मेरी तो हो गई दीवाली


लोगों को दीपावली की रात को लक्ष्मी मिलती है । मुझे तो दीपावली की ऐन सवेरे-सवेरे ही मिल गई ।
'अनवरत' से प्रेरित हो, मैं अपने ब्लाग की ‘मुख-मुद्रा’ बदलना चाहता था । इसी तरह, मुझ पर कृपा वर्षा करने वालों के ब्लागों की सूची भी मैं अपने ब्लाग पर देना चाहता था । लेकिन यह कैसे किया जा सकता है, नहीं जानता था । रविजी (श्री रवि रतलामी) के अतिरिक्त रतलाम में और कोई भी ऐसा नहीं जो इसमें सहायता दे सके । रविजी से एक-दो बार बात हुई अवश्‍य थी लेकिन ‘हाँ, कभी भी कर लेंगे’ वाला स्थायी भाव बना हुआ था । इस बीच अचानक ही रविजी भोपाल निवासी हो गए । मैं रह गया एकाकी, निरुपाय ।

कुछ दिनों पूर्व रविजी ने सूचित किया था कि वे 21 अक्टूबर को रतलाम आ रहे हैं - एक कोर्ट पेशी पर । सोचा था, उस दिन उन्हें साँस लेने का भी अवकाश नहीं दूँगा, उनका तेल निकाल दूँगा । लेकिन जिन जज महोदया के यहाँ सुनवाई होनी थी, वे उस दिन अवकाश पर थीं । सो, रविजी आए तो थे टहलते हुए लेकिन लौट गए हवा के पैरों । भेंट भी नहीं हो पाई ।

दीपावली की सवेरे मोबाइल की घण्टी बजी । पर्दे पर रविजी का नाम उभर रहा था । नमस्कार और दीपावली अभिनन्दन के बाद उन्होंने चैंकाया - ‘रतलाम से ही बोल रहा हूँ । अपना तेल निकजवाने कब आऊँ ?’ और तय हो गया कि वे दस मिनिटों में मेरे निवास पर पहुँच रहे हैं ।

वे आए और बिना किसी औपचारिकता के, मेरी मनोकामना पूरी करन में जुट गए । कोई घण्टा-सवा घण्टा लगा और मेरा ब्लाग बिलकुल वैसा ही सामने था जैसा मैं चाह रहा था । उसकी ‘मुख मुद्रा’ बदल गई थी और कृपालुओं के ब्लागों के नाम सूचीबध्द हो चुके थे । जो कृपालु नियमित रुप से मेरे ब्लाग पर दृष्टिटपात करते हैं, उन्होंने इस परिवर्तन को अवश्‍य ही अनुभव किया होगा ।

सो मेरी यह दीपावली, मनोकामना पूरी करने वाली रही । जो इच्छा की थी, पूरी हुई । अब तक मेरा ब्लाग सपाट था, बंजर जमीन की तरह । अब उस पर कई ब्लागों के वट वृक्ष तने खड़े हैं, मुझे छाया देते हुए, मेरी रखवाली करते हुए ।

जैसी दीपावली मेरी हुई, ईश्‍वर वैसी सबकी करे । जिसने जो कामना की हो, वह पूरी हो ।

यदि कोई क़पालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्‍लाग का सन्दर्भ अवश्‍‍य दीजिएगा । यदि इस सामग्री को मुद्रित स्वरूप प्रदान करते हैं तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे उपलब्‍‍ध कराने की कष्ट उठाइएगा । मेरा पता है - पोस्‍‍ट बाक्‍‍स नम्‍‍बर-19, रतलाम-457001 (मध्य प्रदेश)

लक्ष्मी-पति बनाम लक्ष्मी-पुत्र

इस दीपावली, मैं एक विचित्र किन्तु रोचक दुर्घटना का शिकार होता रहा - पूरे दिन भर । कल मेरी पूछ-परख नाम मात्र को ही हुई, मानो मजबूरी में या फिर औपचारिकतावश करनी पड़ रही हो । इसके विपरीत, मेरी पत्नी कल अतिरिक्त रूप से व्यस्त रही । इतनी व्यस्त कि अस्तव्यस्त हो गई । यह सब मेरे नाम के कारण हुआ ।
जूते खोलने के श्रम से बचने के लिए जो मिलनेवाले, मेरे दरवाजे में भी नहीं घुसते थे वे, झुक-झुक कर, अपने जूतों के फीते खोलने का दुरुह श्रम कर मेरे ड्राइंग रूम को पार कर, ठेठ रसोई तक में जाकर मेरी पत्नी का अभिवादन कर रहे थे, चरण स्पर्श कर रहे थे, आशीर्वाद/शुभ-कामनाएँ लेने को टूटे जा रहे थे ।
मैं हैरान था । मेरे खाते में ‘कैसे हैं ?’ या फिर ‘हेप्पी दीवाली’ जैसे शब्द-युग्म आ रहे थे । मैं विस्मित, क्षुब्ध और चकित था । समझ नहीं पा रहा था कि त्यौहार वाले दिन मेरे ही घर में मेरी अनदेखी क्यों की जा रही है ?
अपने ही घर में अपनी ही उपेक्षा (वह भी ‘घर की लुगाई’ के मुकाबले) भला कोई कब तक सहन कर सकता है ? सो, जब धैर्य ने साथ छोड़ दिया तो एक मित्र से पूछ ही लिया - ‘भैया ! आज अपनी भाभी की इतनी पूछ-परख क्यों ? मैं दिखाई क्यों नहीं पड़ रहा हूं ?’ मित्र ने मुझे ऐसे घूरा मानो ऐसा ‘निरा-मूर्ख’ जीवन में पहली बार देख रहा हो । मुझ पर तरस खाते हुए जवाब दिया - ‘मिथ्या दम्भ ने आपकी अकल को ढँक लिया है इसीलिए छोटी सी बात भी इतने बड़े भेजे में नहीं आ रही है । अरे भाई ! दीपावली के दिन तो 'विष्‍णु' की नहीं, ‘विष्‍णु-भार्या’ की पूछ-परख होती, । आपका क्या है, बीमा एजेण्ट हो । कभी भी, कहीं भी, रास्ते चलते मिल जाते हो । आज ‘विष्‍णु’ का नहीं, ‘विष्‍णु प्रिया’ का दिन है । तीन सौ चैंसठ दिन आपको नमन करते हैं, एक दिन तो ‘विष्‍णु-पत्नी’ को नमस्कार कर लेने दो ।’
सुनकर पहले तो मैं अचकचाया । बात हजम नहीं हुई। ‘आहत-अहम्’ का मामला था । सो, मैं ने उन्हें मालवा की एक लोक-कथा सुनाई ।
श्रीलक्ष्मीनाराण मन्दिर में विग्रह स्वरूप में विराजित भगवान विष्‍णु दीपावली की सवेरे से ही अपने भक्तों के आचरण को सस्मित देखे जा रहे थे । रोज उनकी कृपा की याचना करने वाले भक्त आज कुछ माँगे बिना ही, केवल प्रणाम कर लौट रहे थे । मनुष्‍य के मन की राई-रत्ती खबर रखने वाले भगवान विष्‍णु ने, दर्शनार्थ आए भक्तों के एक समूह को रोक कर पूछ ही लिया - ‘आज आप लोग मुझसे कुछ नहीं माँग रहे, अपने निवास को अपनाने का आग्रह नहीं कर रहे ?’ तनिक साहस सँजो कर एक भक्त ने उत्तर दिया - ‘भगवन् ! आज आप क्षीर सागर में ही विश्राम करें । आज हमें आपकी अर्ध्‍दांगिनी चाहिए । उन्हें भेज दीजिएगा ।’ अन्तर्यामी सहास्य बोले - ‘‘भेज तो दूँगा लेकिन एक बात याद रखना । मेरी यह ‘सदा-सौवना भार्या’ यदि अमावस्या की अँधेरी-काली रात में दुनिया भर के दरवाजों में झाँक-झाँक कर देखती है तो इसका कारण यह नहीं है कि मैं बूढ़ा हो गया हूं । यह पूर्ण पतिव्रता और स्वामीनिष्‍ठ है । यदि तू इसे ‘स्वामी भाव’ से अपने यहाँ रखना चाहता है तो अपना भ्रम दूर कर लेना । यह मेरे पास नहीं रहती तो तेरे पास क्या रहेगी ? ध्यान से विचार कर, सोच ! यह ‘स्वामी’ की खोज में दर-दर नहीं भटकती । यह पुत्रविहीना, पुत्र की तलाश में घर-घर भटकती है । तू ‘पुत्र-भाव’ से इसकी कामना करेगा तो यह आजीवन तुझ पर कृपा वर्षा करती रहेगी । तू भले की ‘कुपुत्र’ बन जाए, यह कभी भी ‘कुमाता’ नहीं बनेगी ।’
यह लोक-कथा सुन, मेरी पत्नी की ओर लपक रहे मेरे मित्र ‘हें ! हें !’ करते मेरे पास बैठ कर दीपावली की मिठाई के साथ न्याय करने लगे ।
मेरा आहत अहम् तुष्‍ट हो चुका था ।

यदि कोई क़पालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्‍लाग का सन्‍दर्भ अवश्‍य दीजिएगा । यदि इस सामग्री को मुद्रित स्‍वरूप प्रदान करते हैं तो कृपया सम्‍बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे उपलब्‍ध कराने की कष्‍ट उठाइएगा । मेरा पता है - पोस्‍ट बाक्‍स नम्‍बर-19, रतलाम-457001 (मध्‍य प्रदेश)

अभिनन्‍दन

दीपावली

एवं

नव वर्ष

के

मंगल प्रसंग पर

हार्दिक अभिनन्दन

एवम्

आत्मीय शुभ-कामनाएँ ।


जातियों, धर्मों, वर्गों, वर्णों

से ऊपर उठकर

हम भारतीय

बन सकें ।

अर्श और फर्श की विसंगत दीपावली

व्‍यक्तित्‍व विकास और कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए ‘सकारात्मक दृष्टिकोण’ इन दिनों मुहावरे की तरह प्रचलन में है । लेकिन यह सब अब तक पूरी तरह व्यक्तिगत सन्दर्भों में ही प्रयुक्त किया जा रहा है । क्या इसे किसी ‘राष्‍ट्र’ के सन्दर्भ में प्रयक्त किया जा सकता है या किया जाना चाहिए ? मेरा उत्तर है - हाँ । यह जानते हुए भी कि इसे क्रियान्वित कर पाना अत्यधिक दुष्‍कर है, लगभग असाध्य की सीमा तक । लेकिन प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में बदलने की इच्छा शक्ति वाला नेतृत्व मिल जाए तो कुछ भी सम्भव है ।
बाईस अक्टूबर से लेकर अब तक मैं ऐसी ही बातों में उलझा हुआ हूँ । उस दिन सवेरे जल्दी उठ गया था । चन्द्रयान-1 के प्रक्षेपण का जीवन्त प्रसारण देखने की उत्कण्ठा ने वैसे भी बराबर सोने नहीं दिया था । भारत का यह पहला उपग्रह है जो धरती की कक्षा से बाहर गया है । मैं इस क्षण का ‘चक्षुदर्शी साक्ष्य’ बनना चाहता था । सब कुछ समयानुसार ही हुआ । प्रक्षेपण के प्रारम्भिक क्षण तो देखे किन्तु आगे केवल ग्राफिक चार्ट देखकर ही सन्तोष करना पड़ा । बादल छाए हुए थे, सो चन्द्रयान-1 को आकाश में उड़ते हुए नहीं दिखया जा रहा था । इस ऐतिहासिक क्षण का साक्ष्यी बन कर अत्यधिक आत्मसन्तोष तो हुआ, प्रसन्नता उससे करोड़ों गुना अधिक हुई । हर्षजनित आवेग और रोमांच ने अनियन्त्रित कर दिया । कई मित्रों को नींद से उठा दिया, फोन पर बधाई दे-दे कर । दोपहर में कुछ जगह जाकर मिठाई खाई और खिलाई । पूरा दिन इस प्रसन्नता से सराबोर रहा । कोई काम नहीं कर पाया ।
सब कुछ ठीक चल रहा था कि चैबीस अक्टूबर को इस मनोदशा पर लगाम लग गई और वे सारी बातें मन-मस्तिष्‍क में घुमड़ने लगीं जो मैं ने यहाँ शुरु में लिखी हैं । तेईस अक्टूबर का 'जनसत्ता' मुझे चैबीस को मिला । उसके सामवें पृष्‍ठ पर, प्रभाषजी जोशी का, लखनऊ में, ‘अखिलेश मिश्र स्मृति’ में, ‘सवालों के घेरे में भारत का संसदीय लोकतन्त्र’ विषय पर दिए गए व्याख्यान का विस्तृत समाचार छपा था । प्रभाषजी ने भारतीय अर्थ व्यवस्था का शवोच्छेदन करते हुए जो आँकड़े दिए वे किसी भी सम्वेदनशील व्यक्ति को यदि चिन्तित न भी करते हों तो असहज तो कर ही देते हैं । प्रभाषजी के अनुसार, वर्ष 2004 में जब ‘मनमोहन सरकार’ आई तक देश में कुल जमा नौ लोग खरबपति थे जो 2006 में बढ़कर 36 तथा 2008 के पूरा होने से पहले ही, अब तक 56 हो गए हैं । याने, चार साल में खरबपति 6 गुना हो गए । इसी प्रकार 1996 में जीडीपी में कारपोरेट जगत का हिस्सा मात्र दो प्रतिशत था जो 2008 में बढ़कर 22 प्रतिशत हो गया जबकि खेती में लगे 69 करोड़ लोगों का जीडीपी में हिस्सा 17.5 प्रतिशत ही रहा । किन्तु वास्तकिता और भी भयावह है । देश में 84 करोड़ लोग प्रतिदिन 20 रुपये से भी कम कमा पा रहे हैं, 24 करोड़ लोग नहीं जानते कि उन्हें दूसरी जून का भोजन मिल पाएगा भी या नहीं और 21 करोड़ लोग तो ऐसे हैं जो नहीं जानते कि उन्हें भोजन कब मिलेगा ।
प्रभाषजी के भाषण वाले इस समाचार ने मुझे अत्यधिक असहज कर दिया । कहाँ तो चन्द्रयान-1 की उपलब्धि और कहाँ हजारों लोगों की क्षुधापूर्ति की अनिश्‍चतता ? ‘अर्श और फर्श’ के बीच कितनी विसंगति ? कितना विरोधाभास ? उस पर तुर्रा यह कि दोनों ही बराबर के सच ! हम गर्व करें या शोकान्तिका पढें ? या, एक पर गर्व करते हुए दूसरे को ‘नियति की क्रूरता’ कह अपने आप को समझा लेने की शुतुरमुर्गी मुद्रा अपना लें ?
जिस प्रकार निषेध सदैव आकर्षित करते हैं उसी प्रकार विसंगतियाँ और विरोधाभास भी हमारे सामने दो स्थितियाँ प्रस्तुत करते हैं । पहली - निराश, हताश होकर, सब कुछ ‘ईश्‍वरेच्छा’ मान कर, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें, यथास्थिति को जीते रहें । दूसरी - इन्हें चुनौती के रूप में लेकर इनसे दो-दो हाथ करने के लिए मैदान में आएँ । व्यक्तिगत स्तर पर दूसरी बात पर अमल कर पाना सम्भवतः अधिक सरल और सम्भव है । किन्तु बात यदि समूचे राष्‍ट्र की हो तो यह ‘सरल और सम्भव’ स्वतः ही ‘दुरुह और असम्भव’ में बदलता अनुभव होता है । तब बात, अन्ततः राष्‍ट्रीय नेतृत्व पर ही थमती है ।
हमारे पास नेता तो ढेर सारे हैं लेकिन ‘जन-नेता’ कोई नहीं । एक भी ऐसा व्यक्तित्व नहीं है जिसके एक आह्वान पर सारा देश उसके पीछे चल पड़े । लेकिन यह दशा अचानक ही तो नहीं बनी । राजा-रजवाड़ों, सामन्तों-जमींदारों का जमाना होता तो ‘यथा राजा, तथा प्रजा’ कह कर काम चला लेते । लेकिन आज तो हम (जैसा भी है, लेकिन है तो) संसदीय लोकतन्त्र में जी रहे हैं जहाँ ‘राजा’ का स्थान ‘निर्वाचित जनप्रतिनिधि’ ने ले लिया है । याने, आज स्थिति ‘यथा प्रजा, तथा राजा’ वाली हो गई है । जैसे हम, वैसे हमारे नेता । हम ही ने ‘उन्हें’ चुनकर भेजा है ।
ऐसे में ‘सकारात्मक मानसिकता’ वाला ‘फण्डा’ मुझे ‘अपील’ करता लग रहा है । श्रीमद्भगवद् गीता के अनुसार हमारा नियन्त्रण केवल स्वयम् पर, वह भी प्रयत्न तक ही है, किसी अन्य पर और परिणाम पर नहीं
कल हम सब दीपावली मनाएँगे, लक्ष्मी-पूजन करेंगे, लक्ष्मी हमारे आवास में प्रवेश करे इस हेतु अपना समूचा आवास जगमगाता हुआ बनाए रख कर, सारे दरवाजे खुले रखेंगे । गोया, हम भी, अपनी-अपनी क्षमतानुसार, खरबपति बनने का प्रयास कर रहे होंगे ।
क्या ऐसा सम्भव है कि उस समय हम उन लोगों को याद रख सकें और उनके लिए कुछ करने के बारे में निर्णय ले सकें जो नहीं जानते कि उन्हें भोजन कब मिलेगा ?
हम दीपावली कैसे मनाएँगे - विसंगतियों, विराधाभासों के सामने नतमस्तक होकर या उन्हें चुनौती के रूप में स्वीकार कर ?

अनूठा देनदार


कल की मेरी पोस्ट पर श्रीयुत अज्ञात (एनोनीमस) ने अपनी टिप्पणी के चैथे बिन्दु में वह बात कह दी है जिसे विषय बना कर मैं कल की पोस्ट लिखना चाहता था । मेरी तकदीर अच्छी है कि वे केवल सूत्र प्रस्तुत कर रह गए । अज्ञातजी को धन्यवाद कि उन्होंने न केवल मेरे लिए ठोस भूमिका बना दी बल्कि मेरी कल की पोस्ट की कुछ तथ्यात्मक भूलों की मरम्मत भी कर दी ।


अपनी रकम वसूली के लिए लोगों को लेनदार के दरवाजे पर जाकर तकादे करने पडते हैं । वित्तीय संस्थाएं अपनी बकाया वसूली के लिए ‘रिकवरी एजेण्ट‘ नियुक्त करती हैं जो ‘रिकवरी‘ के नाम पर डकैती या फिरौती वसूली करते नजर आते हैं । लेकिन भाजीबीनि इस मामले में ‘अनूठा देनदार’ है । अपने ग्राहकों को भुगतान करने के लिए यह दर-दर भटकता है और अखबारों में विज्ञापन देता है - आईए ! अपनी रकम ले जाइए और हमें कृतार्थ कीजिए ।

भाजीबीनि की योजनाओं में ‘मनी बेक पालिसी‘ सम्‍भवत: सर्वाधिक लोकप्रिय योजना है । इसके अन्तर्गत ग्राहक को प्रति पांच वर्ष बाद एक सुनिश्चित रकम मिलने का प्रावधान है । कुछ मनी बेक योजनाओं में यह अवधि चार वर्ष भी होती है । यह रकम प्राप्त करने के लिए ग्राहक को न तो कोई पत्र लिखना होता है और न ही भाजीबीनि कार्यालय के चक्कर काटने पडते हैं । भाजीबीनि पर्याप्त समय पूर्व (इन दिनों, लगभग एक माह पूर्व) ही अपने ग्राहकों को इस रकम का चेक भेज देता है । यह चेक पंजीकृत डाक से या स्पीड पोस्ट से भेजा जाता है । भाजीबीनि के रेकार्ड में ग्राहक का जो पता होता है, उसी पते पर चेक भेजा जाता है । ऐसा प्रायः ही होता है कि बीमा लेते समय ग्राहक का जो पता होता है वह चार-पांच वर्ष बीतते-बीतते बदल जाता है । ऐसे में, कई बार चेक, अवितरित होकर, भेजने वाले कार्यालय के पास लौट आता है । ऐसी दशा में कार्यालय, सम्बन्धित एजेण्ट को, अवितरित चेक पहुंचाने की जिम्मेदारी देता है । एजेण्ट को अपने ग्राहक का अता-पता मालूम होता है । सो, अवितरित होकर लौटने के बाद भी अधिकांश चेक सम्बन्धित ग्राहक तक, ठीक समय पर पहुंच ही जाता है ।


इतना सब होने के बाद भी कई लोग चेक को भूल जाते हैं । कई बार ऐसा होता है कि पंजीकृत डाक, परिवार के किसी सदस्य ने प्राप्त कर ली और वह लिफाफा रख कर भूल गया । ऐसे तमाम मामलों वाले चेक, बासी (स्टेल) होकर अपनी वैधता खो देते हैं । उधर, बैंक से मिलने वाले स्टेटमेण्ट के कारण भाजीबीनि कार्यालय को जल्दी ही मालूम हो जाता है कि ग्राहक के पास चेक पहुंचने के बाद भी वह बैंक में जमा नहीं हुआ है और ग्राहक की रकम, कार्यालय में जमा पडी रह गई है । ऐसे चेकों की संख्या हजारों तक और रकम का आंकड़ा (कम से कम) लाखों तक तो पहुंच ही जाता है ।


भाजीबीनि की जिस शाखा से मैं सम्बध्द हूं वहां ऐसे बासी चेकों की रकम 20 लाख रुपयों से अधिक हो गई है । मेरे कस्बे में भाजीबीनि की तीन शाखाएं हैं । उनमें से एक शाखा में यह रकम 25 लाख रुपये हो गई है । तीसरी शाखा की रकम का आंकडा न तो मुझे मालूम है और न ही मैं ने जानने की कोशिश की है ।

जैसा कि मैं ने अपनी पोस्ट में कल बताया था, देश भर में भाजीबीनि की 2048 शाखाएं हैं । मेरे कस्बे की दो शाखाओं के, बासी चेकों की रकम के आंकड़े के आधार पर यदि प्रति शाखा 15 लाख रुपयों का औसत मान लें तो 2048 शाखाओं का आंकड़ा 30,720 लाख रुपये बैठता है । इसे और अधिक आसान शब्दावली में कहा जाए तो यह रकम 30 अरब 72 लाख रुपये होती है । कृपया इसे ‘निगम’ का अधिकृत आंकड़ा बिलकुल न मानें, मेरे कस्बे की दो शाखाओं के आंकड़ों के आधार पर यह मेरा अनुमान है ।

कानून का तकाजा तो केवल इतना ही है कि बीमा कम्पनी, सम्बन्धित ग्राहक को, कम्पनी के पास उपलब्ध (ग्राहक के) पते पर चेक भेज दे । यदि चेक अवितरित होकर लौट आता है तो बीमा कम्पनी की जिम्मेदारी यहीं समाप्त हो जाती है । समझदार और चतुर व्यापारी ऐसी रकम को अपने व्यापार में प्रयुक्त करता रहेगा और ग्राहक को दूसरी बार याद दिलाने के बारे में सोचेगा भी नहीं ।


लेकिन भाजीबीनि ऐसे मामलों में यहीं पल्ला झाड कर नहीं रह जाता । चेक के बासी हो जाते ही वह अतिरिक्त रुप से सक्रिय हो जाता है । प्रत्येक शाखा का दावा विभाग ऐसे बासी चेकों की सूची लेकर ताक में बैठा रहता है कि कोई एजेण्ट आए और उसके सामने सूची रख कर अधिकाधिक ग्राहकों का भुगतान उसके जिम्मे किया जाए । जरूरी नहीं कि जिन ग्राहकों की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है वे उस एजेण्ट के ग्राहक हों या वह बीमा उसी एजेण्ट ने बेचा हो । ‘निगम’ की प्रत्येक शाखा का प्रयास होता है कि ऐसे अवितरित चेकों की रकम का भुगतान जल्दी से जल्दी कर दिया जाए । इसके पीछे कोई कानूनी आग्रह या बाध्यता बिलकुल ही नहीं है । इसके पीछे है ‘निगम‘ की मानसिकता - ‘ग्राहक का पैसा ग्राहक को मिलना ही चाहिए और जल्दी से जल्दी मिलना चाहिए ।’ इस मानसिकता के चलते ही ‘निगम’ का दावा भुगतान प्रतिशत 98 तक पहुंच पाया है, जैसा कि अज्ञातजी ने अपनी टिप्पणी में बताया है । प्रत्येक शाखा के दावा विभाग का प्रयास होता है कि उसकी सूची जल्दी से जल्दी ‘निरंक‘ की स्थिति में आ जाए ।


ऐसा भुगतान कराने में हम एजेण्टों को बडा आनन्द आता है । कोई सात-आठ वर्ष पूर्व मैं लगभग पौने चार लाख रुपयों का ऐसा ही भुगतान एक सज्जन को कराने का निमित्त बना था । वे सज्जन रतलाम के ‘श्री सज्जन मिल्स लि.’ के कर्मचारी थे और सेवा निवृत्त होकर, उत्तराखण्ड स्थित अपने पैतृक गांव चले गए थे । उन्हें तो पता भी नहीं था कि उनकी पालिसी परिपक्व हो चुकी है । उनका सरनेम तनिक असामान्य था और मैं अपने स्वभावानुसार, उनके अटपटे सरनेम का अर्थ जानने के लिए उनसे एक बार मिला था । दावा विभाग ने जब उनका नाम मेरे सामने रखा तो मुझे यह तो याद आ गया कि मैं उनसे मिला था, लेकिन यह याद नहीं कर पाया कि कहां मिला था । अपनी लिखा पढ़ी का काम करते हुए एक रात लगभग तीन बजे अकस्मात ही सज्जन मिल में हुई उनसे मुलाकात याद हो आई । मारे प्रसन्नता के मैं सवेरे तक सो नहीं पाया । साढ़े दस बजे तक का समय मैं ने बहुत ही बेचैनी में गुजारा । कार्यालय खुलने पर मालूम हुआ कि वे तो सेवा निवृत्त होकर अपने गांव चले गए । किसी को भी उनके गांव का नाम और उनका पता नहीं मालूम । एक सज्जन ने उनके एक भानजे का फोन नम्बर दिया । वह चण्डीगढ़ में था । उसने अपने मामा का फोन नम्बर दिया । मैं ने उन सज्जन से बात की तो वे फोन पर ही रोने लगे । उन्होंने कहा - ‘उत्तराखण्ड के दूर-दराज के गांव में बैठे एक रिटायर्ड आदमी के लिए पौने चार लाख रुपयों का महत्व आप तभी अनुभव कर सकेंगे जब आप मेरे गांव आएं ।‘ उन्होंने अपने गांव के निकटतम भाजीबीनि कार्यालय से विमुक्ति पत्र (डिस्चार्ज वाउचर) प्राप्त किया और पालिसी सहित भिजवाया । उस पालिसी से मेरा कोई लेना-देना नहीं था । उन्होंने जब वह पालिसी ली थी तब तो मैं भाजीबीनि का एजेण्ट भी नहीं था । जब उन्हें उनका भुगतान मिला तो उन्होंने मुझे फोन पर प्राप्ति सूचना दी । उनसे बोला नहीं जा रहा था । आंसुओं में भीगे और हिचकियों में सने उनके आशीष आज भी मुझे मेरे माथे पर सुरक्षा-छत्र की तरह अनुभव होते हैं । स्थानीय स्तर पर ऐसे पचासों किस्से प्रत्येक एजेण्ट के पास सुनने को मिल जाएंगे ।


लेने के लिए कोई पचास चक्कर लगाए यह नई और बड़ी बात नहीं । लेकिन देने के लिए कोई इतनी चिन्ता करे, इतनी सक्रियता बरते - यह असमान्य और अनूठी बात है ।

मुझे लगता है, दुनिया की बड़ी से बड़ी बीमा कम्पनियों से टक्कर लेने वाला ‘भारतीय जीवन बीमा निगम’ अपने नाम के ‘भारतीय‘ शब्द की व्‍यंजना को पूरी तरह सार्थक करता है । हम भारतीय आज भी अपना कर्ज चुकाने को सर्वोच्च वरीयता देते हैं । हममें से प्रत्येक, जल्दी से जल्दी कर्ज मुक्त हो जाना चाहता है । एक मालवी कहावत के अनुसार जिन नौ तरह के लोगों को रात में नींद नहीं आती उनमें वह व्यक्ति भी शरीक होता है जिसके माथे पर कर्ज होता है । ‘कर्ज युक्त‘ बने रहना पाश्‍चात्य अवधारणा है (जहां दिवालिया होना भी एक कानूनी-तकनीकी खानापूर्ति होती है) जबकि ‘कर्ज मुक्त‘ रहना, भारतीय अवधारणा है । इस लिहाज से भारतीय जीवन बीमा निगम न केवल एक जिम्मेदार वित्तीय उपक्रम बनकर सामने आता है अपितु वह ‘भारतीयता‘ को साकार और सार्थक भी करता है । जरा कल्पना कीजिए - कोई निजी बीमा कम्पनी ऐसा भुगतान करने के बारे में कभी सोचेगी भी ?


कहिए ! है न यह अनूठा देनदार ?

मैं इस अनूठे देनदार का एक छोटा सा, बहुत ही छोटा सा मुनीम हूं ।

मुझे अपने सेठ पर गर्व है ।

भारत सरकार का कुबेर : भाजीबीनि

भारतीय जीवन बीमा निगम देश के सबसे बड़े वित्तीय उपक्रमों में अग्रणी है । इसे लेकर आए दिनों अखबारों में ‘कुछ न कुछ’ छपता ही रहता है । इस ‘कुछ न कुछ’ में आलोचना और उपहास अधिक होता है । लेकिन जिस संस्था के ग्राहकों की संख्या 23 करोड़ से भी अधिक हो, उसे लेकर ऐसा छपना न तो अनूठी बात है और न ही अनपेक्षित । लेकिन यह देखकर दुख अवश्‍य होता है कि इसकी विशेषताओं, उपलब्धियों और अनोखेपन को लेकर कभी कुछ नहीं छपा । यह शायद इसलिए कि हर कोई यह मानकर चलता है कि चूँकि इस संस्था को इतना अच्छा, इतना अनूठा, इतनी उपलब्धियों वाली तो होना ही चाहिए और यदि यह ऐसी ही है तो इसमें कहने की क्या बात है ? इस मायने में यह घर का जोगी जोगडा, आन गांव का पीर' वाली कहावत का शिकार हो रहा है । लेकिन ‘बाजारवाद और मार्केटिंग’ के इस समय में यदि अच्छी बातें सामने नहीं लाई जाएँ तो नकारात्मक छवि के प्रगाढ़ होने का खतरा बढ़ता ही जाता है । चूँकि मैं इसी संस्थान से सम्बध्द हूँ और इसीने मुझे यह स्थिति दी है कि मैं ‘रोटी-कपड़ा-मकान’ की चिन्ताओं से मुक्त होकर अपने शौक पूरे कर सकूँ इसलिए मुझे लगता है कि इसकी अच्छाइयाँ, अनूठापन, उपलब्धियाँ मैं ने उजागर करनी ही चाहिए ।


अनेक सन्दर्भों में अनूठा यह उपक्रम देश का एकमात्र ऐसा वित्तीय संस्थान है जिसके निवेश पर भारत सरकार ने शत प्रतिशत ग्यारण्टी दे रखी है । इसीलिए यह संस्थान अपनी विशाल धनराशि को भारत सरकार के निर्देशों के अनुरूप ही निवेश करने को बाध्य है । सराकर के इस कड़े नियन्त्रण के कारण, बीमाधारकों की रकम के दुरुपयोग की आशंका शून्यवत हो जाती है । इसे अपनी धनराशि अनिवार्यतः केन्‍द्रीय और राज्‍यों की शासकीय परियोजनाओं, योजनाओं, उपक्रमों में ही निवेश करनी पड़ती है । स्टाक मार्केट में भारतीय जीवन बीमा निगम, बहुत बड़ा निवेशक है जबकि इसके द्वारा निवेश की जाने वाली रकम इसके सकल फण्ड का बहुत ही छोटा हिस्सा होती है । लेकिन यह छोटा सा हिस्सा भी इतना बड़ा और इतना भारी होता है कि स्टाक मार्केट जब भी स्थानीय कारणों से संकट में आता है तो सरकार भारतीय जीवन बीमा निगम को मैदान में उतार कर बाजार के मिजाज को बनाए रखती है ।

1956 में भारत सरकार द्वारा 50 करोड रुपयों की पूँजी से यह शासकीय उपक्रम शुरु हुआ था । प्रतिवर्ष, अपनी अतिशेष (सरप्लस) रकम का 95 प्रतिशत भाग ग्राहकों के बोनस के लिए रखकर शेष 5 प्रगतिशत रकम इसे अनिवार्यतः भारत सरकार को देनी ही होती है । अपनी स्थापना से लेकर अब तक यह उपक्रम इस 5 प्रतिशत रकम के रूप में एक पंचवर्षीय योजना की रकम के बराबर का योगदान भारत सरकार को कर चुका है । भाजीबीनि के बीमाधारक ग्राहकों को यह जानकर अतिरिक्त आत्म सन्तोष और गर्व होगा कि प्रीमीयम के रूप में चुकाई गई उनकी रकम सीधे-सीधे राष्‍ट्र निर्माण में प्रयुक्त होती है ।

देश भर में इसकी 2048 शाखाएँ काम कर रही हैं । देश का यह ऐसा एकमात्र वित्तीय संस्थान है जिसके धन संग्रहण के आँकड़े प्रतिदिन भारतीय संसद को नियमित रूप से अनिवार्यतः सूचित किए जाते हैं । इसके दैनिक संग्रहण आँकड़े के बारे में जनसामान्य को कोई जानकारी नहीं है । यह जानकर लोगों को अविश्‍वसनीय आश्‍चर्य होता है कि यह उपक्रम लगभग डेड़ सौ करोड़ रुपये प्रतिदिन संग्रहण करता है । इस आँकड़े को एक विशेष सन्दर्भ में देखने पर इसका महत्व अनुभव हो सकेगा । देश में कोई भी बीमा कम्पनी प्रारम्भ करने के लिए एक सौ रुपयों की ग्यारण्टी मनी जमा करानी पड़ती है । अर्थात्, भाजीबीनि प्रतिदिन डेड़ बीमा कम्पनी की ग्यारण्टी मनी संग्रहण करता है ।
किसी भी वित्तीय संस्थान की साख उसकी भुगतान स्थिति से ही बनती-बिगड़ती है । यह जानकर हर

कोई अविश्‍वास ही करेगा कि दावों के भुगतान के मामले में यह उपक्रम बरसों से अन्तरराष्‍ट्रीय स्तर पर प्रथम बना हुआ है । दुनिया की कोई भी बीमा कम्पनी अब तक इसके रेकार्ड को छू नहीं पाई है । यह उपक्रम प्रतिवर्ष, इसे मिलने वाले दावों में से 95 से 97 प्रतिशत दावों का भुगतान करता है । लम्बित दावों का प्रतिशत सामान्यतः केवल 3 से 5 तक रहता है । यहाँ यह तथ्य ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कई दावे इसे मार्च महीने में (अर्थात् वित्तीय वर्ष के अन्त में) प्राप्त होते हैं जो सामान्यतः लम्बित ही रहते हैं । हम भारतीय जब एक बार पलक झपक रहे होते हैं तब यह ‘निगम‘ एक दावे का भुगतान कर रहा होता है ।
इसकी टोपी का एक पंख सबसे शोख, चटकीले और गहरे रंग का ऐसा है जो इसे एक बार फिर सबसे अलग और सबसे ऊपर स्थापित करता है । निगमित क्षेत्र में यह सर्वाधिक आय कर चुकाने वाला संस्थान् है ।
ऐसी और कई विशेषताओं और अनूठेपन के कारण इस संस्थान् को ‘भारत सरकार का कुबेर‘ कहने में मुझे कोई संकोच नहीं होता ।
लेकिन अपने ग्राहकों की देनदारियाँ चुकाने के मामले में जो अनूठापन इसे दुनिया भर की समस्त वित्तीय संस्थाओं में सिरमौर बनाता है और जिसे प्रस्तुत करने के लिए ही मैं ने यह पोस्ट लिखनी शुरु की थी, वह अब आज नहीं, कल ।
तब तक, यदि आपने अब भारतीय जीवन बीमा निगम की इन विशेषताओं पर गौर नहीं किया हो तो अब गौर कर इस पर गर्व कीजिए और यदि आपने इसकी कोई बीमा पालिसी ले रखी है तो अतिरिक्‍त गर्व कीजिए कि देश की विभिन्‍न योजनओं को पूरा करने में आप भी परोक्षत: भागीदार हैं

नरेश गोयल की जमीन

कल रात मैं ने, जेट एयरवेज के चेयरमेन नरेश गोयल को, पत्रकारों से बात करते देखा । जो कुछ वे कह रहे थे वह सुन-सुन कर मुझे अपने देहातीपन पर गर्व होने लगा जो अब तक हो रहा है । नरेश गोयल ने जो भी किया और जो भी कहा, वह उनकी शालीनता और बड़प्पन वास्तव में था या नहीं लेकिन वह सब कुछ ‘भारतीयता’ था और इसके सिवाय कुछ भी नहीं था ।
लोगों को नौकरी पर रखना और निकाल देना, पश्चिम के लिए एक तकनीकी औपरचारिकता की प्रक्रिया मात्र होती है । लेकिन यह ‘पूर्व’ ही है जहाँ किसी को नौकरी पर रखा जाता है तो तत्काल ही वह नियोक्ता के परिवार में शामिल हो जाता है । नरेश गोयल जाने-अनजाने, चाहे-अचाहे यही साबित कर रहे थे । सम्भव है, वह सब कहना, वह सब करना उनकी व्यावसायिक-व्यापारिक विवशता रही हो या सरकारों का दबाव या हवाई सेना की (न की गई) कार्रवाई का आतंक । लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि अन्ततः भारतीय संस्कार और भारतीय मानसिकता ही उनकी कदम वापसी की प्रशंसनीय कार्रवाई का माध्यम बनी ।
पत्रकारों से बात करने हुए यह ‘बिजनेस टायकून‘ हताश लस्त-पस्त और अत्यधिक दयनीय दखाई पड़ रहा था । हवा में उड़ने वाले इस ‘सुपरमेन’ को खड़े रहने के लिए जमीन नहीं मिल रही थी । अपनी कदम वापसी के लिए उनके तर्क वही थे जो एक औसत मध्यवर्गीय, ईश्‍वरभीरू भारतीय के होते हैं । नरेश गोयल अपनी दिवंगत माँ की कसम खा रहे थे, कर्मचारियों को अपने बच्चे घोषित कर रहे थे और कर्मचारियों की बर्खास्तगी के समाचार अखबारों में पढ़ने के बाद न सो पाने का हवाला दे रहे थे । लेकिन सबसे बढ़कर और सबसे पहले जो उल्लेखनीय बात थी वह नरेश गोयल का, कर्मचारियों से माफी माँगना । इसके लिए सचमुच में अत्यधिक साहस चाहिए और नरेश गोयल ने यह साहस दिखाया ।निस्सन्देह नरेश गोयल का यह निर्णय मानवीय और अत्यन्त प्रशंसनीय है । लेकिन पश्‍िचमी पगडण्डियों पर छलांगे मार रही भारतीय कुबेर-सन्तानों को संकट की इस घड़ी में भारतीयता की जड़ों ने ही थामे रखा और बाजार में खड़े रह पाने की जमीन तथा ताकत दी ।
कोई ताज्जुब नहीं कि भारतीय अर्थ व्यवस्था के अमरीकी पैरोकारों ने नरेश गोयल को इस दशा में फटी आँखों देखा हो ।


कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी

सदियों रहा है दुश्‍मन, दौर-ए-जहाँ हमारा


आइए ! गर्व से कहें - हम भारतीय हैं ।

एक अपराध-बोध से मुक्ति

गए दो दिनों से मैं बहुत हलका अनुभव कर रहा हूँ । एक अपराध-बोध से मुक्ति मिल गई है मुझे । तनिक अलंकारिक भाषा का उपयोग करुँ और शब्दाडम्बर रचूँ तो कह सकता हूँ-दशहरे से एक दिन पहले, नवमी की दोपहर ही मैंने रावण मार दिया ।

वस्तुतः परसों दोपहर मैं ने केबल कनेक्शन से मुक्ति पा ली । पहले डेड़ सौ और गए कोई एक साल भर से एक सौ अस्सी रुपये प्रति माह मुझे केबल कनेक्शन के लिए भुगतान करना पड़ता था । यह भुगतान करते हुए, केबल संचालक के कारिन्दे से हर बार मेरा झगड़ा होता था । मुझे इस भगुतान की रसीद आज तक नहीं मिली । मुझे क्या, मेरे मोहल्ले में किसी को नहीं मिली । यही स्थिति कस्बे के तमाम केबल कनेक्शनधारियों की होगी क्यों कि बीमे के कारण मेरा उठना-बैठना लगभग पूरे कस्बे में होता है और मैं ने पाया है कि भुगतान तो प्रत्येक कनेक्शनधारी करता है लेकिन पावती एक को भी नहीं मिलती ।

कनेक्शन के किराए की रकम पर मेरा कोई विवाद कभी नहीं रहा । रसीद न मिलना ही विवाद का एकमात्र कारण रहा । मुझे अच्छी तरह पता है कि प्रत्येक कनेक्शन के किराए की रकम पर राज्य सरकार को टैक्स मिलता है । मेरे कस्बे की आबादी कोई तीन-सवा तीन लाख है और कनेक्शनधारियों की संख्या किसी भी हालत में 25 हजार से कम नहीं होगी । लेकिन सरकारी रेकार्ड में मुश्‍िकल से दो-ढाई हजार कनेक्शन चल रहे हैं । इन दो-ढाई हजार को भी रसीद नहीं मिलती है । केबल संचालक, सरकार को जो आँकड़ा दे देता है (या उसका दिया गया जो आँकड़ा सरकारी अमला स्वीकार कर लेता है) उसकी रसीदों का सत्यापन कोई नहीं करता । ऐसे में इस निष्‍कर्ष पर पहुँचने के लिए कि मामला बड़े आर्थिक घपले का है, किसी अतिरिक्त अकल या समझ की जरूरत नहीं होती । यह घपला कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता । जिला आबकारी अधिकारी से लेकर केबल संचालक के कारिन्दे तक की पूरी श्रृंखला की प्रत्येक कड़ी इसमें बराबर की भागीदार है । मुझे वेदना इसी बात की होती थी कि मैं भी ऐसी ही एक कड़ी हूँ ।

इस वेदना से मुक्ति पाने के लिए मैं ने केबल संचालक, स्थानीय चैनल संचालकों, आबकारी निरीक्षक, आबकारी अधिकारी, जिला कलेक्टर-याने, यथासम्भव प्रत्येक पायदान पर गुहार लगाई लेकिन कहीं सुनवाई नहीं हुई । मुझ जैसे ही कुछ मित्रों से कहा तो उन्होंने मुझसे सहमति तो जमाई लेकिन साथ चलने कोई नहीं आया । प्रत्येक ने कहा - ‘मुद्दा वाजिब है, आप लगे रहो ।’ मैं अपने आप को बड़ा ‘तीस मार खाँ’ मानता हूँ लेकिन स्वीकार करता हूँ कि इस मामले मैं ने घुटने टेक दिए । एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह से लड़ा जा सकता है लेकिन व्यवस्था से लड़ पाना अत्यधिक दुसाध्य, लगभग प्राणलेवा है ।

मुझे यही त्रास और अपराध-बोध था कि मैं अकारण की ‘कर चोरी’ में भागीदार हूँ । लेकिन इससे भी बड़ा त्रास यह तथ्य था कि मेरी यह भागीदारी एक ऐसे उपक्रम (केबल कनेक्शन) के लिए है जिसके बिना भी जीवन आसानी से जीया जा सकता है । एक सर्वथा अनावश्‍यक सुविधा के लिए मैं इस ‘चोट्टेपने’ में भागीदारी करता रहा । ‘इंसानी फितरत‘ के तहत मैं अपने आप से यही कह कर तसल्ली कर लेता हूँ कि इस ‘चोट्टेपने’ में पूरा देश भागीदार है ।

तीन दिन पहले, वासु भाई गुरबानी ने जब मेरी मनोदशा जानी तो उन्होंने कहा - ‘दादा ! आप डीटीएच क्यों नहीं ले लेते ?’ इसके बारे में मैंने सुना और पढ़ा था लेकिन मैं कबूल करता हूँ कि इसकी ठीक-ठीक जानकारी मुझे नहीं थी । जब उन्होंने इसके बारे में विस्तार से बताया तो मेरा अपराध-बोध और गहरा गया - यह सब मैं ने अब तक क्यों नहीं जाना ? वासु भाई खुद डीटीएच उपकरणों का व्यापार करते हैं । तीन दिन पहले, शारदीय महाष्‍ठमी की शाम उनसे बात हुई और अगले ही दिन, नवमी की दोपहर उन्होंने मेरे निवास की छत पर अपनी छतरी तान दी ।

अब मैं केबल कनेक्शनधारी नहीं हूँ । अकारण ही ‘कर चोरी’ का हिस्सा नहीं हूँ । हालाँकि इसके लिए मुझे एक मुश्‍त सवा चार हजार रूपये चुकाने पड़े हैं जिसका असर मेरे अगले तीन माह के बजट पर पड़ेगा लेकिन अपराध-बोध की मानसिक यन्त्रणा से मुक्त होने के सुख के मुकाबले वह काफी कम ही होगा ।

हाँ, इससे मुझे एक अतिरिक्त लाभ भी होगा । यूनुस भाई (अरे वही अपने ‘रेडियोवाणी’ वाले) की आवाज भी शायद इस डीटीएच की वजह से सुन सकूँगा । कोई सवा महीने पहले रविजी ने बताया था कि इस सुविधा के कारण वे यूनुस भाई के कार्यक्रम सुनते रहते हैं

सो, मैं बहुत हलका अनुभव कर रहा हूँ - ‘आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे, बोलो देखा है तुमने मुझे उड़ते हुए’ की तर्ज पर ।

जैसी राहत मुझे मिली है, भगवान करे, सबको मिले ।

मालवा में ‘बासी दशहरा’ मनाने की परम्परा है । सो, मेरी इस ‘मुक्त मनःस्थिति’ और अन्तर्मन से आप सबको विजय पर्व के हार्दिक अभिनन्दन ।

हाँ, यह मैं ही हूं

मै हर्षातिरेक में गोते लगा रहा हूँ ।

दिल्ली और मुम्बई के अखबार, रतलाम में चैबीस घण्टे बाद मिलते हैं । 3 अक्टूबर का ‘जनसत्ता’ (दिल्ली) मुझे अभी-अभी मिला है । सम्पादकीय पृष्‍ठ सबसे पहले देखता हूँ । वही खोलने के लिए अखबार फैलाया तो सातवें पृष्‍ठ पर, तीन कालम में फैले समाचार-शीर्षक ‘ब्लाग के जरिए बढ़ रहा है संगीत का जुनून’ ने नजर पकड़ ली । ‘जनसत्ता‘ का पन्ना आठ कालम वाला नहीं, 6 कालम वाला होता है । याने, आधे पृष्‍ठ की चैड़ाई में है यह शीर्षक । समाचार भी अच्छे-खासे आकार का है - कोई एक चैथाई पन्ने की स्पेस वाला । संगीत जगत से जुड़े चार ब्लागर इसमें मुखर हैं - सर्वश्री यूनुस खान (रेडियोनामा), संजय पटेल (श्रोता बिरादरी, सुरपेटी), सागर नाहर और अशोक पाण्डे (कबाड़खाना) । ब्लाग के जरिए संगीत (और खास कर पुराने फिल्मी गीतों, गायकों, संगीतकारों, गीतकारों) को लगातार लोक जीवन में बनाए रखने के इन चारों के जुनून का विस्तृत ब्यौरा इस समाचार में दिया गया है । समाचार की उल्लेखनीय बात यह है कि इसे समाचार एजेन्सी ‘भाषा’ ने प्रसारित किया है । याने, यह समाचार किसी एक अखबार तक सिमट कर नहीं रह गया है, देश के अनेक अखबारों में छपा होगा ।

यह सब देख कर ही मैं मुदित और मगन हूँ ।

मेरा ब्लाग जीवन अभी अठारह माह का भी नहीं है लेकिन इसने मुझे थकने से बचने का रास्ता दिया है । जब भी कहीं, जहाँ भी कहीं, ब्लाग की चर्चा होती है, मुझे लगता है, न केवल मेरे परिवार की चर्चा हो रही है बल्कि मेरी ही चर्चा हो रही है ।

ब्लाग हमारे वर्तमान का उजला और अपरिहार्य भविष्‍य है । आने वाले दिनों में इसके बिना जी पाना असम्भव नहीं तो तनिक कठिन जरूर होगा । अच्छी बात यह है कि यह जीवन के प्रत्येक पहलू को छू रहा है - किसी एक विषय या विधा में कैद नहीं है । यह अपने आप में ऐसी विधा बन कर सामने आ रहा है जहाँ जिन्दगी अपनी सम्पूर्णता में धड़क रही है ।

सो, इन चारों ब्लाग-सपूतों ने आज मुझे हर्षातिरेक से ओतप्रोत कर दिया है । इनके इस पूरे समाचार में मैं कहीं नहीं हूँ ।

लेकिन यदि मैं नहीं हूं तो फिर कौन है ?

आप तो जानते ही हो


मेरे एक आदरणीय मित्र भोपाल स्थानान्तरित हो गए । वे अत्यधिक संकोची, आत्मकेन्द्रित और ‘चुप्पा’ किस्म के हैं । अपना नाम तक बताने में संकोच कर जाते हैं । भोपाल में उनका नया आवास राज भवन वाले क्षेत्र में है, यह जानकर मैं ने उन्हें श्री विजय वाते का नम्बर दिया ताकि आपात स्थिति में उनकी सहायता ले सकें । आपात स्थिति यही कि सामान से लदे उनके ट्रक को कहीं भी रोका जा सकता था । वे बोले - ‘वातेजी से बात करने में मुझे उलझन होगी । आप उन्हें मेरा नम्बर दे दीजिएगा ।’ मैं ने पूछा - ‘वातेजी को कैसे मालूम पड़ेगा कि आप आपात स्थिति में हैं ? बताना तो आपको ही पड़ेगा ।’ वे परेशान हो गए । बोले - ‘पुलिस का जवान ही नहीं सुनता तो इतना बड़ा अफसर मेरी बात क्यों सुनेगा ? फिर, पुलिस वालों को तो आप जानते ही हो ।’ चूँकि मैं इनका स्वभाव जानता था सो मुझे अटपटा नहीं लगा । कहा -‘वातेजी थोड़ा अलग हटकर हैं । वे रतलामवालों के प्रति अतिरिक्त प्रेमभाव रखते हैं । उनसे बात कर आपको अच्छा ही लगेगा ।’ बेमन से उन्होंने वातेजी का नम्बर लिख लिया ।


वे रतलाम से रवाना हुए तो मैं ने वातेजी को पूरा किस्सा सुना कर बार-बार विशेष अनुरोध किया कि मेरे इन मित्र का फोन आते ही वे अतिरिक्त सम्वेदनशीलता बरत कर उनकी मदद करें । वातेजी को ऐसी बातों की आदत है और वे पढ़ने-लिखनेवाले आदमी भी हैं, सो उन्होंने मेरे थोड़े कहे को बहुत समझ लिया और मेरे आदरणीय मित्र की ‘आप तो जानते ही हो’ वाली बात पर हँसते रहे ।


उनके भोपाल पहुँचने के अपेक्षित समय के बाद भी देर तक उनकी कोई खबर नहीं आई तो मैं ने अपनी ओर से उनकी तलाश की । बोले - ‘पुलिसवालों ने दो बार ट्रक को रोका ।’ मैं ने पूछा - ‘आपने वातेजी से बात की ?’ बोले -‘जरूरत ही नहीं पड़ी । मैं ने उनका फोन नम्बर पुलिसवालों को देकर कहा कि वे मेरे बारे में वातेजी से पूछ लें । वातेजी का नाम सुनकर ही उन्होंने ट्रक को जाने दिया ।’ मैं ने कहा -‘इस सबके लिए आपने वातेजी को धन्यवाद दिया ?’ बोले -‘मैं ने सोचा तो था लेकिन हिम्मत नहीं हुई । पुलिसवालों को तो आप जानते ही हो ।’ मैं क्या कहता ? चुप हो गया ।


मैं ने मोबाइल बन्द किया ही था कि वातेजी का फोन आ गया । अब तक मेरे मित्र का फोन न आने से वे चिन्तित हो पूछताछ कर रहे थे । मैं ने पूरी बात बताई तो वे पहले तो तनिक खिन्न प्रतीत हुए लेकिन अगले ही क्षण मौज में आ गए । बोले-‘ऐसा न तो पहली बार हुआ है और न ही अन्तिम बार ।’ फिर उन्होंने किस्सा सुनाया ।

भोपाल में, एक प्रगतिशील कलमकार के घर चोरी हो गई । उन्होंने वातेजी से मदद माँगी । वातेजी ने कहा कि वे पुलिस थाने जाकर प्राथमिकी लिखवा दें । कलमकारजी के हाथ-पाँव फूल गए । उन्होंने जो कुछ कहा उसका मतलब था कि वातेजी अपने पद-प्रभाव का उपयोग कर कुछ ऐसा करें कि कलमकारजी को थाने नहीं जाना पड़े और प्राथमिकी लिख ली जाए । वातेजी ने एकाधिक बार भरोसा दिलाया और थाने जाने का परामर्श दिया । प्रगतिशील कलमकारजी जाने को तैयार नहीं । वातेजी ने तनिक चिढ़ कर कारण पूछा तो वे बोले -‘पुलिस वाले कैसा व्यवहार करते हैं, आप तो जानते ही हो ।’ अन्ततः वातेजी को दो-टूक कहना पड़ा कि प्राथमिकी के लिए तो उन्हें ही जाना पड़ेगा । वे गए । घण्टों बाद तक उनकी कोई खबर नहीं आई तो वातेजी ने अपनी ओर से फोन लगाया । मालूम हुआ कि प्राथमिकी लिखवा कर वे घण्टों पहले ही आ चुके हैं । वातेजी ने कहा - ‘आपने तो खबर ही नहीं ।’ बोले-‘पुलिस थाने में जाने से ही इतनी घबराहट हो गई कि खबर करना भूल गया ।’ वातेजी ने पूछा कि उनके साथ कैसा व्यवहार हुआ । बोले - ‘व्यवहार तो बहुत अच्छा हुआ । आवभगत हुई । चाय भी पिलाई और फौरन ही प्राथमिकी लिख ली ।’ वातेजी ने कहा -‘अब क्या कहना है आपका ?’ वे बड़ी मासूमियत से बोले -‘वह तो आपके कारण हो गया वर्ना पुलिस वालों को तो आप जानते ही हो ।’ वातेजी ने सर पीट लिया ।

इन सज्जन की चोरी का माल बरामद हो गया । माल की पहचान करने के लिए पुलिस थाने से बुलावा आया । ये जाने को तैयार नहीं । फिर वातेजी को फोन किया । वातेजी ने कहा -‘बुलाया है तो चले जाईए । सामान तो आप ही पहचानेंगे ।’ प्रगतिशीलजी बोले -‘नहीं । आप फोन कर दीजिए कि हमें वहाँ न तो रोकें और न ही प्रतीक्षा कराएँ । हम जैसे ही जाएँ, सामान की पहचान करवा कर हमें फौरन फ्री कर दें ।’ वातेजी ने कहा -‘आप ऐसा क्यों चाहते हैं ? वे पहले अपने हाथ का काम निपटाएँगे फिर आपका काम कर देंगे ।’ बोले -‘थाने में बैठने में डर लगता है । लोग क्या कहेंगे ? फिर, पुलिस वालों को तो आप जानते ही हो ।’ वातेजी ने बमुश्‍िकल खुद को नियन्त्रित कर संयत बनाए रखा और उससे भी अधिक मुश्‍िकल से उन्हें थाने भेजा ।

किस्सा सुनाकर वातेजी बोले -‘पुलिस के लिए उन्होंने जो कुछ कहा उसका मुझे बुरा तो लगा लेकिन उससे ज्यादा बुरा इस बात का लगा कि जो लोग कलम के हल से कागज की जमीन पर क्रान्ति के बीज बो कर, व्यवस्था का विरोध करने की, प्रशंसा की फसल काटते हैं, वे लोग खुद के लिए भी कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं होते । वह भी तब, जबकि उन्हें उनकी अपेक्षा से अधिक अनुशंसा और सुरक्षा पहले ही क्षण से मिल जाती है ।’

मैं क्या कहता ? मेरे पास कोई जवाब नहीं था ।

लेकिन वातेजी की बात से मुझे वह किस्सा याद आ गया जिसका मैं नेत्र-देह साक्षी था । तब दादा, राज्य मन्त्री थे । उनके पास एक ‘दुखियारे सज्जन’ आए और अनुनय की कि उनकी मदद भले ही न करें, उनकी बात सुन जरूर लें । दादा अपने हाथ का काम छोड़ कर उनके पास बैठ गए । व्यथा-कथा लम्बी चली - कोई दो घण्टे । इस दौरान अपनी बात सुनाते हुए उन्होंने कम से कम बीस बार कहा - ‘आप तो जानते ही हो, आजकल कोई सुनता ही नहीं है ।’ जब यह वाक्य बार-बार सामने आने लगा तो दादा का धैर्य छूट गया । पूछा - ‘मैं दो-सवा दो घण्टे से आपकी बात ध्यान से सुन रहा हूँ और आप हैं कि बार-बार कहे जा रहे हैं कि कोई सुनता नहीं । मैं सुन नहीं रहा हूँ तो क्या कर रहा हूँ ?’ वे उसी मुद्रा और निस्‍पृहता से बोले- ‘आपकी बात और है वर्ना आप तो जानते ही हो, आजकल कोई सुनता ही नहीं है ।’


क्या बताऊँ कि मैं ने यह सब क्यों लिखा । आप तो जानते ही हो ।

अमिताभ बच्चन मेरे घर में

मेराछोटा बेटा तथागत अभी, दो दिनों के लिए घर आया था । वह इन्दौर में, बी. ई. द्वितीय वर्ष का नियमित छात्र है । वह इन्दौर जाने लगा तो उसे छोड़ने स्टेशन गया । जाने से पहले उसने मेरे पैर छुए और बोला - ‘अच्छा पापा ! मैं चलता हूँ । आप अपना ध्यान रखिएगा ।’

मेरा बड़ा बेटा वल्कल इन दिनों हैदराबाद में है । पहले मुम्बई में था । कुशल क्षेम जानने के लिए किए गए फोन पर बात समाप्त होने से पहले, उसकी माँ से वह क्या कहता है, मुझे पता नहीं लेकिन मुझसे हर बार कहा - ‘अच्छा पापा ! प्रणाम । अपना ध्यान रखिएगा ।’

प्रशा हमारे परिवार की नवीनतम सदस्य है । इसी नौ मार्च को वह हमारे परिवार में शामिल हुई है - वल्कल की जीवनसंगिनी बन कर । अक्टूबर 2007 में दोनों का वाग्दान हुआ था । तब से ही पह फोन पर हम लोगों से बराबर बात करती रही है । सम्वाद समाप्ति पर प्रत्येक बार वह कहती - ‘अच्छा पापाजी ! फोन बन्द करती हूँ । आप अपना ध्यान रखिएगा ।’ प्रशा ने यह वाक्य पहली ही बार से कहना शुरु कर दिया था जबकि मेरे दोनों बेटों ने, घर से बाहर जाने के बाद कहना शुरु किया था । बच्चों के मुँह से यह वाक्य पहली बार सुना था तबसे ही इसने मेरा ध्यानाकर्षित किया था । ये तीनों बच्चे जब-जब भी यह वाक्य कहते हैं तब-तब मैं अतिरिक्त सतर्कता से सुनता हूँ । हर बार तेजी से अनुभव हुआ कि वे सम्पूर्ण सहजता, आत्मीयता, आदर और चिन्ता भाव से यह वाक्य कहते हैं । कोई औपचारिकता या दिखावा एक बार भी अनुभव नहीं हुआ । लेकिन यह वाक्य हर बार मुझे तनिक असहज कर जाता है ।

तीस वर्षां से भी अधिक समय से मैं ‘एकल परिवार’ का जीवन जी रहा हूँ लेकिन ‘सामूहिक परिवार’ की आदत अब तक नहीं गई है । तब, कोई भी अतिथि, रिश्‍तेदार घर आता तो लौटते समय हम छोटों के माथे सहलाता और परिवार के मुखिया से छोटे तमाम सदस्यों को ‘भारवण’ (भार वहन करने की हिदायत) सौंपता - ‘देखना ! माँ-बाप की खूब सेवा करना । उनका ध्यान रखना ।’ मुझे अब तक ऐसी ही ‘भारवण’ की आदत है । अपने मित्रों, परिचितों यहाँ जब भी गया तो लौटते समय उनके बच्चों को यही ‘भारवण’ सौंप कर लौटता रहा हूँ ।

लेकिन देख रहा हूँ कि अब मित्रों, परिचितों के परिवारों में ऐसे बच्चे नहीं मिलते जिन्हें ‘भारवण’ सौंपी जाए । उच्च शिक्षा के लिए या फिर उच्च शिक्षा प्राप्त कर, ‘कैरियरिजम’ के अधीन, जिस तरह मेरे बच्चे घर से दूर हैं, उसी तरह मित्रों, परिचितों के बच्चे भी घर से दूर हैं । परिवार के नाम पर अब घर-घर में प्रायः पति-पत्नी ही मिलते हैं ।

मेरी पत्नी अध्यापक है । मध्यप्रदेश के अध्यापकों को अध्यापन की अपेक्षा अन्य काम अधिक करना पड़ते हैं । स्थिति यह है कि अध्यापकों को कई बार तो बच्चों को पढ़ाने का समय ही नहीं मिल पाता । विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए सर्वेक्षण करना ऐसे ही कामों में से एक काम होता है । दो साल पहले, एक शाम वह ऐसे ही एक सर्वेक्षण से लौटी तो बदहवास थी । साफ लग रहा था उससे कुछ पूछा तो वह रो पड़ेगी । थोड़ी देर बाद पूछा तो उसने भीगे कण्ठ से बताया कि सर्वेक्षण के दौरान उसे दस-बारह ऐसे, बहुमंजिला मकानों में जाना पड़ा जिनमें केवल वृद्ध युगल मिले । कुछ के बच्चे, ऊँची पढ़ाई कर, कमाने-खाने के लिए देश के अन्य नगरों में तो कुछ के बच्चे विदेशों में । दो कारणों से मकान खाली बनाए रखना सबकी विवशता । पहला कारण - बच्चे आएँ तो वे आराम से रह सकें । दूसरा कारण - किराए पर उठा दें और बाद में किराएदार मकान खाली न करे तो ? सो, ऐसे समस्त वृद्ध युगल, ‘भव्य भवनों के रक्षक-रखवाले’ बने हुए हैं और उनकी खुदकी देख-भाल करने के लिए कोई नहीं है । उल्लेखनीय बात यह है कि हमारे बच्चे भी, परदेस में इसी दशा को जी रहे हैं । उनका ध्यान रखने के लिए उनके माँ-बाप साथ में नहीं हैं । उन्हें भी अपना ध्यान खुद ही रखना है । जाहिर है कि अब हममें से प्रत्येक को अपना ध्यान रखना पड़ेगा, वे बच्चे हों या बच्चों के माँ-बाप । ‘माँ-बाप की सेवा करना । उनका ध्यान रखना’ वाली ‘भारवण’ यदि मेरी पीढ़ी का सच और शिष्‍टाचार था तो ‘आप अपना ध्यान रखना’ वाली ‘भारवण’ मेरे बच्चों की पीढ़ी का सच और शिष्‍टाचार है ।

अब तक होता यह आया है कि बच्चे जब-जब भी पढ़ने या नौकरी करने बाहर गए तब-तब उनसे कहा जाता रहा है - ‘परदेस में अकेले हो । अपना ध्यान रखना ।’ आज हम सब अपने-अपने घरों में ही हैं और हमें अपना-अपना ध्यान रखना है । पहले बच्चों को कहा जाता था - ‘अपना ध्यान रखना ।’ आज बच्चे हमसे कह रहे हैं - ‘अपना ध्यान रखना ।’

‘अपना ध्यान रखिएगा’ यह वाक्य सबसे पहले मैं ने, ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में सुना था । कार्यक्रम समाप्ति से पहले अमिताभ बच्चन, ‘विदा अभिवादन का शिष्‍टाचार’ निभाते हुए अपने दाहिने हाथ की तर्जनी उठाकर दर्शक समुदाय से कहते थे (शायद सचेत करते थे) - ‘अपना ध्यान रखिएगा ।’ जब-जब भी मेरे बच्चे मुझे मेरा ध्यान रखने को कहते हैं तब-तब, यह भली प्रकार जानते हुए भी कि वे अन्तर्मन से मेरी चिन्ता करते हुए ही यह कह रहे हैं, मुझे लगता है कि अमिताभ बच्चन मेरे घर में विराजमान हैं ।

मैं भले ही कामना करुँ कि ‘ईश्‍वर करे, वे आपके घर में विराजमान न हों’ लेकिन मुझे भय है कि वे आपके घर में भी विराजमान हो सकते हैं ।

कपडे : इस मन्‍त्री के, उस मन्‍त्री के


आतंकवाद और हमारे गृह मन्‍त्रीजी के कपडे इन दिनों अखबारों और समाचार चैनलों के प्रमुख समाचार बने हुए हैं । व्‍यंग्‍य चित्रकारों को बहुत दिनों बाद कोई अच्‍छा 'सब्‍जेक्‍ट' मिला है । गृह मन्‍त्रीजी भाग्‍यशाली हैं । वे समाचारों में भी प्रमुख हैं और कार्टूनों में भी ।


बरसों पहले एक और केन्‍द्रीय मन्‍त्री के कपडे इसी तरह अखबारों में स्‍थान पा चुके हैं । लेकिन उस सबमें सम्‍मान और प्रशंसा केन्‍द्रीय तत्‍व था, उपहास या आक्रोश नहीं ।

यह किस्‍सा मैं ने देश के अलग-अलग स्‍थानों में थोडे हेर-फेर के साथ सुना लेकिन केन्‍द्रीय भाव वही था - सम्‍मान और प्रशंसा ।

प्रसंग स्‍वर्गीय श्री रुफी अहमद किदवई से जुडा है । तब वे केन्‍द्र में मन्‍त्री (सम्‍भवत: कृषि मन्‍त्री) थे । कृषि मन्त्रियों के एक अन्‍तरराष्‍ट्रीय सेमीनार में भाग लेने हेतु उन्‍हें विदेश जाना था ।

यात्रा की तैयारी करते हुए जब वे अटैची में कपडे जमा रहे थे तो उनके एक मित्र पास ही खडे थे । मित्र ने देखा कि किदवई साहब ने एक ऐसा कुर्ता अटैची में रख लिया है जो फटा हुआ है । मित्र ने किदवई साहब को टोका । किदवई साहब ने अत्‍यन्‍त सहजता से कहा कि वे किसी फैशन परेड में नहीं बल्कि सेमीनार में जा रहे हैं । कुछ भाषण सुनना हैं और अपना भाषण देना है । सारा आयोजन नितान्‍त औपचारिक है । बस । फिर, 'वहां कौन जानता है कि मैं रुफी अहमद किदवई हूं ।'

किदवई साहब की सादगी सर्वज्ञात और विख्‍यात थी । लेकिन मित्र से नहीं रहा गया । पूछा - 'चलो, परदेस में न सही, अपने देस में तो कपडों कर चिन्‍ता कर लेनी चाहिए ।'

किदवई साहब ने उसी सहजता से कहा - 'यहां क्‍या चिन्‍ता करनी । यहां तो सब जानते हैं कि मैं रुफी अहमद किदवई हूं ।'

मित्र निरुत्‍तर हो गए और किदवई साहब वहीं फटा कुरता अपनी अटैची में डाल कर विदेश चले गए ।

बरसों बाद ऐसा हुआ कि........

‘वे’ कितने थे, गिन पाना असम्भव ही था । ‘वे’ हजारों भी हो सकते थे, लाखों भी या शायद करोड़ भी । ‘वे’ जितने भी थे, सबके सब काम में लगे हुए थे । एक भी चुप नहीं बैठा था ।

यह शुकताल में, गंगा किनारे, विक्रम सम्वत 2065 के भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी की रात थी । एक दिन पहले बरसात हो चुकी थी । लग रहा था कि बरसात फिर होगी । लेकिन आसमान साफ था । अपनी सोलहवीं कला तक पहुँचने के लिए चाँद, यात्रा पर निकला हुआ था । चाँदनी पूरे आसमान में पसरी हुई थी । आसमान, आसमान नहीं रह गया था, ठण्डे दूध की गाढ़ी, मलाईदार, सफेद झक् चादर बन गया था मानो । तारे पलायन कर चुके थे । लेकिन ‘वे‘ थे कि इस सबसे बेखबर, लगे हुए थे अपने काम में । गंगा किनारे बनी, बैरागियों की धर्मशाला के बाहर, कोने पर, रखवाले की तरह खड़े वृक्ष पर थे ‘वे’ सारे के सारे और वहीं लगे हुए थे अपने काम पर ।
या तो ‘उन्हें’ चाँदनी की चमक कम लग रही थी सो ‘वे’ उसे और चमकीली बनाने की जुगत में थे या चाँद को अहसास कराने पर तुले हुए थे - अपने होने का या फिर उसे आश्‍वस्त कर रहे थे कि दो दिनों के बाद जब वह क्षरित होने लगेगा तो उसका काम वे निरन्तर बनाए रखेंगे - रातों को रोशन बनाए रखने का ।
अपनी-अपनी दुम को मशाल बनाए, ‘वे’ सबके सब मेरी आँखें झपकने नहीं दे रहे थे । रात आधी हो चुकी थी । मुझे सो जाना चाहिए था । लेकिन वे मुझे, कोई पैंतीस-चालीस मकानों वाले मेरे गाँव की कीचड़ सनी, असमतल, अटपटी गलियों में ले आए थे जिनमें मैं उनके पीछे दौड़-दौड़ कर उनमें से किसी को झपट्टे से कब्जे में कर लेता था-बहुत ही मुश्‍िकल से और माचिस की खाली डिबिया में बन्द कर, अगले दिन अपने दोस्तों को दिखाता था - बड़े रौब से ।
उसके बाद जैसे-जैसे बड़ा होता गया, गाँव से दूर होता गया । ‘उनसे’ सम्पर्क कम होने लगा । और शहर में आकर तो उन्हें भूल ही गया । उनके बारे में कोई बात करने वाला भी नहीं मिलता । वे बच्चों की स्कूली किताबों के सफों पर ही रह गए ।

लेकिन उस रात वे मेरे सामने थे, चाँद को भरोसा दिलाते हुए, चाँदनी की चमक को बढ़ाने की जुगत में लगे-हजारों, लाखों या फिर करोड़ की तादाद में । उन्होंने अपने होने को ही नहीं जताया, मुझे मेरे बच्चों के सामने सयाना बनने का अलभ्य अवसर भी दे दिया ।
भले ही यह सब बरसों-बरसों के बाद हुआ । लेकिन मैं अपने बच्चों को बता सकूँगा उनके बारे में । कह सकूँगा कि मैं ने बरसों बाद देखे, इतने सारे जुगनू एक साथ ।

विजय माल्या की शर्तों पर जी रहा इण्डिया

दिल्ली से इन्दौर तक की यह हवाई यात्रा, मेरी तीसरी हवाई यात्रा थी । ‘भारत‘ और ‘इण्डिया’ का, अब तक अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता रहा अन्तर इस यात्रा ने मुझे समझा दिया ।
एक लीटर पानी की बोतल के लिए मैं ने तीस रुपयों का भुगतान किया । डाक्टर एस. एन. सुब्बरावजी के प्रभाव के चलते, मैं ने खरीदा हुआ पानी पीना बन्द कर रखा है । लेकिन सतीश वैष्‍णव (सेंधवा) के लिए यह बोतल खरीदी । तुर्रा यह रहा कि हवाई जहाज में बैठने के लिए जाते समय यह बोतल बाहर ही रखवा ली गई । तब तक सतीश ने बोतल का एक चैथाई पानी भी नहीं पिया था । याने, मैं ने कोई सवा सौ रुपये के दाम पर एक लीटर पानी खरीदा ।
यह सब मेरे साथ जब हो रहा था तब मुझे, पीने के पानी के लिए, सर पर दो-तीन मटके उठाए, तपती धरती पर कोसों नंगे पाँव यात्रा करने को विवश वे ग्रामीण महिलाएँ याद आ रही थीं जिनका आधे से अधिक दिन केवल पानी की जुगत में ही बीत जाता है । यह सब भोगते-भुगतते हुए मेरी आँखें अनायास ही ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ की तलाश करने लगीं । वह कहीं नजर नहीं आ रहा था । शायद पानी की दुकान में रखे डीप फ्रीजर के तले में कहीं दुबका रहा होगा । जाहिर है कि तीसरा विश्‍व युद्ध पानी के लिए नहीं होगा तो किसके लिए होगा ?
इस हवाई यात्रा में मैं ने काफी का एक चालीस रुपये में, एक सेण्डविच सौ रुपये में और एक कप चाय बीस रुपये में खरीदी । यकीनन यह ‘भारत’ नहीं था, ‘इण्डिया’ ही था ।
यात्रा टिकिट सतीश ने ही खरीदे थे । विजय माल्या की हवाई कम्पनी ‘किंगफिशर’ से हमने यह यात्रा की थी । हम दोनों ने सवेरे ग्यारह बजे भोजन किया था और अब शाम के साढ़े सात बज रहे थे । सो, ‘व्योम बाला’ ने जैसे ही ‘कुछ’ खाने के लिए पूछताछ की तो हम कुछ बोलते उससे पहले, हमारे पेट में कूद रहे चूहों ने आवाज लगा दी । ‘व्योम बाला’ की सौंपी गई, सेण्डविच की आकर्षक पेकिंग हमने खोली ही थी कि उसने ‘सस्मित’ कहा - ‘टू हण्ड्रेड रुपीज प्लीज ।’ सतीश मानो हत्थे से उखड़ गया । वह प्रायः ही हवाई यात्रा करता रहता है । उसने कहा कि किराये में खाना-पीना शामिल रहता है । तनिक भी असहज नहीं होते हुए व्योम बाला, पूर्वानुसार ही सस्मित बोली - ‘सर ! इट इज डेकन एण्ड फूड इज नाट इनक्ल्यूडेड इन फेअर ।’ सतीश ने अत्यधिक गुस्से और पूरे बेमन से दो सौ रुपये चुकाए । यह भड़की हुई भूख का ही असर था कि इसके बाद भी हमें सेण्डविच अत्यन्त स्वादिष्‍ट लगे ।
खाने के बाद सतीश ने पूछा - ‘आपका क्या कहना है दादा ?’ मैं ने कहा - ‘यह इण्डिया है जहाँ विजय माल्या जैसे लोगों की शर्तें लागू हैं ।’
मैं और क्या कहता ?

हिन्दी दिवस : शुकताल में और हवाई अड्डे पर

मैं हिन्दी दिवस को सरकारी चोंचला मानता हूँ सो इस दिन होने वाले औपचारिक आयोजनों से बचने का यथा-सम्भव प्रयास करता हूँ । यह अलग बात है कि हर साल कहीं न कहीं, कोई न कोई कृपालु मेरे इन प्रयासों को असफल और व्यर्थ कर देता है । बीमा व्यवसाय के कारण बना और बढ़ा परिचय क्षेत्र इस ‘असफलता’ का सबसे बड़ा ‘मारक कारण’ होता है । मित्रों का लिहाज पालने में अपने मन के प्रतिकूल व्यवहार कर लेता हूँ ।

इस साल ऐसा कुछ भी नहीं हुआ लेकिन अचानक ही मुझे लगा कि इस साल ही मैं हिन्दी की वास्तविक दशा और ताकत देख पाया । इस साल 14 सितम्बर को मैं, उत्तर प्रदेश के मुजफरनगर से सटे तीर्थ क्षेत्र शुकताल में था । हम बैरागियों के राष्‍ट्रीय संगठनों ‘अ.भा.वैष्‍णव ब्राह्मण सेवा संघ’ और ‘अ.भा.वैष्‍णव ब्राह्मण कल्याण ट्रस्ट’ की राष्‍ट्रीय कार्यकारिणियों की बैठकें वहीं आयोजित थीं । सेंधवा वाले सतीश वैष्‍णव के स्नेहाधिकार भाव के अधीन मुझे वहाँ जाना पड़ा ।

कहने भर को ये बैठकें औपचारिक थीं, वास्तव में इन दोनों बैठकों में उन सबने भाग लिया जो वहाँ उपस्थित थे । कोई तीन सौ स्त्री-पुरुष बैरागी वहाँ थे । उत्तर प्रदेश और हरियाणा के लोग अधिक संख्या में थे और इनमें भी देहातों के लोग ज्यादा थे । इनके बाद, संख्या की दृष्‍िट से राजस्थान के लोग ज्यादा थे । दोनों बैठकों की विषय सूचियां कागजों तक ही सिमट कर रह गई और जिसे जो जरुरी लगा, उन्मुक्त भाव से बोला । औपचारिकता अधिक देर तक बाँधे नहीं रख सकती । आदमी बड़ी जल्दी अपनी वास्तविकता में आ जाता है । फिर, बात जहाँ अपने मन की अभिव्यक्ति की हो तो यह ‘जल्दी’ और अधिक जल्दी आ जाती है । सो वहाँ हुए भाषणों में से सबकी शुरुआत हुई तो हिन्दी में लेकिन प्रत्येक व्यक्ति, कुछ ही क्षणों में अपनी-अपनी वाली हिन्दी पर उतर आया । लिहाजा वहाँ उत्तर प्रदेश के ‘अइयो, जइयो, का बतावैं’, हरियाणावी के ‘तन्ने, मन्ने, सै’ और राजस्थानी के ‘हे के नी सा’ जैसे देशज तकिया कलामों से लबालब भाषण हुए । हमारे राष्‍ट्रीय अध्यक्ष, राष्‍ट्रीय सचिव और हम कुछ लोगों ने अपनी पूरी बात लगभग खालिस हिन्दी में कही । लेकिन सच मानिए, खालिस हिन्दी वाले भाषण उस कार्रवाई में या तो ‘मखमल में टाट के पैबन्द’ लग रहे थे या फिर बिना गन्ध वाले, सुन्दर कागजी फूल । इन सबमें उत्कृष्‍ट शब्दावली तो थी लेकिन सब कुछ यान्त्रिक और बनावटी लगता रहा जबकि अनजान, पद-विहीन, और हमें शायद ही फिर कभी मिलने-नजर आने वाले लोगों की बातों में जिन्दगी धड़क रही थी और वे सब ही असली, प्राकृतिक तथा सहज थे । भाषा की भिन्नता, बोलियों के देश शब्दों ने सम्प्रेषण में तनिक भी व्यवधान पैदा नहीं किया । हममें से किसी को भी एक बार भी नहीं पूछना पड़ा कि किसने क्या कहा । सबको, सबकी बातें पहली ही बार में समझ में आ गईं । हरियाणवी में सम्मान सूचक सम्बोधन नाम मात्र को भी नहीं होते । वहाँ ‘आप’ अनुपस्थित रहता है और ‘तू’ का साम्राज्य बना रहता है । किनारों पर बैठ कर जब-जब भी हरियाणवी सम्वाद सुने, तब-तब हर बार यह ‘तू-तड़ाक’ अटपटी और आपत्तिजनक लगी । लेकिन सच कहता हूँ, उस दिन शुकताल में, हरियाणा से आए एक भी बैरागी ने मुझे ‘आप’ नहीं कहा और मुझे एक बार भी अटपटा नहीं लगा । वहाँ ‘आप’ सुनना अपमानजनक लगता । ‘तू’ ठेठ अन्तर्मन की तलहटी से, आत्मीयता की सम्पूर्ण ऊष्‍मा से आ बाहर आ रहा था और ‘आप’ होठों से आगे जगह नहीं बना पा रहा था । मजे की बात यह रही कि एक भी भाषण बिना अंग्रेजी वाला नहीं था लेकिन वह वहाँ ‘सहज हिन्दी’ के रुप में ही थी । वहाँ अंग्रेजी का पाण्डित्य प्रदर्शन कहीं नहीं था । देहातों में अंग्रेजी जितनी रच-बस गई है, उसी मात्रा, अनुपात और स्वरुप में वह वहाँ थी । दो दिनों में हुई इन दोनों बैठकों से उपजा ‘लोकोत्सव’ का आनन्द गंगा किनारे की बालू के कण-कण में व्याप्त था । मुझे अचानक ही अनुभव हुआ कि हम सबकी हँसी भी प्राकृतिक और सहज हो आई थी । हम सब अनायास ही अनौपचारिक हो आए थे ।

लौटते में मुझे कोई तीन घण्टे दिल्ली हवाई अड्डे पर बिताने पड़े । हम दोनों (सतीश और मैं) पूरी तरह फुरसत में थे । सारे विषय समाप्त हो चुके थे । ऐसे में बतियाने के लिए अपने वालों की आलोचना ही एक मात्र विष्‍ाय रह जाता है जिससे हम दोनों ही बराबर बचते रहे ।

एक शाम पहले दिल्ली में विस्फोट हो चुके थे और शुकताल में हमें न तो अखबार मिले थे और न ही टेलीविजन । सो, अखबार की तलाश में मैं, हवाई अड्डे स्थित किताब की दुकान पर गया । मुझे लगा, शुकताल से मैं सीधे विदेश में, अमरीका या ब्रिटेन में आ गया हूँ । पूरी दुकान पुस्तकों से सजी, अटाटूट पड़ी थी । लेकिन हिन्दी की किताबें या अखबार कहीं नहीं थे । मैं अत्यधिक आलसी हूँ । सो, तलाश करने के बजाय दुकान पर मौजूद दोनों युवकों से ही पूछ लिया । दोनों ने ‘मुद्राविहीन मुद्रा’ और मशीनी आवाज में बताया कि मैं हिन्दी किताबों की तलाश न करुँ । मुझे झटका लगा । अब मैं ने गौर से दुकान में रखी पुस्तकों पर नजर फेरी । कोने की एक आलमारी में ‘योग’ पर एक पुस्तक नजर आई । बाकी सब कुछ अंग्रेजी ही अंग्रेजी । दुकान में सात-आठ स्त्री-पुरुष और थे । सब अपने आप में मगन ।

हिन्दी की अनुपस्थिति से उपजी हताशा ने मुझे विकल कर दिया । सूझ नहीं पड़ा कि क्या करुँ । हताशा से उबरने के लिए परिहास का पल्ला पकड़ा । दोनों युवकों से पूछा कि मैं भारत में ही हूँ या किसी अन्य देश में ? दोनों ने अनसुनी कर दी । मैं ने फिर पूछा कि वे दोनों आपस में और ग्राहकों से किस भाषा में बात करते हैं । दोनों ने कहा - ‘हिन्दी में ही ।’ मैं ने पूछा कि फिर हिन्दी की किताबें दुकान में क्यों नहीं हैं ? जवाब में उन्होंने कहा - ‘मालिक से पूछिएगा । हम दोनों तो नौकरी कर रहे हैं ।’ इससे अधिक सम्वाद की सम्भावना वहाँ थी ही नहीं ।

चुपचाप दुकान से निकल आया । वहाँ का वातानुकूलित वातावरण अचानक ही मुझे बोझिल और पराया लगने लगा । लगा, मैं अब तक तो माँ की गोद में था । अब विमाता के आँगन में उपेक्षित, अचिह्ना खड़ा हूँ ।

सो, इस साल हिन्दी दिवस पर आधा दिन ‘देस’ में और कोई तीन घण्टे अपनी ही धरती पर बसे ‘परदेस’ में रहा ।

शुकताल में, आयोजन स्थल पर यथेष्‍ठ साफ-सफाई नहीं थी, अव्यवस्था ही व्यवस्था थी । हर कोई पास वाले पर नजर रखे हुए था और उसकी चिन्ता, पूछ-परख कर रहा था, उससे मिल कर उसे जानने की कोशिश कर रहा था । शिष्‍टाचार, शालीनता और सभ्यता की औपचारिकता के दबाव से उपजने वाली शान्ति वहाँ बिलकुल नहीं थी, हम सब अपनी-अपनी नापसन्दगियाँ जता-बता पा रहे थे । हम सब वहाँ प्राकृतिक और सहज थे । हम अपने घर में थे । वहाँ अपनी बोली और भाषा हमारे साथ थी ।

दिल्ली हवाई अड्डे पर सब कुछ भव्य, शान्त, शालीन, साफ-सुथरा था । लेकिन सब कुछ ऐसा कि आदमी आतंकित हो कर सभ्य, शिष्‍ट, शालीन बने - जबरिया, असहज होकर ।

कैसा हो कि हिन्दी दिवस की खानापूर्ति करने वाले आयोजन, देस में बसे ऐसे परदेसों में हों ?

एक फतवा मीडीया के लिए

सलमान खान द्वारा अपने निवास पर विनायक स्थापना और पूजा को लेकर जामा मस्जिद के मौलाना अंजारिया द्वारा जारी फतवे को लेकर एक टीवी समाचार चैनल ने जो हंगामा मचाया वह हमारे समाचार चैनलों के उच्छृंखल हो जाने का श्रेष्‍ठ उदाहरण है ।

सलमान खान अपने घर गणपति स्थापित करें या न करें, इससे किसी को क्या लेना-देना ? वे नमाज पढ़ें या पूजा करें, यह उनका निजी मामला है । उनके खिलाफ किसी ने कोई फतवा जारी कर दिया तो इससे या तो उसे लेना-देना है जिसने फतवा माँगा या फिर उसे, जिसके खिलाफ फतवा दिया । अपने-अपने घरों में बैठे हम दर्शकों का इस सबसे क्या लेना-देना ?

फिर, फतवा कोई अल्लाह का हुक्म या इच्छा तो है नहीं । फतवे की औकात और बिसात ही क्या है ? यह केवल एक परामर्श है - बिलकुल डाक्टर या वकील के परामर्श की तरह । पूछने वाले की इच्छा - माने, न माने ।

धर्म मनुष्‍य के लिए है या मनुष्‍य धर्म के लिए ? ईश्‍वर ने तो मनुष्‍य को पैदा किया है, धर्म को नहीं । धर्म तो मनुष्‍य का ही आविष्‍कार है ।

अव्वल होना तो यह चाहिए था कि इस फतवे की चर्चा ही न की जाती । और यदि चर्चा की जानी जरूरी ही थी तो बेहतर होता कि फतवे की औकात भी बताई जाती । समाचार वाचक इस फतवे का उल्लेख बार-बार और लगातार इस तरह कर रही थी मानो सारी दुनिया में इससे बड़ा संकट और कोई है ही नहीं ।

सलमान के खिलाफ ऐसा ही फतवा गये साल भी दिया गया था जिसे सलमान खान ने जूते की नोक पर दे मारा था । यह बात कोई और नहीं, खुद मौलाना अंजारिया ही बता रहे थे । हालत बिलकुल ‘सूने गाँव में मँगते की पुकार’ जैसी लग रही थी । यहाँ तो चिन्दी का थान बनाने वाली बात भी नहीं थी ।

किसने कहा था इनसे कि चैबीसों घण्टों चैनल चलाओ ? सपने ये देखते हैं और नींद खराब होती है बेचारे लोगों की

महा प्रलय के समाचार देख कर ही कम से कम तीन लोगों के मरने की खबर मेरे इलाके के अखबारों में छपी है । ऐसी खबरें न देखने और न प्रसारित करने की छूट का उपयोग ये जिस बेशर्मी से करते हैं उसे क्या कहा जाए ?

सच में, यह समाचार देख कर बड़ी निराशा हुई । अपने आप पर गुस्सा आया - मैं इन चैनलों का कुछ क्यों नहीं बिगाड़ पा रहा हूँ ?

इनके खिलाफ भी फतवा देने वाला कोई हो तो बताइएगा ।

सत्ता, राजनीति और विश्‍वसनीयता

सत्ता और राजनीति अपनी विश्‍वसनीयता कैसे खोती हैं, इसकी छोटी सी बानगी गए दिनों मेरे शहर में देखने को मिली ।

एक सौ वर्ष से अधिक पुराने एक चर्च में रातों-रात आग लग गई । शीशम की लकड़ी की खूबसूरत मेहराबों , ऐतिहासिक महत्व वाला चर्च और यहाँ रखा रेकार्ड भस्म हो गया । जिस सवेरे यह अग्निकाण्ड हुआ, उसी दिन इस चर्च का स्थापना दिवस समारोह भी आयोजित था । मेरे प्रदेश में भाजपा की सरकार है और स्थानीय विधायक प्रदेश के गृह मन्त्री हैं । सो, हल्ला तो मचना ही था । इसाई समाज के लोग और उनके समर्थन में कुछ कांग्रेसी सड़कों पर उतर आए ।

पुलिस कुछ अतिरिक्त तेजी से हरकत में आई । उसने चर्च के चैकीदार को एकमात्र अपराधी के रूप में प्रस्तुत किया । खुद पुलिस उपमहानिरीक्षक ने पत्रकार वार्ता में, चैकीदार की उपस्थिति में उसकी अपराध स्वीकारोक्ति की सूचना सहित विस्तृत विवरण दिया । पुलिस के अनुसार, चैकीदार को मात्र एक हजार रुपये वेतन मिलता था उसमें से भी 500 रुपयों की कटौती की जा रही थी जो नवम्बर में पूरी होने वाली थी और उसके बाद उसे नौकरी से निकाला जाना था । चौकीदार खुद रोमन कैथोलिक इसाई है जबकि चर्च प्रोटेस्टेण्ट इसाइयों का है । पुलिस के अनुसार, चर्च-प्रबन्धन को सबक सिखाने के लिए चौकीदार ने अग्निकाण्ड रचा । उसकी योजना तो बहुत छोटे, (सांकेतिक) अग्नि-काण्ड की थी, मात्र सबक सिखाने के लिए । लेकिन आग उसकी इच्छा और कल्पना से कही अधिक विकराल हो गई । पुलिस ने यह भी बताया कि चौकीदार ने स्थानीय इसाई समुदाय के लोगों के सामने भी अपना अपराध स्वीकार कर सचाई बताई । लेकिन पत्रकारों को चौकीदार से पूछताछ का अवसर और अनुमति नहीं दी गई

इसाई समुदाय पुलिस की इस कहानी से सहमत और सन्तुष्‍ट नहीं हुआ । उसने विशाल प्रदर्शन कर, प्रशासन को ज्ञापन सौंप कर मामले की निष्‍पक्ष जाँच की माँग की । इसाई समाज का कहना है कि यह अग्निकाण्ड सोची-समझी साजिश का परिणाम है और चौकीदार की आड़ में वास्तविक अपराधियों को छुपाया और बचाया जा रहा है । चौकीदार के परिजन भी पुलिस की कहानी को झूठी बता रहे हैं ।

पत्रकारों ने प्रदेश के गृहमन्त्री से जब ऐसी जाँच के बारे में पूछा तो उन्होंने इसे तत्क्षण ही नकार दिया । उनका कहना था कि पुलिस के निष्‍कर्ष ही सच और अन्तिम हैं और चौकीदार खुद, इसाई समाज के सामने अपराध स्वीकार कर चुका है इसलिए अब किसी जाँच की आवश्‍यकता नहीं रह गई है । गृह मन्त्री का कहना था कि पुलिस की बात को आँख मूँद कर स्वीकार कर ली जानी चाहिए

गृह मन्त्री की यह बात दूसरों के गले तो नहीं उतर रही लेकिन खुद संघ परिवार के गले भी नहीं उतर रही है । संघ परिवार के कई वरिष्‍ठ सदस्यों का कहना है कि इस अग्निकाण्ड से संघ परिवार का सचमुच में कोई सम्बन्ध नहीं है और पुलिस के निष्‍कर्ष ही अन्तिम सत्य हैं । ऐसे में, गृह मन्त्रीजी को किसी भी जाँच की माँग तत्काल स्वीकार कर लेनी चाहिए । इन वरिष्‍ठों का कहना था कि मामले में जितनी पारदर्शिता बरती जाएगी उतनी ही, सरकार की और पार्टी की प्रतिष्‍ठा तथा विश्‍वसनीयता स्थापित भी होगी तथा बढ़ेगी भी । इन लोगों को आश्‍चर्य (और आपत्ति भी) है कि गृह मन्त्री ने निष्‍पक्ष जाँच की माँग क्यों अस्वीकार कर दी । शायद खुद गृह मन्त्री को अपने विभाग की कार्रवाई पर विश्‍वास नहीं हो रहा है ।

पारदर्शिता से घबरा कर, तन्त्र और सत्ता अपनी विश्‍वसनीयता कैसे खोते हैं, यह इसकी छोटी सी बानगी है ।

अथ बीमा एजेण्ट कथा

यह पोस्ट दिनेशरायजी द्विवेदी को समर्पित है ।

बीमा प्रशिक्षण लेने के लिए दो सितम्बर को भोपाल के लिए निकलने से पहले ‘भोपाल में मिलिए’ शीर्षक मेरी पोस्ट पर द्विवेदीजी ने टिप्पणी की थी - ‘भोपाल यात्रा से हमारे लिए भी कुछ लेकर आएँ, इन्दौर की तरह ।’ यह पोस्ट उनकी इसी टिप्पणी से उपजी है ।


बीमा एजेण्टों को उनके नव व्यवसाय के आधार पर विभिन्न स्तर की क्लब सदस्यता उपलब्ध कराई जाती है । यह भारतीय जीवन बीमा निगम की आन्तरिक व्यवस्था है । अपनी क्लब सदस्यता बनाए रखने के लिए और इस सदस्यता के आधार पर मिलने वाले आर्थिक एवम् अन्य लाभों की प्राप्ति सुनिश्‍िचत करने के लिए हम एजेण्टों को तीन वर्ष में कम से कम एक बार ऐसे प्रशिक्षण लेना अनिवार्य होता है । एजेन्सी के प्रारम्भिक काल में प्रत्येक एजेण्ट ऐसे प्रशिक्षण को अत्यधिक गम्भीरता से लेता है । लेकिन जैसे-जैसे एजेन्सी पुरानी होती जाती है, वैसे-वैसे एजेण्ट शालीग्राम’ होता जाता है और तब ऐसे प्रशिक्षणों को वह गम्भीरता से लेने के बजाय, तकनीकी खानापूर्ति की तरह, बहुत ही हलके से लेने लगता है । कई एजेण्ट तो इस मिथ्या दम्भ के शिकार हो जाते हैं कि उन्हें अब किसी भी प्रशिक्षण की आवश्‍यकता ही नहीं रह गई है । वे कहते पाए जाते हैं - ‘अब तो हम ट्रेनिंग दे सकते हैं ।’ ऐसा कहते समय वे भूल जाते हैं कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती । वे यह भी भूल जाते हैं कि बीमा उद्योग को निजी क्षेत्र के लिए खोल देने के बाद उपजी गला काट प्रतियोगिता, निजी बीमा कम्पनियों की आक्रामक विपणन नीति और सूचना प्रौद्योगिकी के विस्फोट वाले इस समय में प्रत्येक की जानकारी प्रति क्षण अधूरी ही हो गई है । इससे भी अधिक गम्भीर बात यह कि ऐसे प्रशिक्षणों की लाभदायक व्यावसायिक उपयोगिता और इस हेतु ‘निगम’ द्वारा किए जाने वाले भारी-भरकम उपक्रम के लिए किए गए सतत् और गम्भीर प्रयत्नों को भी वे भूल जाते हैं । चिन्ताजनक और घातक बात यह है कि ऐसी मानसिकता वाले एजेण्टों की संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है ।
सो, भोपाल के लिए चलते समय मुझे पल भर भी नहीं लगा था कि एक सार्वजनिक उपक्रम के नितान्त आन्तरिक आयोजन में कुछ ऐसा भी हो सकता है जिसे सार्वजनिक किया जा सके और जो ‘सर्व जन हिताय’ भी हो । लेकिन द्विवेदीजी की टिप्पणी ने रतलाम से भोपाल तक की यात्रा के दौरान और उसके बाद तीन दिनों के प्रशिक्षण काल में मुझे बराबर सचेत रखा और मुझे आश्‍चर्य हुआ कि ऐसा काफी कुछ रहा जो न केवल एजेण्टों के लिए बल्कि एजेण्टों की दुनिया से बाहर के लिए भी ‘नोटिसेबल’ है ।
अनुशासन और समयबध्दता (पंक्चुलिटी) हमारे प्रशिक्षण केन्द्र की सर्वोच्च प्राथमिकता और चिन्ता होती है । लेकिन मैं ने देखा कि एजेण्ट इस दिशा में दिनोंदिन लापरवाह होते जा रहे हैं । इनमें भी वे लोग आगे हैं जो इस प्रशिक्षण केन्द्र में पहले भी एकाधिक बार प्रशिक्षण ले चुके हैं और यहाँ की परम्पराओं से भली प्रकार परिचित हैं । उनके मुकाबले नए एजेण्ट अधिक चिन्तित, अधिक गम्भीर तथा अधिक सावधान रहते हैं । ‘लेक्चर हाल’ में किसी के लिए कोई आरक्षण नहीं होता । लेकिन अनुशासन की अवहेलना करने वाले पुराने एजेण्ट, अग्रिम पंक्ति पर अपना ‘सहज अधिकार’ मानते हैं और तदनुसार ही आचरण भी करते हैं । जबकि देर से आने वालों को पीछे की कुर्सियाँ मिलनी चाहिए । निश्‍चय ही, यह नए एजेण्टों का सौजन्य और शालीनता के कारण ही सम्भव हो पाता है ।
व्याख्यान के दौरान एजेण्टों के लिए पान, सुपारी, गुटका जैसी चीजों का स्प’ट निशेध किया गया है । लेकिन मुझे यह देख कर आश्‍चर्य और दुख हुआ कि भाई लोग ‘उन्मुक्त-मन और अधिकार भाव’ से इनका सेवन करते हैं और इसी कारण, प्रश्‍नों के उत्तर देने से बचने की कोशिश करते हैं । व्यसन की अधीनता इस सीमा तक कि प्रशिक्षण का मूल लक्ष्य ही ताक पर रख दिया जाए ? मोबाइल आज अनिवार्यता बन गया है । हममें से अधिकांश के पास नवीनतम तकनीक वाले, मँहगे मोबाइल सेट थे लेकिन मुझे यह कहते हुए शर्म आ रही है कि ‘मोबाइल ”श्ष्‍िटाचार’ से हममें से शायद ही कोई परिचित रहा हो । हम मोबाइल तो रखते हैं लेकिन हमें मोबाइल रखना नहीं आता । हमें पढ़ाने वाले प्रत्येक संकाय सदस्य ने, प्रत्येक पीरीयड में सबसे पहले हमें, अपने-अपने मोबाइल बन्द करने के लिए या फिर उन्हें ‘सायलेण्ट मोड’ पर कर देने के लिए अनुरोध किया । लेकिन मुझे तीनों ही दिन, प्रत्येक पीरीयड में यह देख कर शर्म आती रही कि किसी न किसी का मोबाइल बज गया । याने, हमें मोबाइल श्ष्‍िटाचार का न तो ज्ञान है और न ही कहने के बाद भी हम यह ज्ञान स्वीकार करना चाहते हैं । यह स्थिति हमारे बेशर्म और गैर जिम्मेदार होने के अलावा और कुछ भी साबित नहीं करती । मैं इतने पर ही सन्तोष कर सकता हूँ कि मेरा मोबाइल एक बार भी नहीं बजा । लेकिन मेरे लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है । मैं चाहता था कि किसी का मोबाइल न बजे । लेकिन मेरा नियन्त्रण मुझ तक ही सीमित था ।
यहाँ तक तो बात ठीक थी लेकिन हम लोग ‘बेशर्मी’ से आगे बढ़कर ‘सीनाजोरी’ तक पहुँच गए । तय किया गया था कि प्रशिक्षण-व्याख्यान के दौरान जिसका मोबाइल बजेगा वह अगले दिन एक किलो तथा जो मोबाइल पर बात करेगा वह दो किलो मिठाई लाएगा । जाहिर है कि यह प्रावधान ऐसा ‘मीठा दण्ड’ था जो सबके लिए आनन्ददायक था । लेकिन मुझे यह लिखते हुए अत्यधिक पीड़ा हो रही है कि इस मामले में अधिकांश साथी ईमानदार साबित नहीं हुए । केवल एक, सरायपाली शाखा के श्री दीप सिंह प्रेम ने व्यक्तिगत ईमानदारी बरती और सबके लिए मिठाई लाए । बाकी तमाम ‘दोषी’ मित्र, एक दूसरे द्वारा पहले मिठाई लाने की बात कह कर, बड़ी ही ढिठाई से बच निकले । इन तमाम बातों ने मुझे चैंकाया तो जरूर लेकिन उससे अधिक मुझे निराश किया । मेरा मानना है कि हम यदि ‘अच्छा मनुष्‍य’ नहीं हो सकते तो ‘अच्छा व्यवसायी’ भी नहीं हो सकते । उपरोक्त सारी बातें पूरी तरह से व्यक्तिगत ईमानदारी से जुड़ी हुई हैं । हम सब ऐसे एजेण्ट थे जिनकी सालाना कमीशन आमदनी किसी भी दशा में पाँच-सात लाख रुपयों से कम नहीं है । लेकिन हम सौ-दो सौ रुपयों के लिए भी खुद से झूठ बोलते रहे । लेकिन यह संकट किसी एक वर्ग, समुदाय, कौम का नहीं है । जब तालाब का जल स्तर कम होता है तो समूची जल सतह समान रुप से नीचे उतरती है । हम एजेण्ट लोग भी इसी तालाब का हिस्सा हैं सो इस स्खलन से कैसे बच सकते हैं ? लेकिन मैं इस तर्क का हामी नहीं हूँ । हममें से प्रत्येक इसी (कु) तर्क का सहारा लेकर अपनी जिम्मेदारी से बच रहा है । फिर, मैं तो बीमा एजेण्टों को सबसे अलग और सबसे ऊपर मानता हूँ । हमारा पेशा ‘नोबल प्राफेशन’ है । इसलिए हमारी जिम्मेदारी अन्यों के मुकाबले ‘तनिक अधिक’ नहीं, ‘बहुत अधिक’ है । हमें तो ‘श्रे’ठ आचरण’ प्रस्तुत करना पड़ेगा । ‘व्यक्तिगत आचरण’ ही अन्ततः ‘सामूहिक आचरण’ में बदलता है । यहाँ मैं न तो किसी अपवाद को स्वीकार कर पाता हूँ और न ही उसे चिह्नित कर पाता हूँ । इस मामले में मैं ‘अपवादों का साधारीकरण’ पसन्द करता हूँ । यह ‘दुःसाध्य’ हो सकता है लेकिन ‘असाध्य’ नहीं ।
एक और बात ने मेरा ध्यानाकर्षित किया । प्रत्येक व्याख्यान के दौरान प्रश्‍न पूछने या जिज्ञासा प्रस्तुत करने के लिए कोई तैयार नहीं होता था । हममें से प्रत्येक चूँकि जानता था कि उसका ज्ञान अधूरा है या वह कोई हास्यास्पद प्रश्‍न न पूछ ले (जो कि व्यक्ति के आत्मविश्‍वासविहीन और हीनताबोध से ग्रस्त होने का ही परिचायक है) इसलिए प्रश्‍न पूछने वाले गिनती के ही सामने आए । मेरा अनुभव रहा है कि जिज्ञासा प्रस्तुत करने से ऐसे प्रशिक्षणों की उपयोगिता ‘गुणाकार’ में बढ़ती है । एक व्यक्ति सवाल पूछकर सबकी जानकारी बढ़ाता है । लेकिन इसके लिए सबसे पहले तो अपने को अज्ञानी (और अज्ञानी नहीं तो अल्पज्ञानी तो) मानना पड़ता है । लेकिन वहाँ तो हम सब ‘ज्ञानी’ बनकर पेश आ रहे थे । यही हमारा सबसे बड़ा अज्ञान था ।
सो, जिस यात्रा को मैं मात्र खानापूर्ति मानकर घर से निकला था, उसे द्विवेदीजी ने मेरे लिए व्यक्तिगत स्तर पर न केवल उपयोगी और लाभदायक बल्कि मेरे व्यक्तित्व विकास के लिए आजीवन स्मरणीय बना दिया । अब यदि मैं कुछ बेहतर बन पाया तो उसका उसमूचा श्रेय द्विवेदीजी को ही जाएगा ।
मेरी यह पोस्ट आपको अच्छी लगे तो द्विवेदीजी को धन्यवाद दीजिएगा और खराब लबे तो जमकर मेरी खबर लीजिएगा ।

मैं द्विवेदीजी का कृतज्ञ हूँ ।

भालेरावजी


यह कविता नहीं है । बीमा प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए मैं 3 से 5 सितम्बर तक, भारतीय जीवन बीमा निगम के, भोपाल स्थित मध्य क्षेत्रीय कार्यालय के प्रशिक्षण केन्द्र में था । वहाँ पदस्थ, संकाय सदस्य श्री एस. के. भालेरावजी को ‘वाकर’ के सहारे चलते हुए देख, उनसे जानना चाहा तो मालूम हुआ कि वे पक्षाघात से पीड़ित हो गए थे । नियमित चिकित्सा के अतिरिक्त उनकी प्रबल इच्छा शक्ति का प्रभाव रहा कि वे चिकित्‍सकों की अपेक्षाओं से कहीं अधिक, बहुत अधिक जल्दी स्वस्थ होकर काम पर लौट आए । उन्होंने अत्यन्त आत्म विश्‍वास से कहा कि वे जल्दी ही ‘वाकर’ को मुक्त कर देंगे । उन्हें देख कर और उनसे बातें कर, मेरे मन में जो आया, वही सब ‘एक झटके में’ (सिंगल स्ट्रोक) कागज पर कुछ इस तरह उतर आया ।


भालेरावजी





‘सपने वे नहीं होते
जो आ जाते हैं
बिल्ली के पाँवों
हमारी नींद में ।
सपने तो वे ही होते हैं
जो हमें सोने नहीं देते ।’
पढ़ा रहे थे हमें,
भालेरावजी ।


हुमक कर
घुटनों के बल दौड़कर
माँ की गोद की ओर
किलकारी मारता हुआ
लपकने वाला बच्चा
बन गए थे भोलरावजी
ब्रांच आफिस की
तेरह सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ।


‘कैसे हो ?’
झबरीली मूँछों के बीच
मुस्कुराते हुए,
मेरे कन्धे पर
हौले से हाथ रख कर
पूछ रहे थे
चौपन साला भालेरावजी
बिना हाँफे ।



जंगल में
हवा को मात देते
दौड़ रहे खरगोश को
झपट्टा मारकर दबोच ले
अनन्त आकाश में
छुटटे सांड की तरह तैरता
धरती-भेदी आँखों वाला
शिकारी बाज ।
ऐसे ही आया था
अभ्यागत-लकवा,
भालेरावजी के पास ।


‘अभी नहीं, फिर कभी आना’
कह कर लौटाया नहीं,
अगवानी, आव-भगत की
अतिथि-देव की
आत्मीय ऊष्‍‍मा और ऊर्जा से
भालेरावजी ने ।


मेहमान है तो
मेहमान की तरह रहे
चार दिन बाद
मेहमान कैसा ?



उसके होते हुए
उसे न होने देने लगे
और न होने का अहसास
कराने लगे लकवे को
भालेरावजी,
उसकी खातिरदारी करते हुए ।


‘बच्चों को पढ़ाकर
आता हूँ थोड़ी देर में,
तब तक आप आराम करें’
कह कर,
वाकर के पाँवों चलकर
आ गए
भोलरावजी क्लास में ।



टुकुर-टुकुर ताकता
हक्का-बक्का हो
उन्हें देखता रह गया था
लस्त-पस्त
बाज के झपट्टे में
आ गया हो जैसे खुद लकवा ।



‘घर पर अकेले
बोर हो गए होंगे,
कल थोड़ा
बाहर टहल आईएगा ।
मेरा क्या है,
मैं तो चला जाऊँगा
यूँ ही घूमते फिरते,
छोड़ जाऊँगा
आपके लिए वाकर’
कह रहे थे
लकवे से भालेरावजी
शाम को लौटकर ।



जड़वत लकवे ने क्या सुना
उसकी वो जाने
मैं ने तो सुना
सपने तो
वे ही होते हैं
जो हमें सोने नहीं देते
कह रहे थे
हमें पढ़ाते हुए
भालेरावजी ।

भोपाल में मिलिए

बीमा प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए मैं 2 सितम्बर की शाम को भोपाल पहुँचूँगा और 5 सितम्बर की शाम को रतलाम के लिए निकलूँगा । भोपाल में मेरा आवास, भारतीय जीवन बीमा निगम के क्षेत्रीय प्रशिक्षण केन्द्र में ही रहेगा । यह केन्द्र, होशंगाबाद मार्ग पर स्थित गायत्री मन्दिर (एम. पी. नगर) के सामने, पेट्रोल पम्प के पास स्थित है । प्रशिक्षण प्रातः दस बजे से शाम साढ़े पाँच बजे तक चलेगा । इस बीच मेरा मोबाइल ‘सायलेण्ट मोड’ पर रहेगा - याने, यदि आपमें से कोई उपरोक्त समयावधि में मुझे फोन करेंगे तो वह मेरे मोबाइल में ‘मिस्ड काल’ में दर्ज हो जाएगा ।

यदि कोई ब्लागर बन्धु सम्पर्क करेंगे तो मुझे आत्मीय प्रसन्नता होगी ।

मेरा मोबाइल नम्बर है - 98270 61799