हिन्दी अखबार : पुणे के और मेरे अंचल के

पढ़ता-सुनता आया हूँ कि हिन्दी की जितनी चिन्ता और सेवा अहिन्दीभाषियों ने की, उतनी हिन्दीभाषियों ने नहीं। दक्षिण भारत में तो हिन्दी के लिए पगडण्डी अहिन्दीभाषियों ने ही बनाई, हिन्दी की पताका फहराई और थामे रखी। यह अतिशयोक्ति हो सकती है किन्तु असत्य नहीं कि आज हिन्दी का जितना नुकसान हिन्दीभाषी कर रहे हैं, उतना कोई दूसरा नहीं। इसमें यदि हिन्दी अखबारों की बात जोड़ दी जाए तो कहना ही पड़ेगा कि हिन्दी का जितना अहित हिन्दी अखबारों ने किया और निरन्तर किए जा रहे हैं, वह सब ‘ अनुपम  और अवर्णनीय’ है। अपनी मातृभाषा के साथ ऐसा अत्याचारी व्यवहार दुनिया में शायद ही किसी अन्य समाज ने किया होगा और कर रहा होगा। यह अनुभूति मुझे अपने चार दिवसीय पुणे-प्रवास में लगातार होती रही।

‘बोलचाल की भाषा’ के नाम पर हिन्दी को ‘हिंगलिश’ बनाने और अकारण ही, जानबूझकर हिन्दी शब्दों को विस्थापित करने में हिन्दी पट्टी के अखबारों ने मानो गला-काटू प्रतियोगिता चला रखी है जिसे जीतने के लिए प्रत्येक अखबार अपनी पूरी शक्ति, सम्पूर्ण कल्पनाशीलता, पूरी क्षमता और समूची प्रतिभा लगा रहा है, लगाए जा रहा है।

पुणे में मुझे चार हिन्दी अखबार देखने-पढ़ने को मिले - लोकमत समाचार, आज का आनन्द, नव-भारत और यशोभूमि। चारों ही दिन मैंने अलग-अलग स्थानों से अखबार खरीदे और इसी आधार पर अनुमान लगा रहा हूँ कि ‘लोकमत समाचार’ सर्वाधिक पढ़ा जाता है। उसके बाद क्रमशः ‘आज का आनन्द’, ‘यशोभूमि’ और ‘नव-भारत’ पढ़े जाते हैं। ‘नव-भारत’ को देख कर अच्छा लगा। किसी जमाने में यह अखबार मेरे अंचल में दूसरे स्थान पर हुआ करता था। किन्तु आज तो इसकी शायद फाइल प्रतियाँ ही छप रही होंगी। मेरे अंचल में यह कहीं नजर नहीं आता। ‘यशोभूमि’ मुम्बई से छप कर आता है। शेष तीनों अखबार पुणे में ही छपते हैं।

इन अखबारों में प्रयुक्त हिन्दी ने मुझे चौंकाया। मन में पहली प्रतिक्रिया उभरी - ‘हिन्दी पट्टी के अखबारों को यदि हिन्दी में अखबार निकालने हैं तो पुणे के अखबारों को नमूना बनाएँ।’

पुणे के इन चार अखबारों की हिन्दी, मेरे अंचल के हिन्दी अखबारों की अपेक्षा अधिक शुद्ध, अधिक प्रांजल तथा अधिक सरल है। अंग्रेजी का घालमेल या तो है ही नहीं और यदि है तो नाम मात्र को। मुझे दहशत हो रही है कि ‘नाम मात्र’ की यह स्थिति कहीं ‘भयानक शुरुआत की पहली सीढ़ी’ न हो। अंग्रेजी शब्दों के बहुवचन रूपों (इंजीनीयर्स, बैंकर्स, आर्किटेक्ट्स) को हिन्दी में प्रयुक्त करने के संक्रमण ने यह भय पैदा किया।

किन्तु ‘नव-भारत’ के शीर्षकों में अंग्रजी लिपि का अत्यधिक घातक प्रयोग देख कर मुझे अत्यधिक घबराहट हुई। इससे पहले ऐसा प्रयोग मैंने कहीं नहीं देखा। (भगवान करे, और कहीं देखने को न मिले - ‘नव-भारत’ में भी नहीं।)

पुणे के हिन्दी अखबारों में पठनीय सामग्री की प्रचुरता भी चकित करती है। सामग्री का परिमाण और विविधता लगभग प्रत्येक अखबार को ‘पारिवारिक पत्रिका’ बनाती हैं। मनुष्य जीवन के दैनन्दिन व्यवहार (यथा स्वास्थ्य, साहित्य, भोजन, जीवन शैली, कार्यालयीन व्यवहार, लोक व्यवहार आदि-आदि) से जुड़ी सामग्री लगभग प्रतिदिन मिलती है जबकि मेरे अंचल के अखबार इस मामले में औपचारिकता पूरी करते नजर आते हैं।

पाठकों के पत्र यद्यपि रोज नहीं छपते किन्तु जब भी छपते हैं, यथेष्ठ स्थान और प्रमुखता पाते हैं। इस मामले में मेरे अंचल के अखबार इन पत्रों को ऐसे छापते हैं मानो या तो विवशता हो या फिर पाठकों पर उपकार कर रहे हों। ‘नईदुनिया’ पत्रों की संख्या पर केन्द्रित हो कर रह गया है जबकि किसी जमाने में यह स्तम्भ इस अखबार की पहचान और प्राण हुआ करता था। अपने इस स्तम्भ के माध्यम से ‘नईदुनिया’ ने लेखकों की फौज खड़ी की और उन्हें पहचान दी। मैं भी उसी भीड़ का एक छोटा सा अंश हूँ। लेकिन आज ‘नईदुनिया’ में यह स्तम्भ देख कर दया आती है ओर रोना भी। ‘दैनिक भास्कर’ तो केवल और केवल खानापूर्ति करता है। नाम मात्र के दो पत्र छापता है और कुछ इस तरह कि कफन के नाप का मुर्दा तय किया जा रहा हो। ‘पत्रिका’ में पत्रों की संख्या तो भरपूर होती है किन्तु प्रस्तुति ऐसी होती है कि पढ़ना तो दूर, देखने को भी जी नहीं करे। इसके विपरीत, पुणे के अखबार, पाठकों के पत्र जब भी छापते हैं, पूरी गम्भीरता और सम्मान के साथ छापते हैं।

इस मामले में मराठी के अग्रणी दैनिक ‘सकाळ’ ने मुझे हताश किया। किसी जमाने में यह (भारत का) इकलौता अखबार था जो ‘पाठकों के पत्र’ स्तम्भ की शुरुआत अपने मुखपृष्ठ से करता था। मुझे यह देखकर पीड़ा हुई कि इस अखबार ने अपनी यह कीर्तिमानी परम्परा छोड़ दी है।

एक मराठी कहावत में पुणे को ‘विद्या का मायका’ कहा जाता है। इसका नमूना मुझे ‘आज का आनन्द’ और ‘यशोभूमि’ में देखने को मिला। ये दोनों ही अखबार, नियमित रूप से ‘गणित पहेली’ छापते हैं। ‘यशोभूमि’ तो इस क्रम में ‘काकुरो पहली’ भी छापता है। गणित को सामान्यतः कठिन और अनाकर्षक विषय माना जाता है और अधिकांश बच्चे इससे घबराते/बचते हैं। मेरी भी यही दशा है। हायर सेकेण्डरी परीक्षा में मुझे, गणित में साढ़े सात प्रतिशत अंक मिले थे। यदि ‘पीसीएम’ समूह के अंक संयुक्त रूप से न जोड़े जाते तो मैं तो हायर सकेण्डरी भी पास नहीं कर पाता। किन्तु ऐसी पहेलियाँ गणित को आसान भी बनाती हैं और रोचक भी। इन पहेलियों को हल करते हुए मुझे अनेक लोग नजर आए। उत्साहित होकर मैंने भी कोशिश की किन्तु एक बार फिर अनुत्तीर्ण हो गया।

कुल मिलाकर हिन्दी के मामले में पुणे के अखबार हिन्दी के प्रति अधिक सजग तथा अधिक ईमानदार अनुभव हुए। इसका बड़ा कारण, पुणे का अहिन्दीभाषी होना लगा। किन्तु इससे भी बड़ा कारण लगा - अपनी मातृभाषा मराठी के प्रति मराठीभाषियों का अनुराग। पुणे की हिन्दी पर मराठी का भरपूर प्रभाव है और चूँकि मराठीभाषियों ने मराठी को अंग्रेजी के संक्रमण से अभी भी बचाए रखा है,  इसीलिए वहाँ की हिन्दी भी इस संक्रमण से बची हुई है। मातृभाषा से इतर भाषा प्रयुक्त करते हुए हर कोई अतिरिक्त रूप से सजग/सावधान रहता ही है। यह ‘सहज सजगता/सावधानी’ ही पुणे के हिन्दी अखबारों की हिन्दी को हिन्दी बनाए हुए लगी मुझे।

बहरहाल, पुणे के हिन्दी अखबार देखकर मेरा निष्कर्ष तो यही है कि हिन्दी अखबारों की हिन्दी कैसी हो, यह जानने के लिए हिन्दी अखबारों को अहिन्दीभाषी अंचल के हिन्दी अखबारों से सीख लेनी चाहिए।

9 comments:

  1. हिन्दी का प्राण उस की बोलियाँ हैं। हमें जब भी शब्दों की जरूरत हो उन से न लें और अंग्रेजी के मोहताज हो जाएँ तो भाषा गरीब ही होगी अमीर नहीं। अहिन्दी भाषियों ने हिन्दी को अंग्रेजी से नहीं बोलियों और भारतीय भाषाओं के शब्दों से समृद्ध किया है।

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    1. आपने सौ टका सही बात कही है दिनेशजी। पता नहीं क्‍यों हमारे अखबार अंग्रेजी की यह गुलामी ढो रहे हैं और पूरे समाज पर जबरन लाद रहे हैं। यदि बोलियों के शब्‍द प्रयुक्‍त करें तो इनकी सम्‍पन्‍नता, रोचकता और स्‍थानीयता से उपजा आकर्षण - इन सबमें कितनी बढोतरी हो जाएगी, इसकी इन्‍हें कल्‍पना ही नहीं। ये लोग मानसिक रूप से गुलाम ही नहीं, दरिद्र भी हैं।

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  2. दिनेश सर जी की टिपण्णी से पूर्णतः सहमत

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  3. बढि़या, सूचनाप्रद और विचारणीय विश्‍लेषण.

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  4. एक ज़माने में जनसत्ता भाषा के मामले में शीर्ष पर था ,कालान्तर में नव भारत ने वह स्थान हथियाया लेकिन जल्दी ही इसे अंग्रेजी की छूत लग गई .शुरू में हमें "रिसर्चरों ने पता लगाया प्रयोग" अटपटा लगा .कालान्तर में हम भी इसके ग्रास बन गए .साइंसदान नहीं लिखेगें ये लोग साइंटिस्ट लिखेगे .विज्ञानी नहीं लिखेंगे ,स्साला इस अखबार का तो नाम ही NBT हो गया है जैसे यह भी तपेदिक की कोई किस्म हो .बढ़िया मुद्दे उठाए हैं आपने .

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  5. आपका अवलोकन बहुत सटीक है, भाषा का बाज़ारीकरण होता जा रहा है उत्तर भारत में

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  6. देखना पहली बार किसी महिला कण्डक्टर को
    - विष्णु बैरागी
    @ एकोऽहम्

    महिलाएं हैं हर जगह, पांव रही पसार ।
    हर क्षेत्र में जम रहीं, हर और विस्तार ।।

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  7. देखना पहली बार किसी महिला कण्डक्टर को
    - विष्णु बैरागी
    @ एकोऽहम्

    महिलाएं हैं हर जगह, पांव रही पसार ।
    हर क्षेत्र में जम रहीं, हर और विस्तार ।।

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  8. भाई साहब,आपका ये लेख इंदौर के सभी अख़बार वाले पढ़ ले,एसा कुछ जतन होना चाहिए । ताकि हिन्दी की और चिंदी न हो और शर्म से ही कुछ सुधार जाये । नईदुनिया ने तो पत्रो के प्राण हरके केवल एक ढ़ाचा बना दिया है । जिसे छपास का शौक है उसके लिए तो ठीक है,लेकिन पाठकों को बिलकुल आनंद नही आ रहा है ।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.