिश्मों से अखबार पटे पड़े हैं। न्यायपालिका और पत्रकारिता को सर्वाधिक विश्वसनीयता की इस सूची में स्थान ही नहीं मिला।


क्या अब भी हम हाथ पर हाथ धरे, चुप ही बैठे रहेंगे? हम किस अवतार की, कौन से चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

वे बताएँगे और मनवाएँगे हमारे त्यौहार

क्या धुलेण्डी और क्या रंग पंचमी! दोनों ही इस बार लगभग बेरंगी निकलीं। कोई दूसरा त्यौहार होता तो इतना नहीं खटकता किन्तु होली ही तो वह इकलौता त्यौहार है हमारा जिसमें सब एक रंग हो जाते हैं। बाकी सारे त्यौहार तो कहीं न कहीं सीमा रेखा खींचे रखते हैं। होली ही तो वह त्यौहार है जो सबको निर्बन्ध, उन्मुक्त होने का और मुक्त कण्ठ से ‘होली है’ चिल्लाने का अवसर समान रूप से उपलब्ध कराता है। त्यौहारों और उत्सवों की भीड़ में यही तो एकमात्र समाजवादी त्यौहार है! किन्तु इस बार इसके रंगों की शोखी में और लोगों के उत्साह में एकदम कमी अनुभव हुई।


धुलेण्डी को सवेरे अचानक ही तबीयत गड़बड़ हो गई। रक्त चाप अचानक ही बढ़ गया। इतना कि बिस्तर पकड़ना पड़ा। दीपावली की तरह होली भी हमारी कॉलोनी में सामूहिक रूप से मनती है। पूरी कॉलोनी के पुरुष पूरी कॉलोनी में घर-घर जाकर होली खेलते हैं और मुँह मीठा करते हैं। प्रत्येक गली में, मकानों के सामने मिठाइयों और नमकीन पकवानों की टेबलें सज जाती हैं।


टेबलें तो इस बार भी उतनी ही सजीं लेकिन आने वालों की संख्या लगभग एक तिहाई रह गई। उन्हीं में से कुछ कृपालुओं ने अन्दर आकर मुझे रंग लगाया। मुझे लगता रहा, बाहर सब कुछ परम्परानुसार ही चल रहा होगा। किन्तु कोई पाँच-सात मिनिट में ही बड़ा बेटा वल्कल और मेरी उत्तमार्द्ध अन्दर आ गए। मैंने टोका - ‘दोनों अन्दर आ गए हो, बाहर, घर के सामने अपनी ओर से कौन खड़ा है?’ वल्कल ने कहा - ‘सब निपट गया पापा।’ मैंने अविश्वास से पूछा - ‘इतनी जल्दी? ऐसे कैसे?’ वल्कल ने जवाब दिया - ‘इस बार तो लोग आए ही नहीं।’ इस कॉलोनी में यह मेरी छठवीं होली थी। इससे पहलेवाले पाँच सालों में, हर बार हम लोगों को, आनेवालों का स्वागत करने में बीस-पचीस मिनिट लगते थे । उसके बाद भी लगता था कि कई लोग छूट गए हैं। किन्तु इस बार यह क्या हुआ? मुझे लगा कि मेरी तबीयत तो यह समाचार सुनने के बाद खराब होनी चाहिए थी।


लगभग पूरा दिन सोता रहा। किन्तु जब-जब भी आँख खुली, गली में आने-जानेवालों की हलचल ध्यान से सुनने की कोशिश करता रहा। मुझे निराशा मिली। मेरी गली के बच्चों के अलावा, हुड़दंगियों की एक भी टोली नहीं निकली। उधर टेलीविजन पर होली के सिवाय कुछ भी नहीं था। प्रत्येक चैनल पर होली के रंग, होली की बहार और होली की मस्ती छाई हुई थी। चैनलें तो सारे देश में होली की मौजूदगी की खबर दे रही थीं जबकि मेरी गली में सन्नाटा था।


रंग पंचमी तो इससे भी अधिक फीकी निकली। दिन भर घर में ही था। प्रतीक्षा करता रहा कि कोई न कोई तो रंग लगाने आएगा ही। लेकिन कोई नहीं आया। घबरा कर दो-एक बार गली में, इस छोर से उस छोर तक देखा - एक भी ऐसा संकेत या हलचल नहीं जो रंग पंचमी होने का अहसास कराए।


होली पर दोनों बेटे घर आए जरूर किन्तु मानो खानापूर्ति करने। वल्कल एक बहुराष्ट्रीय कम्प्यूटर कम्पनी में काम करता है। वह शनिवार की रात आठ बजे पहुँचा। आया बाद में, जाने की तैयारी पहले करने लगा। उसे धुलेण्डी के दिन ही लौटना था। सो, कौन सी ट्रेन, कितने बजे जाएगी, बार-बार यही चिन्ता करता रहा। इतना ही नहीं, नौकरी का काम भी लेकर आया जिसे शनिवार और रविवार की रातों में देर तक लेप टॉप पर निपटाता रहा।


छोटा बेटा रविवार रात कोई दस बजे पहुँचा। वह इंजीनीयरिंग के तीसरे साल (छठवें सेमेस्टर) में है। कोचिंग क्लास और डांस क्लास की एक प्रतियोगिता के कारण वह जल्दी नहीं आ पाया। वह आया तब तक मोहल्ले की होली जल चुकी थी। वह लस्त-पस्त हालत में आया था। आते ही जो सोया तो धुलेण्डी की दोपहर में उठा। तब तक सामूहिक होली मिलन की खानापूर्ति हो चुकी थी और गली में सन्नाटा छा चुका था। वल्कल तो चूँकि सामूहिक होली मिलन में घर का प्रतिनिधित्व कर रहा था सो उसे तो रंग लगा। किन्तु तथागत पर तो रंग का एक छींटा भी नहीं पड़ा।


घर में आनन्द तो छाया हुआ था किन्तु होली का नहीं, दोनों बेटों के आने का। मुझे लगा (और अभी भी लग रहा है) कि सब कुछ बदल रहा है। आनेवाले दिनों में, त्यौहारों पर बच्चे आएँ या न आएँ किन्तु बच्चों का घर आना ही त्यौहार होगा।


धुलेण्डी को मोबाइल दिन भर ‘बीप-बीप’ करता रहा। धड़ाधड़ एसएमएस आए जा रहे थे। एसएमएस के शुभ कामना सन्देश मुझे नहीं रुचते। फिर भी, भेजनेवाले का नाम जानने की उत्सुकता के अधीन एसएमएस पढ़ता रहा। सन्देशों की भीड़ में एक सन्देश ऐसा मिला जिसमें होली की बधाई के स्थान पर नसीहत दी गई और आग्रह किया गया था कि इस नसीहत को अधिकतम लोगों तक पहुँचाऊँ। नसीहत इस प्रकार थी - ‘कृपया होली, रंग पंचमी पर रंग खेलने से बचें और दूसरों को भी निरुत्साहित करें। अपना एक और अमूल्य दिन व्यर्थ न जाने दें। कामकाजी (प्रोडक्टिव) बनें। समय, ऊर्जा और पानी नष्ट न करें। कृपया इस सन्देश को अधिकाधिक लोगों को फारवर्ड भी करें।’


बदलाव की बयार चल पड़ी है। त्यौहार खानापूर्ति बन कर रह जानेवाले हैं। टेलीविजन की चैनलें और रेडियो के कार्यक्रम ही हमें त्यौहारों की सूचना देंगे और वे ही हमारे त्यौहार मनवाएँगे भी।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

उठावने का निमन्त्रण


चीजें अचानक नहीं बदलतीं। धीरे-धीरे ही बदलती हैं। इतनी धीरे-धीरे कि उनके बदलने का आभास भी नहीं होता। यह धीमापन, बदलाव को स्वाभाविकता प्रदान करता लगता है। किन्तु वह परिवर्तन ही क्या जो अपने होने की प्रतीति न कराए! सो, यह प्रतीति होती तो है किन्तु अचानक ही। ऐसे ‘अचानक-क्षण’ में ही अनुभव होता है कि चीजें बदल गई हैं। यह ‘अचानक क्षण’ ही इस प्रतीति को आश्चर्य में बदल देता है। तब ही चीजों के बदलाव पर भी अचरज होता है।


देख रहा हूँ कि बोलचाल में आदरसूचक शब्दावली गुम होती जा रही है। गुम यदि नहीं भी हो रही है तो कम तो हो ही रही है। बहुत पुरानी बात नहीं है, आठ-दस बरस पहले तक ‘सुनिएगा’, ‘आइएगा’, ‘लीजिएगा’, ‘दीजिएगा’ जैसे आदरसूचक शब्द प्रयुक्त होते थे। अचानक ही मेरा ध्यान गया कि इनके स्थान पर ‘सुनना’, ‘लेना’, ‘आना’, ‘देना’ जैसे रूखे और अक्खड़ शब्दों ने ले लिया है। ये सब शब्द यूँ तो पहले से ही मौजूद थे किन्तु अन्तरंग और अनौपचारिक सम्वादों में ही जगह पाते थे। किन्तु अब तो इन्हीं का बोलबाला है-वहाँ भी, जहाँ इनका होना रुचिकर नहीं होता।


मेरी बीमा एजेन्सी को अभी-अभी उन्नीस वर्ष पूरे हुए हैं। मेरा धन्धा ही ऐसा है कि ग्राहक की तलाश में मुझे घर-घर जाना पड़ता है-कभी समय लेकर तो कभी समय लिए बिना। कोई एक दशक पहले तक ‘आइए बैरागीजी’ या फिर ‘आइए अंकल’ से अगवानी होती थी। गृह स्वामी के आने में देर होती तो बच्चे कहते - ‘आप बैठिए अंकल। पापा अभी आते हैं।’ अब बदलाव आ गया है। अब ‘आओ बैरागीजी’ या फिर ‘आओ अंकल’ और ‘अंकल आप बैठो। पापा अभी आते हैं।’ सुनने को मिलता है। सुनने में तनिक अटपटा लगता है किन्तु यह देख कर तसल्ली होती है कि आदरभाव में कहीं भी कमी नहीं-न मन में, न आँखों में।


अठारह जनवरी की शाम भोपाल पहुँचा था। भाई विजय वाते ने गाड़ी स्टेशन पर भिजवा दी थी। सीधा उनके दफ्तर पहुँचा था। घर लौटते हुए उन्हें रास्ते में, उद्घाटन के एक छोटे से आयोजन में शरीक होना था। हम दोनों आयोजन स्थल पर पहुँचे तो सन्नाटा था। समय पर जो पहुँच गए थे! वहाँ बैठ कर वक्त काटना भी सम्भव नहीं लग रहा था। विजय को हल्की सी भूख लग आई थी। सो, हमीदिया रोड़ स्थित मनहर डेयरी पहुँच गए। टेबल पर बैठने के कुछ ही पलों में वेटर आ गया। बोला - ‘बोलो साहब! क्या लाऊँ?’ मुझे हैरत हुई। एक तो भोपाल जैसा तहजीबदार शहर उस पर मनहर डेयरी जैसा प्रतिष्ठित संस्थान्! वेटर की भाषा मुझे हजम नहीं हुई। स्वल्पाहार करने के बाद निकलते समय मैंने मैनेजर को अपनी भावनाएँ जताईं। उसने माफी माँगी और बोला -‘आप अगली बार आओगे तो शिकायत का मौका नहीं पाओगे।’ मैनेजर ने मेरा भ्रम दूर कर दिया। वेटर पर आए गुस्से का स्थान हँसी ने ले लिया। ‘आओगे, पाओगे’ के लिए मैंने हँसते-हँसते, मैनेजर का शुक्रिया अदा किया।
भाषा का यह बदलाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समान रूप से आया अनुभव हो रहा है। शोक सन्दर्भों में केवल सूचनाएँ देने का लोक प्रचलन है। जैसे कि फलाँ की माताजी का देहावसान हो गया है। अन्तिम यात्रा इतने बजे निकलेगी और दाह संस्कार फलाँ श्मशान में होगा। यही स्थिति उठावने (या कि तीसरे) की सूचना देने में भी होती है। लेकिन यहाँ भी बदलाव आ गया है। एक पखवाड़े पहले, फोन पर एक किशोर ने टेलीफोन किया -‘अंकल! आपके फ्रेण्ड वीरेन्द्रजी की सासूजी और मेरी दादीजी का उठावना कल सवेरे साढ़े दस बजे सूरज हॉल पर रखा है। आपको आना है। आईएगा जरूर। हम सब आपकी राह देखेंगे।’


इसी तरह, शोक पत्रिकाओं में मृत्यु की और उत्तर क्रियाओं की केवल सूचना देने की परम्परा रही है। जैसे ‘हमारी माताजी का स्वर्गवास फलाँ दिनांक को हो गया है जिनका उत्तरकार्य निम्नानुसार रखा गया है।’ इसके बाद विस्तृत कार्यक्रम दिया रहता है। बदलाव ने इसे भी प्रभावित किया है। गए दिनों मुझे दो शोक पत्रिकाएँ ऐसी मिलीं जिनमें ‘अवश्य पधारिएगा’ का आग्रह भी किया गया था।


ये शोक पत्रिकाएँ देख/पढ़कर किस्सा याद आ गया। किस्सा कितना सच है, नहीं जानता किन्तु एक बार कहीं पढ़ा भी है और दो-तीन बार, समझदारों के मुँह सुना भी है। किस्से के अनुसार महावीर और बुद्ध समकालीन थे। महावीर कनिष्ठ और बुद्ध वरिष्ठ थे। एक बार दोनों की भेंट हो गई। महावीर ने जिज्ञासा प्रकट की - ‘जन्म यदि उत्सव है तो मृत्यु क्या है?’ बुद्ध ने उत्तर दिया - ‘मृत्यु महोत्सव है।’ शोक सन्दर्भों में आ रहा यह बदलाव मृत्यु को शोक के बजाय महोत्सव का स्थान दिलाता अनुभव हुआ।


जानता हूँ कि मुझे अच्छा लगे या नहीं, बदलाव तो शाश्वत और अनवरत प्रक्रिया है। बदलाव का सुख लेने के लिए खुद को ही बदलना पड़ेगा। नहीं बदलूँगा तो मेरे सिवाय और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
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उत्सव: सरकार के या हमारे?


अपने उत्सव मनाने के लिए हम सरकार पर निर्भर हो गए हैं? अब सरकार तय करेगी कि हम अपने उत्सव मनाएँ या नहीं? हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ और लोकोत्सव किसी जिम्‍मेदारी हैं-हमारी या सरकार की? अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को बनाए रखने के लिए हम सरकार की कृपा के मुहताज हो गए हैं? गए तीन दिन से ये और ऐसे ही अन्य प्रश्न बार-बार मेरे मन में उठ रहे हैं। इनमें से प्रत्येक का उत्तर मैं ‘नहीं’ में देना चाहता हूँ पर दे नहीं पा रहा हूँ।


बात शायद बहुत ही छोटी लगे किन्तु इसने मुझे असहज कर रखा है। रतलाम जिले में एक छोटा सा कस्बा है - ताल। यह आलोट तहसील का हिस्सा है। यहाँ रंग पंचमी समारोहपूर्वक मनाई जाती है। रंग पंचमी की पूर्व सन्ध्या पर मूर्ख सम्मेलन भी आयोजित किया जाता है। कोई पन्द्रह-सत्रह वर्षों से यह परम्परा चली आ रही है। लोग इसकी प्रतीक्षा भी करते हैं और उत्साहपूर्वक इसकी तैयारी भी। एक दिन के लिए यह कस्बा मानो अपने आप को भूल जाता है। ‘रंग पंचमीमय’ हो जाता है।


जिला प्रशासन प्रति वर्ष आलोट तहसील के लिए इस दिन का स्थानीय अवकाश घोषित करता आया है। इस बार ऐसा नहीं हुआ। स्थानीय अवकाश घोषित करना जिला प्रशासन (कलेक्टर) का अधिकार है किन्तु कलेक्टर को दो या तीन स्थानीय अवकाश का ही अधिकार रहता है। जिले की स्थानीय आवश्यकताओं और महत्वानुसार वह ये अवकाश घोषित करता है। इस बार यह स्थानीय अवकाश शायद किसी दूसरे त्यौहार के लिए प्रयुक्त कर लिया गया। ताल निवासियों को यह कबूल नहीं हो पा रहा है।


तीन दिन पहले अखबारों में ताल का समाचार छपा जिसमें स्थानीय अवकाश घोषित करने के लिए कलेक्टर से तो माँग की ही गई, चेतावनी देते हुए चिन्ता जताई गई कि स्थानीय अवकाश घोषित नहीं करने से वहाँ के लोग इस वर्ष, पूर्वानुसार रंग पंचमी नहीं मना पाएँगे। मेरे लिए तय कर पाना कठिन था कि इसे चेतावनी भरी चिन्ता मानूँ या चिन्ता जनित चेतावनी?


इस समाचार ने ही मुझे असहज कर रखा है। लोकोत्सवधर्मिता हमारा संस्कार है या राज्याश्रय?यह हमारी उत्सवप्रियता है या अवकाशप्रियता? क्या हम वे त्यौहार ही मनाते हैं जिनके लिए सरकारी अवकाश घोषित होता है? इसके समानान्तर यह सवाल भी उठता है कि जिन त्यौहारों के लिए सरकारी अवकाश घोषित होते हैं, क्या वे सब त्यौहार हम सचमुच में मनाते हैं?ईद, क्रिसमस, गुड फ्रायडे, नानक जयन्ती आदि ऐसे त्यौहार हैं जिनके लिए सरकारी अवकाश घोषित होते हैं किन्तु अधिसंख्य लोग इन्हें नहीं मनाते। ये त्यौहार मनाना तो दूर की बात है, इन त्यौहारों से जुड़े अपने कितने मित्रों को हम बधाइयाँ देते हैं, अभिनन्दन करते हैं? इसके विपरीत, अभी-अभी आई संक्रान्ति पर सरकार ने छुट्टी घोषित नहीं की थी किन्तु स्कूल वीरान थे। मुझे कलेक्टोरेट में कुछ काम था। गया तो देखा कि अधिकांश कर्मचारी, कार्यालय के बाहर ही गिल्ली डण्डा खेल रहे हैं। जो स्थिति थी, उसे देखकर मेरी ही हिम्मत नहीं हुई कि अपने काम की बात करता। चुपचाप चला आया।


छब्बीस जनवरी, पन्द्रह अगस्त हमारे लिए ‘अवकाश’ से अधिक कुछ नहीं रह गए हैं। इस दिन लगभग सारे के सारे आयोजन शासकीय स्तर पर ही होते हैं। अशासकीय स्तर पर आयोजित होनेवाले समारोह किसी भी शहर/कस्बे में या तो होते ही नहीं हैं और यदि होते भी हैं तो अंगुलियों के पोरों पर गिने जा सकने की संख्या में। दो अक्टूबर को कितने लोग गाँधी को याद करते हैं? गाँधी जयन्ती भी हमारे लिए ‘अवकाश’ से कम या ज्यादा और कुछ नहीं है।


हरतालिका तीज पर मध्य प्रदेश सरकार महिलाओं को विशेष अवकाश देती है। मेरी उत्तमार्द्ध जिस शासकीय स्कूल में अध्यापक है वहाँ कुल तीन अध्यापक हैं और तीनों ही महिलाएँ। स्थिति यह है कि महिलाओं को विशेष अवकाश तो दिया गया किन्तु विद्यालय का अवकाश नहीं था। सो, विद्यालय तो खुलना ही था। ऐसे में क्या किया जाए? तीनों महिलाओं ने एक दूसरे की चिन्ता की और तीनों ही विद्यालय आईं और अपना-अपना व्रत भी निभाया। यह विशेष अवकाश ऐसा नहीं था जिसके बदले में कोई दूसरा अवकाश मिल जाए।


ताल का समाचार पढ़ते-पढ़ते यही सब बातें मुझे याद आ रही थीं। केवल मालवा और मध्य प्रदेश ही नहीं, समूचा भारत उत्सवधर्मी और उत्सवप्रेमी समाज है। इसीलिए तो हमारे उत्सव, लोकोत्सव हैं! हम इन्हें सरकारी उत्सव बनाने पर तो आमादा नहीं हो गए? यदि रामनवमी पर सरकारी अवकाश नहीं हो तो हम अपने आराध्य का जन्मोत्सव मनाने के लिए एक आकस्मिक अवकाश (सी एल) की कीमत भी शायद ही चुकाएँ।


यदि स्थितियाँ सचमुच में ऐसी ही बन रही हैं तो हमें अपनी मानसिकता, अपनी वैचारिकता, अपने आचारण पर फौरन ही विहंगम दृष्टिपात करने की आवश्यकता है। सांस्कृतिक परम्पराएँ और लोकोत्सव यदि राज्य की कृपा पर छोड़ दिए जाएँगे तो हम मनुष्य भी नहीं रह पाएँगे। फिर तो हम ‘प्राणवान यन्त्र’ बन कर रह जाएँगे।


मैं कुछ गलत सोच रहा हूँ?

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मेरी ‘सच्ची-सच्ची’ भाभी

ईश्वर सब सुख एक साथ कभी नहीं देता। इसे चाहें तो ‘कोई न कोई कसर रख ही देता है’ कह दें या फिर यह कि वह किश्त-किश्त में सुख देता है। ऐसा ही इस बार मेरे साथ हुआ-तीन रात और लगभग सवा दो दिनों तक सुख सागर में गोते लगाने के बाद भी एक सुख की कसर रह गई।


बरसों बाद विजय और कल्पना भाभी के सान्निध्य में इस बार इतना समय रहने का मौका मिला। विजय और कल्पना भाभी याने श्री विजय वाते और अ। सौ. कल्पना वाते। जब-जब इनके साथ रात-दिन रहने का मौका मिला तब-तब हर बार ऐसी ही कसर रह गई।


कल्पना भाभी को मैं ‘सच्ची-सच्ची’ भाभी कह सकता हूँ। जब-जब भी वाते दम्पति की मेजबानी एक समय या थोड़ी ही देर के लिए मिलती है तब-तब ‘सच्ची-सच्ची भाभी’ मुझे तब तक झूठा घोषित करती रहती हैं जब तक कि मैं उनसे सहमत न हो जाऊँ। अब तो मुझे असहमति के पहले ही क्षण से मुझे मालूम रहता है कि मुझे अन्ततः सहमत होने के लिए समर्पण करना ही पड़ेगा-यही मेरी नियति है, फिर भी मैं इससे बचने की यथसम्भव, यथाशक्ति कोशिश करता रहता हूँ क्योंकि तब मैं सच बोल रहा होता हूँ जिसे कि ‘सच्ची-सच्ची भाभी’ झूठ ही मानती हैं। मेरा सच उन्हें कभी सच नहीं लगा। सदैव झूठ ही लगा और ऐसी दशा में, जब हारकर, खुद के साथ होने वाली (जो कि वस्तुतः ‘सच्ची-सच्ची भाभी द्वारा की जाने वाली’ होती है) ज्यादती के लिए खुद को तैयार कर मैं उनसे सहमत हुआ, उन्होंने हर बार अपनी जीत से खुश होकर, तपाक् से पूछा - ‘पहले ही सच बोलने में क्या जा रहा था?’
यह सब होता रहा है (और मुझे आकण्ठ विश्वास है कि कल्पना भाभी कभी नहीं बदलेंगी इसलिए आगे भी ऐसा ही होता रहेगा) मेरे भोजन करने को लेकर।



भोपाल यात्रा में मैं जब-जब भी, समय-असमय विजय के यहाँ पहुँचा, तब-तब कल्पना भाभी ने हर बार पूछा -‘विष्णु भैया! खाना खाआगे ना?’ मैंने शायद ही कभी, पहली ही बार में हाँ भरी हो। मैं या तो भोजन करके पहुँचता या कहीं न कहीं मेरा भोजन करना तयशुदा रहता। सो मैं हर बार कहता - ‘नहीं भाभी! मैं खाना नहीं खाऊँगा।’ कल्पना भाभी इस जवाब के लिए तैयार तो रहतीं किन्तु सहमत एक बार भी नहीं रहीं। हर बार बोली - ‘देखो! झूठ मत बोलो। सच्ची-सच्ची बोलो, खाना खाओगे?’ मेरा इंकार और कल्पना भाभी का ‘सच्ची-सच्ची बोलो’ का इसरार देर तक चलता। इस दौरान वे हाथ के काम निपटाती रहतीं लेकिन मुझे ‘टारगेट’ पर बनाए रखतीं। कभी अखबार पढ़ते हुए, कभी तैयार होते हुए विजय इस स्थिति में मेरी दशा के मजे लेता रहता और दो-एक शेर दाग देता। पति-पत्नी एक दूसरे को देख कर हँसते, मुझे अजीब सा लगता। कोई दस-बीस बार कल्पना भाभी ‘देखो! झूठ मत बोलो। सच्ची-सच्ची बोलो’ की चेतावनी देकर मुझे ‘झूठा’ साबित कर चुकी होतीं। मुझे अजीब लगता-मेरे मुँह पर ही मुझे झूठा कहा जा रहा है। बीच में विजय एक-दो बार हँसते-हँसते कहता-‘नतीजा तुम्हें पता है। फिर क्यों वर्जिश कर रहे हो और करा रहे हो?’ मुझे और अजीब लगता। जी करता, जूलीयस सीजर की तरह विजय से पूछूँ -‘विजय! तुम भी?’ किन्तु आज तक नहीं पूछ पाया। जानता हूँ, विजय को मेरे साथ नहीं, कल्पना भाभी के साथ रहना है।



सच पर मेरा अड़ा रहना एक बार भी सफल नहीं हो पाया। भरपूर जोर आजमाइश के बाद अन्ततः मैं कहता-‘हाँ। खाना खाऊँगा।’ कल्पना भाभी बस ताली नहीं बजाती, अपनी मनुहार का मनोनुकूल परिणाम मिलते ही खूब खुश होकर कहती-‘मैं तो शुरु से ही जानती थी कि झूठ बोल रहे हो। पहले ही सच बोलने में क्या जा रहा था?’ ऐसे प्रत्येक अवसर पर मैं रुँआसा होकर, असहाय, बेबस होकर चुपचाप सब कुछ देखने-सुनने के सिवाय और कुछ भी नहीं कर पाता। किन्तु कल्पना भाभी के चेहरे पर खुशी का बरगद उग आता। जानती तो वे भी रहती होंगी कि मैं झूठ नहीं बोल रहा किन्तु मैं उनके यहाँ से भोजन किए बगैर नहीं लौटूँ, यह उनकी अदम्य इच्छा रहती रही होगी जिसकी पूर्ति के लिए ही वे मुझे सहजता से असत्यवादी साबित और घोषित करती रहतीं, देर तक, लगातार, बार-बार।



किन्तु कल्पना भाभी ने इस बार एक बार भी मुझे झूठा साबित नहीं किया। मुझे अच्छा तो लग रहा था किन्तु समझ नहीं आ रहा था कि भाभी ऐसा क्यों कर रही हैं। दो समय का भोजन मैंने कर लिया और भाभी ने एक बार भी ‘सच्ची-सच्ची बोलो’ नहीं कहा! अचेतन में इच्छा होने लगी कल्पना भाभी एक बार तो मुझे झूठा साबित कर दे। उनका व्यवहार मुझे असहज लग भी रहा था और असहज कर भी रहा था। आशंका हुई - भाभी बीमार तो नहीं? लेकिन देख रहा था कि वे पूर्ण स्वस्थ और सामान्य, सहज बनी हुई हैं।



अठारह जनवरी की रात वहाँ पहुँचा था और इक्कीस की सवेरे उनसे बिदा ली। दिन में ‘लियाफी’ (भारतीय जीवन बीमा निगम के एकमात्र राष्ट्रीय संगठन) के झोनल प्रतिनिधियों और भाजीबीनि के क्षेत्रीय प्रबन्धक की संयुक्त बैठक थी। वह निपटा कर शाम पाँच बजे, रतलाम के लिए रेल में बैठा तब भी कल्पना भाभी का यह बदला हुआ व्यवहार मन पर छाया हुआ था।



रेल चली और बैरागढ़ पहुँचती उससे पहले ही मेरी ट्यूब लाइट चमकी और अपनी कमअक्ली पर मैं खुद ही ठठा कर हँस पड़ा-इतने जोर से कि आसपास बैठे यात्री मेरी ओर देखने लगे। मैंने खुद से कहा -‘हे! मूर्ख श्रेष्ठ, तुम जब वहीं रुके हुए हो तो यह तो तय है कि तुम्हें भोजन वहीं करना है। ऐसे में पूछताछ की गुंजाइश ही कहाँ बनती? इसके उल्टे, कल्पना भाभी भोजन के लिए पूछती तो वह अटपटा ही नहीं, अशालीन भी होता। बच्चू! भोपाल यात्रा में जब भी कभी केवल मिलने जाओगे तो कल्पना भाभी को उनके उसी ‘सच्ची-सच्ची’ वाले मूलस्वरूप में पाओगे।’



अपने आप से हुए इस एकालाप के चलते, कब मेरी आँखें धुँधला गईं, मुझे पता ही नहीं चला। अपनी इस दशा पर, टेलीविजन पर सुना एक शेर अचानक ही याद आ गया - ‘जिन्हें हम कह नहीं सकते, जिन्हें तुम सुन नहीं सकते। वही कहने की बाते हैं, वही सुनने की बाते हैं।’ इस समय जब मैं यह सब लिख रहा हूँ तब ऐसी ही न कही जा सकनेवाली बातें मन पर छा गई हैं।



कल्पना भाभी के सामने शायद नहीं कह पाऊँ। यहीं लिख देता हूँ - ‘शुक्रिया मेरी सच्ची-सच्ची भाभी! खुद को आपसे झूठा साबित करवाने मैं जल्दी ही भोपाल आऊँगा।’


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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

अकेला करता धर्म

अकेला करता धर्म
कुछ बातें सुनने में तो तत्काल अच्छी लगती हैं किन्तु समझ में बाद में आती हैं। होना तो यह चाहिए कि दोनों ही स्थितियों में आनन्दानुभूति हो किन्तु आवश्यक नहीं कि ऐसा हो ही। कुछ ऐसा ही में गए कुछ दिनों से अनुभव कर रहा हूँ। जब भी यह बात मन में आती है, मन कसकने लगता है।


देख रहा हूँ कि ‘नमस्कार’ और ‘नमस्ते’ जैसे पारम्परिक और लोक स्वीकृत अभिवादन लुप्त होते जा रहे हैं। अब अभिवादन के स्थान पर लोगों की धार्मिक, पांथिक अथवा किसी सन्त/गुरु के प्रति आस्था और प्रतिबद्धता जताने वाली शब्दावली या शब्द-युग्म सुनने को मिलते हैं। सम्भव है कि गाँवों में अब भी सब कुछ वैसा का वैसा ही हो किन्तु कस्बों, नगरों में स्थिति तेजी से बदलती जा रही है।


जिस गाँव के मन्दिर की पूजा मेरे परिवार का जिम्मा रही है वह गाँव पीपलोन (जिसे बोलचाल में पीपण अथवा फीफण उच्चारा जाता है) बहुत ही छोटा है। आज का तो पता नहीं किन्तु मैंने जब मनासा छोड़ा तो वह मुश्किल से सौ-सवा सौ घरों की बस्ती हुआ करता था। मीणा पटेल और गायरी समाज का प्रभुत्व था उस गाँव में। कुछ घर माली समाज के थे। वहाँ का चौकीदार था मेहताब खाँ मेवाती। वह अकेला गैर हिन्दू परिवार था उस गाँव में। ‘राम! राम!’ या ‘जै रामजी की’ कह कर परस्पर अभिवादन किया जाता था। मेहताब भी यही कह कर अभिवादन करता था और हम लोग भी ‘राम-राम मेताब भई’ कह कर ही अभिवादन करते थे। एक बार मैंने सहज जिज्ञासावश पूछ लिया था -‘मेताब भई! तुम तो मुसलमान हो! फिर राम-राम क्यों कहते हो?’ जवाब में उसने चा चौंक कर, अपनी ठोड़ी खुजलाते हुए कहा था - ‘अरे! बब्बू माराज! तुमने याद दिलाया तो याद आया कि मैं मुसलमान हूँ।’ बात इससे आगे नहीं बढ़ी।


मनासा मेरा पैतृक गाँव है। हमारा मकान, गाँव के उत्तर में, सबसे अन्तिम से पहले वाले, धोबी मुहल्ले की पुरबिया गली में है। मोहल्ले में कुछ मुसलमान परिवार थे। आज भी होंगे। कुछ सब्जी बेचते थे तो कुछ ऊँटों पर जंगल से लाद कर लकड़ी लाकर बेचा करते थे। एक सब्जी विक्रेता मोहम्मद भाई हमारा किरायेदार था। ये सब लोग या तो पहनावे से (खास कर महिलाओं के पहनावे से) या फिर ईद-मुहर्रम जैसे त्यौहारों पर ही मुसलमान मालूम होते थे अन्यथा बोलचाल और रहन-सहन में इनमें भेद कर पाना कठिन होता था। मेरे अपंग पिताजी सवेरे-सवेरे, बाहर चबूतरे पर बैठ जाते थे। आने-जानेवाले स्त्री-पुरुष (जिनमें हिन्दू, मुसलमान सब हुआ करते थे) उनसे ‘जै रामजी की माराज’ या फिर ‘राम-राम माराज’ कह कर ही अभिवादन करते थे। मोहम्मद भाई भी इसी शब्दावली में अभिवादन करता था। पिताजी भी ‘राम-राम रे भई मम्मद’ कह कर ही उत्तर देते थे।


मनासा की सामाजिकता पर माहेश्वरी और जैन समाज (श्वेताम्बर और दिगम्बर, दोनों) का प्रभाव-प्रभुत्व है। वस्तुतः मनासा तो बसाया ही माहेश्वरियों और मीणाओं ने। बाजार पर माहेश्वरियों के प्रभुत्व के चलते माहेश्वरियों को ‘साहजी’ कह कर सम्बोधित किया जाता रहा है। सो, आज के मनासा की व्युत्पत्ति ‘मीणा-साह’ से हुई है। मुस्लिम समाज के लोग भी वहाँ भरपूर हैं। नगर पालिका के दो-एक वार्डों में तो मुस्लिम मतदाताओं का ही बाहुल्य है। किन्तु वहाँ भी अभिवादन के नाम पर सब कुछ पारम्परिक ही बना हुआ था। सबको पता था कि कौन किस समाज से है। अपना समाज या पंथ बताने के लिए किसी को अलग से कुछ कहना नहीं पड़ता था।


किन्तु आज काफी कुछ बदल गया है। जैसा कि मैने शुरु में कहा, ‘नमस्ते’ या ‘नमस्कार’ अब लुप्त होता लग रहा है। अब लोग परस्पर अभिवादन नहीं करते। अभिवादन करने के नाम पर वे अपनी अलग पहचान बताते हैं। कोई ‘जय श्री कृष्ण’ कह कर तो कोई ‘राधे-राधे’ कह कर अपना सम्प्रदाय उजागर कर रहा है। कोई ‘जय जिनेन्द्र’ कह कर अपनी धार्मिक पहचान उजागर कर रहा है तो कोई इससे भी आगे बढ़कर ‘जय केसरियानाथ’ उच्चारकर ‘विशेष में विशेष’ बनता नजर आ रहा है। स्निग्ध और आत्मीयता भरे ‘जै रामजी की’ का स्थान भयभीत कर देने वाले स्वरों वाले ‘जय श्री राम’ ने ले लिया है। कोई ‘ओऽम्’ उच्चार कर अपने गुरु की पहचान बताता है तो कोई ‘हरि ओऽम्’ कह कर अपने गुरु की। ‘साँई राम’ या ‘जय साँई राम’ का घोष कर कोई अपने आस्था पुरुष के प्रति सम्मान जताता है तो कोई ‘साहेब बन्दगी’ कह कर। हर कोई अपनी-अपनी पहचान बताने की कोशिश में खुद को सबसे अलग कर रहा है। सुना और पढ़ा था कि अध्यात्म लोगों को जोड़ता है और धर्म लोगों को बाँटता है। जुमलेबाजी और वाणी विलास के लिहाज से यह वाक्य अच्छा लगा था। किन्तु उसे सच होते देखकर अच्छा नहीं लगता। ये सारे व्यवहार हिन्दू या सनातनी या गैर मुस्लिम, गैर ईसाई समुदाय की न केवल स्थायी पहचान बन गए हैं बल्कि अपने ऐसे व्यवहार पर प्रत्येक को गर्वानुभूति भी होती है। गोया, खुद को सबसे अलग कर हम खुश हुए जा रहे हैं और फूले नहीं समा रहे हैं।


क्या आपको नहीं लगता कि सुनी-पढ़ी हुई कुछ बातें वास्तविकता न बनें तो ज्यादा अच्छा लगता है?-----

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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

परसाई के वानर और स्वदेशी लँगोटधारी

(यह पोस्ट मेरे बेटे वल्कल के एक कक्षापाठी मित्र ने लिखी है। बाबुल सुप्रियो इसका वास्तविक नाम नहीं है। यह देखकर कि बहुराष्ट्रीय कम्पनी में कार्यरत, 30 वर्षीय नौजवान को भी ऐसी बातों से पीड़ा होती है, उसके मन में क्षोभ उपजता है तो सच मानिए, मन को ठण्डक मिलती है और भारत के भविष्य के प्रति निश्चिन्तता उपजती है। बाबुल सुप्रियो इस समय कोरिया में है। यह पोस्ट उसने मुझे 27 जनवरी को भेजी थी। तब वह बेंगलुरु में ही था।)


प्रणाम सज्जनों,


बंगलुरू की सड़क किनारे आज मैंने एक होर्डिंग देखा जिसने मेरी कुछ यादें ताजा कर दीं। यादें, तब की जब भुट्टा, खीरा या ऐसा ही कुछ चना चबेना बटोर कर मनमानी से गप्प गोष्ठियों का मजा लिया जाता था ।


कुछ साल पहले मैंने परसाई का एक व्यंग्य पढ़ा था, जिसमें उन वानरों का उल्लेख था जो लंका युद्ध के दौरान मजे से समन्दर किनारे बैठे रहे । जब प्रभु (याने कि लंका विजय के बाद वाले राम) वापिस लौट रहे थे तो ये भी भीड़ में शामिल हो गए, और अपने हाथ पैर थोड़े खरोंच-खरूँच कर सेनानी होने का रोना रोने लगे (इच्छा थी की इसे स्वाँग कहूँ, लेकिन मेरे हिसाब से स्वाँग भरने में भी सृजनात्मक बुद्धि की जरुरत होती है) आज भी अपने यहाँ माँग मनवाने के लिए भाँति भाँति के रोने रोना ही सबसे कारगर तरीका है ।


एक बार सम्मान मिल गया तो ये दादाजी की तरह (या राशन वाली शक्कर की तरह) अपने मिलावटी किस्से सुनाने लगे । जैसे मैं कचोरी की क्वालिटी का अन्दाजा इस बात से लगाता हूँ कि इस सेठ की दुकान का कितना नाम है। शायद उसी तरह इन वानरों की नीतियों में (फैशन के दौर में गारण्टी की उम्मीद करने वाली) जनता को ज्यादा रस दीख पड़ा होगा, और अपना पाँच रुपये का नोट (कचोरी का नोट = वोट) उनको ही टिका दिया हो ।


शुरु में ये वानर, राम के रिप्रसेंटेटिव थे, बाद में ये जनता के रिप्रसेंटेटिव हुए। राम और जनता दोनों का मनमाना दूध निकाला गया। इसके बाद तो जो कुछ भी किस्सा पता है, उसमें अपना पचास पचपन साल का गौरवमय इतिहास सभी का रटा रटाया है।


यह रही लिंक
http://www.montblanc.com/products/11867.php मॉडल बनाम गाँधी जी के उस इश्तेहार की जिसमें स्वदेशी लँगोट धारी कह रहा है - ‘‘जाओ जी जाऽऽऽऽओ! बस इतना सुन लो! ये जर्मन पेन खरीद लो, कुछ चूडियाँ पहन लो, और चाहो तो एक घाघरा सिलवा लो।’


इति गणतन्त्र दिवस सिद्धम,


-बाबुल सुप्रियो

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छोटी-छोटी बातें

नहीं। वे तीनों परिहास नहीं कर रहे थे। उपहास तो बिलकुल ही नहीं कर रहे थे। मुझे आकण्ठ विश्वास और अनुभूति है कि वे तीनों मुझे भरपूर आदर और सम्मान देते हैं। हाँ, साप्ताहिक उपग्रह में मेरे स्तम्भ ‘बिना विचारे’ में मेरे लिखे पर तनिक विस्मित होकर प्रसन्नतापूर्वक बात कर रहे थे। तीनों अर्थात् सर्वश्री डॉक्टर जयन्त सुभेदार, वरिष्ठ अभिभाषक मधुकान्त पुरोहित और डॉक्टर समीर व्यास।


अपनी और अपनी उत्तमार्द्ध की नियमित जाँच कराने के लिए जब डॉक्टर सुभेदार साहब के कक्ष में पहुँचा तो मधु भैया के कागज देखे जा रहे थे। मैं पंक्तिबद्ध हो गया। मेरा क्रम आने पर मैंने अपने कागजात दिखाए और डॉक्टर साहब से निर्देश लेने के बाद अपनी ओर से कुछ जानना चाहा तो मधु भैया तपाक् से बोले - ‘इनसे सम्हल कर बात करना। पता नहीं ये किस बात पर कब, क्या लिख दें!’ सुभेदार साहब ने हाँ में हाँ मिलाई और उतने ही तपाक् से बोले - ‘इन्हें तो लिखने के लिए कोई सब्जेक्ट चाहिए। आपकी-हमारी बातों में से अपना सब्जेक्ट निकाल लेंगे।’ डॉक्टर समीर निःशब्द मुक्त-मन हँस दिए। हँस तो तीनों ही रहे थे। मुझे कोई उत्तर सूझ नहीं पड़ा। उनकी हँसी में शरीक होने में ही मेरी भलाई थी। मैं शरीक हो लिया। मेरी उत्तमार्द्ध के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। ऐसे क्षणों में सबका साथ देना ही बुद्धिमत्ता होती है। सो, वे भी सस्मित हम चारों को देखने लगी।


ऐसा मेरे साथ पहली बार नहीं हुआ था। काफी पहले, वासु भाई (श्री वासुदेव गुरबानी) कम से कम दो बार कह चुके थे - ‘दादा! जिन छोटी-छोटी बातों की हम लोग अनदेखी कर देते हैं आप उन्हीं को अपनी कलम से बड़ी और महत्वपूर्ण बना देते हो।’ ऐसा ही कुछ, ‘विस्फोट’ वाले संजय तिवारी (नई दिल्ली) आठ-दस बार कह चुके हैं।


अपने लिखने पर जब-जब ऐसे जुमले सुने, तब-तब हर बार, अपनी धारणा पर विश्वास और गहरा ही हुआ। मेरा मानना रहा है कि हमारे जीवन में कोई भी बात छोटी नहीं होती। इसके विपरीत, छोटी-छोटी बातें प्रायः ही बड़े प्रभाव छोड़ जाती हैं। बच्चों की बातों की अनदेखी और उपेक्षा करना हमारा स्वभाव है। किन्तु बच्चों की बातें भी हमें सबक सिखा देती हैं। मेरा छोटा भतीजा गोर्की पाँच-सात साल का रहा होगा। दादा ने उसे कोई काम बताया। वह अनसुनी कर जाने लगा। दादा ने कहा - ‘गुण्डे! कहाँ चल दिया?’ तब तक गोर्की दौड़ लगा चुका था। लेकिन दादा की बात सुनकर वह पलटा और घर के बाहर, सड़क से ही चिल्लाया -‘मैं गुण्डा तो आप गुण्डे के बाप।’ और कह कर गोर्की यह जा, वह जा। दादा के पास मौजूद सब लोग ठठा कर हँस दिए। किन्तु दादा गम्भीर हो गए। उसके बाद उन्होंने अपने तो क्या, किसी और के बच्चे को भी ऐसे सम्बोधन से नहीं पुकारा। आप-हम अपने बच्चों को ‘बेवकूफ, गधा, पाजी’ जैसे ‘अलंकरण’ देते रहते हैं। इसका एक ही मतलब हुआ कि हम बवेकूफ, गधे, पाजी के भी बाप हैं। बात छोटी है किन्तु मर्म पर प्रभाव करती है।


मुझे लगता है कि हमारे संकटों में सर्वाधिक व्यवहृत संकट यही है - किसी बात को छोटी मान कर उसकी अनदेखी करना। एक बार की गई अनदेखी कालान्तर में हमारा स्वभाव बन जाती है और इसके परिणाम प्रायः ही कष्टदायक होते हैं।


अपने बड़े बेटे वल्कल को मैंने तब ही मोटर सायकिल सौंपी जब वह 18 वर्ष पूरे कर चुका था और लर्निंग लायसेन्स ले चुका था। मैं जानता था कि वह घर से बाहर, स्कूल के मित्रों के दुपहिया वाहन चलाता है। मैंने उसे ऐसा करने से हमेशा ही हतोत्साहित किया और कहता रहा कि वह अपराध कर रहा है। परिणाम यह हुआ कि वह यातायात नियमों और कानूनों के प्रति आज भी अतिरिक्त सतर्क है। इसके विपरीत, छोटे बेटे तथागत को सोलह वर्ष की अवस्था से पहले ही मोटरसायकिल चलाने को मिल गई। इस मामले में वह अपने बड़े भाई के मुकाबले अधिक असावधान और कम गम्भीर बना हुआ है।
यदि हम तनिक सावधानी से, तनिक ध्यानपूर्वक देखें तो हमें हमारे आस-पास ऐसे पचासों प्रकरण उपलब्ध हो जाएँगे जहाँ छोटी सी बात ने बाड़ा बिगाड़ दिया या फिर जिन्दगी सँवार दी। रत्नावली के एक उपालम्भ ने दुनिया को गोस्वामी तुलसीदास उपलब्ध करा दिया। मूक मादा क्रौंच के क्षणिक विलाप ने एक लुटेरे को वाल्मिकी बना दिया। वृद्ध, रोगी और मृत देह ने एक राजकुमार को गौतम बु़द्ध बना दिया। भार्या की बेवफाई ने राजा को सन्यासी भर्तहरी बना दिया। ये तो नाम मात्र के उल्लेख हैं।


वस्तुतः, पहली बार के स्खलन को जब हम छोटी बात या ‘ऐसा तो होता रहता है’ जैसे जुमले उच्चार कर छोड़ देते हैं तो नहीं जानते कि हम स्खलन को स्वीकार कर उसकी आवृत्ति को प्रोत्साहित कर रहे होते हैं। वह कहानी याद हो आती है जिसमें मृत्यु दण्ड पाने वाला अपराधी अपनी अन्तिम इच्छा के रूप में में अपनी माँ के कान में कुछ कहने की अनुमति लेता है और कुछ कहने के स्थान पर अपनी माँ का कान काट लेता है। कहता है कि यदि पहली बार चोरी करने पर माँ ने टोका होता तो मृत्यु दण्ड की नौबत नहीं आती।


निष्कर्ष यह कि कोई भी बात छोटी नहीं होती। हर बात अपना व्यापक अर्थ रखती है और उससे भी अधिक व्यापक प्रभाव छोड़ती हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो मेरा लिखा ‘बिना विचारे’ नहीं पढ़ा जाता और न ही यह टिप्पणी लिखने की स्थिति बनती।


यह छोटी बात नहीं है।

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जैन साहब का पत्थर


जैन साहब जिस तटस्थ-भाव और अविचलित स्वर में बोल रहे थे, वह मुझे चकित ही कर रहा था। उनकी जगह मैं होता तो अपनी ‘वैसी’ सफलता पर पता नहीं क्या कर बैठता! पर जैन साहब अपनी व्यक्तिगत सफलता की सूचना सहज भाव से, संयत स्वरों में ऐसे दे रहे थे मानो किसी और के किए की जानकारी दे रहे हों।


जैन साहब याने श्रीयुत (प्रो) रतनलालजी जैन । प्राध्यापक पद से सेवानिवृत्त भले ही हो गए किन्तु उनकी कलम चलती रहती है। मालवा अंचल में, सम्पादक के नाम नियमित रूप से पत्र लिखनेवालों (और छपनेवालों) की सूची के पहले पाँच में से एक। रहते तो नीमच में हैं किन्तु छाए रहते हैं पूरे मालवा में। वे ही जैन साहब फोन पर बता रहे थे कि कैसे उन्होंने नितान्त व्यक्तिगत प्रयासों से दो फूहड़, भोंडे और अश्लील होर्डिंग हटवाने में सफलता पाई।


ये दोनों होर्डिंग कण्डोम के विज्ञापनों के थे और सार्वजनिक स्थानों पर प्रमुखता से ऐसे लगे हुए थे कि आते-जाते लोग न चाहें तो भी उन्हें देखें। एक होर्डिंग में स्त्री-पुरुष लगभग सम्भोगरत मुद्रा में ही दिखाई दे रहे थे और दूसरे में ‘सम्पूर्ण आनन्दपूर्वक, सुरक्षित सम्भोग’ का आमन्त्रण दिया जा रहा था। दोनों होर्डिंगो को हजारों ने देखा होगा, सैंकड़ों को बुरा लगा होगा, बीसियों ने खिन्नता जताई होगी किन्तु इन्हें हटवाने की कोशिश करने का अवकाश किसी के पास नहीं रहा होगा। सबके पास अपने-अपने काम और उनसे उपजी भरपूर व्यस्तता रही होगी।


किन्तु जैन साहब इन सबमें कहीं भी शरीक नहीं हो पाए। उनकी फितरत ही ऐसी है। सो, पहली बार नजर पड़ते ही उन्होंने ‘नईदुनिया’ को सम्पादक के नाम पत्र लिखा। यथेष्ठ समय तक प्रतीक्षा के बाद भी नहीं छपा तो फिर दूसरा पत्र पोस्ट किया। वह भी नहीं छपा। जैन साहब को आश्चर्य नहीं हुआ। वे भली प्रकार जानते हैं कि बाजार ने अच्छे-अच्छों को बदल दिया है। इसी के चलते, सामाजिक सरोकारों पर विज्ञापनों का लालच भारी पड़ गया हो तो ताज्जुब नहीं।


किन्तु जैन साहब चुप बैठनेवालों में से नहीं थे। सो चुप नहीं बैठे। उन्होंने जिला प्रशासन के उच्चाधिकारियों से सम्पर्क किया। उनसे होर्डिंग हटाने का आग्रह करने के बजाय कहा कि अधिकारीगण कम से कम एक बार अपने बच्चों के साथ जाकर दोनों होर्डिंग देखें अवश्य और फिर जैसा लगे, वैसा करें। जैसाकि होता है (और होना था), जैन साहब की बात पहली बार किसी को सुनाई नहीं दी। किन्तु जैन साब कब चुप बैठने वाले थे? सो, फिर बोले। इस बार एक अधिकारी ने यह आवाज सुनी। जैन साहब के आग्रह का ‘पेंच’ इस अधिकारी ने समझा और बच्चों के साथ नहीं, अकेले ही जाकर दोनों होर्डिंग देखे। इसका प्रभाव और परिणाम यह हुआ कि पहले तो उसने वहीं से फोन कर, दोनों होर्डिंग हटवाने के निर्देश दिए और अपने घर-दफ्तर बाद में लौटा। लौट कर उसने जैन साहब को धन्यवाद दिया और की गई कार्रवाई की जानकारी दी।


यही किस्सा जैन साहब मुझे फोन पर सुना रहे थे-सम्पूर्ण सहजता से, बिलकुल शान्त और संयत स्वरों में। मैं चकित था। इस जमाने में किसी अधिकारी से, व्यक्तिगत स्तर पर, बिना किसी धमकी और तोड़-फोड़ के ऐसा काम करवा लेना मुझे किसी चमत्कार से कम नहीं लग रहा था। इसके समानान्तर, उस अधिकारी के प्रति प्रशंसा भाव भी उपज रहा था जिसने यह चमत्कारी काम चुपचाप कर दिया। मैंने जैन साहब से उस अधिकारी का नाम पूछा तो जैन साहब बोले -‘नहीं बताऊँगा। तेरा कोई भरोसा नहीं। तू उसका नाम छाप देगा और वह भला आदमी कण्डोम कम्पनियों की धन-क्षमता के कारण परेशान कर दिया जाएगा। पैसों से सरकारें खरीदनेवाली इन कम्पनियों के लिए एक अफसर का तबादला करवाना तो चुटकी बजाने से भी कम मेहनत का काम है।’ जैन साहब की बात मुझे फौरन ही समझ आ गई। मैं चुप हो गया।


इस बात को तीन दिन हो गए हैं। मैं चाह कर भी यह किस्सा नहीं भुला पा रहा हूँ। जैन साहब इस समय पचहत्तरवें साल में चल रहे हैं। उन्हें क्या पड़ी थी यह सब करने की? आराम से घर में बैठ कर भजन-पूजन करते रहते या पोते-पोतियों के साथ खेलते रहते! लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं कर पाते। ऐसे लोग अपने लिए पेरशानियाँ पैदा करते रहते हैं। यह अलग बात है कि ये परेशानियाँ उनकी अपनी नहीं, सारे जमाने की होती हैं। दुष्यन्त कुमार आज होते तो जैन साहब और जैन साहब जैसे लोग पाकर बच्चों की तरह खुश हो जाते। ऐसे ही लोगों के लिए तो उन्होंने लिखा होगा - एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।


जैन साहब ने तबीयत से पत्थर उछाला। नतीजा हमारे सामने है।

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प्रतिभा पाटिल बनाम झमकू


मेरे जिले की, जनजातीय (भील) समाज की सागुड़ी, रुपली, भागूड़ी, झमकू, दरली, तीजड़ी, फुन्दी और ऐसी ही अन्य कई स्त्रियों ने अनायास और अचानक ही, राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल की बराबरी कर ली। इससे पहले वे एक मामले मे ही उनके बराबर थीं। अब दो मामलों में वे प्रतिभाजी के बराबर हो गई हैं।

वस्तुतः, मेरे जिले में पंचायत चुनाव चल रहे हैं। मेरे जिले का बड़ा भू भाग जनजातीय (भील) समाज की आबादीवाला है। इसमें कई ग्राम पंचायतों और जनपदों के पंच, सरपंच, जनपद सदस्य, जनपद अध्यक्ष आदि पद महिलाओं के लिए सुरक्षित हैं। ऐसे पदों की उम्मीदवार अनजाने में ही, अचानक ही श्रीमती पाटिल की बराबरी में जा बैठीं हैं।

‘साप्ताहिक उपग्रह’ के प्रकाशक परिवार ‘छाजेड़ परिवार’ से मेरा रिश्ता अब केवल अखबार और स्तम्भ लेखक का नहीं रह गया है। आज वह मेरा ‘संरक्षक परिवार’ है और मैं उन पर आश्रित, उनसे संरक्षित। मेरे मोटापे के कारणों में से एक कारण यह भी है कि अपनी अनेक चिन्ताएँ और उत्तरदायित्व ‘छाजेड़ परिवार’ को सौंप कर मैं निश्चिन्त हो गया हूँ।

सो, छाजेड़ प्रिण्टरी पर मेरा उठना-बैठना अब मेरे द दैनन्दिन जीवन का हिस्सा बन गया है। वहाँ बैठने के दौरान ही मेरा ध्यान इस बात पर गया। विभिन्न पदों की उम्मीदवारों के प्रचार के पर्चे, पोस्टर और नकली मतपत्र वहीं छप रहे थे। वर्तनी की अशुद्धियाँ देखने के लिहाज से मैं, छाजेड़ प्रिण्टरी पर छपनेवाली सामग्री को देखता रहता हूँ। इसी क्रम में मैंने इन उम्मीदवार महिलाओं की प्रचार सामग्री देखी। वर्तनी की अशुद्धियाँ देखते-देखते अचानक ही मेरा ध्यान इस बात पर गया कि प्रत्येक उम्मीदवार के नाम के साथ उसके पति का नाम भी दिया गया है। मेरी जिज्ञासा बढ़ी तो मैंने प्रायः ऐसे प्रत्येक पर्चे, पोस्टर और नकली मत पत्र को ध्यान से देखा। नहीं। एक भी कागज ऐसा नहीं दिखाई दिया जिस पर किसी महिला उम्मीदवार के पति का नाम साथ में नहीं दिया गया हो।

दूसरी जिस बात पर मेरा ध्यान गया वह थी, प्रेस पर महिला उम्मीदवारों की अनुपस्थिति। छपाई के लिए आनेवाले सबके सब पुरुष थे। महिला एक भी नहीं। मेरे कौतूहल ने परिहास की शक्ल ले ली। आनेवालों से मैंने अलग-अलग, व्यक्तिगत स्तर पूछताछ की तो सबने एक ही उत्तर दिया कि उनकी पत्नी को कोई नहीं जानता। उनका तो केवल नाम तथा चित्र है और चुनाव तो वास्तव में पति ही लड़ रहे हैं। वोट भी पति के नाम पर और पति के कारण ही मिलेंगे। कुछ ने तो यहाँ तक कहा कि पंचायतों की बैठक में भी पति ही जाएँगे और पत्नी के अंगूठे की जगह वही (पति ही) अंगूठा लगाऍंगे।

मेरा परिहासी मन उदास हो गया। महिला जाग्रति का यह स्वरुप मेरे लिए तनिक अटपटा और अनपेक्षित ही था। नगरीय क्षेत्रों मे भी ‘पार्षद पति’, ‘अध्यक्ष पति’, ‘महापौर पति’ का पद सृजित अवश्य हो गया किन्तु स्थानीय निकायों के सम्मेलनों में महिलाएँ भागीदारी करती हैं। भले ही वे ‘गूँगी गुड़िया’ बनी रहें किन्तु उपस्थिति के हस्ताक्षर तो खुद ही करती हैं। पहचान तक तो पति का नाम स्वाभाविक माना जा सकता है किन्तु लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं में तो उन्ही महिलाओं को भागीदारी करनी चाहिए जो चुनवा जीत कर निकायों में पहुँची हैं।

अचानक ही मुझे अपनी राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल याद हो आईं। प्रतिभाजी ने योग्यता, क्षमता और प्रतिभा के दम पर खुद को साबित किया और राजनीति के कुटिल और जटिल संसार में खुद को स्थापित किया। इन्हीं सब बातों के चलते वे विधायी सदनों में और बाद में एकाधिक संवैधानिक पदों तक पहुँचीं।

राष्ट्रपति बनने से ठीक पहले वे राजस्थान की राज्यपाल थीं। राजस्थान उनका ससुराल भी है। किन्तु तब तक उनके नाम के साथ उनके पति श्री देवीसिंह शेखावत का नाम उल्लेखित नहीं किया जाता था। राष्ट्रपति बनने के बाद से ही वे ‘श्रीमती प्रतिभा पाटिल’ से बदल कर ‘श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल’ हो गईं। नहीं पता कि यह परिवर्तन क्योंकर हुआ या क्योंकर करना पड़ा। वास्तविक कारण तो प्रतिभाजी ही जानें किन्तु इस परिवर्तन का सीधा सन्देश गया कि भारतीय स्त्री को अपनी स्‍वतन्‍त्र पहचान बनाने के लिए अभी भी लम्बा संघर्ष करना शेष है।

मुझे अनायास ही याद आया कि एक महिला कलेक्टर से जब मैंने बीमे की बात की तो योजना समझकर वे बीमा कराने को तैयार तो हो गईं किन्तु अन्तिम निर्णय के लिए उन्हें अपने पति से पूछना जरूरी लगा। कलेक्टर साहिबा की उपस्थिति में मैं उनके पति से मिला तो पति महोदय ने बिना कोई कारण बताए इंकार कर दिया। कलेक्टर साहिबा ने कारण जानना चाहा तो जवाब मिला - ‘मैंने कह दिया कि नहीं तो नहीं। क्या यह कारण पर्याप्त नहीं है?’ बेचारी कलेक्टर साहिबा! वे संकोच के मारे मेरी ओर देख भी नहीं पा रही थीं।

इस किस्से ने मुझे तनिक सहज तो किया किन्तु उदासी दूर नहीं हो सकी। फिर मैंने अपने आप को समझाया कि मेरे जिले की, जनजातीय समाज की ये महिलाएँ अब तक केवल एक मामले में ही प्रतिभाजी के बराबर थीं - वे भी भारतीय और ये भी भारतीय। किन्तु अब इन महिलाओं ने एक और मामले में प्रतिभाजी की बराबरी कर ली - उनका काम भी पति के नाम के बिना नहीं चलता और इनका काम भी पति के नाम के बिना नहीं चलता।

फिलहाल तो यह समानता ही मुझे तसल्ली दिला रही है।
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मालवा का महाकाल


याद नहीं आता कि निगम साहब से इस बार का मिलना कितने बरसों बाद हुआ। लेकिन मिलने पर पाया कि वे वैसे के वैसे ही हैं जैसे कि कुछ बरस पहले मिले थे। लगा, उन्होंने काल को अपनी मुट्ठी में बन्द कर नियन्त्रित कर लिया हो।


मैं बात कर रहा हूँ उज्जैन निवासी डॉ। श्याम सुन्दरजी निगम की। 1977 के अगस्त में मैं रतलाम में आया तो किराये का पहला मुकाम बना, पेलेस रोड़ पर श्रीकमला शंकरजी ओझा का मकान ‘प्रशान्ति निलयम्’। तब निगम साहब रतलाम कॉलेज में पढ़ा रहे थे और ‘प्रशान्ति निलयम्’ में ही किरायेदार थे। वे 1969 1980 तक रतलाम कॉलेज में रहे। सो, उनके कार्यकाल के अन्तिम दो-ढाई साल उनका सत्संग मिला। तब मैं नव विवाहित था। ज्ञान और दुनियादारी के मामलों में उन्होंने मुझे भरपूर समृद्ध किया। उन्हें लेकर मेरे पास संस्मरणों का खजाना है लेकिन एक अब तक उन सबमें ‘टॉप’ पर बना हुआ है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे लेकर निगम साहब अब भी खुद पर हँसने का अजूबा और साहस कर लेते हैं।

पीएच. डी. करने से पहले निगम साहब कोई सात-आठ विषयों में एम.ए. होने के अतिरिक्त एम. कॉम., एल. एल. बी., भिषगाचार्य, साहित्याचार्य, साहित्य रत्न, शिक्षा रत्न, आयुर्वेद रत्न जैसी उपाधियों के स्वामी भी हैं। कुछ उपाधियों में उन्होंने प्रावीण्य सूची में स्थान प्राप्त किया तो कुछ में स्वर्ण पदक भी हासिल किए। शेष सबमें प्रथम श्रेणी ही प्राप्त की। पता नहीं यह सब उन्होंने कब और कैसे किया होगा। मेरा यह संस्मरण उनकी इन्हीं उपाधियों को लेकर उपजा।

निगम साहब ने अपने निवास के बाहर अपनी नेम प्लेट लगा रखी थी जिस पर इन सारी उपाधियों का उल्लेख था। मैंने एक-दो बार ही इनका नोटिस लिया था। किन्तु एक दिन वह हो गया जिसकी कल्पना और किसी को हो न हो, निगम साहब को तो कभी नहीं रही होगी।
यह सम्भवतः अप्रेल 1980 के किसी एक दोपहर की बात होगी। गर्मी ने पाँव पसारने शुरु कर दिए थे। घरों में पंखे चलने लगे थे। सड़कें नीरव होने लगी थीं। निगम साहब और मैं, उनके अगले कमरे में बैठे बातें कर रहे थे। अचानक ही दो बच्चों की बातों ने हमारा ध्यानाकर्षण किया। दोनों बच्चे दसवीं-ग्यारहवीं के छात्र रहे होंगे। रास्ते चलते उन्होंने निगम साहब की नेम प्लेट पढ़ी। ढेर सारी डिग्रियों को पढ़ने में समय तो लगना ही था। सो, दोनों खड़े रह कर पढ़ने लगे। पढ़ने के बाद दोनों में कुछ इस तरह सम्वाद हुआ -
‘देख तो रे! इसने कित्ते सारे एम. ए. कर रखे हैं!’
‘हाँ! यार, भोत सारे हैं।’
‘यार! इत्ते सारे एम. ए. करने में तो भोत पढ़ना पड़ा होगा!’
‘चल-चल, इत्ता कोई पढ़ सकता है? नहीं पढ़ सकता। जरूर इसने टीप-टीप कर (नकल कर) पास की होंगी।’
‘हाँ यार! तू सई के रिया है। टीप कर ही पास हुआ होगा।’

अन्तिम वाक्य कहने के साथ ही दोनों बच्चे तो चले गए लेकिन मैं और निगम साहब अवाक् हो, एक दूसरे की शकल देखने लगे। कुछ भी सूझ नहीं पड़ा कि बच्चे क्या कह गए और क्या हो गया! बाहर पसरा सन्नाटा कमरे के भीतर तक चला आया था। निगम साहब के चेहरे पर एक के बाद एक रंग आ-जा रहे थे। मैं संकोचग्रस्त हो अपने में ही सिमट गया था। हम दोनों एक दूसरे की साँसों की आवाज और हृदय की धड़कनों को साफ-साफ सुन रहे थे। कितना समय इस दशा में बीता, हम दोनों को अब तक याद नहीं। लेकिन जल्दी ही निगम साहब अपने में लौटे और बुक्का फाड़ ठहाका लगा कर मालवी में बोले - ‘हत्तेरे की। या बात तो मारा ध्यान में आज तक नी आई के ऐसो भी वेई सके। अब तो मने भी लागवा लाग्यो के मूँ टीपी नेऽज पास व्यो वूँगा।’ (धत्तेरे की। यह बात तो आज तक मेरे ध्यान में भी नहीं आई कि ऐसा भी हो सकता है। अब तो मुझे भी लगने लगा है कि मैं नकल करके ही पास हुआ होऊँगा।) पहले तो ठहाका और फिर यह वाक्य सुनकर मेरी साँस में साँस आई और मैं भी ठहाका मार कर निगम साहब के साथ हो लिया। उसके बाद निगम साहब ने सबसे पहले जो काम किया वह था - जोर-जोर से हँसते हुए, अपनी नेम प्लेट उतारने का। शायद वे इस घटना की आवृत्ति की जोखिम लेने को अब क्षणांश को भी तैयार नहीं थे।

कई सारी बातें आई-गई हो गईं किन्तु यह बात आज भी जस की तस बनी हुई है। सो, इस बार दो जनवरी को जब मैंने उनके चरण स्पर्श किए तो उन्होंने यही किस्सा याद करते हुए मुझे बाँहों में भर लिया।

इस समय वे 79वें वर्ष में चल रहे हैं किन्तु उन्हें देख कर लगता है कि वे अभी कॉलेज जाने के लिए निकल पड़ेंगे। 1991 में सेवा निवृत्त होने के बाद वे जिस योजनाबद्ध तरीके से सक्रिय हुए, लगा कि वे सेवा निवृत्ति की प्रतीक्षा कर रहे थे। अपनी आदरणीया माताजी के नाम पर उन्होंने ‘कावेरी शोध संस्थान्’ की स्थापना कर अपने निवास को मानो तीर्थ बना लिया। क्षेत्रीय लोक परम्पराएँ,भारतीय सामाजिक एवम् आर्थिक जीवन का इतिहास, पुराभिलेख एवम् पुरालिपि विज्ञान, क्षेत्रीय/आंचलिक इतिहास, विभिन्न युगीन भारतीय संस्कृति जैसे जटिल विषय उनके प्रिय विषय हैं। अब तो उन्हें भी याद नहीं कि उनके निर्देशन में कितने बच्चों ने पीएच. डी. कर ली है। सम्मेलनों/संगोष्ठियों मे भागीदारी, विभिन्न ग्रन्थों का सम्पादन, शोध आलेख लेखन, टीवी/रेडियो पर साक्षात्कार और वार्ताएँ, ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाएँ, पर्यावरण रक्षण की गतिविधियाँ आदि काम उन्हें फुरसत में नहीं रहने देते। उनके निवास पर दो-चार शोधार्थी बने ही रहते हैं। निगम साहब की जीवन संगिनी आदरणीया भाभीजी श्रीमती स्नेहलता निगम, ‘गुरु माता’ की तरह उनकी देखभाल करती हैं। चार शोध ग्रन्थों सहित 15 पुस्तकें, हिन्दी एवम् अंग्रेजी में साठ से अधिक शोध पत्र, दो सौ से अधिक आलेखों का प्रकाशन उनके खाते में जमा हैं। गए आठ वर्षों से हिन्दी-अंग्रेजी त्रैमासिक ‘शोध समवेत’ का प्रकाशन निरन्तर किए हुए हैं। उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों का काम इस पत्रिका के बिना नहीं चलता। उल्लेखनीय बात यह है वे सरकार से फूटी कौड़ी भी नहीं लेते। सब कुछ अपने और मित्रों के दम पर कर रहे हैं। ‘सीकरी’ ने उन्हें रिझाने की अनेक कोशिशें की किन्तु इस ‘सन्त’ ने एक बार भी उसकी नहीं सुनी। इस महर्षि के सामने सत्ता सदैव की ‘चेरी भाव’ से ही नतमस्तक खड़ी रहने को विवश हुई है।

निगम साहब उज्जैन में गौ घाट के पास स्थित केशव नगर कॉलोनी में निवासरत हैं। उनके निवास का नाम समर्पण और मकान नम्बर 34 है।उज्जैन महाकाल की नगरी के रूप में जाना जाता है। लेकिन मेरा मानना है कि वहाँ दो महाकाल हैं। एक सारी दुनिया के और दूसरे मालवा के महाकाल।

अगली बार उज्जैन जाएँ तो मालवा के महाकाल के दर्शन भी कीजिएगा। उनसे मिल कर लौटते समय तीर्थ दर्शन का आनन्द साथ-साथ चला आता है। हाँ, जाने से पहले फोन नम्बर (0734) 2551317 पर तलाश अवश्य कर लें। कहीं ऐसा न हो कि आप ‘समर्पण’ पहुँचें तो मालूम पड़े कि मालवा का महाकाल किसी बौद्धिक समुदाय को समृद्ध करने के लिए विचरण कर रहा है।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.