बधाई याने धन्यवाद याने क्या फर्क पड़ता है?

ऐसा मेरे साथ पहले कम होता था, बहुत कम। कभी-कभार ही। किन्तु अब तो अत्यधिक होने लगा है - महीने में पन्द्रह-बीस बार। याने, तीन दिनों में दो बार। जब भी ऐसा होता है, झुंझला जाता हूँ। खीझ/चिढ़ आ जाती है। भयभीत होने लगा हूँ कि कहीं मैं भी यही सब न करने लग जाऊँ।

लोगों ने ‘बधाई’ और ‘धन्यवाद’ में अन्तर करना बन्द कर दिया है। दोनों को पर्याय बना दिया है। जहाँ बधाई देनी होती है वहाँ धन्यवाद दे रहे हैं और जहाँ धन्यवाद देना होता है, वहाँ बधाई दे रहे हैं। यह सब इतनी तेजी से, इतनी अधिकता से और इतनी सहजता से हो रहा है कि किसी से नमस्कार करने में भी डर लगने लगा है।

हो यह रहा है कि किसी से आमना-सामना हुआ तो ‘राम-राम, शाम-शाम’ के बाद, सम्वाद कुछ इस तरह से होता है -

‘बधाई दादा आपको। बहुत-बहुत बधाई।’

‘बहुत-बहुत धन्यवाद। लेकिन किस बात की?’

‘वो आपने अपने लेख में मेरा जिक्र किया था ना? उसी की।’

‘तो उसके लिए तो आपने धन्यवाद कहना चाहिए।’

‘वही तो कहा!’

‘वही कहाँ कहा? आपने तो मुझे बधाई दी। धन्यवाद नहीं दिया।’

‘एक ही बात है। मैंने बधाई कहा। आप उसे धन्यवाद समझ लीजिए। क्‍या फर्क पड़ता है?’

‘एक ही बात कैसे? और बधाई को धन्यवाद कैसे समझ लूँ? फर्क क्‍यों नहीं पड़ता? दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर है। बधाई तो सामनेवाले के यहाँ कोई खुशी होने पर, उसे कोई उपलब्धि होने पर, कोई उल्लेखनीय सफलता मिलने पर, उसका कोई रुका काम पूरा हो जाने पर जैसी स्थितियों में दी जाती। ऐसा कुछ तो मेरे साथ हुआ नहीं। इसके उल्टे, मेरे लेख में आपका जिक्र होने से आपको मेरे कारण खुशी मिली, मेरे कारण आपका नाम हुआ इसलिए आप तो मुझे धन्यवाद देंगे, बधाई नहीं।’
‘आप विद्वानों के साथ यही दिक्कत है। बात को समझने के बजाय शब्दों को पकड़ कर बैठ जाते हैं! इतनी बारीकी आपको ही शोभा देती है। हम भी ऐसा करने लगेंगे तो आपमें और हममें फर्क ही क्या रह जाएगा? हमारे लिए तो दोनों बराबर हैं।’

मैं चाह कर भी कुछ नहीं कह पाता। चुप रह जाता हूँ। जब-जब भी समझाने की कोशिश की, हर बार जवाब मिला - ‘आप हो तो सही! जब भी कोई बात समझनी होगी तो आपको फोन लगा कर पूछ लेंगे।’

मैं हतप्रभ हूँ। बधाई और धन्यवाद में किसी को कोई अन्तर अनुभव नहीं हो रहा! दोनों को पर्याय माना जा रहा है! टोकने पर कहा जा रहा है - बधाई को धन्यवाद समझ लिया जाए।


यह सब क्या है? भाषा के प्रति असावधानी, उदासीनता या उपेक्षा?

माँजना हई बाजाँ


प्रसंग शोक का हो, आप परिवार के अग्रणी की स्थिति में हों और अकस्मात् ऐसा कुछ हो जाए कि आपकी हँसी छूट जाए। तो? इतना ही नहीं। आप पाएँ कि आपके आसपास के लोग, आपसे पहले ही उस ‘कुछ’ से वाकिफ बैठे थे और कुछ तो प्रसंग/वातावरण के कारण और कुछ आपके लिहाज में वे अपनी हँसी नियत्रित किए बैठे थे और आपके हँसते ही वे सब भी आपकी हँसी में शामिल हो गए हैं। तो? तो क्या! समझदारी इसी में होती है कि खुद की हँसी रोकें नहीं और न केवल दूसरों को हँसने दें बल्कि दूसरों की हँसी में खुलकर शामिल हो जाएँ।

बिलकुल यही हुआ हम दोनों भाइयों के साथ - दो दिन पहले। इसी रविवार, 27 नवम्बर को।

मेरी बड़ी बहन गीता जीजी का निधन इसी 23 नवम्बर को हो गया। उसकी उत्तरक्रियाओं के अन्तिम में से एक कर्मकाण्ड की समाप्ति पश्चात्, मौके पर उपस्थित हम सब लोग भोजन के लिए पंगत बना कर बैठे। एक तो हमारी बहन का निधन और दूसरे, आयुमान से पूरे जमावड़े में हम दोनों भाई सबसे वरिष्ठ। सो, सबकी नजरें हम दोनों पर और हमारी शकलों पर। कागज के बने दोने पत्तल में भोजन परोसा जाना था। हम सबके सामने एक-एक पत्तल और एक-एक दोना रख दिया गया। पूरी, आलू की सब्जी और बेसन की नमकीन सेव परोसी जानी है - यह हम सबको पता था। सामग्री आने में थोड़ी देर थी। अचानक ही मेरी नजर पत्तल पर पड़ी। एक विज्ञापन छपे कागज की पत्तलें हमारे सामने रखी गई थीं। विज्ञापन की, बारीक अक्षरों वाली इबारत को बिना चश्मे के पढ़ पाना तो सम्भव नहीं था किन्तु ‘श्वान-शिशु’ का चित्र तो बिना चश्मे के ही नजर आ रहा था। जिज्ञासा के अधीन, चश्मे की सहायता से विज्ञापन की इबारत पढ़ी तो मेरी हँसी छूट गई। दादा ने तनिक खिन्न स्वरों में पूछा - ‘क्या बात है? यह हँसने का मौका है?’ मैंने कहा - ‘जिन पत्तलों में हमें भोजन करना है उन पर कुत्तों के पिल्लों के भोजन का विज्ञापन छपा है।’ मेरी बात पूरी होते ही मेरे पास बैठे सज्जन, मुझसे भी जोर से हँस पड़े। दादा ने पूछा - ‘अच्छा! वाकई में?’ मैं जवाब देता उससे पहले ही, मेरे पास वाले सज्जन ने हँसते-हँसते कहा - ‘वाकई में। पढ़ तो मैंने पहले ही लिया था और हँसी तो मुझे भी आ रही थी। किन्तु दबाए रहा। अच्छा नहीं लगता। पता नहीं आप क्या सोचते। लेकिन है तो कुत्तों के भोजन का विज्ञापन ही।’

अब दादा ‘सहज’ से आगे बढ़कर तनिक ‘उन्मुक्त’ हो गए। उनका ‘शब्द पुरुष’ जाग उठा। अपनी हँसी को पूरी तरह नियन्त्रित करते हुए बोले - “अब जब ऐसा हो ही गया है तो मान लें कि ‘माँजना हई बाजाँ’ आ गई हैं।” सुन कर वे सब भी हँसने में साथी बन गए जो शोक ओढ़े, गम्भीर मुद्रा में बैठे थे।

जितनी तेजी से बात शुरु हुई थी, उतनी ही तेजी से खत्म भी हो गई क्योंकि इसी बीच भोजन सामग्री परोस दी गई थी। पूरियों और बेसन सेव के कारण विज्ञापन की इबारत तो दब गई थी किन्तु ‘श्वान-शिशु‘ का चित्र और बड़े-बड़े अक्षरों में छपा, उसके भोजन का नाम साफ-साफ दिखाई दे रहा था। हम चाहते तो भी दोनों को छुपा नहीं सकते थे क्योंकि, जैसा कि आप चित्र में देख रहे हैं, दोनों ही पत्तल के किनारों पर छपे थे।

अब ‘माँजना हई बाजाँ’ का अर्थ भी जान लीजिए। यह मालवी कहावत है। ‘माँजना’ याने पात्रता, काबिलियत। ‘हई’ याने ‘के अनुसार’ और ‘बाजाँ’ याने पत्तलें। पूरा अर्थ हुआ - आपकी पात्रता के मुताबिक आपके लिए पत्तलें मँगवाई गई हैं या कि जैसे आप वैसी पत्तलें आपके लिए।

हम लोग तो शोक प्रसंग में भी खुलकर हँस लिए थे। आप तो हमसे भी अधिक खुल कर हँस सकते हैं।

दादा ने लबूर दिया

‘‘दादा! आज दादा ने लोकेन्द्र को ‘लबूर’ दिया।’’ हँसते-हँसते सूचना दी वासु भाई ने। ‘कहाँ मिल गए थे?’ पूछा मैंने तो वासु भाई ने कहा - ‘मिले नहीं। फोन पर।’

‘लबूरना‘ मालवी बोली का लोक प्रचलित क्रियापद है जिसका अर्थ है - मुँह नोंच लेना। वासु भाई के मुताबिक दादा ने फोन पर लोकेन्द्र भाई का मुँह नोंच लिया था।

‘लोकेन्द्र’ याने डॉक्टर लोकेन्द्र सिंह राजपुरोहित और ‘वासु भाई’ याने वासुदेव गुरबानी। लोकेन्द्र भाई बी. ए. एम. एस. (बेचलर ऑफ आयुर्वेद विथ मॉडर्न मेडिसिन एण्ड सर्जरी) हैं। चिकित्सकीय परामर्श का कामकाज तो अच्छा खासा है ही, एक्स-रे क्लिनिक भी चलाते हैं। वासु भाई की, इलेक्ट्रानिक कल-पुर्जों की और उपकरणों की मरम्मत की दुकान है। दुकान मौके की तो है ही, आसान पहुँच में भी है। सो, यार-दोस्तों की बैठक भी यहाँ जमती रहती है। मैं भी कभी-कभार यहाँ की अड्डेबाजी में शरीक हो जाता हूँ। दोनों ‘बाल सखा’ हैं और मुझ पर अत्यधिक स्नेहादर रखते हैं।

बाजार से निकलते हुए वासु भाई की दुकान पर नजर डाली तो पाया कि ग्राहक एक भी नहीं है और दोनों बाल-सखा बतिया रहे हैं। अड्डेबाजी की नीयत से मैं भी रुक गया। मैं जाकर बैठता उससे पहले ही वासु भाई से उपरोल्लेखित सम्वाद हो गया। मैंने देखा - सुनकर लोकेन्द्र भाई खिसियाने के बजाय खुलकर हँस रहे हैं। मैं आश्वस्त हुआ। पूछा तो पूरी बात सामने आई।

लोकेन्द्र भाई ने साधारण बीमा निगम की एक बीमा कम्पनी से ली हुई मेडीक्लेम बीमा पॉलिसी के अन्तर्गत एक दावा कर रखा था। अपने स्थापित चरित्र के अनुसार, बीमा कम्पनी, दावे का भुगतान करने में टालमटूल कर रही थी। लोकेन्द्र भाई ने, बीमा कम्पनी के चेन्नई स्थित मुख्यालय से पत्राचार किया तो उत्तर में उन्हें अंग्रेजी के, बारीक अक्षरों में छपे चार पन्ने मिल गए। इन पन्नों की जानकारी हिन्दी में प्राप्त करने के लिए लोकेन्द्र भाई उठा पटक कर रहे थे। इसी दौरान वासु भाई ने मुझसे मदद माँगी तो मैंने कहा सहज भाव से कहा कि वे दादा को अपनी समस्या लिख भेजें और साथ में सारे कागज भेज दें क्योंकि दादा, राजभाषा संसदीय समिति के सदस्य रह चुके हैं और हिन्दी से जुड़े ऐसे मामले वे उत्साह से लेते हैं। वासु भाई ने मेरी बात लोकेन्द्र भाई को बताई लोकेन्द्र भाई ने ‘अविलम्ब आज्ञापालन भाव’ से सारे कागज दादा को पोस्ट कर दिए।

कोई छः-सात दिन बाद लोकेन्द्र भाई ने, केवल यह जानने के लिए कि कागज-पत्तर मिले या नहीं, दादा को फोन लगाया। जवाब में वही हुआ जो वासु भाई ने बताया था - दादा ने लोकेन्द्र भाई को ‘लबूर’ लिया। मैंने प्रश्नवाचक मुद्रा और जिज्ञासा भाव से अपनी मुण्डी लोकेन्द्र भाई की तरफ उचकाई।

खुल कर हँसते हुए लोकेन्द्र भाई ने बताया कि दादा के ‘हेलो’ के उत्तर में जैसे ही उन्होंने (लोकेन्द्र भाई ने) अपना नाम बताया तो दादा ‘शुरु’ हो गए। जो कहा, वह कुछ इस प्रकार था - ‘दूसरों से हिन्दी में काम काज की अपेक्षा करते हो, उनके अंग्रेजी में सूचना देने को राजभाषा अधिनियम का उल्लंघन करने का अपराध कहते हो और खुद क्या कर रहे हो? तुम अपने हस्ताक्षर अंग्रेजी में करते हो! दूसरों को हिन्दी की अवहेलना करने का, राजभाषा अधिनियम का उल्लंघन करने का दोषी करार देने से पहले खुद तो हिन्दी का मान-सम्मान करो!’ लोकेन्द्र भाई बोले - ‘मेरी तो शुरुआत ही पिटाई से हुई। सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। घिग्घी बँध गई। मुझसे तो हेलो कह पाना भी मुमकिन नहीं हो पा रहा था। हिम्मत करके, जैसे-तैसे क्षमा-याचना की। लेकिन इसके बाद अगले ही क्षण दादा सामान्य-सहज हो गए। मेरी मदद का आश्वासन दिया। किन्तु अंग्रेजी में मेरे हस्ताक्षरों को लेकर उनकी पहली प्रतिक्रिया ने मुझे झकझोर दिया। अंग्रेजी में हस्ताक्षर करना इतनी गम्भीर बात हो सकती है, यह मैंने कभी नहीं सोचा था।’

चूँकि यह मेरा भी प्रिय विषय है, इसलिए कहना तो मैं भी काफी-कुछ चाहता था किन्तु यह ठीक समय नहीं था। लोकेन्द्र भाई अभी-अभी ही ‘दुर्घनाग्रस्त’ होकर बैठे हैं। मैं कुछ कहूँगा तो ‘कोढ़ में खाज’ वाली स्थिति न हो जाए! सो चुप रहा। थोड़ी देर तक गप्प गोष्ठी कर लौट आया।

अब प्रतीक्षा कर रहा हूँ। कुछ दिन बीता जाएँ। फिर कभी लोकेन्द्र भाई मिलेंगे तो पूछूँगा - ‘अब फिर खुद को लबुरवाओगे या हिन्दी में हस्ताक्षर करना शुरु कर दिया है?’

परम्परा से साक्षात्कार


इस वर्ष की दीपावली, मेरे दोनों बेटों को एक लोक परम्परा समझाने का माध्यम बनी।

मेरी भाभीजी की मृत्यु के बाद यह पहली दीपावली हमारे लिए ‘शोक की दीपावली’ थी। मेरे दोनों बेटे इसका अर्थ नहीं समझ पाए। उनके समझदार होने के बाद ऐसा यह पहला अवसर था। ‘ताईजी तो अपने घर आती ही नहीं थीं! उनकी मृत्यु के बाद शोक निवारण किया जा चुका है तो फिर शोक की दीपावली क्यों?’ बाईस वर्षीय छोटे बेटे तथागत ने कहा - ‘मुझे तो ताईजी की शकल भी याद नहीं!’ यही सार रहा दोनों के कौतूहल का।

जवाब में मैंने दोनों को गृहस्थी, परिवार, कुटुम्ब, खानदान के बारे में विस्तार से समझाने की कोशिश की और कहा - ‘कोई आता-जाता या नहीं, इससे मंगल प्रसंगों पर भले ही फर्क पड़ता हो किन्तु शोक प्रसंगों में फर्क नहीं पड़ता। शोक के अवसरों पर सारी बातें भुलाकर सब दौड़ पड़ते हैं। क्योंकि बाँटने से खुशियाँ बढ़ती हैं और दुःख कम होता है। कोई अपनी खुशियाँ नहीं बढ़ाना चाहे तो यह उसकी मर्जी। किन्तु किसी का शोक-दुःख कम करने की जिम्मेदारी तो हमारी अपनी ही होती है। इसीलिए, जो लोग खुशियों के मौके पर बुलाने के बाद भी नहीं जाते या जिन्हें जानबूझकर भी नहीं बुलाया जाता वे लोग भी शोक प्रसंगों पर, बिना बुलाये नंगे पाँवों दौड़ कर जाते हैं - जल्दी से जल्दी पहुँचने के लिए, सब कुछ भूल कर। यही पारिवारिकता और कौटुम्बिकता है।’ सुनकर बड़े बेटे वल्कल ने कहा - ‘‘अंग्रेजी कहावत ‘ब्लड इस थिकर देन वाटर’ शायद इसीलिए उद्धृत की जाती है।’’ सुनकर मुझे अच्छा लगा।दोनों ने पूछा - ‘मम्मी ने पूरे घर की सफाई करवाई, सारा कचरा-कुट्टा फिंकवाया, रंगाई-पुताई भले ही नहीं करवाई लेकिन पूरा घर चकाचक किया। तो फिर शोक की दीपावली कैसे हुई? बाकी क्या रहा?’

अब हमारा पूरा परिवार (मेरी उत्तमार्द्ध, बहू प्रशा, वल्कल, तथागत और मैं) इस विमर्श में शामिल हो गया था। मेरी उत्तमार्द्ध ने कहा - ‘खुद ही सोचो कि बाकी क्या रहा।’ सवाल के जवाब में तीनों बच्चे एक-एक कर गिनवाने लगे - ‘मिठाइयाँ नहीं बनी हैं, बाजार से भी नहीं मँगवाई हैं, पटाखे, मकान की मुँडेर के लिए और सजावट के लिए लटकानेवाले दीये नहीं खरीदे गए हैं, अगले कमरे की बैठक के लिए सजावट का कोई सामान नहीं खरीदा गया है, पर्दे वे ही पुराने हैं, मकान की सजावट के लिए फूल मालाएँ नहीं लाए हैं, अपन पाँचों में से किसी के लिए नए कपड़े नहीं बने हैं न ही नए जूते खरीदे गए हैं। आदि आदि।’ अपनी बातों का इतना विस्तृत उत्तर खुद से ही पाकर वे विस्मित भी हुए जा रहे थे और ‘शोक की दीपावली’ का मर्म भी समझते जा रहे थे। किन्तु अभी भी काफी कुछ बाकी था।

तथागत ने पूछा - ‘तो फिर दीपावली पर हम करेंगे क्या? कैसे मनाएँगे दीपावली?’ हम दोनों पति-पत्नी अब ‘ज्ञानपीठ’ पर विराजित हो गए। बताया कि दीपावली-मिलन के लिए हम कहीं नहीं जाएँगे, कोई आएगा तो सौंफ-सुपारी से अगवानी करेंगे। हम उत्सव मनाएँगे, पूजन भी करेंगे किन्तु उल्लास नहीं जताएँगे। यथा सम्भव घर में ही रहेंगे। किन्तु देखना, अपनी मुँडेर पर रोशनी भी होगी और तुम मिठाइयाँ भी खाओगे। तथागत ने जिन नजरों से दखा, तय करना कठिन था कि उनमें अविश्वास अधिक है या जिज्ञासा? हमारे पास एक ही जवाब था - ‘हम समझा नहीं पाएँगे। तुम खुद ही समझ जाओगे।

और तीनों बच्चों को धीरे-धीरे सब समझ में आने लगा। दीपावली से एक दिन पहले, भैया साहब (श्रीसुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़) की बहू ज्योति, भरपूर मात्रा मे मिठाइयाँ और नमकीन रख गई। दीपावली पूजन वल्कल, प्रशा और तथागत ने किया। हम लोग पूजन करके बैठे ही थे कि मीरा (पाराशर) भाभी ने अपने बहू-बेटे प्रेरणा और दिलीप के हाथों ढेर सारा सामान पहुँचा दिया। उनके पीछे-पीछे पाठक दम्पति (प्रो. स्वाति पाठक और प्रो. अभय पाठक) गुझियों सहित मिठाई-नमकीन ले आए। न्यू इण्डिया इंश्योरेन्स कम्पनी में कार्यरत, देवासवाले विजयजी शर्मा हमारा बहुत ध्यान रखते हैं। उनकी उत्तमार्द्ध श्रीमती मंजू ने घर के बने व्यंजन भिजवाए। मेरी उत्तमार्द्ध ने बहू प्रशा के हाथों, मुँडेर पर दो दीये रखवाए थे। किन्तु अँधेरा बढ़ते-बढ़ते पड़ौसियों ने बच्चों के हाथों दीये रखवा कर हमारी मुँडेर ‘जगमग’ कर दी थी। रात को मुहल्ले के बच्चों ने हमारे घर के सामने खूब पटाखे छोड़े। मेरे बच्चों-बहू ने देखा कि हम ‘पारिवारिकता’ निभा रहे थे और हमारे स्नेहीजन ‘सामाजिकता‘ निभाकर हमारे उत्सव में उल्लास की रोशनी भर रहे थे। हम अपने घर में चुपचाप बैठे थे और ‘समाज’ अपनी खुशियों में हमें शामिल कर रहा था। उनकी खुशियाँ वर्धित-विस्तारित हो रही थीं और हमारा शोक सिकुड़ता जा रहा था।

हम लोग कहीं नहीं गए किन्तु ‘लोक’ ने हमें अकेला और शोकग्रस्त नहीं रहने दिया, हमें अपने साथ बनाए रखा, हमारा त्यौहार करवाया। ‘लोकाचार’ या कि ‘सामाजिकता’ की उपयोगिता, उसकी भूमिका और उसका महत्व मेरे बच्चों ने शायद पहली ही बार देखा-अनुभव किया होगा। किन्तु जिस तरह से यह सब हुआ, उसे वे आजीवन नहीं भूल पाएँगे।

परम्पराएँ इसी तरह प्रवाहमान रहती हैं!

महज एक वाचनालय नहीं

निजी सपने साकार करने के लिए प्रयास भी निजी ही होते हैं। किन्तु सपना यदि राष्ट्र का या राष्ट्र पुरुष का हो तो? कहना निरर्थक ही होगा कि तब पूरे राष्ट्र को और सारे नागरिकों को इस हेतु प्रयास करने पड़ेंगे। किन्तु करता कौन है? शायद ही कोई ऐसा ‘करने’ पर सोचे। हर कोई सोचता है कि उसके सिवाय बाकी सब लोग यह सपना पूरा करें। यह अलग बात है कि पूरा देश चाहता होता है कि यह सपना पूरा हो। चाहत सबकी, कोशिश किसी की नहीं! हमारे संकटों का एक बड़ा (इसे ‘सबसे बड़ा’ कहने को जी कर रहा है) कारण शायद यही है - चाहत सबकी, कोशिश किसी का नहीं।


किन्तु कुछ पागल लोग हर काल, हर देश में, पाये जाते हैं। ऐसा ही एक ‘पागल’ मेरे कस्बे (रतलाम) में है। ये हैं श्री तैयबअली सफदरी। इनकी उम्र अभी अस्सी बरस है किन्तु जज्बा उस किशोर जैसा जिसकी मसें अभी भीग रही हों और जो इश्किया जुनून में आसमान से तारे तोड़ लाने या पहाड़ तोड़ कर दरिया बहा लाने को उतावला हुआ जा रहा हो। वे रहते दुबई में हैं किन्तु उनकी जड़ें रतलाम में हैं। दुबई में रहते हुए अपनी जमीन को सहेजने की जुगत में लगे रहते हैं ताकि जड़ें मजबूत बनी रहें।


वैचारिकता से प्रगतिशील और स्वभाव से उद्यमी सफदरीजी ने अपनी जेब से भरपूर रकम लगा कर 25 मार्च 2011 को रतलाम में एक सार्वजनिक वाचनालय शुरु किया। नाम दिया - ‘विजन 2020 लायब्रेरी।’ मेरा विषय तो यह वाचनालय ही है किन्तु सफदरीजी के बार-बार उल्लेख के बिना मेरी बात पूरी नहीं हो पाएगी। वाचनालय शुरुआत के पीछे सफदरीजी का ‘आधार-विचार’, भारत के पूर्व राष्ट्रपति, विज्ञान पुरुष ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का वह विचार रहा जिसमें उन्होंने 2020 तक भारत को दुनिया का सिरमौर हो जाने की बात कही थी। कलाम साहब की, इसी शीर्षक (इण्डिया विजन 2020) वाली पुस्तक से पूरी बात समझी जा सकती है। सफदरीजी, ‘शिक्षा और ज्ञान’ को सफलता और उपलब्धियों की पहली अनिवार्य शर्त मानते हैं जो प्रथमतः पुस्तकों से ही पूरी की जा सकती है। इसीलिए उन्होंने सार्वजनिक वाचनालय को श्रेष्ठ माध्यम माना और इसकी शुरुआत कर दी। दिन चुना 25 मार्च 2011 - दाऊदी बोहरा समाज के अन्तरराष्ट्रीय धर्म गुरु सैयदनाजी का सौवाँ जन्म दिन।


यह वाचनालय अपनी पहली वर्ष गाँठ की ओर बढ़ रहा है। सफदरीजी इस बीच दोबार भारत आ चुके हैं। पहले आते थे तो जन-सम्पर्क तक ही सीमित रहते थे। किन्तु इन दोनों बार वे इस वाचनालय पर ही केन्द्रित रहे। चाँदनी चौक स्थित पालीवाल मार्केट के, सड़क के सामनेवाले एक छोटे से भाग में स्थित इस वाचनालय में सफदरी साहब अब तक सभी विषयों और विधाओं की एक हजार से अधिक पुस्तकें मँगवा चुके हैं और यह क्रम निरन्तर है। वाचनालय नियमित रूप से, सुबह साढ़े आठ बजे से दोपहर एक बजे तक और अपराह्न साढ़े तीन बजे से रात आठ बजे तक खुलता है। लोग आ-जा रहे हैं। आनेवालों में बच्चे अधिक हैं, वयस्क कम।


इस बार सफदरीजी आए तो मुझे बुलाया। उन्हें यह जानकर तो अच्छा लगा कि 'आत्‍म मंथन' ब्‍लॉंग वालेहमारे अग्रणी ब्लॉगर श्री मन्सूरअली हाशमी के जरिये मैं इस वाचनालय के बारे में पहले से ही जानता हूँ किन्तु ‘अच्छा लगने‘ के मुकाबले इस बात पर अप्रसन्न और कुपित अधिक हुए कि इस मामले में मैंने अब तक कुछ किया क्यों नहीं। मैंने कुछ कहने की कोशिश की तो वे मानो किसी ‘क्रूर हेडमास्टर’ की मुद्रा में बेंत लेकर ऐसे खड़े हों कि मैं कुछ कहने की कोशिश करूँ तो वे बेंत लहराते हुए ‘चो ऽ ऽ ऽ ऽ प्प!’ कहकर मेरी बोलती बन्द कर दें। उन्होंने पूछा - ‘इसके बारे में तुमने कितने लोगों को बताया? कितने लोगों से बात की?’ मैंने कहा ‘कुछ लोगों से बात की।’ मेरी बात खत्म हो उससे पहले सवाल आया - ‘उनमें से कितने लोग यहाँ आए?।’ मैंने कहा - ‘मुझे नहीं मालूम।’ मानो ‘सटाक्’ से बेंत मारी हो, इस तरह कहा - ‘तो फिर तुमने खाक बात की! बात तो वह होती है जिसका असर हो!’ मेरी भलाई और सुरक्षा इसी में थी कि मैं चुप रहता।


मेरी चुप्पी ने सफदरीजी की बातों के लिए मैदान खोला। वाचनालय को लेकर उनकी चाहत और अधीरता के सामने मैं नतमस्तक हो गया। उम्र 80 बरस और अधीरता चौथी-पाँचवी में पढ़ रहे उस बच्चे जैसी जो अपनी पहली ही पहल को आसमान पर चस्पा देखना चाहता हो। उनकी इच्छा है कि इस वाचनालय में पाठकों का आना-जाना ऐसा और इतना हो कि यहाँ के सेवक को सर उठाने का मौका न मिले, दोपहर में, वाचनालय के बन्द रहने के समय (दोपहर एक बजे से साढ़े तीन बजे तक) नगर के लिखने-पढ़नेवाले लोग, कवि-साहित्यकार यहाँ अड्डेबाजी, गप्प-गोष्ठी करें, इस वाचनालय को ‘विमर्श केन्द्र’ का पर्याय बना दें।


इसके प्रचार-प्रसार हेतु अपनी इस बार की यात्रा में सफदरीजी ने दो-तीन तरह के फ्लेक्स बैनर बनवाए। हजार-ग्यारह सौ ’पर्यावरण रक्षक थैलियाँ‘ बनवाईं कि जो भी सदस्य बनेगा, एक थैली का निःशुल्क हकदार होगा। फ्लेक्स बैनर लेकर अपने बड़े बेटे मुर्तुजा को बैंक, विद्यालय जैसे संस्थानों/कार्यालयों में भेजा जहाँ लोगों का आना-जाना अधिक हो। एक-दो संस्थानों ने आगे बढ़कर बैनर लगाया तो अधिकांश ने ‘हमारे कानून इसकी अनुमति नहीं देते’ जैसे तर्क देकर माफी माँग ली जबकि बैनर में किसी भी व्यक्ति का नाम नहीं, व्यापारिक-वाणिज्यिक लाभ की कोई बात नहीं। सब कुछ सार्वजनिक और पूरी तरह निःशुल्क। किन्तु चूँकि यह ‘सामान्य हरकत’ नहीं है, एक आदमी के पागलपन का हिस्सा है, सो पहली ही कोशिश में कामयाबी मिल जाए जरूरी नहीं।


सफदरीजी दुबई से रोज ही अपने सहयोगियों को फोन कर, वाचनालय के बारे में जानकारी लेते हैं और समुचित निर्देश भी देते हैं। ऐसा करते समय एक बात हर बार कहते हैं - ‘पैसों की फिकर मत करना। बस! लायब्रेरी को रतलाम के तमाम बाशिन्दों तक पहुँचाओ ताकि ‘इण्डिया विजन 2020’ का मकसद हासिल किया जा सके।’ उनके आसपासवालों से मुझे उनके सन्देशों के समाचार मिलते रहते हैं और मैं मन ही मन डर रहा हूँ - वे मुझे फोन नहीं कर दें। मैंने भी एक-दो, छोटे-छोटे कामों की जिम्मेदारी ले रखी है जो अब तक पूरे नहीं किए हैं। मैं क्या जवाब दूँगा?


मैं सोच रहा हूँ - दुबई में बैठे, अस्सी साल के एक बूढ़े भारतीय को इससे क्या फर्क पड़ता है कि ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का सपना पूरा हो या नहीं? क्यों नहीं सफदरीजी अपने नातियों-पोते/पोतियों के सामीप्य का आनन्द उठाकर जीवन का आनन्द लें? चौथे काल में चल रहे हैं तो क्यों नहीं धार्मिक क्रियाओं, कर्म काण्डों में खुद को व्यस्त कर लेते ताकि जीवन सफल हो जाए? सोचते-सोचते अपने अधकचरेपन पर पहले तो झेंप आती है, फिर हँसी - ये सारी बातें तो सफदरी साहब मुझसे पहले ही जानते होंगे! फिर भी वे एक वाचनालय के पीछे पड़े हुए हैं! न खुद सोते हैं न यहाँवालों को सोने दे रहे हैं! यह सब क्या है?


किन्तु मैं ही गलत सोच रहा हूँ। किसी राष्ट्र के लिए शायद यही सब कुछ है। ऐसे जुनूनी या कि सनकी या कि पागल लोग ही वह रास्ता बना देते हैं जिस पर चल कर आनेवाली सन्ततियाँ अपनी भूमिका निभा सकें - यह जाने बिना कि यह रास्ता किसने बनाया था। सफदरीजी ऐसे अकेले आदमी नहीं होंगे। पता नहीं, देश में कहाँ-कहाँ ऐसे सफदरीजी चुपचाप अपना-अपना काम कर रहे होंगे। इन सबका अपनाअपना, कोई न कोई राष्ट्र पुरुष होगा जिसके सपने को अपना सपना मानकर उसे पूरा करने के पागलपन में ये लोग अपने आप को खपा रहे होंगे। व्यक्तिगत स्तर पर इन्हें क्या मिलेगा? कुछ भी तो नहीं! लेकिन इन सबके मन में एक विचार समान रूप से काम कर रहा होगा - ‘कि दाना खाक में मिल कर, गुल-ओ-गुलजार होता है।’ यह भावना ही किसी राष्ट्र का मूल-धन होती है।


मेरी बात आपको अच्छी तो लगेगी ही और आप सफदरीजी के साथ-साथ मुझे भी सराहेंगे। किन्तु याद रखिएगा - मैं सफदरीजी की नहीं, उनके द्वारा शुरु की गई लायब्रेरी की बात कर रहा हूँ। यदि आप रतलाम में हैं तो ऐसा कुछ कीजिए कि लायब्रेरी को लेकर सफदरीजी की चिन्‍ता में कमी आए। और यदि आप रतलाम से बाहर हैं तो जब भी रतलाम आएँ, थोड़ी देर के लिए ही सही, ‘विजन 2020 लायब्रेरी’ अवश्य जाएँ।


वहाँ जाकर आपको कैसा लगा - यह जानने की उत्सुकता रहेगी मुझे।

प्रवक्‍ता डॉट काम की लेख प्रतियोगिता

समसामयिक विचार पोर्टल प्रवक्‍ता डॉट कॉम के तीन साल पूरे होने पर द्वितीय ऑनलाइन लेख प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है। इससे पूर्व प्रवक्‍ताके दो साल पूरे होने पर भी लेख प्रतियोगिता (http://www.pravakta.com/archives/18521) का आयोजन किया गया था।

इस बार प्रतियोगिता का विषय है मीडिया में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार

प्रथम पुरुस्‍कार: रु. 2500/, द्वितीय पुरुस्‍कार: रु. 1500/- एवं तृतीय पुरुस्‍कार रु. 1100/- तय किया गया है।

आयोजक के अनुसार लेख केवल हिन्दी भाषा में और 2000 से 3000 शब्दों के बीच होना चाहिए जो 16 नवम्बर 2011 तक मिल जाना चाहिए। परिणाम 25 नवम्बर 2011 को प्रवक्‍ता डॉट कॉम पर घोषित किए जाएँगे। लेख अप्रकाशित एवं मौलिक होना चाहिए। लेख प्रवक्‍ता डॉट कॉम पर प्रकाशित किया जायेगा एवं बाद में इसे पुस्‍तक का स्वरूप भी दिया जा सकता है। लेख के साथ जीवन परिचय (नाम/मोबाइल नम्‍बर/ई-मेल/पता/पद आदि का जिक्र) संस्थान/ एवं फोटोग्राफ भी भेजें।। पुरुस्कार की राशि चेक द्वारा भेजी जाएगी।

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अण्णा को पता तो चले

भ्रष्टाचार के प्रति हमारी मानसिकता का सामान्य उदाहरण है यह।

शुक्रवार शाम साढ़े चार बजे मैं, भारत सरकार के एक उपक्रम के स्थानीय कार्यालय पहुँचा। सन्नाटा छाया हुआ था। कर्मचारियों के बैठनेवाला पूरा हॉल खाली था। पंखे चल रहे थे और बत्तियाँ जल रही थीं। कार्यालय प्रबन्धक और उनके दो सहायक, प्रबन्धक के कमरे में बैठे कागज निपटा रहे थे। दूर, एक कोने में, चतुर्थ श्रेणी के दो कर्मचारी, माथा झुकाए कागजों के ढेर में उलझे हुए थे। नगद लेन-देन का समय यद्यपि समाप्त हो चुका था किन्तु शायद हिसाब बराबर मिला नहीं होगा, सो खजांची अपने पिंजरे में बैठा कभी रुपये गिन रहा था तो कभी सामने रखे कागज पर लिखे आँकड़े देख रहा था। पूरे कार्यालय में सन्नाटा पसरा हुआ था। कुल जमा 6 लोग कार्यालय में थे किन्तु कोई भी आपस में बात नहीं कर रहा था। सब, अपने-अपने काम में लगे हुए थे।

अनुमति लेकर कार्यालय प्रभारी के कमरे में गया। पूछताछ के जवाब में मालूम हुआ कि सारे कर्मचारी अपने एक सहकर्मी के परिवार में हुई मौत पर शोक प्रकट करने गए हैं। यह पूछने का कोई अर्थ नहीं था कि वे वापस काम पर लौटेंगे भी या नहीं? स्पष्ट था कि कार्यालय का समय भले ही शाम सवा पाँच बजे तक का है किन्तु सबके सब, शोक संतप्त परिवार को साँत्वना बँधा कर अपने-अपने घर चले जाएँगे। अगले दिन शनिवार है - अवकाश का दिन। सो, अब मेरे काम के बारे में सोमवार को ही कुछ मालूम हो सकेगा। मैंने किसी से कुछ नहीं कहा। बुझे मन से लौट आया।

इस कार्यालय में मेरा आना-जाना बना रहता है। इतना कि, अण्णा हजारे के समर्थन में जब इस कार्यालय के कर्मचारियों ने जुलूस निकाला तो उन्होंने मुझसे भी शरीक होने का आग्रह किया। मैं भी राजी-राजी शरीक हुआ। जुलूस में केवल पुरुष कर्मचारी थे। महिला कर्मचारी शरीक नहीं हुईं। जुलूस में शामिल सारे कर्मचारियों ने ‘मैं अण्णा हूँ’ वाली सफेद टोपियाँ पहन रखी थीं। उन्होंने लाख कहा किन्तु मैंने टोपी नहीं पहनी। कोई आधा किलोमीटर घूम कर जुलूस समाप्त हुआ तो भाषणबाजी हुई। मैंने भी अण्णा के समर्थन में भाषण दिया और सराहना पाई।

वे ही सारे के सारे, लगभग पचीस कर्मचारी, निर्धारित समय से पौन घण्टे पहले कार्यालय से तड़ी मार कर, अपने सहकर्मी के शोक में शरीक होने का अपना व्यक्तिगत फर्ज निभाने चले गए थे। किसी ने अनुभव करने की कोशिश नहीं कि वे आम आदमी के समय पर डाका डाल कर अपनी व्यावहारिकता निभा रहे हैं। किसी ने नहीं सोचा कि इस पौन घण्टे में, अपना काम लेकर आनेवाले लोगों को कितना कष्ट होगा? किसी ने नहीं सोचा कि प्रत्येक कर्मचारी के इस पौन घण्टे का भुगतान, उन लोगों ने किया है जिन्हें इन कर्मचारियों की अकस्मात अनुपस्थिति के कारण अपने काम के लिए अड़तालीस घण्टों की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

सारे कर्मचारियों को पता था कि मृत्यु वाले परिवार ने अगले दिन, शनिवार शाम पाँच बजे उठावना (तीसरे की बैठक) रखा है। किन्तु उस दिन तो छुट्टी है! सबको अपने-अपने काम निपटाने हैं। काम नहीं हो तो भी इस काम के लिए अलग से समय निकालना, तैयार होना, अपने घर से, अपना समय नष्ट करके आना पड़ेगा! कौन करे और क्यों करे यह सब? इसलिए, शुक्रवार को ही हो आया जाए और वह भी आम आदमी के पौन घण्टे पर डाका डाल कर, उसके काम, कार्यालय में अधूरे छोड़ कर। सवा पाँच बजे तक की प्रतीक्षा कौन करे और क्यों करे? वह समय तो अपने-अपने घर जाने का होता है! शोक प्रकट करना जितना जरूरी, उससे अधिक जरूरी है - समय पर अपने घर पहुँचना। आज तो और जल्दी पहुँच जाएँगे। शायद सवा पाँच बजे तो घर लग जाएँगे।


इन सबने अण्णा के समर्थन में जुलूस निकाला था। भ्रष्टाचार के विरोध में और अण्णा के समर्थन में जोर-शोर से नारे लगाए थे। सबने सफेद टोपियाँ पहनी थीं जिन पर लिखा था - मैं अण्णा हूँ।

अपनी यह करनी इनमें से किसी को भ्रष्टाचार नहीं लगी होगी। लगे भी कैसे? भ्रष्टाचार तो केवल आर्थिक होता है और आर्थिक भी वह जो नेता, अधिकारी, बड़े लोग करते हैं। इन्होंने तो एक पाई का भी भ्रष्टाचार नहीं किया। कर भी कैसे सकते हैं? ये तो सबके सब खुद ही अण्णा जो हैं!

अण्‍णा का अधूरा आह्वान

कोई सप्ताह भर की, हाड़-तोड़, शरीर को निचोड़ देनेवाली भागदौड़भरी व्यस्तता से मुक्त हो आज शाम बुद्धू बक्सा खोला तो पहला ही समाचार देखकर हतप्रभ रह गया। विभिन्न समाचार चैनलों में, नीचे पट्टी में बताया जा रहा था कि अण्णा ने, मतदाताओं से, हिसार लोकसभा उपचुनाव में फौरन ही और पाँच प्रदेशों के विधान सभा चुनावों में, संसद के शीतकालीन सत्र के बाद, स्थिति अनुसार, काँग्रेस को वोट न देने का आह्वान किया है। लगा कि समाचार को संक्षिप्त रूप में देने की विवशता के अधीन समाचार आधा ही दिया गया है। अत्यधिक अधीरता से एक के बाद एक, मेरे बुद्धू बक्से पर उपलब्ध, हिन्दी-अंग्रेजी के तमाम समाचार चैनल देख मारे किन्तु समाचार इतना ही था। थोड़ी देर में दो-तीन चैनलों पर अण्णा को यही आह्वान करते देख भी लिया। वहाँ भी बात काँग्रेस को वोट न देने तक ही सीमित रही।

अण्णा का यह आह्वान मुझे न केवल अधूरा और नकारात्मक अपितु उनके आन्दोलन के लिए सांघातिक लग रहा है। काँग्रेस को वोट न देने की अपील तो अपनी जगह ठीक है किन्तु यह नहीं बताया गया कि काँग्रेस को वोट न दें तो फिर किसे दें। यदि विकल्प नहीं सुझाया जा रहा है तो यह आह्वान सवालों के घेरे में आ जाएगा। होना तो यह चाहिए था कि अण्णा-समूह, मतदाताओं को बताता कि फलाँ-फलाँ उम्मीदवार अथवा पार्टी ने, अण्णा-समूह के जनलोकपाल को शब्दशः समर्थन दिया है, इसलिए उसे ही वोट दें। किन्तु विकल्प नहीं बताया जा रहा है और केवल काँग्रेस को वोट न देने का आह्वान किया जा रहा है। इस ‘अनकही’ का सन्देश तो यही जाएगा कि काँग्रेस को धूल चटा कर, उसके निकटतम प्रतिद्वन्द्वी दल को विजयी बनाया जाए।


उधर, किरण बेदी को यह कहते हुए प्रस्तुत किया गया कि भाजपा और लोक दल ने,

अण्णा-समूह के जनलोकपाल के पक्ष में पत्र दे दिए हैं। किन्तु ये दोनों पत्र सार्वजनकि नहीं किए जा रहे हैं। यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि लोकसभा में सुषमा स्वराज घोषित कर चुकी हैं कि अण्णा के जनलोकपाल के अनेक बिन्दुओं से भाजपा सहमत नहीं है।

अण्णा, काँग्रेस को वोट न देने का आह्वान अवश्य करें किन्तु अपनी निष्पक्षता और सदाशयता जताने के लिए उन्हें किसी विकल्प (यह विकल्प कोई पार्टी भी हो सकती है और/या अलग-अलग दलों के अलग-अलग उम्मीदवार भी) का सुझाव भी अवश्य देना चाहिए। ऐसा न होने पर एकमेव निष्कर्ष यही निकलेगा कि अण्णा-समूह निश्चय ही किन्हीं निहित राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति में सीधे-सीधे सहायक हो रहा है।


यदि यह आह्वान यूँ ही अधूरा बने रहने दिया गया तो आज भले ही काँग्रेस को पराजित करवा कर अण्णा-समूह आत्म-सन्तुष्ट होकर उत्सव मना ले। किन्तु इसके साथ ही अण्णा के आन्दोलन की निष्पक्षता और सदायता संदिग्ध ही नहीं अविश्वसनीय हो जाएगी। उस दशा में यह,एक मजबूत जन आन्दोलन के निराशाजनक अन्त का कारुणिक आरम्भ होगा।


मैं इस कल्पना मात्र से ही भयभीत हूँ। मैं अण्णा को असफल होते नहीं देखना चाहता।

जूझना अपने आप से

आज आठवाँ दिन है। इस पोस्ट के प्रकाशित होते-होते नौवाँ दिन हो जाएगा। विचित्र सा अनमनापन छाया हुआ है। कुछ भी करने को जी नहीं होता। लिखने को इतना कुछ है कि अविराम लिखूँ तो पाँच-सात दिन लिखता रहूँ। किन्तु जब-जब भी लिखने की कोशिश की, हर बार असफल रहा। बीसियों बार लेपटॉप खोला, लिखना चाहा किन्तु एक बार भी लिख नहीं पाया। अंगुलियाँ ही नहीं चलीं। लेपटॉप के कोरे, खाली पर्दे को सूनी आँखों से देखता रहा। मन पर कोई बोझ भी नहीं है और न ही किसी से कोई कहासुनी ही हुई। सब कुछ सामान्य। किन्तु विचित्र रूप से असामान्य।

मेरा मेल बॉक्स भरा पड़ा है - सन्देशों से भी और ई-मेल से मिले ब्लॉगों से भी। सन्देश वे ही पढ़े जो बीमे से जुड़े थे या फिर दो अक्टूबर को, ‘हम लोग’ के संयोजन में होनेवाले, प्रोफेसर पुरुषोत्तमजी अग्रवाल के व्याख्यान से जुड़े थे। इन सन्देशों को खोलना मजबूरी थी - धन्धे की भी और आयोजन की जिम्मेदारी की भी।

गिनती तो नहीं की किन्तु कोई तीस-पैंतीस अनपढ़े ब्लॉग तो होंगे ही मेरे मेल बॉक्स में। सबके सब मेरे प्रिय ब्लॉग। पढ़ने की कोशिशों का हश्र भी, लिखने की कोशिशों जैसा ही रहा। भूले-भटके कोई ब्लॉग खोला भी तो एक वाक्य भी नहीं पढ़ पाया। यही हाल अखबारों का भी हुआ। ‘जनसत्ता’ का पाठक केवल मैं ही हूँ मेरे घर में। इन दिनों के, ‘जनसत्ता’ के सारे अंक, बिना खोले ही रखे हुए हैं - जस के तस। कुछ इस तरह मानो उनसे मेरा कोई सरोकार ही न हो। पत्र आते कम हैं और लिखता ज्यादा हूँ। देख रहा हूँ कि इन आठ-नौ दिनों में सात अनुत्तरित पत्रों के अलावा कोई सत्ताईस-अट्ठाईस पत्र अपनी ओर से लिखने के लिए सूचीबद्ध हो गए हैं। यह नहीं कि यह अनमनापन केवल पढ़ने-लिखने तक ही सीमित रहा। इन दिनों में बेची गई पूरी उनतीस बीमा पॉलिसियों की प्रविष्टियाँ भी अपने रेकार्ड में नहीं कर पाया हूँ। समाचार देखने के लिए बुद्धू बक्सा जब-जब भी खोला, तब-तब हर बार अपने आप पर ही हैरान हुआ। पर्दे पर क्या दिखाया जा रहा है और क्या बोला जा रहा है - समझ ही नहीं पड़ा।


क्या हो रहा है मुझे? 27-28 सितम्बर, मंगलवार-बुधवार की सन्धि-रात्रि में, अपने आप से जूझकर यह सब लिख रहा हूँ कुछ इस तरह मानो खुद के साथ जबरदस्ती कर रहा हूँ या खुद को सजा दे रहा हूँ। यूँ तो फटाफट लिखता हूँ किन्तु इस समय मानो अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगानी पड़ रही है। नितान्त अनिच्छापूर्वक करना पड़ रहा हो, ऐसा लग रहा है।

यह उदासीनता है या जड़ता की शुरुआत? मैं सम्वेदनशून्य या सम्वेदनाविहीन तो नहीं हो रहा? अच्छा भला घर से निकलता हूँ, यार-दोस्तों के बीच खूब हँस रहा-हँसा रहा हूँ, जमकर अड्डेबाजी कर रहा हूँ, दोनों समय भोजन कर रहा हूँ। याने कि बाकी सब तो सामान्य और पूर्वानुसार ही। किन्तु केवल लिखने-पढ़ने के नाम पर जड़ता! कहीं यह बढ़ती उम्र का असर तो नहीं?


जानता हूँ कि सारे सवालों के जवाब मेरे अन्दर ही हैं किन्तु भरपूर कोशिशों के बाद भी उन्हें हासिल नहीं कर पा रहा हूँ। क्या इन कोशिशों के मामले में अपने आप से बेईमानी कर रहा हूँ?

यह कैसी दशा है? क्या ऐसा सबके साथ होता है? होता है तो कितने समय तक यह दशा बनी रहती है? क्या किसी वैद-हकीम से मशवरा किया जाना चाहिए? या किसी मनः चिकित्सक से?


कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ। जी करता है कोई मुझे समझाइश दे किन्तु जब भी किसी से बात की और उसने समझाना चाहा तो मुझे चिढ़ छूट गई और झल्ला कर चला आया - ‘मैं उसे समझूँ हूँ दुश्मन, जो मुझे समझाय है’ को चरितार्थ करता हुआ।

देखता हूँ, आगे क्या होता है। लिखने-पढ़ने का सिलसिला शुरु होता है या नहीं? होता है तो कब और कैसे?

इसका शीर्षक आप ही दीजिए

यह सब अनूठी, अनपेक्षित, विचित्र और उल्लेखनीय भले ही न हो किन्तु ‘लेखनीय’ और प्रथमदृष्टया रोचक तो है ही।

आयु में मुझसे छोटे किन्तु मेरे संरक्षक की भूमिका निभा रहे सुभाष भाई जैन के आग्रह पर हम लोगों ने एक संस्था बनाई। यह संस्था क्या करेगी और कैसे करेगी, इस पर बात करूँगा तो विषय भंग हो जाएगा। तनिक (याने भरपूर) सोच-विचार के बाद इसका नाम दिया गया - ‘हम लोग।’ इसका कामकाज कुछ ऐसा कि इससे जुड़ने पर ‘दो पैसे’ भी देने पड़ेंगे, हाजरी भी देनी पड़ेगी और मिल गई तो कोई जिम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी। ऐसी अटपटी शर्तें माननेवाले ‘सूरमा’ कौन-कौन हो सकते हैं, यह याद करते हुए हम लोगों ने अपने-अपने परिचय क्षेत्र के ऐसे साहसी लोगों के नाम लिखने शुरु किए। हम आठ लोग मिल कर ऐसे सौ लोग भी तलाश नहीं कर पाए। आँकड़ा अस्सी को भी नहीं छू सका।

कोई दस महीनों की मशक्कत के बाद छाँटे गए, ‘अपना घर बारनेवाले’ इन्हीं सम्भावित शूरवीरों के साथ पहली बैठक बुलाई गई इसी ग्यारह सितम्बर रविवार को। शनिवार रात से ही अच्छी-खासी बरसात शुरु हो गई थी जो रविवार को भी जस की तस बनी रही। स्थिति कुछ ऐसी कि यदि बैठक हम ने ही नहीं बुलाई होती तो हम भी नहीं जाएँ। बैठक के निर्धारित समय दस बजे से कोई आधा घण्टा पहले मैं पहुँचा तो पाया कि मुझे ही सबकी अगवानी करनी है। हम आठ-दस भी सबके सब लगभग ग्यारह बजे एकत्र हो पाए। धीरे-धीरे लोग आने शुरु हुए। जिन पर खुद जितना भरोसा था ऐसे कुछ लोगों को डाँट-डपट कर तो कुछ से गिड़गिड़ाकर, बैठक में आने को कहा। बारह बजते-बजते हम लगभग चालीस लोग एकत्र हो गए।

बैठक शुरु हुई। संस्था के बारे में मैंने बताया और आमन्त्रितों के विचार जानने का सिलसिला शुरु हुआ। दो को छोड़कर शेष सब बोले। कोई पौने दो बजे बैठक समाप्त हुई। गपियाते हुए और अपने-अपने वक्तव्यों को परस्पर दोहराते हुए सबने सह-भोज का आनन्द लिया। तीन बजते-बजते हम लोग अपने-अपने घरों में थे।

सोमवार के अखबारों ने हमें चकित किया। प्रमुख अखबारों ने हमारी अपेक्षाओं और अनुमानों से कहीं अधिक विस्तार और प्रमुखता से सचित्र समाचार छापे थे। हम आठ-दस ने फोन पर एक-दूसरे को बधाइयाँ दीं। हम सब ‘परम प्रसन्न’ थे। लगा, ‘अच्छी शुरुआत याने आधी सफलता पर कब्जा’ वाली कहावत सच हो गई हो।

सुबह कोई पौने ग्यारह बजे एक परिचित का फोन आया। ‘हम लोग’ के गठन के लिए बधाइयाँ दी और कहा - ‘इसमें मेरा नाम भी लिख लीजिएगा।’ मैंने शर्तें बताईं तो बोले - ‘सुने बिना ही आपकी सारी शर्तें मंजूर हैं।’ उसके बाद, एक के बाद एक कुल जमा सात फोन आए और प्रत्येक ने अपना नाम लिखने और सारी शर्तें मानने की बात कही। अगले दिन, मंगलवार को छः फोन आए और सबने उसी प्रकार ‘आँख मूँदकर सारी शर्तें कबूल’ की तर्ज पर ‘हम लोग’ से जुड़ने की बात कही। मैंने ‘आठ-दस’ में बाकियों से सम्पर्क किया तो मालूम हुआ कि दो के पास ऐसे ही, ‘हम लोग’ की शर्तों पर जुड़ने के लिए एक-एक फोन आ चुके हैं। याने कुल पन्द्रह लोग अपनी ओर से जुड़े, ‘हम लोग’ की शर्तों पर जुड़े और अपनी ओर से फोन करके जुड़े। मेरी प्रसन्नता अब कौतूहल में बदल गई। यह क्या हो रहा है? क्या सतयुग आ गया कि लोग पैसे भी देने, हाजरी भी बजाने और जिम्मेदारी भी कबूलने को तैयार हो रहे हैं! खुद-ब-खुद! आगे होकर फोन करके हैं! मुझे तनिक घबराहट हुई - कहीं समाचारों में ‘हम लोग’ के कामकाज के बारे में कोई भ्रामक बात तो नहीं छप गई कि लोगों ने इसे ‘एण्टरटेनमेण्ट क्लब’ तो नहीं समझ लिया? सारे समाचार एक बार फिर पढ़े - खूब ध्यान से। नहीं। किसी भी अखबार में एक शब्द भी भ्रामक या अनर्थ करनेवाला नहीं था। फिर यह क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? पूछूँ तो किससे पूछूँ?

उलझन रात भर बनी रही। सुबह भी उलझन जस की तस थी। चाय के साथ अखबार-पान चल रहा था कि मोबाइल की घण्टी बजी। इस बार भी वही आग्रह था। बात शुरु होते ही मैंने तय कर लिया - इनसे पूछूँगा। वे फोन रखते उससे पहले ही मैंने कहा - ‘आखिर ऐसी क्या बात हो गई कि आप महरबान हो गए?’ उनके जवाब ने मुझे धरती पर ला पटका। वे फोन बन्द कर चुके थे। मुझे सम्पट बँधती कि एक और फोन आया। सब कुछ वही का वही। मैंने इनसे भी पूछा - ‘क्यों?’ इनका जवाब भी वही रहा जो पहले का था। अब मुझे बात समझ में आई। पहले तो मैं खूब हँसा - अकेले ही, किन्तु कुछ ही क्षणों में मेरी हँसी बन्द हो गई। इस बात पर मेरा हँसना वाजिब होगा या चिन्ता करना? मैं खुद से कोई जवाब पाता कि एक के बाद एक तीन फोन लगातार आ गए। तीनों ने मानो पहले आपस में बात की हो और फिर मुझे फोन किया हो। केवल शब्दों का अन्तर किन्तु सन्देश भी और मेरी जिज्ञासा का जवाब भी वही का वही।

मैंने ‘वह बात’ जान बूझ कर अब तक नहीं लिखी है। यकीन मानिए, नामों की सूची बनाते समय हममें से किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया था। हममें से प्रत्येक ने संस्था के उद्देश्यों के अनुरूप सम्भावित सहयोगियों के नाम लिखे थे। किन्तु अनजाने में ही हम आठ-दसों ने वह समानता बरत ली जो मेरी जिक्षासा का उत्तर बनी। बाद में मैंने पहले दो दिनों में फोन करनेवाले पन्द्रह लोगों में से कुछ से पूछा तो उनसे भी वही बात सामने आई।


अब तक आपकी जिज्ञासा बढ़ गई होगी और कोई ताज्जुब नहीं कि आप मुझ पर चिढ़ने लगे हों। तो सुन लीजिए वह जवाब जो अलग-अलग शब्दों में कमोबेश एक ही था - ‘आपकी संस्था पर हमें विश्वास है कि आप झाँकीबाजी और दुकानदारी नहीं करेंगे क्योंकि जितने नाम छपे हैं उनमें किसी भी नेता का नाम नहीं है।’

......और माताजी चबूतरे पर स्‍थापित हो गईं

कोई 6 बरस हो गए हैं, आशीष को अब तक नहीं पता कि उसने कितनी पुरानी परम्परा तोड़ दी या कि तुड़वा दी। कौन आशीष? वही आशीष दशोत्तर जिसकी पचास से अधिक गजलें आप, दो बरसों से भी अधिक समय से मृत पड़े मेरे ब्लॉग मित्र-धन परआशीष ‘अंकुर’ की गजलें टैग में पढ़ चुके हैं।



एक संस्था के गठन के लिए बुलाई गई पहली बैठक में खुद आशीष ने जब यह सब बताया तो उसकी बात पर हममें से किसी को विश्वास नहीं हुआ। होता भी कैसे? हम सब तो बस, उपदेश बघारते रहते हैं जबकि आशीष ने तो आसमान में सूराख कर दिखाया!


अफसाना-ए-कामयाबी-ए-आशीष फकत इतना कि जिस दुर्गा माता को उसके मोहल्ले के लोग पता नहीं कितनी पीढ़ियों से, दो गटरों से घिरी, गली की सड़क के बीचों-बीच बैठाते चले आ रहे थे, उसी दुर्गा माता को आशीष ने एक चबूतरे पर ‘शिफ्ट’ करा दिया।


आशीष का मुहल्ला, नागरवास एक सँकरी सड़क के दोनों ओर बसा है। सड़क के दोनों ओर गटरें बनी हुई हैं, उसके बाद मकाने के चबूतरे और फिर चबूतरों से लगे मकान। नागरवास के निवासी, शारदीय नवरात्रि में, अपनी इसी सड़क के बीचों-बीच दुर्गा स्थापना करते आ रहे थे। सड़क पहले ही सँकरी, उस पर बीचों-बीच दुर्गाजी विराजमान! पूरे दस दिन रास्ता बन्द हो जाता था। दुपहिया वाहन तो दूर, पैदल निकलने के लिए भी लोगों को कसरत और सरकस का सहारा लेना पड़ता था।


आशीष को कई बातों से बेहद तकलीफ होती थी। सबसे पहली तो यह कि माताजी दो गटरों के बीच स्थापित हैं। याने, शुद्धता और पवित्रता तो पहले ही क्षण से कोसों दूर चली गईं। दूसरी यह कि रात में तो लोग जलसा मनाते किन्तु दिन में, माताजी के पीछे और गटर के बीच वाली खाली जगह में भाई लोग ताश-पत्ती खेलते रहते। पता नहीं इस खेल में मनोरंजन या ‘टाइम पास’ कितना होता था और ‘पैसों का खेल’ कितना? आशीष ने, इलाके के थानेदार से कहा भी िकवे कोई कार्रवाई भले ही न करें पर ऐसे ‘खिलाड़ियों’ को हड़काएँ तो सही। किन्तु थानेदार ने अपने कान पकड़ लिए। कहा - ‘तुम मुझे सस्पेण्ड कराने पर तुले हो। धर्म का मामला है और पुलिसवाले वैसे ही बदनाम। मुझे माफ करो।’ तीसरी बात, पूरे दस दिनों के लिए रास्ता बन्द। जिन्हें पता नहीं होता, वे अपने वाहनों वर सनसनाते आते और ऐन माताजी के मण्डप के पास आने पर उन्हें मालूम होता कि वे आगे नहीं जा सकते-उन्हें दूसरी गली में जाने के लिए लौटना होगा। ऐसे लोग, भुनभुनाते हुए, नागरवास के लोगों का नाम ले-ले कर जो कुछ कहते वह सब आशीष को खुद की बेइज्जती और खुद पर उलाहना लगता।


खुद को और माताजी को इस ‘दुर्दशा’ से बचाने के लिए आशीष ने जब कुछ लोगों से बात की तो माना तो सबने कि आशीष सौ टंच सही बात कह रहा है किन्तु साथ देने की हामी एक ने भी नहीं भरी। ‘धर्म का मामला है’ कह कर सबने अपने-अपने पाँव खींच लिए। अन्ततः आशीष ने तय किया - जो भी करेगा अब वह अकेला ही करेगा। जो होगा, देखा जाएगा।


कोई 6 बरस पहले, हर साल की तरह उस साल भी मुहल्ले के लोग दुर्गा स्थापना का चन्दा लेने के लिए आशीष के पास पहुँचे। आशीष ने साफ इंकार कर दिया। कहा - ‘आप लोग माताजी को साफ-सुथरी जगह, किसी मकान के ओटले पर बिराजित करो तो ही मैं चन्दा दूँगा।’ लोगों ने उसकी बात हँसी में उड़ा दी। समझाने की कोशिश की कि धर्म के पारम्परिक मामलों में ऐसी, नासमझी भरी जिद नहीं की जाती। सबसे बड़ा तर्क आया - ‘माताजी की स्थापना जहाँ होती रही है, वहीं करनी पड़ती है। उनकी जगह नहीं बदली जा सकती।’ लेकिन आशीष अपनी ‘नासमझी’ पर अड़ा रहा। लोगों को बिना चन्दा लिए आशीष के घर से लौटना पड़ा।


अगले साल फिर वही नवरात्रि, वही दुर्गा स्थापना, वे ही चन्दा माँगनेवाले और अपनी शर्तों पर अड़ा हुआ वही आशीष। हाँ, इस बार आशीष ने, ठहरे हुए पानी में कंकर फेंका - ‘मुहल्ले में बैठ कर मुहल्ले के सार्वजनिक काम से दूर रहना खुद मुझे बुरा लगता है। लेकिन मेरी बात कहीं से भी गलत नहीं है। और कुछ भले ही मत सोचो लेकिन गन्दी गटरों के बीच माताजी को बैठाना कहाँ का धर्म है? यदि आप लोग मेरी बात मानो और माताजी को आसपास के किसी भी मकान के चबूतरे पर स्थापित कर दो तो मैं इस साल का ही नहीं, गए साल का भी चन्दा दूँगा और इस साल के आयोजन में दो दिनों का प्रसाद (जो लगभग आठ सौ रुपये प्रतिदिन होता था) भी मेरी ओर से रहेगा। नहीं तो गए साल की तरह इस साल भी मुझे माफ करो।’ इस बार किसी ने भी ‘फौरन इंकार’ नहीं किया। कुछ ने ना-नुकुर की तो कुछ लोगों ने ना-नुकुर करनवालों को टोक दिया। महसूस किया कि आशीष आयोजन के विरोध में तो है नहीं! वह तो माताजी को गटरों के बीच से उठाने की बात कर रहा है! ओटले पर माताजी बैठेंगी तो दिन भर न केवल सुरक्षित रहेंगी बल्कि उनकी पवित्रता भी बनी रहेगी। कुत्ते, सूअर जैसे जानवरों के आने की आशंका भी नहीं रहेगी।


आशीष ने कहा - ‘पता नहीं उन्हें मेरी बातें जँचीं या कि खुद माताजी उनके हिरदे में बिराजमान हो गईं। सबने एक मत से मेरी बातें मान लीं।’


वह दिन और आज का दिन। माताजी हर साल चबूतरे पर स्थापित की जा रही हैं। दिन भर पर्दे से ढँकी, चबूतरेवाले मकान मालिक की चौकीदारी में बनी रहती हैं। अब रास्ता बन्द नहीं होता। पैदल तो क्या, दुपहिया वाहन सर्राटे से निकल जाते हैं। उल्टे, फायदा यह हुआ कि आरती के समय सब लोगों को खड़े रहने के लिए पूरी सड़क मिल जाती है जबकि पहले सामनेवाली गली में खड़ा होना पड़ता था।


इस तरह मेरे कस्बे के एक मोहल्ले में, एक आदमी ने क्रान्ति कर दिखाई - वह भी ‘धर्म’ जैसे सम्वेदनशील मामले में, जिसमें बड़ा से बड़ा समझदार, ताकतवर और प्रभावी आदमी भी हाथ डालने की कल्पना मात्र से ही चिहुँक उठता है, हाथ जोड़ लेता है।


नीयत साफ हो, इरादे बुलन्द हों और अपने प्रयत्नों पर विश्वास हो तो परिणामों को तो अनुकूल होना ही पड़ता है। मैंने आशीष को बधाई नहीं दी - उसे सलाम किया। कहा - ‘तुम मुझसे बेहतर नहीं, मेरे आदर्श हो। मैं अपने प्रयत्नों के लिए तुमसे प्रेरणा लूँगा।’


उम्र में मेरे छोटे भतीजे से भी छोटे आशीष ने हँसते हुए कहा - ‘सुनो भाई साहब की बातें! इसमें मैंने क्या किया। वो तो माताजी खुद चबूतरे पर बैठना चाहती थीं, सो बैठ गईं। यह तो जगदम्बा की ही माया और प्रताप है।’


मैंने एक बार फिर आशीष को सलाम किया। वह संस्कारवश संकुचित हो गया। कुछ नहीं बोला। किन्तु यदि आप उसे मोबाइल नम्बर 98270 84996 पर उसे शाबासी देंगे तो उसे बोलना ही पड़ेगा - आपको धन्यवाद देने के लिए।

हिन्दुत्व की सच्ची रक्षा

उनके जाने के बाद समझ पड़ा कि अनुजवत मेरे वे मित्र अपना अहम् तुष्ट करने के सुनिश्चित उद्देश्य से आए थे किन्तु मेरा दुर्भाग्य कि मेरी अल्पज्ञतावश, यह सुख प्राप्त करने के स्थान पर वे आहत-अहम् लौटे।

हम ‘असहमत मित्र’ हैं। वे ‘कट्टर हिन्दुत्ववादी’ और मैं ‘औसत हिन्दुत्ववादी।’ ‘मुझे चिढ़ाने और खिजाने में उन्हें बड़ा आनन्द आता है’ यह बात मुझे दीर्घावधि में समझ आई और मैंने ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ पर अमल करने की समझदारी बरतते हुए चिढ़ने-खीझने के बजाय चुप रहना शुरु कर दिया। मेरी चुप्पी को उन्होंने हर बार मेरी मात माना और हर बार ‘कोई जवाब नहीं है मेरी बातों का आपके पास’ कहते हुए, खुश-खुश लौटते रहे। किन्तु इस बार ऐसा नहीं हो पाया।

वे पोलीथीन की छोटी सी थैली में दो पेड़े लेकर आए थे। बोले - ‘मुँह मीठा कीजिए। भतीजे का विवाह हो गया।’ प्रत्युत्तर में मैंने बधाइयाँ तो दी ही, विवाह में न बुलाने का उलाहना भी दिया। मेरी बात से अप्रभावित हो जवाब दिया - ‘उसने अवसर ही नहीं दिया। हमें भी तभी मालूम हुआ जब वह प्रेम विवाह कर, बहू के साथ घर आया।’ मैं प्रेम विवाह का (और विशेषतः अन्तर्जातीय विवाह का, क्योंकि मेरा विश्वास है कि जाति प्रथा के रहते हमारा उद्धार सम्भव नहीं) समर्थक हूँ। सो, बहू की पारिवारिक पृष्ठ भूमि के बारे में पूछताछ कर ली। जिस तत्परता से उन्होंने उत्तर दिया, उससे लगा कि मैंने यह सवाल पूछने में बड़ी देर कर दी थी। उन्होेंने सगर्व सूचित किया - ‘अन्तर्जातीय ही नहीं, अन्तर्धर्मी विवाह किया है उसने। एक मुसलमान लड़की को हिन्दू बनाने का कारनामा किया है उसने।’ मुझे अवाक् नहीं होना चाहिए था किन्तु उनकी मुख-मुद्रा और दर्पित-वाणी ने कुछ क्षण तो मुझे सचमुच में अवाक् कर दिया। उसी मुद्रा और वाणी में वे बोले - ‘चौंक गए ना आप? आप तो हमारे पीछे हाथ धोकर और लट्ठ लेकर पड़े रहते हैं। मेरे भतीजे ने हिन्दू धर्म की जो सेवा की है, वैसा तो आप सोच भी नहीं सकते।’

अब तक मैं अपने आप में लौट आया था। उनकी बात, उनका तर्क, उनकी दर्प भरी मुख मुद्रा और गर्वित-गर्जना पर मुझे सहानुभूति हुई जो अगले ही क्षण दया में बदल गई। मेरी नजरों में अपने प्रति दया भाव ताड़ने में उन्हें पल भी भी नहीं लगा। तनिक आवेश में बोले - ‘आप तो ऐसे देख रहे हैं जैसे मेरे भतीजे ने कोई जघन्य पाप कर लिया है?’ मैंने कहा - ‘पता नहीं आप क्या समझेंगे किन्तु मुझे ताज्जुब तो इस बात का है कि जिस कृत्य पर आपको चरम आत्मग्लानि और परम अपराध बोध होना चाहिए था उस पर आप गर्व कर रहे हैं?’ मानो वज्र प्रहार हुआ हो, कुछ इसी तरह वे हड़बड़ाए और तमतमा कर सवाल किया - ‘क्या मतलब आपका?’ अब मैं पूरी तरह संयत और वे आपे से बाहर थे।

मैंने कहा - ‘आप तो हिन्दू परम्पराओं के अच्छे-भले जानकार हैं। जरा बताइए कि हिन्दू धर्म में तीन ऋण कौन-कौन से बताए गए हैं?’ अविलम्ब जवाब आया - ‘गुरु ऋण, मातृ ऋण और पितृ ऋण।’ ‘अब जरा यह भी बता दीजिए कि इन ऋणों से मुक्ति कैसे पाई जा सकती है?’ मैंने पूछा। उन्होंने परम आत्म विश्वास और आधिकारिकता से मेरी ज्ञान वृद्धि की - ‘गुरु को उनके द्वारा चाही गई दक्षिणा दे कर गुरु ऋण से मुक्ति पाई जा सकती है जबकि मातृ ऋण से आदमी मृत्यु पर्यन्त उऋण नहीं हो पाता और रही पितृ ऋण से मुक्ति की बात तो पिता का वंश बढ़ा कर आदमी उससे मुक्त हो जाता है।’

जवाब मुझे पहले से ही मालूम था। सो, मनोनुकूल जवाब से अब बाजी पूरी तरह से मेरे नियन्त्रण में थी। मैंने कहा - ‘पितृ ऋण से मुक्त होने की हिन्दू धर्म की परम्परा निभाने के लिए आपके भतीजे को एक यवन कन्या पर आश्रित होना पड़ रहा है। क्या यह उचित और धर्मानुकूल है? फिर, मेरी बात को अन्यथा बिलकुल मत लीजिएगा, यह एक सन्दर्भ मात्र है कि मातृत्व तो प्राकृतिक और जैविक सत्य है जबकि पितृत्व केवल ‘विश्वास’ और आप तो जानते-समझते हैं कि विश्वास भले ही भंग हो जाए, प्राकृतिक और जैविक सत्य तो रंचमात्र भी संदिग्ध नहीं होता।’

हमारा सम्वाद इस मुकाम पर पहुँच जाएगा, यह हम दोनों के लिए अकल्पनीय था। वे हक्के-बक्के और मैं अपनी इस अशालीन हरकत पर अकबकाया था। किन्तु जो होना था, हो चुका था। दुरुस्ती की कोई गुंजाइश बची ही नहीं थी। हम दोनों ही मौन थे। कौन बोले और क्या बोले?

सन्नाटा मैंने ही तोड़ा। हिम्मत जुटा कर बोला - ‘आप तो बात को दिल पर ले बैठे। ये तो तर्क हैं जो आसानी से जुटाए जा सकते हैं और तर्कों से हम वहीं पहुँचते हैं जहाँ हम पहुँचना चाहते हैं।’ मन्द स्वर में, कुछ इस तरह मानो स्वगत कथन कर रहे हों, बोले - ‘बात तो आपकी यह भी ठीक है किन्तु मेरे पास तो कोई तर्क ही नहीं है।’ मैंने कहा - ‘चलिए! छोड़िए इस बात को। यह बताइए कि आप शाहनवाज हुसैन को जानते हैं?’ ‘व्यक्तिगत स्तर पर नहीं जानता। बस इतना जानता हूँ कि वे भाजपा के बड़े नेता हैं। बिहार से हैं और अटलजी की सरकार में मन्त्री थे।’ जवाब दिया उन्होंने। मैंने कहा - ‘हाँ। वही। उन्हीं की बात कर रहा हूँ मैं। आपको उनकी पत्नी के बारे में पता है?’ उन्होंने इंकार में मुण्डी हिलाई। मैंने कहा - ‘उनकी पत्नी हिन्दू है। रेणु नाम है उनका। इन दोनों ने भी अन्तर्धार्मिक प्रेम विवाह किया है। किन्तु शाहनवाजजी ने रेणु का धर्म नहीं बदला। उनका हिन्दुत्व जस का तस बनाए रखा।’ उन्होंने अविश्वास से मेरी ओर देखा। मैंने कहा - ‘आप अपनेवालों से पूछिएगा।’ मन्द स्वर में जवाब आया - ‘पूछूँगा जरूर किन्तु आप कह रहे हैं तो सच ही होगा। मैंने अगला सवाल किया - ‘अच्छा! यह तो आपको पता है ना कि इस साल ईद और हरतालिका तीज एक ही दिन थी।’ उन्होंने हामी भरी। मैंने कहा - ‘उस दिन शाहनवाजजी के बंगले पर दो आयोजन हुए थे। पहला आयोजन ईद का था और दूसरा आयोजन तीज पूजन का था। उधर मेहमान सेवइयों का मजा ले रहे थे, उधर रेणुजी हाथों में मेंहदी लगाए, महिलाओं से घिरी बैठी थीं।’ सुनकर उनकी आँखें फैल गईं - ‘अच्छा? सच्ची में?’ मैंने कहा - ‘आप यह भी तलाश कर लीजिएगा।’ वही जवाब इस बार भी आया - ‘जरूर तलाश करूँगा। लेकिन आप कह रहे हैं तो सच ही होगा।’

अब मुझे बाजी समेटनी थी। कहा - ‘तलाश कीजिएगा। मेरी बात सच पाएँगे।’ मेरे पूर्वानुमान को सच करते हुए वे कुछ नहीं बोले, चुप ही रहे। मैंने कहा - ‘बन्धु! आप मेरी इस बात से कभी सहमत नहीं हुए कि धर्म नितान्त निजी मामला है। आज भी मत मानिएगा किन्तु मेरी बात पर विचार जरूर कीजिएगा।’ अब उनकी चुप्पी अकेली नहीं थी। दयनीयता उसकी सहेली बन कर उनके चेहरे पर आ बैठी थी।


शह और मात के अन्दाज मैंने अन्तिम चाल चली - ‘आपके भतीजे ने हिन्दुत्व की कितनी रक्षा या सेवा की यह तो आप तय करते रहिएगा किन्तु शाहनवाज ने साबित कर दिया कि हिन्दुत्व की सच्ची और पूरी-पूरी रक्षा तो उसी ने की। इतनी कि कोई हिन्दू भी क्या करेगा?’


बिना किसी भूमिका के वे उठ खड़े हुए। वे पूरी तरह असहज हो गए थे। इतने कि जब चलने को हुए तो ‘अरे! अरे!! इन्हें कहाँ लिए जा रहे हैं? ये तो मुझे दे दीजिए’ कहते हुए मुझे उनके हाथ से पेड़े झटकने पड़े।

छोटी बात, बड़ी बात

बात तो बस, बात होती है। न छोटी, न बड़ी। बस, देखनेवाले की नजर ही उसे छोटी या बड़ी बनाती है। इसीलिए ऐसा होता है कि जो बात किसी एक के लिए कोई मायने नहीं रखती वही बात किसी दूसरे के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाती है। यह ‘बात’ ही तो है जो कहीं महाभारत करवा दे तो कभी राजा भर्तहरि को जोगी बना दे। बस, सब कुछ देखनेवाले की नजर पर निर्भर करता है।


कोई बाप अपनी बेटी को एक दिन स्कूल जाने से रोक दे तो रोक दे! कौन सा पहाड़ टूट गया होगा? लेकिन यही बात मुझे लग गई। अब, बात लगी तो मुझे है लेकिन झेलनी आपको पड़ रही है। भला यह भी कोई बात हुई? नहीं हुई ना? लेकिन मेरे लिए तो यह बहुत बड़ी बात हो गई।


वह, श्वेताम्बर जैन समाज के पर्वाधिराज पर्यूषण पर्व का अन्तिम दिन था - क्षमापना दिवस। अपराह्न कोई साढ़े तीन/चार बजे प्रेस पहुँचा तो सचिन मानो थकान दूर कर ताजादम हो रहा था और उसकी बड़ी बेटी महक अपनी स्कूल की कॉपी से कोई पाठ पढ़ रही थी। शायद प्रश्नोत्तर के लिए पाठ याद कर रही थी। महक को देखकर मुझे अटपटा लगा। वह समय तो उसके स्कूल में होने का था? पहली बात जो मन में आई वह यह कि कहीं महक अस्वस्थ तो नहीं? किन्तु महक को पाठ याद करते देख बात जैसे अचानक आई थी उससे अधिक अचानक खत्म हो गई। मैंने सचिन से पूछा - ‘आज महक यहाँ कैसे? स्कूल नहीं गई?’ सचिन ने सस्मित उत्तर दिया - ‘आज मैंने इसे स्कूल जाने से रोक लिया। आज सुबह से यह मेरे साथ है।’ मुझे तनिक विस्मय हुआ। आज तो क्षमापना दिवस है! सचिन तो आज ‘उत्तम क्षमा याचना’ हेतु सुबह से घूमता रहा होगा? भला इसमें महक का क्या काम?


मेरी आँखों में उभरा सवाल सचिन ने आसानी से पढ़ लिया। आलस झटकते हुए बोला - ‘‘अंकल! ‘क्षमापना’ से परिचित कराने के लिए मैंने आज इसे स्कूल नहीं जाने दिया और सुबह से अपने साथ लिए घूम रहा हूँ ताकि यह पर्यूषण का मतलब और महत्व समझ सके। दिन भर से मैं इसके सवालों का जवाब दे रहा हूँ। यह छोटी से छोटी बात पर सवाल कर रही है और मैं जवाब दिए जा रहा हूँ। अब यह पर्यूषण का मतलब और महत्व पूरा का पूरा न सही, काफी कुछ तो समझेगी।’’


सचिन की बात सुनकर मुझे रोमांच हो आया। झुरझुरी छूट गई। सचिन अभी पैंतीस का भी नहीं हुआ है। उसे इस बात मलाल है कि वह अपने धर्म की कई बातों, परम्पराओं से अनजान है। वह सहजता से स्वीकार करता है कि वह इन सारी बातों को जानने की कोशिश कर रहा है, सीख रहा है। अपना यह अधूरापन उसे अच्छा नहीं लगता। इसी बात ने उसे प्रेरित किया। हम समझते हैं कि बच्चे स्कूल में सब कुछ सीखते हैं। यह हमारा भ्रम है। वहाँ तो वे किताबी बातों से परिचत होते हैं, अच्छे अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण करने के गुर सीखते हैं। वहाँ वे ‘जिन्दगी’ नहीं सीखते। ‘जिन्दगी’ तो बच्चे अपने घर में ही सीखते हैं। हम बड़े-बूढ़े बच्चों को डाँटते हैं कि वे हमारा कहा क्यों नहीं मानते। उस समय हम भूल जाते हैं कि उनके लिए हमारा ‘कहा’ कम और हमारा ‘किया’ अधिक मायने रखता है। बच्चे, अपने बड़ों की ही तो नकल करते हैं? घर में जो कुछ देखते हैं, वही तो वे भी करते हैं? जरा याद करें, हमारे घर की बातें बच्चों के जरिए ही सड़कों तक आती हैं! इसीलिए ऐसा होता है कि जब समूचा नगर अपने निर्वस्त्र राजा की जय-जयकार रहा होता है तो एक बच्चा कहता है - ‘राज तो नंगा है।’ बच्चे ने नगरवासियों के जयकारे में अपनी आवाज नहीं मिलाई। उसने तो वही कहा जो उसने देखा!


हम अपने बच्चों की शिकायत करते हैं कि वे हमारी संस्कृति, हमारी परम्पराओं से दूर हो रहे हैं। वे हमारे देवी-देवताओं की हँसी उड़ाते हैं। उनकी यह अगम्भीरता, परम्पराओं की यह अवहेलना हमें कचोटती है। किन्तु उस समय हम भूल जाते हैं कि अपनी परम्पराओं से हम ही उन्हें दूर करते हैं - कभी बच्चों की जिद मानकर तो कभी उनके कैरीयर का हवाला देकर। कुटुम्ब में कोई मांगलिक प्रसंग हो तो हम सपरिवार जाने की सोच ही नहीं सकते। कभी बच्चे की परीक्षा तो कभी टेस्ट तो कभी उसके स्कूल का कोई आयोजन आड़े आ जाता है। यह सब न हो तो उसकी कोचिंग कक्षा तो आड़े आ ही जाती है। तब, बच्चे को घर में छोड़कर हम उत्सव, त्यौहार में शामिल होते हैं। हमारे बड़े-बूढ़े और हमारे बच्चे आपस में एक दूसरे की शकल भी नहीं पहचानते। उन्हें (बच्चों को) रिश्ते समझाने पड़ते हैं। बरसों-बरस बीत जाने के बाद अचानक जब हमारे बच्चों का आमना-सामना हमारे कुटुम्बियों से होता है तो हमें खिसिया कर रह जाना पड़ता है। कहना पड़ता है - ‘ये तुम्हारे फूफाजी हैं। इनके पाँव छुओ।’ तब बच्चा पाँव छूता तो है किन्तु फूफाजी को पहचानने की जरूरत ही अनुभव नहीं करता - बरसों में आज पहली बार मिले हैं, पता नहीं आज के बाद फिर कितने बरसों में मिलेंगे? याद रखने का झंझट कौन पाले? जब मिलेंगे तक देखा जाएगा। यही हाल हमारे सांस्कृतिक, पारम्परिक सन्दर्भों का भी है। पंगत में बैठ कर भोजन करना तो हमारे बच्चे भूल ही गए हैं। कभी पंगत में बैठ कर भोजन करते भी है तो पंगत-परम्परा की जानकारी उन्हें नहीं होती। पंगत में जीम रहा प्रत्येक व्यक्ति जब तक जीम न ले, तब तक नहीं उठने की परम्परा हमारे बच्चों को कैसे याद रहे?


सचिन का महक को स्कूल जाने से रोक लेना मुझे ये सारी और ऐसी ही अनेक बातें याद दिला गया। यदि हम अपने बच्चों को अपनी संस्कृति, अपनी परम्पराओं से वाकिफ बनाए रखना चाहते हैं तो हमें उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी और आज के हालात में यह कीमत, कैरीयरवाद से आंशिक मुक्ति पाए बिना मुझे सम्भव नहीं लगती। सचिन ने महक को एक दिन स्कूल जाने से रोका। मुमकिन है, महक को उस दिन का होम वर्क करने के लिए अगले दिन ज्यादा वक्त लगाना पड़ा होगा। किन्तु तीसरी कक्षा में पढ़ रही सात-आठ साल की बच्ची, पर्यूषण और क्षमापना पर्व का महत्व अपने जीवन में शायद ही कभी भूल पाए।


बात तो छोटी सी ही है किन्तु देखिए न, कितनी बड़ी बन गई? कहाँ पहुँच गई?

भ्रष्टाचार: एक अण्णा बनाम चार ‘ना’

अण्णा ने तो सब गुड़ गोबर कर दिया। उनके चाहनेवाले और प्रशंसक हम चार बूढ़ों को तो उन्होंने निराश कर ही दिया यह कहकर कि उनके जन लोकपाल मसवदे के शब्दशः लागू होने के बाद भी कम से कम 35-40 प्रतिशत भ्रष्टाचार तो बना ही रहेगा। इस 35-40 प्रतिशत भ्रष्टाचार का आयतन और घनत्व, समाप्त होनेवाले 60-65 प्रतिशत भ्रष्टाचार के मुकाबले अधिक हुआ तो? तो फिर यह ताण्डव और उठा-पटक क्यों और किसलिए?

दादा से नीमच में और जीजी से (निम्बाहेड़ा से मंगलवाड़ के रास्ते पर स्थित) निकुम्भ में मिलने के लिए इसी रविवार को कोई चार सौ किलोमीटर की यात्रा की। दादा के साथ कच्चा-पक्का एक घण्टा बिताया। दादा ने मेरी उदासी का कारण जानकर मुझे ढाढस बँधाते हुए कहा - ‘‘मेरा शब्द चयन अटपटा हो सकता है किन्तु तू समझने की कोशिश करना कि मन्दिरों की बहुलता और ‘सबका काम छोड़कर मेरा काम सबसे पहले हो’ की मानसिकतवाले नागरिकों के देश में भ्रष्टाचार कैसे समूल नष्ट हो सकता है?’’ बात ‘बाउंसर’ की तरह सनसनाती हुई मेरे सर के ऊपर से गुजर गई और मैं अकबकाया, बौड़म की तरह दादा की ओर देखने लगा। दादा ने कहा - ‘नहीं! मैं और कुछ नहीं कहूँगा। तू खुद ही इन दोनों बातों का भाष्य और व्याख्या करने और मन ही मन समझने की कोशिश करना।

आज चौथा दिन है। ज्यों-ज्यों सोच रहा हूँ, त्यों-त्यों दोनों सूत्र वाक्य मानो अपना-अपना बखान खुद करने लगे। पहली नजर में देखूँ तो भला, मन्दिरों का भ्रष्टाचार से क्या वास्ता? लेकिन एक बिजली कौंधी और बात ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’ की तरह दाने-दाने बिखर कर खुलती गई।

मन्दिर याने देवालय, हमारे देवताओं, आराध्यों, इष्टों का निवास स्थान। मनुष्यों की बस्ती में वह स्थान जहाँ खुद ईश्वर रह रहा हो। ईश्वर याने वह अजर, अमर, अगम, चिरन्तन तत्व जो सारी दुनिया को देता ही देता हो, जिसके यहाँ कोई कमी नहीं, जिसे मनुष्य की भक्ति-भावनाओं के सिवाय और किसी भी चीज की आवश्यकता नहीं। मनुष्य यह भी न दे तो भी ईश्वर खिन्न/कुपित नहीं होता। सस्मित, दोनों हाथों से मनुष्य को असीसता रहता है, अपना कृपा-प्रसाद अनवरत लुटाता रहता है। लेकिन मनुष्य ने अपनी कमजोरी, अपनी लोलुपता ईश्वर पर थोप दी - अपनी मनोकामनाएँ पूरी करने के लिए चढ़ावा चढ़ाने लगा। किसे? जिसे कुछ भी नहीं चाहिए, उसी ईश्वर को। चढ़ावा किस बात का? तू मेरा यह काम कर दे, मैं तेरी कथा करवाऊँगा, तेरे मन्दिर में सोने/चाँदी का छप्पर चढ़ाऊँगा आदि-आदि। यह चढ़ावा क्या है? यह चढ़ावा कभी-कभी अग्रिम होता है तो कभी-कभी काम हो जाने के बाद। ईश्वर और मनुष्य के सम्पर्क सेतु के रूप में पण्डितजी विराजमान रहते हैं। उन्हीं के मुँह से हमें भगवान बोलता अनुभव होता है और उसी के माध्यम से हमारी बात ईश्वर तक पहुँचती है।

यही सब और ऐसा ही कुछ-कुछ सोचते-सोचते अनायास ही याद हो आए हमारे लोक कुम्हार के चाक पर गढ़े गए तीन शब्द - नजराना, शुकराना और जबराना। इन तीन शब्दों में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का संसार समाया हुआ है। ‘नजराना’ याने मुझे याद रखने की, जरूरत पड़ने पर मेरा काम सर्वोच्च प्राथमिकता से करने के लिए एडवांस बुकिंग। यादों की अपनी कोठरी को तनिक झाड़ेंगे-बुहारेंगे तो अनायास ही, ‘मिठाई’ के लिए नोटों की गड्डियाँ लेकर उन्हें ड्राअर में रखते हुए लक्ष्मण बंगारू याद आ जाएँगे। ‘तहलका’ के स्टिंग ऑपरेशन के तहत यह ‘नजराना’ ही था। ‘शुकराना’ याने आपने मेरा काम कर दिया। आपको धन्यवाद। मेरी ओर से यह छोटी सी (या जो तय हुई थी, वह) भेंट स्वीकार करें।

मन्दिरों का चढ़ावा इन दो श्रेणियों में से किसी एक श्रेणी में आता है। राजस्थान के प्रख्यात तीर्थ क्षेत्र ‘साँवरियाजी’ में तो डकैत और तस्कर मनौतियाँ लेकर जाते हैं और अभियान सिद्ध होने पर भगवान का हिस्सा दान पेटी में डाल जाते हैं। यहाँ की दान पेटी में से अफीम निकलने के समाचार आए दिनों अखबारों में पढ़ने को मिल जाते हैं। तिरुपति की दान पेटियाँ जो समृद्धि उगलती हैं उनकी गणना और मूल्यांकन करने के लिए तो तिरुमला देवस्थान ट्रस्ट ने एक पूरा विभाग ही बना रखा है। कहने की जरूरत नहीं कि वह सब या तो नजराना है या शुकराना। कोई ताज्जुब नहीं कि तिरुपति का वार्षिक बजट गोवा, झारखण्ड, उत्तराखण्ड जैसे किसी छोटे राज्य के वार्षिक बजट के बराबर बैठ जाए!

नजराना और शुकराना में तो फिर भी, ‘प्रसन्नता का भाव’ रहता है किन्तु तीसरा ‘ना’ याने ‘जबराना’ कम से कम एक पक्ष को तो दुखी करता ही है। ‘जबराना’ सुनते ही हममें से प्रत्येक को किसी न किसी नेता, अधिकारी, कर्मचारी का चेहरा याद आ जाएगा। ये भी किसी भगवान से कम नहीं। सरकारी मन्दिरों में बैठे भगवान। तीर्थ क्षेत्रों के पण्डे/पुजारी भी इसी श्रेणी में शामिल होने की आधिकारिक पात्रता रखते हैं। जरा, दिलीप कुमार, संजीव कुमार, वैजयन्तीमाला अभिनीत फिल्म ‘संघर्ष’ को याद करें जिसमें यजमान से वसूली के लिए पण्डे हत्या करने में भी चूकते। गोया, ‘जबराना’ न केवल दुखी कर सकता है अपितु प्राण भी ले सकता है। माँगी गई रिश्वत की रकम जुटाने में असमर्थ लोगों द्वारा आत्महत्या करने के समाचारों की संख्या और आवृत्ति साल-दर-साल बढ़ रही है।

चौथे ‘ना’ का नामकरण मैंने किया है और तुकबन्दी मिलाने के लिए यह ‘ना’ मैंने ठेठ मालवी बोली से लिया है - ‘छानामाना’ जिसके लिए आप हिन्दी में ‘गुपचुप’ या फिर ‘चुपचाप’ प्रयुक्त कर सकते हैं। इस चौथे ‘ना’ को हम सब, चौबीसों घण्टे पालते-पोसते रहते हैं, अनजाने में भी। कर चोरी, मोल में भी मारना और तोल में भी मारना, बताना कुछ और बेचना कुछ आदि-आदि रूपों में यह ‘छानामाना’ विद्यमान रहता है।

साल में पाँच-सात बार मैं भी इस ‘छानामाना’ में शरीक होता हूँ। जब-जब भी भाड़े की टैक्सी लेकर जाता हूँ, तब-तब हर बार इस ‘छानामाना’ में भागीदारी करता हूँ। सारी की सारी टैक्सियाँ, निजी कारें होती हैं। एक भी कार का पंजीयन टैक्सी के रूप में नहीं होता। एक की भी नम्बर प्लेट पीली नहीं होती। टैक्सी में रजिस्ट्रेशन कराओ तो दुगुना/तिगुना टैक्स देना पड़ेगा और ड्रायवर भी ‘वाणिज्यिक लायसेंसधारी’ होगा। वह भी अपने आप में अलग से खर्चा माँगता है। सो, सब कुछ ‘छानामाना’ चल रहा है।

दादा से मिले दो सूत्रों पर हुए इस निठल्ले चिन्तन ने अण्णा के वक्तव्य से उपजा मेरा संत्रास कम कर दिया। अब अण्णा असफल भी हो जाएँ तो कष्ट नहीं। अण्णा का बेचारा एक ‘ना’ और उधर एक साथ चार-चार ‘ना’ और चारों में से प्रत्येक ‘ना’ अण्णा के इकलौते ‘ना’ पर भारी! आखिर बेचारा ‘एक ना’ कब तक ‘चार ना’ से जूझेगा?

अब मैं बेफिकर हूँ। ‘अण्णा तुम संघर्ष करो’ वाले नारे का अर्थ मुझे अब समझ पड़ा। हे! अण्णा!! केवल ‘तुम’ संघर्ष करो। हम नहीं करेंगे। हम तो केवल साथ रहेंगे। तुम अपने इकलौते ‘ना’ के साथ मरो-मिटो। हम अपने चारों ‘ना’ के साथ राजी-खुशी रहेंगे।

तीन सौ की जगह केवल तीस!

मेरे कस्बे (रतलाम) में, भारतीय जीवन बीमा निगम के तीन शाखा कार्यालय हैं जिनके अभिकर्ताओं और कर्मचारियों की सकल संख्या लगभग 900 है।


गुरुवार की सुबह जब मैं अपने शाखा कार्यालय पहुँचा तो मुझे बताया गया कि शाम सवा पाँच बजे, तीनों शाखाओं के कर्मचारी और अभिकर्ता, अण्णा हजारे के समर्थन में पहले तो हमारे शाखा कार्यालय के सामने एकत्र होकर नारे लगाएँगे और बाद में जुलूस की शकल में, धरना स्थल पर पहुँच कर सभा करेंगे।

मैं निर्धारित समय से पन्द्रह मिनिट पहले ही पहुँच गया। सवा पाँच बजते-बजते लोगों का आना शुरु तो हुआ किन्तु संख्या उत्साहजनक नहीं थी। नारेबाजी शुरु करने से लेकर जुलूस की शकल में रवाना होने तक हम लोग मुश्किल से तीस की संख्या तक ही पहुँच पाए।


नारे लगाते हुए हम लोग दो बत्ती पर बने धरना स्थल पर पहुँचे और थोड़ी सी देर के लिए छोटी सी सभा की। मुझे भी बोलने का अवसर दिया गया।


मैं अत्यधिक उत्साहित होकर पहुँचा था किन्तु मेरा उत्साह बहुत देर तक नहीं टिक पाया। हमारी संख्या अधिक होनी चाहिए थी - कम से कम तीन सौ तो होनी ही चाहिए थी।


लेकिन कोई क्या कर सकता है? जबरन तो किसी को लाद कर नहीं लाया जा सकता!


मेरी हाँडी का यह चाँवल अच्छी दावत के संकेत नहीं दे रहा। मैं दुःखी हूँ।

यह अनूठा स्वर्ण पदक

सोलह अगस्त का मेरा दिन बहुत खराब रहा। नींद तो जल्दी खुल गई थी किन्तु बुद्धू बक्सा खोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी। सरकारों के चाल-चलन को थोड़ा-बहुत जानता हूँ। आशंका लग रही थी सूर्योदय से पहले ही अण्णा और उनके साथियों को पकड़ न लिया हो। लेकिन अपने आप को कब तक धोखा देता? हिम्म्त करके, आठ बजे बुद्धू बक्सा खोला तो समाचार जाना कि सुबह 7.25 पर अण्णा को पुलिस घर से उठा ले गई। जी खट्टा हो गया। एकाएक ही माथा चढ़ने लगा, आँखें भारी होने लगी, कनपटियाँ चटखने लगीं और जी मिचलाने लगा। लगा, चक्कर खाकर गिर पड़ूँगा। देर तक बुद्धू बक्सा नहीं देख सका।

अत्यधिक कठिनाई से, मानो खुद से जबरदस्ती कर रहा होऊँ, नित्य-कर्म से निवृत्त हुआ। स्नानोपरान्त ठाकुरजी के सामने बैठा तो पूजा-पाठ में मन लगा ही नहीं। मंगलवार था। सुन्दरकाण्ड पाठ करना था। लेकिन नहीं किया। कर पाना सम्भव ही नहीं हुआ।दस बीस पर उत्तमार्द्ध को नौकरी पर छोड़ा। वहाँ से मुझे अण्णा के समर्थन में धरनास्थल पर जाना था। जलजजी (आदरणीय श्रीयुत डॉक्टर जय कुमार जलज) से तय हुआ था कि हम दोनों साथ जाएँगे। जलजजी मेरे कस्बे में खरेपन का प्रतीक हैं। उनकी उपस्थिति किसी भी जमावड़े का न केवल सम्मान बढ़ाती है अपितु उसकी पवित्रता और विश्वसनीयता भी प्रमाणित करती है। किन्तु जलजजी ने कहा था - ‘पहले देखिएगा कि आयोजन किसके नियन्त्रण में है, आयोजक कौन है। ठोक बजा कर देखकर फिर मुझे बताइएगा। उसके बाद ही धरने पर बैठने पर विचार करेंगे।


धरनास्थल जाकर देखा तो निराशा हुई। साधनों की शुचिता वहाँ थी ही नहीं। मैंने जलजजी को विसतार से बताया तो खिन्न हो गए। बोले - ‘ऐसे लोगों के साथ बैठना तो क्षण भर को भी उचित नहीं। भगवान अण्णा की रक्षा करे।’ मैंने पूछा - ‘तो बताएँ, क्या करना है?’ जलजजी ने अत्यधिक दुःखी मन से कहा - ‘अपने-अपने घर में ही बैठ कर प्रभु स्मरण करें और अण्णा के लिए प्रार्थना करें। वैसे, आप क्या कहते हैं?’ मैंने कहा - ‘विवेक कहता है कि आपकी बात मान लूँ और हृदय कहता है कि जाकर बैठ जाऊँ।’ जलजजी ने उसी खिन्न स्वर में कहा - ‘निर्णय तो आप ही करें किन्तु विवेकसंगत निर्णय बेहतर और श्रेयस्कर होते हैं।’ लिहाजा, मैं दूर से देखकर ही लौट आया। एक छोटी सी रकम लेकर गया था। एक परिचित के हाथों, आयोजकों तक पहुँचाई और हसरत भरी नजरों से देखता हुआ, ‘दुःखी-मन, खिन्न वदन’ लौट आया।
लौट तो आया किन्तु मन उचटा रहा। माथा जस का तस चढ़ा हुआ था, आँखों का भारीपन, कनपटियों का चटखना और जी मिचलाना यथावत् बन हुआ था। दो बजे से, हमारी शाखा के बीमा अभिकर्ताओं की एक बैठक थी। वहाँ पहुँचा तो सही किन्तु मन कहीं और था। ऐसी बैठकों में मैं सबसे आगे, पहली पंक्ति में बैठता हूँ। किन्तु आज सबसे पीछे बैठा। सब कुछ भारी-भारी था, अनमनपना बना हुआ था, मन की उदासी तनिक भी कम नहीं हो रही थी। साढ़े चार बजे के आसपास वहाँ से निकल भागा। उत्तमार्द्ध को लिया। उन्हें कुछ खरीदी करनी थी। उन्हें बाजार ले गया। वे खरीदी में व्यस्त हुईं और मैं लस्त-पस्त दशा में दुकान में पसर गया। जी का मिचलाना अब घबराहट में बदल गया था। मुझे अपनी धड़कन की गति और आवाज तेज होती लगने लगी। लगा, यहाँ से उठ नहीं पाऊँगा। मेरी दशा देख दुकानदार घबरा गया। उसने तबीयत की पूछताछ की, पानी की मनुहार की। मैंने संकेतों से ही मना किया। उसकी घबराहट और बढ़ गई। बोला - ‘बाबूजी! आपको घर पर छोड़ दूँ?’ मेरी आँखें खुलने से मना कर रही थीं। मैंने हाथ से इशारा किया - नहीं। तब तक मेरी उत्तमार्द्ध अपनी खरीदी पूरी कर चुकी थीं। मैं उठने लगा तो बोली - ‘कुछ देर और रुकिए। मैं सब्जी भी खरीद लूँ।’ मैंने तत्क्षण मना कर दिया और कहा - ‘फौरन घर चलिए। मुझे अच्छा नहीं लग रहा। आपको छोड़ कर डॉक्टर साहब के पास जाऊँगा।’ वे घबरा गईं। चलने से पहले मैंने कैलाश शर्मा को फोन किया। वह अभिकर्ताओं की बैठक में ही था। उससे कहा - ‘बैठक खत्म होते ही मेरे घर पहुँचो। मेरी तबीयत ठीक नहीं है। डॉक्टर के पास चलना है।’ उत्तमार्द्ध को लेकर घर पहुँचा और डॉक्टर सुभेदार साहब के सहायक डॉक्टर समीर को फोन लगाया। मेरी दशा सुनते ही बोले - ‘फौरन आ जाईए। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।’ तब तक कैलाश भी पहुँच गया।


मुझे बिलकुल ही अच्छा नहीं लग रहा था। डॉक्टर के पास अकेले जाने का आत्म विश्वास नहीं था। कैलाश के साथ अस्पताल पहुँचा। डॉक्टर सुभेदार साहब और डॉक्टर समीर को कुछ कहता, उससे पहले ही डॉक्टर समीर ने कहा - ‘हजारेजी की गिरफ्तारी का तनाव ले बैठे हैं?’ हाँ करने की हिम्मत नहीं हुई और इंकार कर पाना मुमकिन नहीं था। सुभेदार साहब ने मेरी जाँच-परख की। दो बार रक्त-चाप जाँचा और कहा - ‘आपको तो हाई बीपी है!’ पूछने पर बताया - 150/120. इस बारे में मुझे कोई ज्ञान नहीं है। अपनी ओर मुझे ताकता देख सुभेदार साहब बोले - ‘ऊपरवाला 150 दुखदायी नहीं है किन्तु नीचेवाला 120 तो चिन्ताजनक है। आप लापरवाही बिलकुल मत बरतिएगा।’ उन्होंने ईसीजी भी हाथों-हाथ करवाया। रिपोर्ट देखी तो बोले - ‘आपकी धड़कन भी बढ़ी हुई है।’ उन्होंने दवाइयाँ लिखीं, उन्हें लेने के निर्देश समझाए और सख्ती से किए जाने वाले परहेज विस्तार से बताए।मैं चलने को हुआ तो सुभेदार साहब ने रोका और कहा - ‘एक बात याद रखिएगा! इस भ्रम में मत रहिएगा कि बीपी ठीक हो जाएगा। बीपी और डाइबीटीज एक बार हो जाने पर इनसे मुक्ति पाना असम्भवप्रायः ही होता है। नियमित रूप से दवाइयाँ लेकर आप इन्हें नियन्त्रित कर सकते हैं, इनसे मुक्त नहीं हो सकते।’


मैं चेम्बर से बाहर निकला। पीछे-पीछे कैलाश भी। दो कदम भी नहीं चला होऊँगा कि कैलाश ने कहा - ‘अण्णा हजारे की गिरफ्तारी से आप इतने परेशान हो गए? आप तो हमें समझाते हैं! मैं आपको क्या समझाऊँ। ऐसा तो होता रहता है। दिल पर मत लीजिए। भूल जाईए।’


मैं हँस नहीं पाया। मैं अण्णा से कई बातों पर असहमत हूँ किन्तु उनके अभियान का समर्थक हूँ। मैं अपने आपको ‘अण्णा का असहमत समर्थक’ कहता हूँ। नहीं जानता कि आज मेरा रक्त चाप क्यों बढ़ा। किन्तु यदि इसका कारण सचमुच में अण्णा की गिरफ्तारी ही है तो यकीन मानिए, मुझे बहुत खुशी है।


अण्णा के इस ‘असहमत समर्थक’ को यह प्राप्ति किसी स्वर्ण पदक से कम नहीं लग रही है।

सबके साथ ऐसा हो

मुझे बुलाकर बीमा देने के लिए, कोई दो बरस पहले, मैंने, जिस प्रकार उज्जैन निवासी डॉ. सत्यनारायण पाण्डे का सचित्र उल्लेख किया था, काश! उसी प्रकार मैं इन कृपालु का उल्लेख भी कर पाता। किन्तु क्या करूँ? ऐसा न करने के लिए इन्होंने न केवल अत्यन्त विनयपूर्वक आग्रह किया अपितु मुझे शपथ-बद्ध भी कर दिया।

एक सुबह इनका फोन आया। बोले - ‘एक बीमा करने के लिए आ जाइए।’ मुझे अच्छा तो लगना ही था किन्तु आश्चर्य भी हुआ। इनसे मेरा, कभी-कभार का ‘राम-राम, शाम-शाम’ का का ऐसा, रास्ते चलते का नाता है जिसे ‘परिचित’ की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता।

मैं पहुँचा। परस्पर अभिवादन की सामान्य औपाचारिकता के बाद बोले - ‘घर में लक्ष्मी आई है। पोती हुई है। उसकी उच्च शिक्षा के लिए कोई ढंग-ढांग की पॉलिसी बना दीजिए।’ मैंने चार-पाँच पॉलिसियों की विस्तृत जनकारी दी तो बोले - ‘मैं तो कुछ जानता-समझता नहीं। जो आपको सबसे अच्छा लगे, वह कर दीजिए।’ अपने स्तर मैंने सर्वाधिक अनुकूल और उपयोगी पॉलिसी बताई। उन्होंने बेटे को बुलाया। कागजी खानापूर्ति कराई और भुगतान कर दिया।

यह सब मेरे लिए ‘विचित्र किन्तु सत्य’ जैसा था। मैंने कहा - ‘मुझसे न तो रहा जा रहा है और न ही सहा जा रहा है। आपने अपनी ओर से बुलाकर मुझे बीमा दिया इस हेतु तो मैं आपका आभारी और कृतज्ञ हूँ किन्तु जिज्ञासा बनी हुई है कि आपने ऐसा क्यों किया।’ उन्होंने शान्त स्वरों में, लगभग निर्लिप्त भाव से कहा - ‘मैं आपके लेख ‘उपग्रह’ में पढ़ता हूँ। आप अच्छा लिखते हैं। आपके बारे में तलाश किया तो दो बातें ऐसी लगीं जिनके कारण आपको अपनी ओर से बुलाया।’ मैंने सवालिया नजरों से उन्हें देखा। उत्तर मिला - ‘आप कितने ईमानदार और साफ-सुथरे हैं यह तो मैं नहीं जानता किन्तु लोगों ने बताया कि आप कोरे उपदेश नहीं देते। जो लिखते-कहते हैं, उस पर अमल भी करते हैं। सो, मैंने माना कि आप यदि सौ टका ईमानदार न भी हों तो भी ‘अधिकतम ईमानदार’ तो हैं ही। ईमानदारी किसे अच्छी नहीं लगती? मैं ढंग-ढांग का, ठीक-ठीक व्यापारी हूँ लेकिन उतनी ईमानदारी नहीं बरत पाता जितना आप कहते-लिखते हैं। सो, सोचा कि जो अच्छा काम कर रहा है, वह अच्छा काम करता रहे इसलिए उसकी मदद क्यों न की जाए? दूसरा कारण जानकर आप इतरा मत जाइएगा। मुझे बताया गया कि पॉलिसी बेचने के बाद अच्छी ग्राहक सेवा देते हैं। मेरे लिए यह भी जरूरी था। बस! इन दो बातों के कारण आपको बुलाया।’ उनकी बातों ने मुझे अभिभूत और विगलित कर दिया। मुझसे बोला नहीं गया। जी भर आया था। (लगभग रुँधे कण्ठ से) उन्हें फिर धन्यवाद दिया और चला आया।

यह सब लिखते हुए भी मैं सामान्य नहीं हूँ। क्या कहूँ? कुछ बातें समझा पाना कठिन होता है।


यह भी, ऐसी ही एक बात है।


मुझे नहीं, आपको ही मुबारक हो

प्रासंगिक लेखन मुझे नहीं रुचता। यान्त्रिक अथवा खनापूर्ति लगता है। मैं इससे बचने की कोशिश करता हूँ। लेकिन, कभी-कभी आपको अनिच्छापूर्वक भी लिखना पड़द्यता है। इसी तरह मुझे ‘साप्ताहिक उपग्रह‘ के, अपने स्तम्भ ‘बिना विचारे‘ के लिए ‘लिखना पड़ा’, स्तम्भ की अनिवार्यता के अधीन। अनिच्छापूर्वक, विवशता में लिखा गए इस आलेख से मैं रंच मात्र भी सन्तुष्ट और प्रसन्न नहीं हूँ। किन्तु विस्मित हुआ यह देख कर कि इस पर भी बीसियों कृपालुओं के प्रशंसात्मक फोन आए।


‘वह’ पैंसठवीं बार मेरे सामने खड़ा है। वही स्निग्ध, ममताभरी मुस्कुराहट है ‘उसके’ होठों पर जैसी पहली बार थी। ‘वह’ वैसा का वैसा ताजा दम है, थकावट की एक लकीर नहीं, ‘उसकी’ आँखों में आशाओं के झरने वैसे ही रोशन बने हुए हैं जैसे पहली बार थे, मेरे प्रति ‘उसका’ भरोसा तनिक भी कम नहीं हुआ है, कोई सवाल पूछना तो दूर, ‘वह’ न तो झुंझला रहा है न ही खीझ रहा है मुझ पर। बस! ताजा दम, मुस्कुराए जा रहा है मेरी नजरों में नजरें गड़ाए। नहीं सहा जा रहा मुझसे ‘उसका’ इस तरह मुझे देखना। असहज ही नहीं, निस्तेज हो, शर्मिन्दा हुआ जा रहा हूँ मैं अपनी ही नजरों में। ‘उससे’ नजरें मिलाने का साहस, हर वर्ष कम होता जा रहा है मुझमें।

‘वह’ कभी चुपचाप नहीं आता। हर वर्ष, ‘उसके’ जाते ही ‘उसका’ अगला आगमन न केवल सुनिश्चित हो जाता है बल्कि ‘उसके’ आने से कई दिन पहले ही ढोल-नगाड़े बजने लगते हैं, दसों दिशाएँ गूँजने लगती हैं, आसमान में इन्द्रधनुष के रंग पुतने शुरु हो जाते हैं, शहनाइयाँ मंगल प्रभातियाँ बजाने लगती हैं। पहली बार से लेकर इस बार तक, ‘वह’ जब भी आया, उत्सव, उमंग, उल्लास लेकर ही आया। ‘उसने’ तो त्यौहार ही रचे। किन्तु मैंने?

डर रहा हूँ कि ‘उस’ उदारमना, औढरदानी ने कभी पूछ लिया - ‘मैंने अपने आपको तुम पर न्यौछावर कर दिया, तुम्हें दासता से मुक्ति दिला दी, तुम स्वाधीन हो गए। लेकिन तुमने क्या किया मेरे लिए? मेरी छोड़ो! खुद अपने लिए क्या किया? अपनी आजादी को बचा पाए?’ यही सवाल मेरी शर्मिन्दगी का कारण है। ‘उसने’ तो मुझे आजादी दे दी - अधिकार के रूप में। किन्तु इस आजादी को बचाने की जिम्मेदारी मैंने कभी याद नहीं रखी। नहीं। याद तो रही किन्तु जानबूझकर भूल जाने की आत्म वंचना करता चला आ रहा हूँ। शारीरिक रूप से मैं जरूर आजाद हो गया हूँ किन्तु गुलामी तो शायद मेरे लहू में रच-बस गई है। जाने का नाम ही नहीं लेती। अपनी मर्जी से काम करना मेरी आदत में ही नहीं। मुझे तो डण्डे से हाँके जाने की आदत है। मुझे तो अपने लिए एक राजा स्थायी रूप से चाहिए ही चाहिए। इसीलिए मैंने अपने आप को गुलाम बना लिया है - अपने नेताओं का, स्थितियों का, भ्रष्ट व्यवस्था का। मैं यह भी भूल जाने का नाटक करता रहता हूँ कि जिन लोगों को, जिन स्थितियों को, जिस व्यवस्था को मैं गालियाँ देकर आत्म-सन्तोष, अपने कर्तव्य की इतिश्री कर रहा हूँ, वह सब मैंने ही बनने दी हैं।

आजादी का सबसे बड़ा दुश्मन होता है - एक सन्तुष्ट गुलाम। मैंने अपनी दशा ऐसी ही बना ली है। मैं हमेशा कुछ न कुछ माँगता ही रहता हूँ। कहता रहता हूँ - ‘यह तो मेरा अधिकार है। यह मुझे मिलना चाहिए।’ सामान्यतः मेरी बात कोई नहीं सुनता। यदि कभी कुछ मिल गया, किसी ने कुछ दे दिया तो खुश हो जाता हूँ वर्ना सारा दोष भाग्य और भगवान के माथे मढ़कर खुश हो जाता हूँ। अपनी ओर से कभी कुछ नहीं करता।

करने के नाम पर मैं एक ही काम करता हूँ - पाँच साल में एक बार वोट देने का। वोट लेने के लिए, मेरा नेता जब याचक-मुद्रा में मेरे सामने आता है तो मेरी छाती ठण्डी होे जाती है। मैं अपनी भड़ास निकालता हूँ। वह, नीची नजर किए, मुस्कुराते हुए चुपचाप सुनता रहता है। मैं खुश हो जाता हूँ और मन ही मन ‘निपटा दिया स्साले नेता को’ कह अपना वोट उसे दे देता हूँ। वह मेरा वोट जेब में डालकर मुस्कुराते हुए चला जाता है। मैं तब भी जानता हूँ कि मैंने पाँच साल की गुलामी अपने नाम लिख दी है। लेकिन इसके लिए भी नेता को ही जिम्मेदार बताता रहता हूँ और उसे गालियाँ देता रहता हूँ।

अधिकारों की माँग कोई गुलाम ही करता है। आजाद आदमी तो अपने अधिकार पुरुषार्थ से और पुरुषार्थ से नहीं मिले तो छीन कर हासिल करता है। वोट देकर अपनी सरकार बनानेवाली व्यवस्था में तो वोट देनेवाला ही राजा होता है और राजा को अपने वजीरों, कारिन्दों, सेवकों पर चौबीसों घण्टे नजर रख कर उनसे काम लेना होता है। बेशक काम करना उन सबकी जिम्मेदारी है लेकिन उससे पहले राजा की जिम्मेदारी बनती है - उन सबसे काम लेने की। जब राजा गैर जिम्मेदार हो जाता है तो वजीर, कारिन्दे, सेवक याने सबके सब खुद राजा हो जाते हैं। मैंने भी यही होने दिया है। ‘उसने‘ तो मुझे राजा ही बनाया था किन्तु राज सम्हालने, सुव्यवस्थित और नियन्त्रित रखने की जिम्मेदारी निभाने के झंझट के मुकाबले गुलामी कर लेना अधिक आसान होता है। मैंने भी यही किया। ‘उसने’ मुझे ‘नागरिक’ बनाया था किन्तु ‘नागरिक’ को तो चौबीसों घण्टे जागरूक रहना पड़ता है! वह मेरे बस की बात नहीं। ‘प्रजा’ बनकर जीना अधिक आसान भी है और इस जीवन की मुझे आदत भी है।

फिर भी मुझे ‘उससे’, ‘उसके’ सम्भावित सवालों से डर लग रहा है। मैं कैसे कहूँ कि मैंने उसके लिए अब तक न तो कुछ किया है और न ही आगे कुछ करने की मानसिकता ही है। मैं अपने और अपने परिवार के लिए हाथ-पाँव हिलाऊँगा, उन्हीं के लिए कमाऊँगा-धमाऊँगा, ‘उसके’ नाम की दुहाइयाँ दूँगा, ‘उसके लिए’ मर मिटने की बातें चौराहों पर करूँगा किन्तु मर मिटना तो कोसों दूर रहा, मौका आएगा तो नाखून भी नहीं कटाऊँगा। यह सब मैं कर लूँगा तो फिर आप क्या करेंगे? आपकी भी तो कुछ जिम्मेदारी बनती है?


इसलिए, मुझे शर्मिन्दगी भले ही हो रही हो और ‘उसके’ सम्भावित सवालों से भले ही भय उपज रहा हो और ‘उसकी’ देखभाल की जिम्मेदारी भले ही मेरी हो किन्तु मैं तो गुलाम हूँ, प्रजा हूँ, मेरे पास तो कोई अधिकार भी नहीं है! अधिकार होता तो अपने नेताओं को नियन्त्रित करता, भ्रष्ट अफसरों को नकेल डालता, अनुचित का प्रतिकार और विरोध करता। किन्तु इस सबकी कीमत चुकानी पड़ती है। मैं कीमत चुकाने को तैयार नहीं हूँ। इसीलिए तो मैंने इन सबकी गुलामी कबूल कर ली है।

‘वह’ पैंसठवी बार मेरे सामने खड़ा है। मैं उसका सामना नहीं कर पा रहा हूँ। उसकी मोहक मुस्कान और चुम्बकीय आँखें मुझे असहज कर रही हैं, मुझे अपराध बोध से ग्रस्त कर रही हैं। मैं ‘उसे’ आपके दरवाजे पर भेज रहा हूँ।


‘वह’ भले ही मेरा स्वाधीनता दिवस हो लेकिन उसकी खातिरदारी की, उसके मान-सम्मान की रक्षा की जिम्मेदारी आपकी है। मुझे तो बस! बपने अधिकार चाहिए। जिम्मेदारी निभाने का यश आप हासिल करें।

अज्ञान का आतंक

सूचनाओं के विस्फोटवाले इस समय में भला कोई कैसे इतना अनजान रह सकता है? वह भी उस मुद्दे पर जो समय-समय पर देश को उद्वेलित करता है!

कल दोपहर हम सात लोग बैठे थे। सब के सब पढ़े-लिखे (स्नातक से कम कोई भी नहीं), अखबारों और खबरिया चैनलों से अच्छी-खासी वाकफियत रखनेवाले। सबसे अधिक आयुवाला मैं - 65 वर्ष का और सबसे कम आयुवाला अजमत, 32 वर्ष का। पाँच सनातनी और दो इस्लाम मतावलम्बी। पहले हम सबने धार्मिक गुरुओं, उपदेशकों के खोखले प्रवचनों की खिल्ली उड़ाई, फिर धर्म के नाम पर किए जा रहे अत्याचारों और फैलाए जानेवाले आंतक को कोसा, धार्मिक कट्टरता की आलोचना की और ‘फतवे’ पर आ पहुँचे।

मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि मुझे छोड़कर बाकी छहों में से किसी को फतवे के बारे में न्यूनतम जानकारी भी नहीं थी। पहले तो मुझे लगा कि वे सब मुझसे खेल रहे हैं या मेरी परीक्षा ले रहे हैं। किन्तु बात जब ‘भगवान की सौगन्ध’ और ‘अल्ला कसम’ तक आ पहुँची तो मुझे उन सबके अनजानपन पर विश्वास करना पड़ा। फतवे को लेकर मैंने जब अपनी जानकारियाँ उन्हें दीं तो किसी को विश्वास नहीं हुआ। अजमत और नासीर को तो मेरी बातें दूसरी दुनिया की लगीं। अजमत के माथे से तो मानो पहाड़ का वजन उतर गया। बोला - ‘अल्ला कसम दादा! फतवे की हकीकत अगर वाकई में वही है जो आपने बताई है, तो यकीन मानिए बन्दा तो आज से फतवे को ठेंगा दिखाना शुरु कर देगा।’

मुझे यह देखकर हैरत हुई कि छहों के छहों, फतवे को ‘आँख मूँदकर माने जानेवाला, अनुल्लंघनीय धार्मिक आदेश’ माने बैठे हैं। चारों सनातनी मित्र तो पश्चात्ताप की मुद्रा में आ गए। इस्लाम का विरोध करने के लिए फतवा उनके लिए अब तक अमोघ अस्त्र बना हुआ था। उपेन्द्र बोला - ‘यदि वाकई में ऐसा ही है जैसा आपने कहा है तो फिर तो हम अब तक बिना समझे ही आरोप लगाने और निन्दा करने का अपराध करते रहे हैं।’

यह विश्वास करते हुए कि समूचा ब्लॉगर समुदाय फतवे की हकीकत भली प्रकार जानता है, इस अनुभव से प्रेरित होकर मैं फतवे के बारे में अपनी जानकारियाँ यहाँ

जानबूझकर दे रहा हूँ - केवल इसलिए कि यदि मैंने कुछ गलत बता दिया हो तो ब्लॉगर समुदाय मुझे दुरुस्त करने का उपकार करे ताकि मैं भविष्य में गलती करने से बच सकूँ।

फतवा कोई अनुल्लंघनीय धार्मिक आदेश नहीं है। यह इस्लामी कानूनों से सम्बद्ध

केवल ‘धार्मिक मत’ है। गली-मुहल्ले का या रास्ते चलता कोई मुल्ला-मौलवी फतवा जारी नहीं कर सकता। कम से कम ‘मुफ्ती’ पदवीधारी इस्लामी विद्वान् ही फतवा देने का अधिकार रखता है। किन्तु यह ‘मुफ्ती’ भी अपनी मर्जी से, अपनी ओर से फतवा जारी नहीं कर सकता। किसी के माँगने पर ही फतवा दिया जा सकता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, फतवा ‘धार्मिक मत’ अर्थात् परामर्श या सलाह होता है जिसे मानना न मानना, उस पर अमल करना न करना, फतवा माँगनेवाले की मर्जी पर निर्भर करता है। बिलकुल उसी तरह जिस तरह किसी वकील या डॉक्टर से सलाह ली जाए और उस पर अमल करने की छूट, सलाह लेनेवाले को होती है।


गिनती की ये ही बातें मैंने बताईं किन्तु छहों की शकलें देख कर लगा कि यह ‘सार संक्षप’ भी उन्हें ‘महा सागर’ की तरह लगा।

1000 दफ्तर बन्द कर दिए निजी जीवन बीमा कम्पनियों ने

जीवन बीमा उद्योग के निजीकरण की कलई धीरे-धीरे खुलने लगी है।


इस उद्योग में निजी कम्पनियों के लिए लाल कालीन बिछाने के लिए दिए गए तर्कों में एक तर्क यह भी था कि बीमा करने योग्य लोगों का बीमा करने के मामले में भारत सरकार का उपक्रम ‘भारतीय जीवन बीमा निगम’ अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा है इसलिए निजी बीमा कम्पनियों के जरिए ऐसे लोगों को बीमा सुरक्षा उपलब्ध कराने का मौका दिया जाना चाहिए। तब, इस उद्योग के जरिए रोजगार के नये आयाम खुलने के दावे भी किए गए थे। किन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा है, इन दावों की हवा निकलने लगी है और यह बात तेजी से सामने आने लगी है कि बीमा योग्य लोगों का बीमा करने और लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने में निजी बीमा कम्पनियों की कोई दिलचस्पी नहीं है। इनकी दिलचस्पी केवल मुनाफा कमाने में है।


देश की, अग्रणी 6 निजी बीमा कम्पनियों के, दो वर्षों के तुलनात्मक आँकड़े साबित करते हैं कि मुनाफा कमाने के अपने एकमात्र लक्ष्य को हासिल करने के लिए इन कम्पनियों ने छोटे कस्बों/शहरों के अपने लगभग 1,000 से अधिक शाखा कार्यालय बन्द कर दिए, कर्मचारियों की संख्या में 27 प्रतिशत की कमी कर दी और लगभग 1,74,000 अभिकर्ताओं को विदा कर दिया।


किन्तु इन दो वर्षों में इन बीमा कम्पनियों का मुनाफा खूब बढ़ा। आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल लाइफ और बजाज अलियांज बीमा कम्पनियों ने वित्तीय वर्ष 2010-11 में 650 शाखा कार्यालय बन्द किए, लगभग 12,000 कर्मचारी निकाले और क्रमशः 810 करोड़ और 160 करोड़ रुपयांे का शुद्ध मुनाफा कूटा। मैक्स न्यूयार्क और टाटा एआईजी बीमा कम्पनियों ने इस वित्तीय वर्ष में पहली बार मुनाफा कमाया जबकि एचडीएफसी लाइफ तथा रिलायंस लाइफ ने अपने नुकसान में बड़ी हद तक कमी की। किन्तु शाखाएँ बन्द करने और कर्मचारियों को निकालने के मामले में ये भी पीछे नहीं रहीं। हाँ, रिलायंस लाइफ ने अपना कोई शाखा कार्यालय बन्द नहीं किया। इसके विपरीत इस कम्पनी ने इस संख्या में एक की बढ़ोतरी की।


कार्यालय बन्द करने, कर्मचारियों को निकालने और अभिकर्ताओं को रास्ता दिखाने के पीछे इन कम्पनियों का एक ही तर्क था कि अपना कारोबार बचाए रखने के लिए इनके पास इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं बचा था।


निजी बीमा कम्पनियों के इस चलन को मात देने का करिश्मा केवल एक बीमा कम्पनी ने किया लेकिन वह कोई निजी बीमा कम्पनी नहीं थी। वह सार्वजनिक क्षेत्र की, एसबीआई लाइफ बीमा कम्पनी थी जिसने 135 नई शाखाएँ खोलीं और कर्मचारियों की संख्या में 1,313 की वृद्धि की।


निजी बीमा कम्पनियों के ‘चाल-चलन’ की संक्षिप्त हकीकत इस प्रकार है -


शाखाओं की संख्या (क्रमशः 2009-10 और 2010-11) -


आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल लाइफ - 1,923 थी, 519 बन्द कर दी गईं। 1,404 रह गईं।

बजाज अलियांज - 1,151 थी, 151 बन्द कर दी गईं, 1,050 रह गईं।

मैक्स न्यूयार्क लाइफ - 705 थी, 200 बन्द कर दी गईं, 505 रह गईं।

टाटा एआईजी लाइफ - 433 थी, 75 बन्द कर दी गई, 358 रह गईं।

एचडीएफसी लाइफ - 568 थी, 70 बन्द कर दी गईं, 498 रह गईं।

रिलायंस लाइफ - 1,247 थी, एक नई खोली, 1,248 कार्यरत हैं।

एसबीआई लाइफ - 494 थी, 135 नई खोलीं, 629 कार्यरत हैं।
बन्द किए गए शाखा कार्यालयों की कुल संख्या - 1,015


मुनाफा कूटने के लिए इन बीमा कम्पनियों ने, बन्द किए गए कार्यालयोंवाले कस्बों/शहरों के ग्राहकों को भगवान भरोसे छोड़ दिया जबकि इन ग्राहकों को यह कह कर बीमे बेचे गए थे कि इन सबको, इनके अपने गृहनगर में ही विक्रयोपरान्त ग्राहक सेवाएँ उपलब्ध कराई जाएँगी। अब इन ‘अनाथ ग्राहकों’ को, अपनी बीमा पॉलिसियों पर सेवाएँ प्राप्त करने के लिए, उन शहरों के चक्कर लगाने पड़ेंगे जहाँ इन कम्पनियों के शाखा कार्यालय काम कर रहे हैं।


यहाँ यह सवाल स्वाभाविक रूप् से उठता है कि छोटे कस्बों/शहरों के अपने दफ्तर बन्द कर ये बीमा कम्पनियाँ, बीमा योग्य अधिकाधिक लोगों का बीमा कैसे कर पाएँगी? इस काम के लिए दिन-ब-दिन नए शाखा कार्यालय खोलने पड़ते हैं!


कर्मचारियों की संख्या - (क्रमशः 2009-10 और 2010-11) -
आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल लाइफ - 20,000 थे, 7,000 निकाले, 13,000 कार्यरत हैं।

बजाज अलियांज - 20,000 थे, 5,062 निकाले, 14,938 कार्यरत हैं।

मैक्स न्यूयार्क लाइफ - 10,454 थे, 3,454 निकाले, 7,000 कार्यरत हैं।

टाटा एआईजी लाइफ - 8,100 थे, 2,700 निकाले, 5,400 कार्यरत हैं।

एचडीएफसी लाइफ - 14,397 थे, 2,303 निकाले, 12,994 कार्यरत हैं।

रिलायंस लाइफ - 16,656 थे, 2,473 निकाले, 13,183 कार्यरत हैं।

एसबीआई लाइफ - 5,985 थे, 1,313 नए भर्ती किए, 7,298 कार्यरत हैं।
निकाले गए कर्मचारियों की कुल संख्या - 22,992


शुद्ध मुनाफा/घाटा (करोड़ रुपयों में) (क्रमशः 2009-10 और 2010-11) -
आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल लाइफ - मुनाफा 260 करोड़ से बढ़कर 810 करोड़ हो गया, 550 करोड़ की वृद्धि हुई।

बजाज अलियांज - मुनाफा 540 करोड़ से बढ़कर 1,060 करोड़ हो गया, 520 करोड़ की वृद्धि हुई।

मैक्स न्यूयार्क लाइफ - 20 करोड़ का घाटा था जो 190 करोड़ के मुनाफे में बदल गया। याने, 210 करोड़ की वृद्धि।

टाटा एआईजी लाइफ - 400 करोड़ का घाटा, 52 करोड़ के मुनाफे में बदला। याने, 452 करोड़ की वृद्धि।

एचडीएफसी लाइफ - 280 करोड़ का घाटा कम होकर 100 करोड़ रह गया। याने, 180 करोड़ का मुनाफा।

रिलायंस लाइफ - 280 करोड़ का घाटा कम होकर 130 करोड़ रह गया। याने, 150 करोड़ का मुनाफा।

एसबीआई लाइफ - 276 करोड़ का मुनाफा बढ़ कर 366 करोड़ हो गया। याने 90 करोड़ की वृद्धि।


आँकड़े सारी हकीकत बयान कर रहे हैं। किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं रह जाती।

(ऑंकडों का स्रोत : बिजनेस स्‍टैण्‍डर्ड दिनांक 06 जुलाई 2011)