पहले बलात्कार किया, अब बदचलन कह रहे हैं

मेरे प्रिय चिदम्बरमजी,

पहले ही आपको काफी कुछ कह चुका हूँ फिर भी लग रहा है, और भी कुछ कहना शेष  रह गया है। वस्तुतः ऐसा  मेरी इच्छा के कारण नहीं,  आपके द्वारा स्वअर्जित पात्रता के कारण हो रहा है। मैं तो प्रतिक्रया मात्र व्यक्त कर रहा हूँ। मूल क्रिया का ‘पुण्य-यश’ तो आपके खाते मे ही जमा है।

गेहूँ-चावल जैसे, आम आदमी के अनाज के मूल्य में एक रुपया प्रति किलो की वृद्धि को सहन कर लेने की नेक सलाह देते हुए आपने उलाहना दिया कि ‘मैं’ जब पानी की बोतल खरीदने के लिए पन्द्रह रुपये खर्च कर लेता हूँ तो एक रुपया किलो की यह बढ़ोतरी सहन और स्वीकार करने में मेरी नानी नहीं मरनी चाहिए। यह नेक सलाह देते हुए आपकी मुख मुद्रा दर्शनीय थी। आप आक्रोश से तमतमा रहे थे। यह मेरा सौभाग्य ही था कि उस समय ‘मैं‘ आपकी पहुँच में नहीं था वर्ना आप मेरी शकल, निश्चत रूप से बिगाड़ देते। अपनी शक्ति और क्षमता का उपयोग इस तरह करने में आप और आपके तमाम साथी ‘प्रवीण’ और ‘निष्णात’ हैं।

हाँ चिदम्बरमजी! आपका यह कहना सही है कि मैं पानी की बोतल खरीदने के लिए पन्द्रह रुपये चुकाता हूँ किन्तु यह मैं प्रसन्नता से नहीं करता। यह ‘उदाहरणीय’ काम करने के लिए आपने ही मुझे अभिशप्त कर रखा है।

आप (गलती से या कि आपके दुर्भाग्य से) भारत में पैदा भले ही हुए हों किन्तु आपकी बातों और व्यवहार से पहले ही क्षण अनुभव हो जाता है कि आप ‘भारत’ को नहीं जानते। जान भी नहीं सकते। आप तो विदेशों में शिक्षित-दीक्षित हैं। आप तो ‘इण्डिया’ को जानते और उसी में रहते हैं।

भविष्य में आपको काम आएगी, इसलिए एक बात आपको बता रहा हूँ। पानी का व्यापार करना मेरे भारत में सबसे घिनौने कामों में से एक माना जाता है - गौ हत्या के बराबर। हम किसी को पानी नहीं पिलाते, ‘जल सेवा’ करते हैं। इस व्यंजना को आप अनुभव कभी नहीं कर सकेंगे क्योंकि आपके यहाँ तो पानी ‘सर्व’ होता है। यह ‘सर्व’ भले ही अंग्रेजी के ‘सर्विस’ याने ‘सेवा’ से आया है किन्तु ‘जल सेवा करने’ और ‘वाटर सर्व करने’ में पूरब-पश्चिम का अन्तर है।

आपको तो यह भी पता नहीं होगा कि मेरा ‘भारत’ बैसाख के महीने में, गाँव-गाँव, गली-गली प्याऊ खुलवाता है और यथा सम्भव प्रत्येक प्याऊ के साथ एक नाँद रखवाता है ताकि चिलचिलाती धूप और प्राणलेवा गरमी के कारण सूखे हलक वाले मनुष्य और पशु अपनी प्यास बुझा सकें। प्याऊ खुलवानेवाला और नाँद रखवानेवाला उनमें से किसी को नहीं जानता, किसी की शकल नहीं देखता जो (मनुष्य या चौपाया) वहाँ आकर अपनी प्यास बुझाता है। इसी के समानान्तर, प्यास बुझानेवाला भी नहीं जानता कि उसके लिए ठण्डे पानी की व्यवस्था किसने की है। आप इस बात को कभी अनुभव नहीं कर सकेंगे क्योंकि आपतो ‘वाटर स्टाल’ जानते हैं जहाँ अपनेवाले को भी बिना कीमत के पानी की बोतल नहीं दी जाती।

लेकिन यह तो बहुत ही छोटी बात कही है मैंने। बड़ी बात बाकी है और मुझे पूरा भरोसा है कि वह सुनने पर आपको, क्षणांश को ही सही, अपने आप शर्म जरूर आएगी।

आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि ‘जल सेवा’ के माध्यम से ‘भारत’ के निस्सन्तान दम्पत्ति अपना वंश चलाते हैं। ‘भारत’ के गाँव-गाँव में आपको ऐसे कुए मिल जाएँगे जो किसी निस्सन्तान दम्पत्ति ने खुदवाए हैं - सार्वजनिक उपयोग के लिए।

चिदम्बरमजी! मैंने शास्त्र नहीं पढ़े और नहीं जानता कि यह बात कितनी सच है। किन्तु मुझे सनातन से बताया जा रहा है कि ‘पितृ-ऋण’ से मुक्त होने का एक ही उपाय है - सन्तानोपत्ति। किन्तु दुर्भाग्य या ईश्वर की अकृपा से यदि कोई दम्पति इस सुख-सौभाग्य से वंचित रह जाता है तो वह लोकोपयोग हेतु कुआ खुदवाता है क्योंकि लोक मान्यता है कि ऐसा करने से उसकी वंश-बेल बढ़ गई।

चिदम्बरमजी! पन्द्रह रुपये की पानी की बोतल खरीदने का उदाहरण देने की सीनाजोरी बरतते हुए आप भूल रहे हैं कि ‘भारत’ के इस ‘लोक संस्कार’ को आपने ही भ्रष्ट और नष्ट किया है। यह आपकी ही सरकार थी जिसने ‘जल सेवा’ को ‘पानी का व्यापार’ बना दिया। गिनती के लोगों को पूँजीपति बनाने के लिए आपने करोड़ों लोगों का पानी छीन लिया। मशीन से एक बोतल पानी हासिल करने के लिए दस-बारह बोतल पानी बेकार जाता है। यह सब आपने तब किया जब सारी दुनिया चेतावनी दे रही थी कि तीसरा विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़ा जाएगा। आपने हालत यह कर दी है कि रतलाम से इन्दौर के बीचके स्टेशनों पर जहाँ पहले लोग हाथों में लोटे-बाल्टियाँ लेकर ‘जल सेवा! जल सेवा!’ की गुहार लगा कर रेल के डिब्बों में बैठे यात्रियों के प्यासे-तरसे कण्ठों को तृप्त कर स्वयम् को उपकृत और धन्य अनुभव करते थे उन्हीं स्टेशनों पर अब छोटे-छोटे बच्चे, कन्धों पर, अपने वजन के बराबर वजनवाले, भारी-भरकम थैले लादे ‘पाउच ले लो! ठण्डे पानी के पाउच ले लो!’ की आवाजें लगा कर पानी बेच रहे हैं।

चिदम्बरजी! पहले तो आपने ‘भारत’ की मौजूदा पीढ़ी को ‘जल सेवा’ के संस्कार से च्युत कर ‘पानी का व्यापारी’ बनाने का पाप किया और अब अपने उसी पाप को अपने अगले अत्याचार का औचित्य प्रतिपादित करने का हथियार बना रहे हैं। यह बिलकुल वैसा ही है कि पहले तो आपने बलात्कार किया और फिर बलात्कार की शिकर स्त्री को बदचलन कह रहे हैं। अपने एक आपराधिक दुष्कृत्य को दूसरे आपराधिक दुष्कृत्य को जायज ठहराने की ऐसी मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं मिले।

यह सब मैंने राजी-खुशी, प्रसन्नता से नहीं कहा चिदम्बरजी! आपने मजबूर कर दिया यह सब कहने को। आपने रबर की गेंद दीवार पर मारी थी। वही गेंद, लौट-लौट कर आपके मुँह पर लग रही है।

किन्तु सुधरने के मौके हमेशा उपलब्ध रहते हैं। आप ही तय करेंगे कि आप सुधरना चाहते हैं या नहीं।

शुभ-कामनाएँ।

आपका,

एक प्यासा-तरसा भारतीय

11 comments:

  1. चुकन्दरम जैसे लोगों को पता नहीं कि गाँव के लोग किस तरह अपना गुजर बसर करते हैं। कभी गाँव में रहकर देखे तो सत्यता का पता चले। महानगरों में चाँदी की चम्मच लेकर पैदा होने वालों को क्या पता कि डबलरोटी से अलग भी कोई दुनिया बसती है।

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  2. खूब खबर ली है आप ने, लेकिन फिर भी कम है।

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  3. बहुत बढ़िया........बहुत ही बढ़िया!

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  4. Sahi kahaa, kintu paansaa ultaa padtaa dekh jo Mukhiya, apne mantri ke bayaan ko unka vyaktigat abhimat kah kar, jimmedaari se apnaa pallaa jhaad lete hain, ve bhi is sab ke liye poori tarah jimmedaar hain.

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  5. फेस बुक पर श्री पराग दत्‍त, दिल्‍ली की टिप्‍पणी -

    बचपन में हम रेलवे स्टेशन और बस स्टाप पर जलसेवा किया करते थे। हमारे शहर में श्रीनाथ जलसेवा नाम से एक स्वयंसेवी संस्था चला करती थी।

    लेकिन आज दिल्ली में हम चाहकर भी गर्मियों में कहीं प्याऊ या जल पिलाने का कार्य नहीं कर सकते। दिल्ली सरकार का कानून इसके लिये मना करता है।

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  6. फेस बुक पर श्री बृजेश कानूनगो, इन्‍दौर की टिप्‍पणी -

    "रेलवे स्टेशनों पर जलसेवा से याद आया, 1978-80 के समय मेरे ससुराल भवानीमंडी स्टेशन पर जब हम उतरते थे तब वहाँ की जल सेवा देखकर मैं बहुत प्रभावित हुआ था,ऐसा यह देश में सम्भवत: पहली-पहली बार होना शुरू हुआ था। धर्मयुग,दिनमान आदि में यह एक महत्वपूर्ण खबर/स्टोरी भी बनी थी। इस अभियान मैं वहाँ के एक समाजसेवी साधुरामजी बढ-चढ कर सेवा करते थे या वे शायद इसके प्रेरणास्रोत भी रहे थे। मेरे व्यंग्य लेखों में 'साधुरामजी' एक विवेकशील व्यक्ति के रूप मे आते रहे हैं,मेरे पात्र का नामकरण उनकी स्मृति मे ही हुआ था। लगभग दो-दर्जन लेखों में साधुरामजी मेरे साथ रहे हैं। नमन ।"

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  7. भारत अपनी परंपरा और संस्कृति के लिए सर्वोच्च स्थान रखता है .हमें इसे बनाये रखना चाहिए ....

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  8. बहुत ही अच्छी ललकार है बहुत बहुत साधुवाद आपको !

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  9. एक अप्रतिम और सराहनीय ह्रादयोदगार किन्तु चिकने घड़ों के लिए इसकी चुभन का लेशमात्र भी बेअसर है |

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  10. फेस बुक पर श्री ज्ञानदत्‍त पाण्‍डेय, इलाहाबाद की टिप्‍पणी -

    पन्द्रह रुपये का पानी बेचें। पर अगर "मशीन से एक बोतल पानी हासिल करने के लिए दस-बारह बोतल पानी बेकार जाता है।" तो बुरी बात है!

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.