बीमा: लायसेंस किसी और का बीमा करे कोई और


22 जनवरी की, बीमा एजेण्ट की आचरण संहिता शीर्षक मेरी पोस्ट पर श्री Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने अत्यन्त आधारभूत और महत्वपूर्ण बात कही/पूछी है -‘‘हमें तो यह भी पता नहीं था की बीमा-एजेंट का लाइसेंस भी माँगा जा सकता है. उस स्थिति में अपनी पत्नी, या भाई आदि के लाइसेंस के नाम पर कार्यस्थान पर ख़ुद पालिसी बेचने का व्यवसाय कर रहे लोगों के बारे में क्या निर्देश हैं? साथ ही कुछ एजेंट पहली किस्त में से कुछ रकम पालिसी धारक को वापस दे देते हैं, क्या इसके बारे में भी कोई आधिकारिक नियम है? जो एजेंट ऐसा वादा करके पालिसी बेच-बेचकर फ़िर उसे कभी पूरा नहीं करते, क्या उनके ख़िलाफ़ कुछ कारवाई होनी चाहिए?’’

आपके माँगने पर एजेण्ट जैसे ही अपना लायसेंस आपको बताता है, आपको उसकी वास्तविकता मालूम हो जाती है। यदि वह ‘वास्तविक एजेण्ट’ है तब तो कोई बात ही नहीं। किन्तु यदि वह (अपने किसी परिजन अथवा और किसी के नाम पर काम कर रहा) ‘छाया एजेण्ट’ (डमी एजेण्ट) है तो यह आप पर निर्भर है कि आप उससे बात करें अथवा नहीं।

मेरा मत तो यही है कि ऐसे लोगों को निरुत्साहित ही किया जाना चाहिए। ‘छाया एजेण्ट’ की आजीविका चूँकि बीमा एजेन्सी नहीं होती इसलिए वह इसके प्रति न तो गम्भीर होता है और न ही अपने ग्राहकों को अपेक्षित समय और, विक्रयोपारान्त ग्राहक सेवा दे पाता है। आपके आसपास आपको ऐसे अनेक बीमाधारक मिल जाएँगे जिनका बीमा करने वाले एजेण्ट ने पलटकर नहीं देखा होगा। या तो वे पालिसी बेचने के बाद अपना काम समाप्त मान लेते हैं या फिर वे काम करना ही छोड़ देते हैं। ऐसे एजेण्टों के बीमाधारकों को, बीमा क्षेत्र में ‘अनाथ पालिसीधारक’ (आरफन पालिसीहोल्डर्स) के रूप में जाना जाता है। ऐसा पालिसीधारक यदि गम्भीर हुआ तो अपना बीमा जीवित रखने के लिए वह बार-बार बीमा कम्पनी के कार्यालय के चक्कर काटने को विवश होता है। अगम्भीर पालिसीधारक झुंझलाकर अपनी पालिसी बन्द कर देता है। असन्तुष्‍ट पालिसीधारकों (अथवा भूतपूर्व पालिसीधारकों) में 99 प्रतिशत पालिसीधारक ऐसे ही ‘छाया एजेण्टों’ के शिकार होते हैं।

मेरा अनुभव है कि ऐसे ‘छाया एजेण्ट’ सबके लिए गम्भीर समस्या होते हैं। यदि ये नहीं रहें तो असन्तुष्‍ट पालिसीधारकों की संख्या, अनुपात और प्रतिशत में उल्लेखनीय कमी आ सकती है। अधिकाधिक व्यवसाय प्राप्त करने के लालच में ‘छाया एजेण्ट’ बना दिए जाते हैं और अपवादों को यदि छोड़ दें तो ये सबके सब अन्ततः समस्या ही साबित होते हैं। लायसेंस देखते ही यदि ग्राहक इनसे बात करने से इंकार कर दें तो इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।

पहली किश्‍त में छूट देने का चलन इस व्यवसाय का ही नहीं, समूचे बीमा उद्योग का नासूर बना हुआ है। इसकी शुरुआत, बीमा करने वालों में से ही किसी न किसी ने की होगी क्यों कि सम्भावित ग्राहकों को तो इस बारे में जानकारी शायद ही रही होगी। यह ऐसी शुरुआत हुई है जो अब चाहने पर बन्द होती नजर नहीं आती।

ग्राहक को अपना कमीशन लौटाना ऐसा गम्भीर अपराध है जिसके साबित हो जाने पर एजेण्ट को न केवल अपनी एजेन्सी से हाथ धोना पड़ सकता है अपितु उसे, अपने किए गए सम्पूर्ण व्यवसाय पर भविष्‍य में मिलने वाले कमीशन से भी हाथ धोना पड़ सकता है।

बीमा अधिनियम 1938 की धारा 41 के अन्तर्गत, कमीशन के इस लेन-देन को अनुचित घोषित किया गया है और इस शर्त का उल्लंघन करने वाले (ग्राहक और एजेण्ट) को 500 रुपयों तक का जुर्माना किए जाने का प्रावधान है। इस धारा का उल्लेख (अन्य बीमा कम्पनियों के बारे में तो मुझे नहीं पता किन्तु, भारतीय जीवन बीमा निगम के) बीमा प्रस्ताव प्रपत्र में स्पष्‍ट रूप से किया गया है। किन्तु अधिकांश (प्रायः समस्त) ग्राहक न तो बीमा प्रस्ताव पत्र देख पाते हैं और न ही खुद भरते हैं। बीमा एजेण्ट, अलग कागज पर सम्भावित ग्राहक के (बीमा प्रस्ताव में भरे जाने वाले) समस्त ब्यौरे लिख लेते हैं और सम्भावित ग्राहक से कोरे प्रस्ताव पत्र पर हस्ताक्षर करा लेते हैं। यह अत्यन्त सामान्य व्यवहार हो गया है किन्तु प्रसन्नता तथा सन्तोष की बात है कि इसका दुरुपयोग होने अथवा इस व्यवहार के कारण ग्राहक को नुकसान होने का कोई प्रकरण अब तक सामने नहीं आया है।

मेरा अनुभव है कि इन दिनों, सम्भावित बीमा ग्राहक, बीमा पर बात की शुरुआत ही इस ‘कमीशन वापसी’ से करते हैं। मैं उन्हें इस व्यवहार के लिए हतोत्साहित करता हूँ क्योंकि यदि एजेण्ट को कमीशन ही नहीं मिलेगा तो वह आपमें रुचि क्यों लेगा? उसके हिस्से का कमीशन अपनी जेब में रखकर आप उससे उत्कृष्‍ट ग्राहक सेवा की अपेक्षा क्यों और कैसे कर सकते हैं? बीमा करने के बाद ग्राहक की ओर पलट कर न देखने के पीछे, यह भी एक बडा और महत्‍वपूर्ण कारण हो सकता है।

पूरे न किए जान सकने वाले वादे करने के लिए किसी एजेण्ट पर कार्रवाई करना अथवा करा पाना मुझे प्रथम दृष्‍टया असम्भवप्रायः ही अनुभव होता है क्यों कि ऐसे वादे न तो लिखित में किए जाते हैं और ऐसे वादों का, सामान्यतः कोई गवाह भी नहीं होता। मेरी, अब तक की एजेन्सी अवधि में ऐसा एक भी प्रकरण सामने नहीं आया है।

ऐसे समस्त मामलों में एक तकनीकी तथ्य यह सदैव याद रखा जाना चाहिए कि बीमा एजेण्ट, कम्पनी का कर्मचारी नहीं होता। इसलिए भी एजेण्ट पर कार्रवाई करना और करा पाना मुझे तनिक श्रमसाध्य और अत्यधिक दुरुह अनुभव होता है।

मुझे प्रसन्नता होगी यदि कोई और जिज्ञासा यहाँ प्रस्तुत की जाए। इसका सर्वाधिक लाभ मुझे ही मिलेगा।
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1 comment:

  1. यह बहुत काम की बात बताई। बीमा एजेण्ट से हमने कभी इस प्रकार का पूछा ही नहीं।

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