पत्थर का शोरबा बनानेवाला देश

समाचार पढ़कर पहले क्षण तो गुस्सा आया लेकिन अगले ही क्षण कपूर हो गया और खुद पर पहले झेंप और उससे लगी-लगीई हँसी आ गई। मैं अपने कस्बे के लोगों पर बेकार ही गुस्सा कर रहा हूँ। सारे देश में ही यही तो हो रहा है!
 
सारा देश पत्थर का शोरबा बनाने में जुटा हुआ है।

मेरे कस्बे के एक बड़े, निजी स्कूल ने अपने यहाँ पढ़ रहे बच्चों को हिदायत दे दी कि वे स्कूटर-मोटर सायकिल जैसे वाहन लेकर न आएँ क्योंकि अवयस्कों का ऐसे वाहन चलाना गैरकानूनी है। स्कूल का परिसर खूब बड़ा है और बच्चों के वाहन वहीं खड़े किये जाते थे। स्कूल का फरमान सुन कर पालकों और समझदार बच्चों ने इसका तोड़ निकाला - अपने वाहन स्कूल परिसर में नहीं, स्कूल की कम्पाउण्ड वाल के बाहर, सड़क पर खड़े करना शुरु कर दिया। यह तोड़ स्कूलवालों की समझ में तो आया किन्तु ‘आँख ओट, पहाड़ ओट’ की तर्ज पर उन्होंने सन्तोष कर लिया और खुश हो गए कि उन्होंने अपने स्कूल के बच्चों को एक कानून से न केवल परिचित करा दिया अपितु उनसे उसका पालन भी करवा लिया।

लेकिन, ‘भैया की शादी हुई और माँ मर गई, घर में फिर से तीन के तीन’ वाली कहावत चरितार्थ हो गई। यातायात पुलिसवाले हरकत में आ गए। उन्होंने, सड़क पर पार्किंग के अपराध में वाहनों के चालान बनाने शुरु कर दिए और जिन्होंने चालान की रकम नहीं दी, उनके वाहन जप्त करना शुरु कर दिया। चालान की रकम कम से कम चार सौ चालीस रुपये। इतनी बड़ी रकम अपवादस्वरूप ही किसी बच्चे के पास होती है। सो, स्कूल की कम्पाउण्ड वाल के बाहर खड़े, लगभग सारे के सारे वाहन जप्त हो गए। पहले ही दिन भूचाल आ गया।

पहले दिन तो पालकों ने वाहन छुड़ा लिए लेकिन सब समझदार तो थे ही। अब वे सीधे प्रशासन के सामने खड़े हैं। माँग कर रहे हैं कि, सबको अनुकूल लगनेवाला कोई रास्ता निकाल कर उन्हें राहत दी जाए। सबने एक स्वर में कहा कि ऑटो रिक्शा में उनके बच्चे सुरक्षित नहीं है और न ही उनके पास इतना समय है कि प्रतिदिन अपने बच्चों को स्कूल छोड़ने और लेने के लिए आ-जा सकें। 

मैंने अधिकांश पालकों से बात की। सब जानते और मानते हैं कि अवयस्क बच्चों का स्कूटर-मोटर सायकिल चलाना गैर कानूनी है। सब कबूल करते हैं कि स्कूल ने अच्छा काम किया। वे यह भी कबूल करते हैं कि यातायात पुलिस ने अपना काम किया और ऐसा काम पूरे कस्बे में समान-भाव से किया जाना चाहिए। फिर?

मैंने कहा कि वे अपने बच्चों को सायकिल से स्कूल भेजना शुरु कर दें। जिनके घरों में  सायकिल हैं, उन्होंने तो पहले ही यह बात सोच ली किन्तु उनके बच्चे तैयार नहीं। उन्हें सायकिल से स्कूल आना स्वीकार नहीं। उनकी ‘पोजीशन’ का सवाल उन्हें (बच्चों को!) इसकी अनुमति नहीं देता। अधिकांश पालकों ने कहा कि उनके पास नई सायकिल खरीदने के पैसे नहीं हैं जबकि कुछ पालकों ने मेरी इस सलाह को अपनी बेइज्जती माना। उनका कहना था कि जब भगवान ने ‘सब कुछ’ दे रखा है और वे अपने बच्चों के लिए ऐसे दुपहिया वाहन तो क्या, चार-पहिया वाहन भी ‘अफोर्ड’ कर सकते हैं तो अपने बच्चों को सायकिल से स्कूल क्यों भेजा जाए। ऐसे सारे पालकों ने भी इसे अपनी ‘स्थापित सामाजिक/सार्वजनिक प्रतिष्ठा के विपरीत’ ही माना।

मैंने पूछा - ‘तब आप ही बताइए कि क्या किया जाए? आप खुद कलेक्टर होते तो क्या करते?’ कुछ ने चुप रहने की समझदारी बरती किन्तु अधिकांश ने गैरजिम्मेदारी से (अत्यधिक अशिष्टता और सीनाजोरी से) कहा कि यह उनका नहीं, प्रशासन का सरदर्द है। खुद के कलेक्टर होने के मेरे तर्क पर जवाब मिला - ‘कलेक्टर बनवा दीजिए। बता देंगे कि क्या रास्ता निकालते हैं।’

कुछ पालकों का सुझाव है कि स्कूली बच्चों को दुपहिया वाहन चलाने की छूट दे दी जाए। लेकिन ऐसा कहनेवाले, कहने से पहले ही अनुभव कर रहे थे कि इस छूट का भरपूर दुरुपयोग होगा और छूट अर्थहीन हो जाएगी। इसलिए किसी ने जोर से यह बात नहीं कही।

समस्या यथावत् बनी हुई है। कोई भी अपनी बात से पीछे हटने को तैयार नहीं है। किन्तु कुछ छुट भैये नेता सक्रिय हो गए हैं और लग रहा है कि वे बात को ‘वोट’ से जोड़कर अपने आकाओं के जरिए, प्रशासन को इस छूट के लिए मना लेंगे और सब कुछ पूर्ववत् हो जाएगा। स्कूलवाले कह देंगे कि वे तो बच्चों से कानून का पालन करवा रहे थे किन्तु क्यों करें? कलेक्टर ने ही छूट दे दी। पालक खुश हो जाएँगे कि वे रोज सुबह की आफत से या नई सायकिल खरीदने के खर्च से मुक्त हो जाएँगे या कि अपनी इज्जत बनाए रखने में कामयाब। और रहा सवाल यातायात पुलिस का तो वे भी खुश ही होंगे। एक झंझट से मुक्ति मिली।

सारे देश में यही हो रहा है। पत्थर का शोरबा बन रहा है।

6 comments:

  1. हर जगह यही हालत है, परंतु मैंने कई स्कूलों यहाँ तक कि कॉलेजों में देखा है, अपने वाहन से आना मना है, संस्थान की बस से ही आना जाना है । नहीं तो यही स्थिती होगी ।

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  2. नियम स्पष्ट हों, जगह के आकार के अनुसार पार्किंग इत्यादि दी जाये।

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  3. यातायात नियमों का पालन आज हिंदुस्तान मे कोई नही करना चाहता है,सब सड़क पर अपनी मर्ज़ी के मालिक है । यातायात पुलिस कुछ ही जगह पर सक्रिय रहते है । समस्या का हल पब्लिक ही नियमों का पालन कर,कर सकती है ? लेकिन ये पब्लिक है ये कब मानती है ?सबसे ज़्यादा आजकल समस्या यातायात की ही है । वाहन चाहे दो पहिया हो या चार पहिया बेपनाह बढ़ते जा रहे है और अधिकांश चलाने वाले इडियट हो गए है ।

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  4. नियम पालन को जब तक सम्मान की निगाह से न देखा जाए तब तक पत्थर का शोरबा बनता रहेगा। अभी तो हर कोई बिना टिकट सफर को भारत रत्न का तमगा समझता है।

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  5. जो पहले के कलक्टर हैं उनमें ही कितनों के पास समग्र दृष्टि है जो इन गैर-जिम्मेदार अभिभावकों के नगर नायक बनाने जैसी खतरनाक बात के बारे में सोचा जाये। स्कूल की पहल अनुकरणीय है। बेहतर हो की वे माँ-बाप, नगर प्रशासन, पुलिस (और साइकिल विक्रेताओं) की जनसभा बुलाकर इस बारे में सख्ती से बात करें।

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  6. क्या वर्तमान में सायकिल से सड़क पर चलना सुरक्षित है? कई जगह फोर लेन सड़क बन रही है क्या कहीं इसमें सायकिल या पैदल चलने वालो के लिए जगह बनाई गयी है?
    दरअसल आज कल सड़के सिर्फ चार पहिया वाहनों या कहे कि उच्च वर्ग के लिए बनती है.

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