आईए! एक उठावना आयोजित कर लेते हैं

उठावने के लिए जुटे, हम ढाई-तीन सौ लोगों को जमावड़ा, कुल जमा तीन-चार मिनिटों मे ही मन्दिर से शोकग्रस्त घर पहुँच गया तो मुझे हैरत हुई। इसी घर से, इसी मन्दिर तक पहुँचने के लिए हम ढाई-तीन सौ लोगों को पूरे कस्बे में घूम कर, कोई डेड़ किलोमीटर चलना पड़ा था। वापसी में यह दूरी मुश्किल से सौ मीटर रह गई थी। मैंने पूछताछ की तो शोकग्रस्त परिवार के एक शुभचिन्तक ने कहा - ‘हमारा दुःख कम करने के लिए आप हमारे यहाँ पधारे हैं, यह हमें तो मालूम है लेकिन गाँववालों को तो मालूम नहीं! उन्हें भी तो हमार व्यवहार मालूम होना चाहिए! इसीलिए ऐसा करना पड़ा।’ गोया, उठावना, मृत्योपरान्त की महत्वपूर्ण उत्तरक्रिया से अलग हटकर, आगे बढ़कर, ‘कुछ और’ भी है जो ‘शोक भाव’ को परे धकेल कर ‘कुछ और’ करने को उकसाता है। यह जानकारी मेरे लिए यह ‘ज्ञान प्राप्ति’ से कम नहीं थी।

बात भेजे में घुसी तो मानो घुस कर ही रह गई। कुछ इस तरह कि निकलने को तैयार ही नहीं। अब जब निकल नहीं रही तो कुलबुलाएगी तो सही! सो, इसी कुलबुलाहट के चलते एक के बाद एक, उठावने और उनसे जुड़ी बातें याद आने लगीं। इतनी तेजी से कि पहली आकर निकले उससे पहले दूसरी उसे धक्का देकर घुसने के लिए मचलने लगे। कुछ ऐसी भीड़भाड़ होने लगी, ऐसा कोहराम मचने लगा जैसे बावलों के गाँव में ऊँट घुस आया हो। स्थिति यह हो गई कि जिस उठावने में बैठा था, वहाँ बैठकर भी वहाँ नहीं था। एक उठावने में बैठे-बैठे अनेक उठावनों में बैठता जा रहा था।

याद आया, जगत भाई को बीमा के कुछ कागज पहुँचाने थे। सोचा, जाने से पहले पूछ लूँ कि कहीं बाहर तो नहीं? फोन किया तो बोले - ‘हूँ तो यहीं लेकिन हनुमान रुण्डी जा रहा हूँ, एक उठावने में।’ मैंने कहा - ‘वहाँ तो मुझे भी जाना है।’ जगत भाई सहज भाव से बोले - ‘तो फिर परेशान क्यों होते हैं? कागज साथ लेते आईएगा। वहीं ले लूँगा।’ और उठावने के जरिए हम दोनों का एक-एक काम निपट गया।

ऐसा तो एकाधिक बार हुआ जब साथ चल रहे सज्जन ने पूछा - ‘आजकल नजर नहीं आ रहे! क्या चल रहा है?’ मेरा जवाब होता - ‘कहाँ जाऊँगा? यहीं हूँ। चलने के नाम पर बस, बीमा चल रहा है।’ सज्जन बोले - ‘अरे हाँ, याद आया। थोड़ी फुरसत निकाल कर शाम को घर आईए। टैक्स प्लानिंग को लेकर कुछ इंश्योरेन्स की बात करनी है।’ अब याद आ रहा है कि जब-जब भी ऐसी बात हुई, हर बार बीमा मिला।

उठावने में शामिल लोगों की मुख मुद्राएँ और उनका व्यवहार देखा तो हर बार किन्तु कभी ध्यान नहीं दिया। अब सब, तनिक अतिरिक्त रूप से याद आ रहा है। घर से मन्दिर जाते हुए और मन्दिर से घर लौटते हुए, सबसे आगे चल रहे, शोक संतप्त परिजनों के और उनके साथ चल रहे कुछ लोगों के चेहरे गमगीन और धीर-गम्भीर नजर आते हैं। किन्तु जमावड़े के अन्तिम छोर का नजारा सर्वथा विपरीत होता है। अन्तिम छोर बने हुए लोगों का व्यवहार और सम्वाद देख/सुन कर लगता है मानो कोई ‘चुटकुला सम्मेलन’ या ‘चुटकुला प्रतियोगिता’ चल रही हो। जमावड़े का पहला छोर यदि शोकग्रस्त होता है तो अन्तिम छोर ‘हर्षोल्लासपूर्वक उठावने में भाग लिया’ जैसा लगता है।

एक उठावने में ‘लिफ्ट’ लेकर गया। लौटते में ‘लिफ्ट’ देनेवाले ने कहा - ‘भैयाजी! दस मिनिट रुकना पड़ेगा।’ मुझे भी कोई जल्दी नहीं थी। मुझे लेकर वे एक दुकान पर पहुँचे जहाँ पहले से ही आठ-दस सज्जन बैठे हुए थे। वे सब भी उसी उठावने से लौटे थे। सबके सब निश्चिन्त भाव से बतरस में लगे थे। थोड़ी ही देर में, अखबार में बँधी कचौरियाँ लिए एक सज्जन पहुँचे। वे भी इसी उठावने में शामिल थे। उन्होंने अखबार खोला और एक के बाद एक, सबके सामने कचौरियाँ बढ़ाने लगे। कचौरियाँ ‘गरमागरम’ थीं - ऐसी और इतनी मानो कढ़ाई में से सीधे अखबार में डाल दी गई हों। एक-एक करके सबने कचौरियाँ लीं और सहज भाव से खाने लगे। कचौरियाँ लानेवाले से एक ने पूछा - ‘देर कैसे हो गई?’ लानेवाले ने कहा - ‘आज भीड़ ज्यादा थी। नम्बर देर से आया।’ मुझे कुछ भी समझ नहीं पड़ा। पूछा तो मालूम हुआ कि जब-जब भी चौमुखी पुल या हनुमान रुण्डी पर कोई उठावना होता है तो आठ-दस लोगों का यह समूह हर बार, इसी तरह ‘कारू मामा की प्रसिद्ध कचौरी’ खाकर ही लौटता है। लौटते में, सब कहाँ रुकेंगे, कौन कचौरियाँ लाएगा - सब कुछ पूर्व निर्धारित होता है। किसी को कुछ भी कहना-पूछना नहीं पड़ता। ‘कचोरी सेवन’ को किसी उठावने की उत्तरक्रिया का हिस्सा बनते मैंने पहली बार देखा। हाँ, मैंने भी कचौरी खाई।

इसी तरह ‘लिफ्ट’ लेकर लौटते हुए, एक बार और रुकना पड़ा था। यहाँ भी, आठ-दस लोग बैठे थे। चाय-पान चल रहा था। मालूम हुआ, प्रत्येक उठावने के बाद यह समूह उठावने की समीक्षा करता है। कस्बे के प्रमुख/अग्रणी लोगों में से कौन शामिल हुआ, कौन नहीं। कोई नहीं आया तो क्यों नहीं आया और आया तो अकेला आया या किसी को साथ लेकर आया। साथ लाए आदमी के हिसाब से अर्थ, निहितार्थ, अन्यार्थ तलाशे जाते हैं और मेरे कस्बे की राजनितिक भविष्यवाणियाँ की जाती हैं। और हैरत की बात यह कि अधिकांश भविष्यवाणियाँ सच ही होती हैं।

एक सज्जन ने अपनी माँ का उठावना, सैलानावालों की हवेली (मोहन टॉकीज) में किया। खूब बड़ा सभागार है यहाँ। पूरा सभागार खचाखच भर गया। इन सज्जन ने व्यावहारिकता बरती और मन्दिर जाने-आने की परम्परा तोड़कर, वहीं शान्ति-पाठ करवा कर उठावने का समापन कर दिया। सबने राहत की साँस ली। समीक्षकों ने खूब तारीफ की। कहा, इनका मन्दिर दूर था, जाते तो सबको तकलीफ होती, बाजार में ट्राफिक जाम होता, जिनका उठावने से कोई लेना-देना नहीं, वे लोग भी परेशान होते। याने,  कुल मिलाकर प्रशंसनीय निर्णय घोषित किया गया। किन्तु समीक्षकों में से एक ने कहा - ‘यार! बाकी सारी बातें तो ठीक हैं लेकिन कुछ भी कहो, उठावने का मजा नहीं आया।’

हमारे विधायक ‘निर्दलीय’ हैं। 2008 के विधान सभा चुनावों से, दो-एक साल पहले से उन्होंने मेरे कस्बे के लगभग शत प्रतिशत दाह संस्कारों और उठावनों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। कुछ इस तरह मानो प्रत्येक मृत्यु, प्रत्येक उठावना इनके घर से ही जुड़ा हो। लोग भी जानते थे और अन्तरंग हलकों में वे खुद भी कबूल करते थे कि यह सब ‘विधान सभा की तैयारी’ है। तब लोग उन पर हँसते थे और मजाक उड़ाते थे। चुनाव परिणाम इनके पक्ष में रहा। अब उनके कार्यकाल का चौथा साल चल रहा है और लोग कहते हैं - ‘मरे हुओं ने इन्हें राजनीतिक जीवन दे दिया।’

अब यह भी याद आ रहा है कि मेरे कई महत्वपूर्ण कामों के लिए मुझे जिन लोगों से मिलना था, उन्होंने मुझे उठावनों में ही ‘अप्वाइण्टमेण्ट’ दिए थे और मेरे काम सलटाए थे।

तय नहीं कर पा रहा हूँ कि उठावने को क्या मानूँ? यह तो तय है कि यह रस्म अब, मृत्योपरान्त की महत्वपूर्ण उत्तरक्रिया से अलग हटकर, ‘कुछ और’ भी है। कभी यह शोक संतप्त परिवार का ‘प्रतिष्ठा प्रतीक’ (स्टेटस सिम्बॉल) हो सकता है तो बाकी लोगों के लिए यह ‘सामुदायकि मिलन आयोजन’ भी लगने लगता है जहाँ लोग अपनी खुशियाँ बाँटते हैं, अपनी समस्याओं के निदान हासिल करते हैं, पूरे कस्बे का मिजाज भाँपकर भविष्यवाणियाँ करते हैं, नए व्यापार-धन्धे की योजनाएँ बनाते हैं।

यहाँ तक आते-आते अचानक ही मन में बात आ गई - ऐसा न हो कि जिन्दगी को  खिलन्दड़पने से जीनेवाले किसी जिन्दादिल मित्र का सन्देश मिले - ‘बहुत दिनों से मुलाकात नहीं हुई है। आओ! यार! एक उठावना आयोजित कर लेते हैं।’

14 comments:

  1. फेस बुक पर श्रीबृजेश कानूनगो, इन्‍दौर की टिप्‍पणी -

    क्या-क्या न किया हमने सनम 'स्टेटस' के खातिर....

    ReplyDelete
  2. मुझे तो अब इन उठावनों से चिढ़ सी होने लगी है। नतीजा है कि नहीं जाता। उस के बजाए किसी अन्य दिन मृतक के परिजनों से मिलने जाना ठीक लगता है।

    ReplyDelete
  3. रोचक... आधुनिक वर्तमान की सच्चाई दिखाता आलेख... आभार

    ReplyDelete
  4. फेस बुक पर श्री सुनील ताम्रकार, इन्‍दौर की टिप्‍पणी -

    "उठावने का सजीव चित्रण। मुर्दा अगर पढ़ ले तो जिन्दा हो जाए।"

    ReplyDelete
  5. फेस बुक पर श्री हिमांशु राय, भोपाल की टिप्‍पणी-


    "एक रस्म का उठावना होते देख धडकनें तेज हो गईं। समझा जा सकता है की किस तरह प्रथा में कब आगे "कु" जुड़ जाता है।"

    ReplyDelete
  6. '' ‘कचोरी सेवन’ को किसी उठावने की उत्तरक्रिया का हिस्सा बनते मैंने पहली बार देखा। ''
    कहा जाता है कि बनारस की कचौड़ी गली का भी यही चलन है.

    ReplyDelete
  7. एक घटना, दस आदमी, सैकड़ों मन्तव्य..

    ReplyDelete
  8. भाई साहब यह सब सामाजिक आवश्यकताएं ही तो हैं.

    ReplyDelete
  9. Replies
    1. यह सम्‍मान प्रदान करने के लिए अन्‍तर्मन से आपका आभारी हूँ।

      Delete
  10. तय नहीं कर पा रहा हूँ कि उठावने को क्या मानूँ? यह तो तय है कि यह रस्म अब, मृत्योपरान्त की महत्वपूर्ण उत्तरक्रिया से अलग हटकर, ‘कुछ और’ भी है। कभी यह शोक संतप्त परिवार का ‘प्रतिष्ठा प्रतीक’ (स्टेटस सिम्बॉल) हो सकता है तो बाकी लोगों के लिए यह ‘सामुदायकि मिलन आयोजन’ भी लगने लगता है

    समाज की अपनी प्रथाएँ .... शोक में भी दिखावा पसंद करते हैं ... विचारणीय लेख

    ReplyDelete
  11. सही लिखा है
    एक और कार्टून भी आज पढ़ा जो के कुछ कुछ मिलता है
    http://geekandpoke.typepad.com/.a/6a00d8341d3df553ef0177430d47bb970d-pi

    ReplyDelete
    Replies
    1. यह कार्टून तो इस पोस्‍ट से कोसों आगे है। उपलब्‍ध कराने के लिए धन्‍यवाद अभिषेकजी।

      Delete
  12. ई-मेल ो प्राप्‍त, श्री अमित रॉय, वर्धा की टिप्‍पणी -

    वर्तमान समाज में मौजूद सम्‍वेदनशीलता और सम्‍वेदनशीलता का बहुत कम समय में बना दिया जाने वाला मनोरंजन दोनों की जानकारी हुई। लगता है मनोरंजन के इतने साधन होने के वावजूद अभी और भी मनोरंजन की आवश्यकता पड़ रही है। दरअसल समाज अब बहुत जल्द बोरियत महसूस करने लगा है। ऐसा क्यों है, पता नही। शायद हम इस पागल दौड का हिस्सा बन गए हैं जहाँ कुछ भी नित्य नही है।

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.