अपने ही फासले : सरोजकुमार

सपनों के पैताने अमलतास
बिस्तर पर सिरहाने च्यवनप्राश!

तन-मन की दूरी को
जीवनभर नापते
घाव हुए पैर रिसे
हाँफते-हाँफते!


सपनों में मेघदूत आवारे
जीवन में खिड़की भर हरी घास!


दूर-दूर पहुँच गए
मंजिल पर काफिले,
मिटे नहीं अपने से
अपने ही फासले!


सपनों में इन्द्रधनुष, कार्निवाल
कालिज में हिन्दी की वही क्लास!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

चोरों को दे दी खेत की रखवाली

क्या यह सम्भव है कि अपने मनचाहे परिणाम आप उन्हीं लोगों की सहायता से हासिल कर लें जिनसे डर हो कि वे आपको आपके वांछित परिणाम पाने में बाधक हो सकते हैं या आपके लिए असुविधा पैदा कर सकते हैं? नहीं न? लेकिन मैंने ऐसा होते देखा। देखा ही नहीं, इसका भागीदार बन कर देखा। यह करिश्मा किया श्री बी. एल. अकोतिया ने। वे, भारतीय जीवन बीमा निगम के, इन्दौर स्थित विक्रय प्रशिक्षण केन्द्र के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं। उनका चित्र आप मेरी कलवाली पोस्ट में देख चुके हैं।

23 जुलाई से 25 जुलाई वाले, तीन दिवसीय प्रशिक्षण सत्र में हम कुल 34 एजेण्ट प्रशिक्षणार्थी थे। एक तो प्रशिक्षण के सारे विषय प्रायः वे ही पुराने, जाने-पहचाने और उस पर तुर्रा यह कि प्रत्येक पीरीयड डेड़ घण्टे का। सो कुछ ‘समझदार और अनुभवी’ एजेण्ट तनिक देर से आते हैं, कुछ सबसे पीछे बैठकर ‘ध्यान मुद्रा’ का सुख लेने की कोशिशें करते हैं, कुछ पड़ौसी का ज्ञानवर्द्धन करने लगते हैं। इन सबका एक ही असर होता है - ‘व्याख्यान में व्यवधान।’ प्राध्यापक की कठिनाई कहें या विवशता कि सारे के सारे अभिकर्ता ‘छँटे हुए’ (‘और कुछ’, ‘गलत-सलत’ मत समझिए। ‘छँटे हुए’ याने अंग्रेजी के ‘सेलेक्टेड’) वरिष्ठ, अग्रणी होते हैं और अतिरिक्त विवशता/कठिनाई यह कि कई पूर्व परिचित होते हैं। कुछ के साथ तो वे शाखाओं में काम भी कर चुके होते हैं। ऐसे में ‘बड़ापन और बड़प्पन’ निभाना, प्राध्यापकों के ही खाते में जमा होता है।

किन्तु इस प्रशिक्षण में अकोतियाजी ने खुद को और अपने तमाम साथी प्राध्यापकों को इस परेशानी और तनाव से सौ टका मुक्त किए रखा। सारा का सारा तनाव और परेशानी उन्होंने, बड़ी ही चतुराई से हम एजेण्टों के खाते में जमा कर दी - वह भी हमारी सहमति से।

उन्होंने हम सबको 7-7 के समूह में बाँट दिया। चूँकि हम 34 थे, सो चार समूह तो 7-7 एजेण्टों के बने और पाँचवा समूह 6 एजेण्टों का। किन्तु इसमें भी उन्होंने ‘प्रबन्धकीय कौशल’ बरता। प्रशिक्षणों में एक ही शाखा से दो-दो, तीन-तीन एजेण्ट भी भेजे जाते हैं। ऐसे एजेण्ट कक्षा में एक साथ बैठते हैं। यदि एक शाखा से एक ही एजेण्ट गया है तो वह अपने किसी पूर्व परिचित को तलाश कर, उसके पास बैठता है। ‘अपनी ही शाखा का’ या ‘पूर्व परिचित’ होने के कारण, ऐसे एजेण्ट चलते व्याख्यान में, आपस में बातें करने लगते हैं। अकोतियाजी ने ऐसे ‘साथ’ को भंग कर दिया। उन्होंने हम सबसे, एक से सात तक गिनती जोर-जोर से उच्चारित करवाई। जैसे ही आठवें का नम्बर आया, उससे एक नम्बर से गिनती शुरु करवाई। अब हमारी कक्षा में ‘एक’ नम्बर उच्चारित करनेवाले पाँच-पाँच एजेण्ट थे। यही स्थिति 2 से लेकर 7 नम्बर तक की थी। इसके बाद अकोतियाजी ने कहा - ‘एक नम्बर बोलनेवाले सारे एजेण्ट एक साथ बैठ जाएँ। आप सब, ग्रुप नम्बर एक हैं।’ इसी तरह उन्होंने सात-सात एजेण्टों के, 1 से लेकर 7 नम्बर तक के पाँच समूह बना दिए। इससे हुआ यह कि सारे समूहों के सदस्य आपस में अपरिचित। इसके बाद अकोतियाजी ने पाँचों समूहों को परस्पर प्रतियोगी बना दिया। कहा - ‘जो ग्रुप सवालों के सही जवाब सबसे पहले देगा, उसे प्रति सवाल 20 नम्बर दिए जाएँगे। किसी ग्रुप के गलत जवाब को जो ग्रुप दुरुस्त करेगा उसे बोनस के 10 अंक दिए जाएँगे। यदि किसी ग्रुप का कोई सदस्य ऐसी कोई जानकारी देता है या ऐसा कोई काम करता है जो तनिक अनूठा और सबके लिए उपयोगी हो तो उस ग्रुप को अतिरिक्त अंक दिए जाएँगे। इसके विपरीत यदि किसी ग्रुप का कोई सदस्य देर से आएगा या किसी के मोबाइल की घण्टी बजेगी या कोई अनुचित आचरण करेगा तो उस ग्रुप के 10 नम्बर कट जाएँगे। इस तरह जिस ग्रुप को सर्वाधिक अंक मिलेंगे उस ग्रुप का, सत्र के समापन समारोह में पुरुस्कृत किया जाएगा।’ सुनकर हम सबने खुश होकर खूब तालियाँ बजाईं और खूब जोर-जोर से बजाईं।

अब स्थिति यह कि कक्षा चल रही हो या भोजन या अल्पाहार-विराम से लौटना हो, प्रत्येक समूह का सदस्य अपने शेष साथियों की निगरानी करने लगा। ‘चलो! चलो! जल्दी चलो! नही तो नम्बर कट जाएँगे।’ ‘देखना! मोबाइल साइलेण्ट मोड पर किया कि नहीं? ला! मुझे बता। तू बहुत लापरवाह है। तेरे कारण नम्बर कट जाएँगे।’ जैसी ‘हाँकें’ मानो ‘कोरस’ बन गईं। और तो और, उबासियाँ लेने में घबराने लगे हम लोग। ‘नम्बर कटने’ के आतंक का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि हमारी कक्षा साढ़े नौ बजे शुरु होनी थी और एक दिन केण्टीन में नौ बीस तक नाश्ता ही नहीं लगा तो बिना किसी से बात किए प्रत्येक ने तय कर लिया - ‘पहले क्लास में पहुँचो। वहीं बताएँगे कि केण्टीन ठेकेदार ने अब तक नाश्ता नहीं लगाया है। पहले वक्त की पाबन्दी कर लें, नाश्ता बाद में कर लेंगे।’

सत्र के तीनों ही दिन यही स्थिति बनी रही और हुआ यह कि प्राध्यापक के कक्षा में आने से पहले हम चौंतीस के चौंतीस, चाक-चौबन्द, उनकी प्रतीक्षा में बैठे हुए मिले। केवल, इन्दौर की जिला शाखा का एजेण्ट विनोद टेकचन्दानी दो बार देर से आया और प्राध्यापक उससे कुछ कहते उससे पहले ही उसके छहों साथी उसकी लू उतार चुके होते। यही स्थिति मोबाइल की घण्टी बजने को लेकर रही - तीन दिनों में, अपवादस्वरूप ही दो-तीन बार मोबाइल बजा। याने, समयबद्धता और अनुशासन पालन के मामले मे हमारा सत्र ‘समझदार बच्चों’ वाला सत्र रहा। सब कुछ व्यवस्थित और शान्तिमय।

सत्र के अन्तिम दिन, सारे पीरीयड पूरे होने के बाद, समापन समारोह के ठीक पहले हम सब बतियाते हुए, अपनी इस ‘उपलब्धि’ पर खुश हुए जा रहे थे। एक ने चहकते हुए, मुझे सम्बोधित करते हुए कहा - ‘अपन ने वह कर दिखाया जो आज तक किसी बेच ने नहीं किया होगा। है ना दादा?’ मेरी हँसी छूट गई। मैंने कहा - ‘अकोतियाजी ने बड़ी चतुराई से अपन सबको उल्लू बनाया और अपन सब भी खुशी-खुशी उल्लू बन गए और पूरे तीन दिनों तक उल्लू बने रहे। अभी भी बने हुए हैं।’ सबने चौंक कर, सवालिया नजरों से मेरी ओर देखा। मैंने कहा - ‘मालवा में एक परम्परा है। फसल पकने के मौसम में खेतों में खूब चोरियाँ होती हैं। सबको पता भी होता है कि चौर कौन है। किन्तु, सबूत नहीं होने के कारण कोई कुछ बोल नहीं पाता, कुछ कर नहीं पाता। ऐसे में, उस चोर को ही खेत की रखवाली दे दी जाती है। ओतियाजी ने भी यही किया। अपन चोरों को खेत की रखवाली दे दी और खुद गहरी नींद और मीठे सपनों के मजे लेते रहे।’ मेरी बात सुनकर सब ‘सन्न’ रह गए। सन्नाटा छा गया। लेकिन पल भर में एक ठहाके से सन्नाटा भंग हो गया।

यह ठहाका अकोतियाजी का था। और हम सब? हम सब झेंप कर गूँगे हो गए थे। और चूँकि गूँगे हो गए थे तो उनके इस ‘अभिनव प्रबन्धकीय कौशल’ की तारीफ भी कैसे करते? सो, अकोतियाजी ठहाके लगाते रहे और हम, सारे के सारे ‘छँटे हुए’ एजेण्ट, झेंपते ही रहे। 

और  ये हैं हम,  'छँटे हुए' 34 एजेण्‍ट। मैं,कुर्सीवाली पंक्ति में बॉंये से दूसरी कुर्सी पर हूँ।
चित्र पर चटकारा  लगा कर चित्र को बडे आकार में देखें।











कविता फरमाइशी प्रोग्राम नहीं है : सरोजकुमार

कवि नहीं है पंसारी
कि उसकी तराजू
तौले, ठीक
वैसा ही
जैसा मण्डी में तुलता है!


उसके एक पलड़े में सूरज
और दूसरे में
तितली हो सकती है,
एक में कबूतर
और दूसरे में
पिस्तौल हो सकती है!


दरअसल जिसे आप
पंसारी मान रहे हैं
ये आपको ही तौल देगा
और आपके वजन की
पोल खोल देगा!


इसकी दूकान पर, आप
यों ही
घूमते-फिरते निकल आया करें
उससे
खरीद फरोख्त न करें!
कहीं आप चाहें भजन
और वे आपको
ईश्वर के नाम का
मर्सिया दे दें!
टाप माँगें लोरी
और ये आपको
टूटे सपनों का
कनस्तर बजाती हुई
नींद दे दे,
आपकी ख्वाहिश हो राष्ट्रगीत
और ये आपको
घूरे में से बीनकर
सम्विधान के पन्ने दे दे!


माँगना मत उससे कुछ
वही अगर कुछ दे दे
तो ले लेना,
इस पंसारी का धन्धा
आम नहीं है,
और कविता:
फरमाइशी प्रोग्राम नहीं है!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

प्रयत्नवादी प्राचार्य : परिणाममूलक परिश्रम

‘‘आपमें से किसी ने कहा कि मैं तीन दिनों में आज नजर आई हूँ। वह भी सत्र समापन के मौके पर। मैं तो आज भी नहीं आती। लेकिन आपमें से दो सज्जनों ने अपने आकलन (मार्किंग) में, हमारे दो फेकल्टी मेम्बरांे को ‘सामान्य से कम’ की रेंकिंग दी है। मैं तो वही जानने आई हूँ कि हममें क्या कमियाँ है ताकि उन्हें दूर कर, आपके लिए अच्छी से अच्छी ट्रेनिंग की व्यवस्था की जा सके। मैं तो पर्दे के पीछे ही रहना चाहती हूँ। सामने नहीं आना चाहती। आपने फिल्में देखी हैं? किसी में आपने डायरेक्टर को देखा है? नहीं ना? मैं भी बस वैसी ही हूँ। मुझे अपने दिखने की नहीं, अपनी फिल्म की, उसके हिट होने की चिन्ता रहती है। वही मेरा काम भी है और मैं वही कर रही हूँ - आपके लिए बढ़िया ट्रेनिंग की, आवास और खान-पान की बढ़िया व्यवस्थाएँ जुटाने की कोशिशें।’’ कह कर श्रीमती प्रीती पँवार थमीं तो कक्षा में कुछ पल तो ‘सुई-पटक सन्नाटा’ (पिन ड्रॉप सायलेंस) छाया रहा और फिर तालियाँ गूँज उठीं।

साल भर से ऊपर हो गया है प्रीतीजी को, हमारे (भारतीय जीवन बीमा निगम के) इन्दौर स्थित विक्रय प्रशिक्षण केन्द्र का प्राचार्य बन कर आए। मुझे तो कुछ भी पता नहीं किन्तु प्रशिक्षण में आए कुछ एजेण्ट मित्रों ने बताया कि वे गए बरसों में पाँच-सात बार आ चुके हैं किन्तु प्रीतीजी के आने के बाद से ‘केन्द्र’ की दशा और दिशा में ‘आमूलचूल परिवर्तन’ आया है। सब कुछ बदल गया है। लगता ही नहीं कि यह पहलेवाला ही प्रशिक्षण केन्द्र है।

हम एजेण्ट लोग तारीफ करने के मामले में कंजूस हैं। खासकर अपने अधिकारियों की तारीफ करने के मामले में। और बात जब पीठ पीछे बातें करने की हो तो यह कंजूसी, आलोचना करने और खिल्ली उड़ाने की ‘अतिशय उदारता’ में बदल जाती है। किन्तु प्रीतीजी के मामले में यहाँ तो बिलकुल ही उल्टा हो रहा था। इस ‘उल्टेपन’ ने ही मेरी जिज्ञासा बढ़ाई और खोज-बीन में जो हासिल हुआ वह अभूतपूर्व हो न हो, उल्लेखनीय तो है ही।

प्रशिक्षण को लेकर प्रीतीजी ने समस्त संकाय सदस्यों से बात कर, उन्हें विश्वास में लेकर, प्रशिक्षण के व्यवहार में ‘अवधारणागत, चारित्रिक आमूलचूल परिवर्तन’ किया। वही, जिसे अंग्रेजी में ‘रेडीकल चेंज’ कहा जाता है। सबसे पहला काम उन्होंने किया - सारा काम, समूचा सम्वाद-सम्प्रेषण हिन्दी में करने का। उन्हें अंग्रेजी से न तो परहेज है और न ही बैर। किन्तु ‘‘अपनी बात यदि ‘लक्ष्य’ (एजेण्टों) तक नहीं पहुँचे तो सारी उठापटक व्यर्थ हो जाती है, समूचा परिश्रम, सारे साधन-संसाधन निरर्थक हो जाते हैं और प्रशिक्षण का औचित्य ही नष्ट हो जाता है। इसलिए, सम्प्रेषण का हमारा माध्यम वही हो, जहाँ हम काम कर रहे हैं और जिनके लिए काम कर रहे हैं।’’ सो, सब कुछ ‘स्थानीय’ हो गया। इस सीमा तक कि उनके दो अग्रणी सहयोगियों, श्री बी. एल. अकोतिया और श्री एस. सी. पालोद्रिया के व्याख्यानों में मालवी के ठेठ देशज शब्द आने लगे। (कोई ताज्जुब नहीं कि यह महत्वपूर्ण बात खुद इन दोनों सज्जनों को भी पता न हो।)
                                                      अकोतियाजी और प्रीतीजी के साथ मैं

‘निगम प्रबन्धन’ इन दिनों, ‘वित्त प्रबन्धकों तथा सम्पदा प्रबन्धकों’ (फायनेंशियल मेनेजर तथा वेल्थ मेनेजर) के एकीकृत प्रशिक्षण (यूनीफाइड ट्रेनिंग) पर जोर दे रहा है। प्रीतीजी ने इस प्रशिक्षण की, पॉवर प्वाइण्ट प्रस्तुतियों की 272 स्लाइडें हिन्दी में बनवाईं। मैंने अनुभव किया है कि इन स्लाइडों की हिन्दी तनिक अशुद्ध तथा वाक्य विन्यास सुधार की सम्भावनाओंवाला है किन्तु ‘रोमन में हिन्दी’ के मुकाबले ‘देवनागरी में अंग्रेजी’ अधिक ग्राह्य तथा अधिक स्वीकार्य हो रही है, बात एजेण्टों तक सीधे पहुँच रही है।

प्रीतीजी यहीं तक सीमित नहीं हैं। वे ‘प्रशिक्षण की आवश्यकताओं का विश्लेषण’ लगातार कर रही हैं और इसी के चलते अब तक 700 से अधिक एजेण्टों के लिखित ‘फीड बेक’ के आधार पर, प्रशिक्षण में निरन्तर परिवर्तन और परिवर्द्धन कर रही हैं। इस फीड बेक के विश्लेषण के लिए उन्होंने विशेष माड्यूल भी तैयार करवाया है।


किन्तु मुझे जिस बात ने अधिक प्रभावित और आकर्षित किया वह कुछ और ही है। अपने संकाय सदस्यों से ‘खुली चर्चा’ कर उन्होंने अभूतपूर्व परिवर्तन किया है। अब तक यह होता आया है कि प्रशिक्षण का स्तर और ढाँचा पूर्व निर्धारित होता था और एजेण्टों को उसके अनुसार खुद को तैयार करना पड़ता था। प्रीतीजी ने इसे एकदम उलट दिया। अब प्रशिक्षण से पहले, एजेण्टों का स्तर तलाशने के लिए एक छोटी सी लिखित परीक्षा ली जाती है जो परीक्षा नहीं होती - एजेण्टों को जानने की कोशिश होती है। तमाम प्रतिभागियों के जवाबों के आधार पर एक औसत स्तर तय कर, तदनुसार ही प्रशिक्षण का स्तर तय किया जाता है। स्तर का यह निर्धारण, प्रशिक्षण के प्रत्येक सत्र में, हर बार होता है। याने, प्रत्येक सत्र के प्रशिक्षण का स्तर आवश्यकतानुसार, अलग-अलग तय किया जाता है। इसे यूँ समझा जा सकता है कि अब तक, ‘प्रशिक्षण’ तीसरी मंजिल पर स्थित होता था और एजेण्ट को वहाँ पहुँचना होता था। अब प्रीतीजी ने यह कर दिया है कि ‘प्रशिक्षण’, दरवाजे पर खड़े एजेण्ट के पास जाता है और उसकी अंगुली पकड़कर उसे तीसरी मंजिल पर लाता है। इसके लिए प्रीतीजी ने अपने संकाय सदस्यों की बैठकें लेकर व्याख्यानों का ‘ड्राय रन’ भी लिया - याने, प्राध्यापकों ने, खाली कक्षाओं में एकाधिक बार ‘अभ्यास-व्याख्यान’ दिए।

                      
संकाय सदस्य श्रीमती मन्‍दाकिनी पेशवे, सर्वश्री बी.एल.अकोतिया,एस.सी्. पालोद्रिया, डी.मोहन तथा नितिन वैद्य

इस ‘तरीके’ के परिणाम बिलकुल वैसे ही मिले जैसे कि मिलने चाहिए थे। प्रीतीजी के आने से पहलेवाले वर्ष में, इन्दौर केन्द्र ने लगभग सवा तेरह सौ एजेण्टों को प्रशिक्षण दिया था जबकि प्रीतीजी के आने के बादवाले वर्ष में यह आँकड़ा सवा दो हजार से अधिक का हो गया है। यह क्रम बना हुआ है और चालू वर्ष के पहले चार महीनों में लगभग एक हजार एजेण्ट यहाँ से प्रशिक्षण ले चुके हैं। प्रीतीजी खुद भी कभी-कभार पीरीयड लेती हैं और अन्य संकाय सदस्यों की कक्षा में बैठक कर ‘प्रशिक्षु’ की तरह व्याख्यान सुनती हैं।

जैसा कि शुरु में ही मालूम हुआ था, प्रीतीजी एक ‘डायरेक्टर’ की तरह ही व्यवहार करती हैं। वे अपने कार्यालय में बन्द होकर नहीं बैठतीं। जब सब अपने काम में लगे होते हैं तो वे छात्रावास का मुआयना करती हैं, साफ-सफाई का जायजा लेती हैं। अपने ‘हाउस कीपिंग’ विभाग पर वे इन दिनों तनिक अधिक ध्यान देती लगीं मुझे। प्रशिक्षण के प्रत्येक सत्र में वे कम से कम एक बार, एजेण्टों के साथ केण्टीन में अकस्मात ही भोजन करने पहुँच जाती हैं। वे केवल ‘प्रयत्नवादी’ नहीं हैं, वे सजग रहती हैं कि उनका परिश्रम ‘परिणाममूलक’ भी हो।

जिस मनोयोग से वे प्रशिक्षण केन्द्र की सकल बेहतरी के लिए जुटी हुई हैं, उससे मेरी पहली धारणा यह बनी कि वे कुशल प्रशासनिक अधिकारी तो हैं ही किन्तु उससे अधिक वे कुशल अकादमिक अधिकारी हैं। अनायास ही लगने लगता है मानो वे ‘प्रशिक्षण’ के लिए ही बनी हों।
मैंने उनके ‘विजन’ के बारे में उन्हें टटोलना चाहा तो वे हँस कर रह गईं। जो कुछ उन्होंने बताया उसका एक ही मतलब निकाल पाया कि वे प्रशिक्षण केन्द्र की सफलता में ही अपनी सफलता देखती हैं। मेरे अनुमान के अनुसार उनकी इच्छा और कोशिश है कि इन्दौर प्रशिक्षण केन्द्र, ‘निगम’ के, देश में स्थित 34 प्रशिक्षण केन्द्रों में यदि प्रथम स्थान पर न आ सके तो कम से कम प्रथम दस में तो आ ही जाए।

भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है - कोई नहीं जानता। वैसे भी हमारे नियन्त्रण में केवल प्रयत्न  हैं। परिणाम नहीं।  किन्तु जिस लगन और  ‘प्रीती भाव’ से प्रीतीजी अपने अभियान में जुटी हुई हैं और अपने संकाय सदस्यों का जो आत्मपरक सहयोग उन्हें मिल रहा है, उसे देखकर सहज ही विश्वास होता है कि सफलता भी उनसे प्रीती जताएगी और उनकी मनोकामनाएँ पल्लवित, पुष्पित होने से आगे बढ़कर फलवती होंगी।

भगवान करे, ऐसी प्रीतीकारी प्राचार्य हमारे प्रत्येक प्रशिक्षण केन्द्र को मिले।

रास्ते : सरोजकुमार

सबसे बचते, बचाते
टकराते, लाँघते
नदी
अपना रास्ता खुद
बनाती है!


कभी सीधे नहीं होते
नदी के रास्ते!

सीधे होते हैं
जिनके रास्ते
वे खुद के बनाए
नहीं होते!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

बी.ए. के बाद एलकेजी की पढ़ाई

प्रशिक्षण पाठ्यक्रम का ब्यौरा देखकर कुढ़न हुई। लगा, मुझ बी.ए. पास को पहली कक्षा में बैठाया जा रहा है। किन्तु जब, प्रशिक्षण का स्तर निर्धारण करने हेतु हम लोगों के ‘ज्ञान’ की जानकारी लेने वाला प्रश्न-पत्र सामने आया तो लगा, पहली कक्षा में नहीं, मुझे तो बालवाड़ी या आँगनवाड़ी (जिसे ‘भद्रलोक’ की भाषा में कहा जाता है - एल.के.जी.) में बैठाया जाना चाहिए। और प्रशिक्षण के पहले दिन के पहले सत्र के ठीक बाद की मेरी प्रतिक्रिया थी - ‘हे! भगवान! यह सब मुझे, बाईस वर्ष पहले, बीमा एजेन्सी लेने के फौरन बादवाले, पहले ही दिन क्यों नहीं पढ़ाया गया?’

इन्‍दौर स्थित, भा.जी.बी.नि.का विक्रय प्रशिक्षण केन्‍द्र

अपने एजेण्टों को तराशने, उन्हें निरन्तर काम में लगाए रखने और उनसे, अधिकाधिक बीमा व्यवसाय प्राप्त करते रहने के लिए, भारतीय जीवन बीमा निगम पूरे वर्ष भर प्रशिक्षण की प्रक्रिया निरन्तर बनाए रखता है। एजेण्टों के व्यवसाय के आधार पर उन्हें विभिन्न स्तर की क्लब सदस्यता दी जाती है और ऐसे प्रत्येक क्लब सदस्य एजेण्ट को, चार वर्ष में एक बार प्रशिक्षण प्राप्त करना ही पड़ता है। मैंने सितम्बर 2008 में प्रशिक्षण लिया था जिसका ब्यौरा मैंने इन दो पोस्टों में दिया था।  मैंने अभी-अभी, ‘निगम’ के इन्दौर स्थित विक्रय प्रशिक्षण केन्द्र में, 23 से 25 जुलाई तक (तीन दिनों का) प्रशिक्षण लिया।

अब तक मैं लगभग आठ बार प्रशिक्षण ले चुका हूँ। इससे पहले वाले तमाम प्रशिक्षण, ‘कम से कम समय में अधिकाधिक बीमा कैसे बेचा जाए’ पर ही केन्द्रित रहे थे। मैं इसी मानसिकता से इन्दौर पहुँचा था। किन्तु इस प्रशिक्षण ने मुझे अचरज में डाला। इस बार बीमा बेचने की बात दूसरे-तीसरे क्रम पर थी। देश का वित्तीय ढाँचा, वित्तीय गतिविधियों की प्रणालियों की जानकारी, वित्त व्यवस्था और उसका संचालन, वैश्विक वित्तीय परिदृष्य में भारतीय वित्त व्यवस्था, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के मायने, सेंसेक्स का अर्थ, महत्व और उसके निर्धारण के मानक, मुद्रा स्फीति के कारण और प्रभाव, रुपये और डॉलर का अन्तर्सम्बन्ध जैसे विषयों पर यथा सम्भव अधिकाधिक विस्तार और स्पष्टता से बताया गया। जैसे-जैसे ये जानकारियाँ सामने आती गईं वैसे-वैसे हममें से अधिकांश (हम 34 एजेण्ट थे इस प्रशिक्षण में) एजेण्टों को यह अनुभव करते हुए अचरज हो रहा था कि ये सारी बातें, बीमा बेचने को किस हद तक प्रभावित करती हैं!

मैंने पहली बार जाना कि अर्थ-नीति (इकॉनॉमिक पॉलिसी), मौद्रिक-नीति (मॉनीटरी पॉलिसी) और वित्त-नीति (फिस्कल पॉलिसी) के मतलब अलग-अलग होते हैं। रेपो-रेट, रिवर्स रेपो रेट, सीआरआर, एसएलआर का मतलब पहली बार जाना। मुझे पहली बार ज्ञान हुआ कि मँहगाई बढ़ने/घटने के पीछे  रेपो रेट ही एक मात्र कारक होता है। यह सब सुन-सुन कर और जान कर मुझे अपने आप बहुत ही झेंप आ रही थी। अपने वर्तमान और भावी ‘अन्नदाताओं’ (पॉलिसीधारकों) से बात करते हुए मैं ये सारी वित्तीय शब्दावलियाँ, अपने सम्पूर्ण आत्म विश्वास से, अधिकारपूर्वक प्रयुक्त करता रहा हूँ - वह भी कुछ इस तरह मानो मेरी कही बात ही आधिकारिक और अन्तिम हो। अब लग रहा है कि मेरी बातें चुपचाप सुन कर मेरे अन्नदाताओं ने अतिशय उदारता और शालीनता बरत कर मेरे अज्ञान को सहन किया होगा।

सेंसेक्स की बात करना हम एजेण्टों के लिए ‘अनिवार्य विवशता’ है। किन्तु हम सबने पहली बार जाना कि सेंसेक्स के बिन्दुओं (प्वाइण्टों) के निर्धारण-मानक क्या होते हैं। अपने ग्राहकों से बात करते हुए हम एजेण्ट लोग ‘एनएवी’ का उपयोग प्रचुरता से करते हैं किन्तु हम सबने (जी हाँ, हम सबने) पहली बार जाना कि  ‘एनएवी’ का निर्धारण कैसे होता है। इसी तरह, शेयर बाजार से जुड़े ‘प्रायमरी मार्केट’, ‘सेकेण्डरी मार्केट’, ‘इक्विटी’, ‘लार्ज केप’, ‘मिड केप’, ‘स्माल केप’, ‘प्रिफरेंशियल शेयर’, ‘इक्विटी शेयर’ का अर्थ हम लोगों ने पहली बार जाना जबकि ये सारे शब्द हम एजेण्ट लोग दिन भर में सौ-दो सौ बार तो बोलते ही हैं। इसी प्रकार, म्युचअल फण्ड की विविधता और उसका आधारभूत चरित्र हमने पहली ही बार जाना। हमने पहली बार जाना कि म्यूचअल फाण्ड कोई एक व्यक्ति संचालित नहीं कर सकता। कोई ट्रस्ट ही इसका संचालन कर सकता है। केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) और आय कर विभाग को मैं दो स्वतन्त्र निकाय/विभाग मानता था। लेकिन मालूम हुआ कि आय कर विभाग तो, सीडीबीटी द्वारा निर्धारित नीतियों का क्रियान्वयन करता है। ये सारे विषय, बीमा बिक्री से कितनी सघनता से जुड़े हैं, यह कोई बीमा एजेण्ट ही अनुभव कर सकता है।

मेरी सुनिश्चित धारणा (मुझे ‘धारणा’ के बजाय ‘निष्कर्ष’ शब्द प्रयुक्त करना अच्छा लग रहा है) है कि ये सारी बातें हम बीमा एजेण्टों के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि किसी भाषा के लिए व्याकरण या कि अच्छी फसल लेने के लिए ‘खेत की तैयारी’ या फिर किसी देश के विकास के लिए आधारभूत संरचना होती है। मेरी तो यह भी सुनिश्चित धारणा बनी कि ये सारी बातें प्रत्येक एजेण्ट को, एजेन्सी लेने के पहले ही दिन पढ़ाई जानी चाहिए। यही बात मैंने, सत्र समापन समारोह में, ‘अपनी बात’ के रूप में कही।

हमारा समूचा प्रशिक्षण हिन्दी में ही हुआ। मैंने इसे सहजता से लिया। किन्तु वास्तविकता कुछ और ही थी। मालूम हुआ कि देश में स्थित, ‘निगम’ के  34 विक्रय प्रशिक्षण केन्द्रों में से केवल इन्दौर स्थित विक्रय प्रशिक्षण केन्द्र में ही हिन्दी प्रयुक्त की जा रही है। तब मुझे समझ में आया कि हमारे प्राध्यापकों में से एक श्री डी. मोहन क्यों बार-बार हमसे सहयोग माँग रहे थे। मोहनजी मूलतः हैं तो दक्षिण भारत से किन्तु मुम्बई में बस गए हैं। हम देख रहे थे कि हिन्दी बोलने में उन्हें भरपूर असुविधा हो रही है। फिर भी, अत्यधिक असुविधा और कष्ट उठा कर उन्होंने बहुत अच्छी हिन्दी में हमें पढ़ाया। इस जानकारी ने मेरी जिज्ञासा बढ़ाई। तलाश किया तो मालूम हुआ कि इसके पीछे, प्रशिक्षण केन्द्र की प्राचार्य श्रीमती प्रीती पँवार हैं। मैं उन्हें धन्यवाद नहीं दे सका क्योंकि यह जानकारी मुझे बहुत बाद में, काफी देर से मिली।

इन्हीं प्रीतीजी के बारे में और उनके बहाने कुछ और बातें, अगली पोस्ट में।

बिकने की आजादी : सरोजकुमार

सरकार ने उसे खरीद लिया है
कहने से बेहतर होगा कहना-
कि उसने स्वयम् को बेच दिया है!
जो चीज बिकाऊ नहीं होती
उसे उड़ाया चाहे जा सकता हो
खरीदा नहीं जा सकता!

वह चालाक जरूर रहा होगा,
उसने आसामी बड़ा चुना!
इतने बड़े ग्राहक को देखकर ही
शायद, उसे बिकने की सूझी हो!
अन्यथा वह
स्वतन्त्रचेता, बुदिजीवी, सृजनकर्मी जैसे
आत्मकथ्य से
नीचे नहीं उतरता!


सरकार को क्या मिला?
कुछ कटे हुए नाखून
कुछ टूटी हुई रीढ़ें
झुकी हुई कलमें
और कूचियाँ!
और उसे पद, प्रतिष्ठा
बंगला और रौब!


वह जब यह समझाने की
कोशिश करता है
कि वह बिका नहीं है कतई
तब उस पर दया आती है
जिसकी उसे जरा भी जरूरत नहीं है!
और वे तो ईर्ष्यावश
उसे कोसते फिरते हैं,
जो उससे काफी कम दामों पर
उपलब्ध थे!


उसका सवाल भी गलत नहीं है
कि बिका भी है वो अगर
तो ऐसा क्या कर डाला है,
कि उसे कीचड़ से पोता जाए?
किसी विदेशी या दुश्मन को तो नहीं बिका!
-अपनी सरकार
-अपने लिए
-अपने द्वारा,
-उसने बेचा अपने को
-अपने लिए
-अपने द्वारा,
बिकने की आजादी
सम्वैधानिक है!


फिर, बिक सकेगा वही
जिसकी डिमाण्ड होगी,
आप बिकने की कोशिश कर देखिए
सरकार तो दूर
म्युनिसिपैलिटी भी घास नहीं डालेगी!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

‘संयुक्त’ से ‘सूक्ष्म’ के अकेलेपन तक

यह, मेरी कलवाली  पोस्ट  का  विस्तार ही समझा जा सकता है किन्तु हो रहा है सब कुछ अकस्मात और अनायास ही। ‘मेरे मन कछु और है, कर्ता के मन कछु और‘ की तरह। सच है, खाली दिमाग शैतान का घर।

गए कुछ बरसों से ‘परिवार’ के नाम पर यहाँ ‘हम दोनों, अकेले’ ही हैं। घर के सारे काम, अन्दर के हों या बाहर के, हमें ही निपटाने पड़ते हैं। सहायक की आवश्यकता हर बार अनुभव होती है किन्तु काम इतना भी नहीं कि पूर्णकालिक सहायक रखा जाए। दो-एक लोगों से बात की तो उनकी माँग के अनुसार भुगतान करने के बाद भी मना कर गए। बोले - ‘आपके यहाँ काम है ही क्या? हमें तो खाली बैठना पड़ेगा!’ ऐसे में, जिस तरह से मेरे निजी और पारिवारिक काम पूरे हो रहे हैं वह सब देख-देख कर वह कहावत शब्दशः सच लग रही है - सबसे पहला रिश्तेदार पड़ौसी होता है। ‘ये रिश्तेदार’ न हों तो मैं भूखों भले ही न मरूँ, आय में अच्छी-खासी कमी अवश्य आ जाए।

हम एक ‘कामकाजी दम्पति’ हैं। मेरी उत्तमार्द्ध अध्यापक हैं और मैं बीमा एजेण्ट। सुबह सवा दस बजते-बजते, वे अपनी नौकरी पर निकल जाती हैं और चूँकि उन्हें नौकरी के मुकाम तक पहुँचाना मेरा काम है, इसलिए मैं भी उनके साथ ही निकल जाता हूँ। याने, साढ़े दस बजे से पहले ही हमारे मकान पर ताला लग जाता है। मेरी वापसी का कोई ठिकाना नहीं। कभी-कभार जल्दी भी लौट आता हूँ। वरना, शाम सवा पाँच-साढ़े पाँच बजे ही लौट पाता हूँ- उत्तमार्द्ध को नौकरी के मुकाम से वापस लाना जो होता है! ऐसे में, हमारे मकान पर प्रायः दिन भर ही ताला लगा रहता है। यही कारण है कि पड़ौसियों के रिश्तेदार होने की प्रतीति पल-पल बनी रहती है।

गैस बुक कराने के फौरन बाद चिन्ता घर कर जाती है - डिलीवरी बॉय कब आएगा? गैस एजेन्सी वाले से पूछता हूँ - ‘सिलेण्डर कितने दिन में आ जाएगा?’ मेरी ओर देखे बिना ही वह कहता है - ‘पाँच दिनों में।’ जानता हूँ कि उसका कहना अनुमानों पर आधारित होता है। सिलेण्डर पहले भी आ सकता है। सो, न चाहने पर भी, चिन्ता घर कर जाती है। गैस बुक कराने के तीसरे दिन से, कूपन, रुपये और किताब पड़ौसी को दे जाता हूँ। दाहिनी ओरवाले को देता हूँ तो बाँयी ओर वाले को जता देता हूँ और बाँयी ओरवाले को दिए तो दाहिनी ओरवाले को। पता नहीं, डिलीवरी बॉय किससे पूछे? चिन्ता फिर भी कम नहीं होती। पड़ौसी भी तो अपनी घर-गिरस्ती लेकर बैठा है! पचासों काम हैं उसके भी। जरूरी नहीं कि डिलीवरी बॉय के आने की चौकीदारी वह करे। मेरी तकदीर से, डिलीवरी बॉय ने यदि आसपास का दरवाजा खटखटा दिया तो सिलेण्डर रखवा लेगा वरना, पाँच दिनों की प्रतीक्षा अवधि के बाद, गैस एजेन्सी पर तलाश करनी होती है। मालूम होता है, डिलीवरी बॉय ताला देखकर लौट गया। तब, सिलेण्डर हासिल करने के लिए अतिरिक्त जतन करने पड़ते हैं और सारे काम छोड़ कर तब तक घर पर बने रहना पड़ता है जब तक कि सिलेण्डर कब्जे में न आ जाए। पड़ौसियों के भरपूर सहयोग के बाद भी इस काम का यथेष्ठ अनुभव हो गया है अब तो मुझे।

लगभग यही दशा डाक के मामले में भी होती है। रजिस्टर्ड या स्पीड पोस्टवाले पत्र आने पर, डाकिया या तो पड़ौसियों को दे जाता है या फिर पर्ची छोड़ जाता है - ‘आपकी रजिस्ट्री आई है। साढ़े तीन बजे आकर प्राप्त कर लें।’ किन्तु कूरीयर सेवाएँ यह सुख नहीं देतीं। उनके कारिन्दे, जिम्मेदारी का निर्वहन यन्त्रवत करते हैं - पानेवाला मिल गया तो पत्र दे दिया अन्यथा पत्र लौटा दिया। ऐसे ‘लौटा दिए गए’ पत्रों की जानकारी तब होती है जब अपना पत्र वापस पाकर, भेजनेवाला झुंझलाकर खरी-खोटी सुनाता है। उसका तो पैसा भी लगा और काम फिर भी नहीं हुआ! ऐसा अनगिनत बार हो चुका है और कई बार मेरे महत्वपूर्ण दस्तावेज लौट गए। कूरीयर सेवावालों के साथ एक दिक्कत यह भी कि, डाकिए की तरह उनके आने का कोई समय निर्धारित नहीं होता। जितनी कूरीयर सेवाएँ, उतने पत्र वाहक और सबका अपना-अपना समय। मौत और ग्राहक की तरह ही, कूरीयर सेवाओं के कारिन्दे कभी भी आ सकते हैं। इन लोगों ने मेरे पड़ौसियों को रिश्तेदारी या पड़ौसी धर्म निभाने का अवसर एक बार भी नहीं दिया।

ऐसा बीसियों बार हुआ कि मुझे भाग कर घर आना पड़ा। मैं किसी ग्राहक को बीमा समझा रहा होता हूँ कि दूर-दराज से आया मेरा कोई सम्बन्धी फोन करता है - ‘आप कहाँ हैं? मैं दरवाजे पर खड़ा हूँ।’ सुनकर पहले क्षण तो उस पर गुस्सा आता है - ‘भैया! जिस तरह से आने के बाद फोन कर रहे हो, उसी तरह से, आने से पहले खबर कर दी होती!’ किन्तु अगले ही क्षण यह गुस्सा खुद पर आने लगता है। जो हो गया सो हो गया। गुस्सा करने से क्या लाभ? क्या मतलब? ईश्वर को धन्यवाद दो कि कोई तुम्हारे यहाँ आया। वर्ना, अब इस जमाने में किसे फुरसत कि समय निकाल कर किसी के यहाँ जाए?

विभिन्न प्रसंगों पर, व्यवहार निभाने के लिए जब-जब भी हम दोनों को, दो-चार दिनों के लिए बाहर जाना होता है तो नींद हराम हो जाती है। किसके भरोसे घर छोड़ा जाए? सबकी दशा, न्यूनाधिक हम जैसी ही तो है? यदि कोई हमारे घर की रखवाली के लिए यहाँ सोएगा तो उसके घरवाले चिन्तित हो जाएँगे! लेकिन जाना, टाला भी तो नहीं जा सकता! ऐसे में, जी कड़ा करके, भगवान का नाम लेकर निकल तो पड़ते हैं किन्तु मन, घर में ही रमा रहता है। ‘चोरी-चकारी हो गई तो?’ यह विचार मन में से निकलता ही नहीं। जहाँ गए, वहाँ की व्यस्तता से जैसे ही फुरसत मिली कि यही बात हावी हो जाती है। तब, हम दोनों एक दूसरे को ढाढस बँधाते हैं - ‘अपना पैसा हराम का नहीं है। पसीने का है। फिर, अपने पास है ही क्या जो कोई ले जाएगा? और ले जाए तो ले जाने दो! अपने भाग्य में जो होगा वही तो रहेगा अपने पास! भगवान पर भरोसा रखो और यहाँ का आनन्द लो। भगवान सब ठीक करेगा।’

ये तो वे स्थितियाँ हैं जो बिना कोशिश के आँखों के सामने आ गईं। कोशिश करने पर ऐसी ही कुछ और स्थितियाँ तलाशी जा सकती हैं लिखी जा सकती हैं। किन्तु सोच रहा हूँ कि यह दशा केवल हमारी ही नहीं है। यह ‘घर-घर की कहानी’ भले ही न हो, कई घरों की तो होगी ही। परिवार ‘संयुक्त’ से ‘एकल’ हुए और अब ‘सूक्ष्म’ हो गए। किन्तु ‘सूक्ष्म’ होने का अर्थ ‘अकेला हो जाना’ तो नहीं होता!

‘पारिवारिकता’ के व्यसनी हम लोग कहाँ आ गए? कहीं वैश्वीकरण की उदारवादी आर्थिक नीतियाँ तो हमें इस मुकाम पर नहीं ले आईं?  

शुभचिन्तक : सरोजकुमार

मेरा मित्र स्वस्थ होकर
अस्पताल से घर लौट आया!
मैं अफसोस मना रहा हूँ,
यह सोचते हुए
कि मैं उसकी मिजाजपुर्सी को
पहुँच पाता
उसके बाद वह स्वस्थ होकर
घर लौटता
तो कितना अच्छा होता!
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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

श्रोताओं को तलाश रही कहानी

भली प्रकार जानता हूँ कि यह कष्ट न तो पहला है  और  नही मुझ अकेले का। अब तो यह ‘घर-घर की कहानी’ का रुतबा हासिल करने के रास्ते पर है। आश्चर्य नहीं कि यह पढ़कर आप या आपमें से कई चौंक कर सोचने लगें - ‘यह तो मेरे साथ भी हो रहा है किन्तु इस ओर, इस तरह कभी सोचा नहीं।’ ऐसे कृपालु यह मान लें कि उनकी तरफ से मैं यह सब लिख रहा हूँ।

नवनी और आदित्य, अपने विवाह के बाद पहली बार हमारे यहाँ आए - तीन दिन पहले। नवनी (जिसे हम घर में ‘बबली’ कह कर पुकारते हैं) मेरे बड़े साले की बिटिया याने ‘हमारी’ भतीजी है और आदित्य ‘हमारा’ दामाद। और इनके विवाह का सन्दर्भ मैंने अपनी इस पोस्ट में दिया था। दोनों, अपराह्न साढ़े चार बजे के आसपास आए और अगली सुबह दस बजे लौट गए। कुल जमा अठारह घण्टों से भी कम रहे दोनों हमारे साथ।

अपनी भतीजी के आगमन की सूचना मात्र से ही मेरी उत्तमार्द्ध अति उत्साहित और परम प्रसन्न थीं। एक दिन पहले से ही ‘बबली और कँवर सा‘ब (हिन्दी का ‘कुँवर’ मालवी में ‘कँवर’ बन जाता है) आ रहे हैं’ मानो उनका ‘उद्घोष’ बन गया था। नौकरी से सन्ध्या पाँच बजे लौटनेवाली ‘बहनजी’ उस दिन, विशेष अनुमति ले, चार बजे ही घर आ गई थीं। और दिनों तो वे आते ही निढाल हो जाती हैं, चाय भी बड़ी मुश्किल से बना पाती हैं। किन्तु ‘बबली और कँवर सा’ब आ रहे हैं’ इन सात शब्दों ने मानो न केवल उनकी थकावट दूर कर दी अपितु अतिरिक्त ऊर्जा भी भर दी थी। ‘बबली और कँवर सा’ब’ के आगमन से लेकर प्रस्थान तक मेरी उत्तमार्द्ध का, मानो चोला बदल गया था। उन्होंने कोशिश की कि बबली को पानी का ग्लास भी नहीं उठाना पड़े। वे न्यौछावर हुई जा रही थीं और उन्हें देख-देख कर बबली ‘क्या बुआजी! आप भी...!’ कह-कह हर हँसे जा रही थी।

अपनी उत्तमार्द्ध का भरसक साथ देते हुए मैंने, यथा शक्ति, यथा सामर्थ्य उन दोनों की आवभगत की, खोज-खबर ली और ‘नेगचार’ किया। हम दोनों को अच्छा लगा यह देखकर कि वे दोनों जितने खुश-खुश आए थे, उससे कम खुश नहीं लौटे।

लेकिन यह सब बताना मेरा अभीष्ट नहीं है। बबली तो यहाँ आती-जाती रही है, सो उसे कोई असुविधा नहीं हुई, कुछ भी अटपटा नहीं लगा। किन्तु मुझे तब भी लगा था और अब भी लग रहा है कि आदित्य के साथ अच्छी-खासी परेशानी रही।

आदित्य की अवस्था इस समय 25 वर्ष है। मेरी अवस्था 65 वर्ष और मेरी उत्तमार्द्ध की 56 वर्ष है। आयु का यह अन्तर ही आदित्य की (और उतनी ही हमारी भी) परेशानी का कारण बना रहा। अठारह घण्टों में आदित्य के और हमारे बीच अठारह वाक्यों का भी सम्वाद नहीं हुआ। यहाँ, घर में हम पति-पत्नी ही थे, आदित्य के किसी सम-आयु का होना तो दूर की बात रही, कोई तीसरा भी नहीं था। पचीस वर्षीय नौजवान की ‘कम्पनी’ के लिए बस मैं, पैंसठ वर्षीय एक बूढ़ा ही था। हम दोनों बात करते तो क्या करते? आयु का अन्तर पाटने का मैंने यथासम्भव प्रयत्न किया तो सही किन्तु उसकी भी एक सीमा थी। आदित्य को, शुक्रवार को प्रदर्शित हुई फिल्म पर बात करनी थी और मुझे इसका कोई अता-पता ही नहीं था। मैं स्वयम् को अपनी अवस्था के अन्य लोगों की अपेक्षा तनिक अधिक बेहतर स्थिति में मानता हूँ क्योंकि बीमा एजेन्सी के कारण मुझे प्रतिदिन अनेक लोगों से मिलना पड़ता है और प्रायः आज के अधिकांश विषयों पर बात करनी पड़ती है। इसके बाद भी मैंने अनुभव किया कि आदित्य से बात करने के लिए मेरे पास कुछ नहीं था।

यह तो एक नमूना है। केवल सम्वादहीनता का। अन्य बातें जैसे साथ बैठना, साथ भोजन करना, पाठन-रुचि जैसी अनेक बातें रहीं जिन पर आदित्य और मैं, एक ही कमरे में होते हुए भी अलग-अलग टापू बने रहे। आदित्य कभी अन्दरवाले कमरे में जाता तो कभी आगेवाले कमरे में आता। घर ही घर के इस आवागमन के कारण ही वह तनिक व्यस्त हो सका होगा। अन्यथा, उसने समय कैसे काटा होगा - इस बात का जवाब मुझे अब तक नहीं मिल पा रहा है।

अब घर-घर में यही स्थिति है। बच्चे या तो हैं नहीं और हैं तो या तो अपनी पढ़ाई में लगे हुए हैं या फिर पढ़-लिख कर अपने-अपने काम-धन्धे के कारण बाहर हैं। घर में केवल माँ-बाप हैं। अकेले रह रहे बूढ़े चाहते हैं कि बच्चे आएँ, उनके पास बैठें, बतियाएँ। किन्तु बूढ़ों के पास बतियाने के नाम पर ‘अपनी हाँकने’ या फिर उपदेश और बहुत हुआ तो शिकायत के अतिरिक्त शायद ही कुछ और हो। वे सुनाने को आतुर और बच्चों की परेशानी यह कि उनके पास भी काफी-कुछ होता है सुनाने को। उनकी परेशानियाँ, बूढ़ों की परेशानियों से कम नहीं। उन्हें सुनना तो दूर, उन परेशानियों की कल्पना भी बूढ़े नहीं कर पाते। उनके लिए भी यह सम्भव नहीं। ऐसे में, दूसरे बच्चे तो दूर रहे, अपने ही बच्चे भी कतराने लगें तो आश्चर्य क्या?

यदि मैं अपनी गली को आधार बना कर बात करूँ तो अब चारों ओर बूढ़े ही बूढ़े नजर आते हैं और सबके सब खुद को उपेक्षित अनुभव कर रहे, अपनी-अपनी सुनाने को उतावले और स्थिति यह कि सुननेवाला कोई नहीं।

पता नहीं क्यों मैं यह सब कह बैठा - यह भली प्रकार जानते हुए भी कि यह सब केवल मेरे साथ नहीं हो रहा, सबकी, घर-घर की कहानी है।

ऐसी कहानी, जिसे श्रोताओं की तलाश है।

अल्फाँज़ो : सरोजकुमार

बन्ने मियाँ के यहाँ
रत्नागिरि का
हापुस आम अल्फाँज़ो
इस बार गजब का आया!



पर मँहगा काफी था
खाने की ललक भी कम नहीं!
मित्र के साथ पहुँचा
भाव पूछा, बहस की
सौदा नहीं पटा!
बन्ने मियाँ ने कहा-
बाबूजी,
जितने की खरीद रहे हैं
उससे कम में आप चाहें,
सरासर ना-इंसाफी है
मुझ पर भरोसा कीजिए!


बुझा-बुझा लौट पड़ा
मित्र को समझाते हुए
कि इन लोगों को
राष्ट्रीय धारा से जोड़े बिना
अपन अल्फाँज़ो नहीं खा पाएँगे!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

बगल में छोरा याने इस उम्र में सीखना

कल का सवेरा वल्कल के फोन से हुआ। मेरी, कलवाली  पोस्ट पढ़ते ही उसने फोन किया था। बोला - ‘‘पापा! फोन में आप ‘गेलेरी’ में जाकर, अपना मनपसन्द फोटो छाँटकर, जरा ध्यान से, फोन पर, फोटू के आसपास देखना। आप फोटो को फोन से ही सीधे खुदकी आई डी पर फोटो को ई-मेल से अपने लेप टॉप पर ले सकते हो। डोरी की जरूरत नहीं पड़ेगी।’’ उसने कहा तो वही जो मैंने लिखा और आपने पढ़ा। किन्तु मैंने सुना - ‘क्या पापा! मैं तों आपकी समझ पर भरोसा करता हूँ और आप हैं कि इतना भी नहीं सोच/कर पाए?’ सुबह-सुबह का समय तनिक अधिक व्यस्ततावाला होता है, सो कहा - ‘ठीक है। मैं अपनी सुविधा से देख लूँगा और फोटू निकाल पर पोस्ट पर चिपका दूँगा।’


दोपहर में, बीमा दफ्तर में बैठे-बैठे, फोन को टटोला, ‘सेण्ड’ विकल्प का उपयोग कर, खुद की ई-मेल आई डी पर दोनों फोटू भेज दिए। भेज तो दिए किन्तु मालूम नहीं हो पाया कि वास्तव में गए भी या नहीं? आँखों को, ‘योर मेसेज हेज बीन सेण्ट’ की आदत जो पड़ी हुई है! रात होते-होते मैंने अपनी डाक-पेटी खोली तो पाया कि दोनों फोटू आ गए हैं। जी खुश हो गया। फोन से, डोरी के बिना, अपने लेप टॉप पर फोटू हासिल करना सीख लिया था मैंने। यह अलग बात रही कि मुट्ठी में सुविधा थी और मुझे पता ही नहीं था। छोरा बगल में था और मैं सारे नगर में ढिंढोरा पीट चुका था। पैंसठ की उम्र में मैं सचमुच में किसी बच्चे की तरह ही खुश हुआ और इस डर से कि इस खुशी का असर कम न हो जाए, तत्काल ही वल्कल को बताया तो वह और अधिक खुश हुआ। बोला - ‘चलो! अच्छा हुआ। अब आप ज्यादा आसानी से काम कर पाएँगे।’

वल्कल की अनुशंसा पर ही मैंने नया, मँहगा (वास्तव में मँहगा, मुझ जैसे व्यक्ति की घामड़-देहाती मानसिकता और औसत मध्यमवर्गीय आर्थिक हैसियत से कहीं ज्यादा मँहगा) फोन खरीदा है - सेमसंग, गेलेक्सी प्लस। जब-जब भी मैं इसके मँहगे होने की बात करता हूँ तो साथी, नौजवान बीमा एजेण्ट मुझ पर हँसते हैं - ‘क्या दादा? यह मँहगा है? अरे! यह तो इस रेंज का शुरुआती कीमतवाला फोन है - सबसे सस्ता।’ मैं चकित हो जाता हूँ। इतने मँहगे और ढेर सारी सुविधाओं/व्यवस्थाओंवाले फोन की आवश्यकता नहीं है मुझे। मेरा काम तो, मोबाइल फोन की पहली पीढ़ी के शुरुआती संस्करण से ही चल जाता है। किन्तु वल्कल ने बताया कि इस फोन पर मैं अपने सारे ‘अन्नदाताओं’ के पॉलिसी रेकार्ड रख सकूँगा तो मैंने इसे खरीदने में पल भर की भी देर नहीं लगाई। यह मेरे लिए, ‘ग्राहक सेवा का औजार’ बनेगा, विलासिता की वस्तु नहीं।

फोन लेने के बाद जब मैं और वल्कल पहली बार मिले तो उसने मुझे इसके विभिन्न, उपयोगी प्रावधानों/व्यवस्थाओं/सुविधाओं की जानकारी दी और मुझसे ‘कर के बताइए’ वाले ‘अभ्यास’ भी करवाए। वल्कल ऐसा ही करता है। जब भी मिलता है, उसकी इच्छा रहती है कि मैं, कम्प्यूटर तकनीक के मामले में कुछ न कुछ नया सीखूँ। ऐसा करते समय मुझे वह हर बार एक ‘धैर्यवान, धीर-गम्भीर अध्यापक’ अनुभव हुआ। जब भी छूटा, मेरा ही धैर्य छूटा। ‘बस! आज बहुत हो गया भैया! नहीं सीखना मुझे अब और कुछ। मेरी उम्र नहीं है यह सब सीखने की और तू है कि मुझे बच्चे की तरह समझाए जा रहा है! अब मुझसे नहीं बैठा जाता।’ कह कर (वस्तुतः ‘झल्लाकर’) मैं ही उठा उसके पास से हर बार। मेरी शकल देख कर वह मुस्कुरा देता है, कुछ इस तरह मानो कह रहा हो - ‘सीखने के लिए बच्चा बनना ही पड़ता है।’ या फिर - ‘बच्चा ही सीख सकता है।’ उसकी यह नजर मुझे पेरशान कर देती है। मैं झेंप जाता हूँ।

तथागत, मेरा छोटा बेटा, इसके ठीक उलट है। मुझे सीखाने के लिए उसे खुद पर काबू किए रखना पड़ता है। दो मिनिट हुए तो बहुत हो गए। कुर्सी खिसका कर उठ खड़ा होता है - ‘क्या पापा? आप तो कुछ भी नहीं समझते हो। छोटी सी तो बात है! आप भैया से समझ लेना।’

दोनों भाइयों में नौ वर्षों का अन्तर है। हैं तो दोनों एक ही पीढ़ी के किन्तु तकनीकी उन्नति की तेज गति के इस समय में, दोनों के बीच आयु का यह अन्तर कुछ ऐसा लगता है मानो तथागत, वल्कल का छोटा भाई नहीं, वल्कल के बादवाली तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधि हो। वल्कल कहता भी है - ‘मेरी पढ़ाई हो गई, नौकरी लग गई। अब मैं सीख नहीं रहा, काम कर रहा हूँ जबकि तथागत के पास तो पल-पल की, नई से नई जानकारियाँ हैं।’ गोया, पीढ़ियों का निर्धारण अब आयु के मान से नहीं, तकनीक के ज्ञान से होगा।

कुछ ऐसी ही, समझी-नासमझी की स्थितियों में, चाहे-अनचाहे, कुछ न कुछ सीख रहा हूँ (या कि सीखना पड़ रहा है) इस उम्र में।

आखिरी उम्र में मुसलमान बनना शायद यही होता है।


विश्वासघात : सरोजकुमार

मैंने नदी में जाल फेंका,
मछलियाँ पकड़ने को,
जब समेटा
खाली था!
बार-बार फेंका
बार-बार खाली!


मुझे बड़ी कोफ्त हुई
कि धोखेबाज मछलियाँ फँस नहीं रही हैं
और लहरे हैं, कि
मुझ पर हँस रही हैं!


मछलियों को
उनके इस व्यवहार पर मैंने
ओछी टुच्ची गालियाँ दीं!


नदी पर भी क्रोध आया-
साथ नहीं देती है!
दुकानदार पर भी मैं चिढ़ा-
बड़े-बड़े चौखानों वाला
जाल दिया हरामी ने!
उन मछली चोरों को शाप दिया
जो घुप्प अँणेरों में
मछलियाँ ले जाते हैं!


फिर भी मुझे
सबसे ज्यादा गुस्सा
मछलियों पर ही आया
और आता रहा!
मुझे उन पर ही सबसे ज्यादा भरोसा था
कि सहयोग करेंगी-
फँसेंगी!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

ज्ञानजी आए मेरे गाँव

यह ईश्वरेच्छा ही थी कि मैं ज्ञानजी (याने, अग्रणी और स्थापित ब्लॉगीया श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय) से ‘अब’ मिलूँ। ‘अब’ याने, 16 जुलाई 2012 की शाम को। अन्यथा कोई कारण नहीं था कि ज्ञानजी के,  लगभग डेड़ दशक के रतलाम आवास के दौरान उनसे मिलना नहीं हुआ।

मैं तो उनके बारे में थोड़ा बहुत जानता था किन्तु वे मेरे बारे में नहीं जानते थे। ‘ब्लॉग’ के कारण ही उन्होंने फौरी तौर पर मेरे बारे में जाना और जब जाना तो तनिक अचरज से पूछा - ‘आप रतलाम से? फिर अपना मिलना क्यों नहीं हुआ?’ जवाब में मैंने कहा था - ‘तब आपसे मिलना आसान कहाँ था?’ तब वे एक ‘कड़क’ अफसर के रुप में पहचाने जाते थे और मुझे कभी ऐसा कोई काम नहीं पड़ा कि उनके दफ्तर जाना पड़े। अब सोचता हूँ, ईश्वर चाहता था कि ‘तब’ हम दोनों नहीं मिलें। मिल लेते तो यह पोस्ट नहीं लिखी जाती। उनका ‘कड़कपन’ और मेरा ‘अक्खड़पन’ निश्चय ही, कहीं न कहीं ऐसा टकराता कि हम दोनों एक दूसरे को प्रेमपूर्वक शायद ही याद कर पाते और मिलने पर इस तरह गले मिल कर नहीं मिलते जैसे कि 16 जुलाई की शाम को मिले। इसीलिए शुरु में कहा कि ज्ञानजी से मेरा मिलना ‘अब’ हो, यह ईश्वरेच्छा ही थी। और अब यह भी कह लेने दीजिए कि ईश्वर कभी बुरा नहीं करता। जो भी करता है, अच्छा करता है और अच्छे के लिए ही करता है।

मैं ज्ञानजी का लगभग नियमित पाठक हूँ। उनका लेखन मुझे, ‘डायरी लेखन’ की लुप्त होती जा रही विधा की तरह लगता रहा। कुछ ऐसा कि मानो उन्हें पढ़ते हुए उनके साथ ही चला जा रहा हो या कि उन्हें डायरी लिखते हुए देखा जा रहा हो। अपने आसपास के धार्मिक-स्थलों, लोक-विश्वासों और ‘आबादी’ को ‘लोक’ में बदलनेवाले गुमनाम चेहरों/व्यक्तित्वों का अभिलेखीकरण (डाक्यूमेण्टेशन) करना लगता रहा मुझे ज्ञानजी का लेखन। इसकी रोचकता और वर्णन-प्रवाह यदि इसे ‘आज’ ‘अनिवार्यतः पठनीय’ बनाता लगता है तो भविष्य के जिज्ञासु पाठकों/अध्येताओं के लिए लिए ‘अत्यधिक उपयोगी विशाल सन्दर्भ ग्रन्थ’ अनुभव होता है। इन्हीं सब बातों के कारण ज्ञानजी का लेखन मुझे तनिक अतिरिक्त रूप से आकर्षित करता रहा और इसीलिए मैं उनका नियमित पाठक बना और बना हुआ हूँ।

उनसे मिलने की इच्छा तो थी और यह इच्छा अचानक ही कल पूरी हो गई। रविवार, 15 जुलाई की रात कोई साढ़े दस-पौने ग्यारह बजे हाशमीजी ने फोन पर ज्ञानजी के रतलाम आगमन की सूचना दी और कहा - ‘कल उनसे मिलने चलते हैं और लंच उनके साथ ही लेंगे।’ मेरी अपनी पारिवारिक बाध्यताओं के कारण, मैं पौने ग्यारह बजे से पहले उनसे मिल नहीं सकता था। सो मैंने हाशमीजी से निवेदन किया कि वे पहले पहुँच जाएँ। पौने ग्यारह बजते-बजते मैं भी पहुँच जाऊँगा। किन्तु ‘ईश्वरेच्छा’ थी कि मैं उनसे शाम को ही मिलूँ।

साढ़े दस बजे के आसपास मैं घर से निकलने की तैयारी कर रहा था कि ज्ञानजी का फोन आया। कह रहे थे कि पूर्व निर्धारित व्यस्तताओं के चलते उन्हें तत्काल निकलना पड़ रहा है इसलिए मैं अभी नहीं पहुँचूँ। उन्होंने कहा - ‘शाम को फ्री होते ही मैं आपको खबर करूँगा।’ मालूम हुआ कि हाशमीजी वहीं बैठे थे।

शाम लगभग साढ़े पाँच बजे ज्ञानजी का फोन आया - ‘मैं मुकाम पर पहुँच गया हूँ।’ मैंने पूछा - ‘मैं कब आऊँ?’ जवाब मिला - ‘कभी भी आ जाईए।’ कपड़े बदलते-बदलते सोचा, हाशमीजी से पूछ लूँ। उनसे बात हुई तो  मालूम हुआ कि ज्ञानजी से एक बार फिर मिलने की उनकी ‘बेकरारी’, उनके घर आए कुछ मेहमानों के कारण ‘बेबसी’ में बदल गई है। सो, मैं अकेला ही पहुँचा।

रतलाम रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नम्बर चार से लगी साइडिंग पर ज्ञानजी का ‘निरीक्षण यान’ (सैलून) खड़ा था। यान के एक छोर पर बैठे परिचर को मैंने अपना नाम बताया। मुझे प्रतीक्षा करने की कह कर वह अन्दर गया और कुछ ही पलों में, यान का मध्यवर्ती दरवाजा खोल कर मुझे आमन्त्रित किया। दरवाजे में घुसा तो मैंने खुद को ज्ञानजी के ‘ड्राइंग रूम’ में पाया। मैं सोफे पर टिका ही था कि ज्ञानजी प्रकट हुए - दोनों बाँहें फैलाए हुए। हम दोनों गले मिले। हाथ मिलाया। हम दोनों मिले, रतलाम में ही मिले लेकिन उनके रतलाम आवास के दौरान नहीं। तब मिले जब वे खुद रतलाम के अतिथि बने हुए थे।

वे ‘प्रसन्न वदन’ तो थे किन्तु पहली ही नजर में मुझे ‘क्लान्त’ लगे। जैसा कि मैंने अनुमान लगाया था, स्वास्थ्य उन्हें सामान्य नहीं होने दे रहा था। पहली बार आमने-सामने मिलनेवाले दो अनजान लोगों की तरह ही हम दोनों के पास कहने-सुनने के लिए कोई खास विषय नहीं थे किन्तु ऐसा भी नहीं हुआ कि हम शुरुआत ही मौसम की बातों से करते। श्री प्रवीण पाण्डेय को ब्लॉग जगत में लाने के लिए मैंने उन्हें विशेष धन्यवाद दिया। बिना माँगी सलाह दी कि वे अपने लिखे को पुस्तकाकार में प्रकाशित करने पर विचार करें। उन्होंने ‘तत्क्षण’ (जिसे अंग्रेजी में ‘विदाउट थॉट’ कहते हैं) उत्तर दिया - ‘प्रिण्ट में मेरी रुचि नहीं है।’ उनके लेखन को लेकर मैंने अपनी राय उन्हें बताई और कहा कि इलाहाबाद-बनारस अंचल में ‘अध्ययन और अनुसन्धान’ एक परम्परा है और इलाहाबाद के जिन सन्दर्भों का वे ‘डायरी नोट्स’ की शकल में अभिलेखीकरण कर रहे हैं, वह ‘अध्येताओं’ के लिए आधार-भूमि का काम करेगा। मैंने यह भी कहा कि हम लोग भले ही ‘नेट-नेट’ करते रहें किन्तु हकीकत यह है कि आबादी का अल्पांश ही अब तक ‘नेट’ से जुड़ा हुआ है और अधिसंख्य लोग आज भी ‘प्रिण्ट’ के आदी हैं और उसी पर ही निर्भर भी। इसलिए भी उन्हें मेरी बात पर विचार करना चाहिए। मैंने कहा - ‘आप भले ही समझ रहे हों कि आप इलाहाबाद को लिख रहे हैं किन्तु हकीकत यह है कि इलाहाबाद आपके जरिए खुद बोल रहा है।’ उन्होंने हामी तो भरी  किन्तु ऐसी और इस तरह कि इंकार ही सुनाई दिया।                                      


                                                                                                                 पाण्‍डे दम्‍पति
ज्ञानजी का डेड़ दशक का रतलाम आवास, मेरे पहुँचने से पहले ही सैलून में अपना संसार बसा चुका था। दो लोग तो पहले से प्रतीक्षारत थे ही, मेरे पहुँचने के बाद भी लोगों का आना बराबर बना रहा। मेरे सिवाय कोई भी खाली हाथ नहीं था। मित्र से आगे बढ़कर मेरे संरक्षक बन चुके, रेलवे के हेण्डलिंग   काण्ट्रेक्टर सुभाष भाई को जब मैंने ज्ञानजी के रतलाम में होने की जानकारी दी तो वे परेशान हो गए। वे भी मिलना चाह रहे थे किन्तु पूर्व निर्धारित व्यस्तताओं ने उन्हें जकड़ रखा था। उनके नमस्कार और क्षमा-याचना मैंने ज्ञानली को सौंपी ही थी कि उनका सन्देशवाहक पहुँच गया। रतलाम के पर्याय पुरुष बन चुके डॉक्टर जयकुमारजी जलज की पुस्तक ‘भगवान महावीर का बुनियादी चिन्तन’ की दो प्रतियाँ सुभाष भाई ने ज्ञानजी के लिए पहुँचाई थीं। इसी बीच ज्ञानजी की उत्तमार्द्ध रीताजी भी ड्राइंग रूम में आ चुकी थीं। उनके पास कहने को इतना कुछ था कि हममें से किसी को बोलने की आवश्यकता ही नहीं हो। विगलित होने की सीमा तक वे बार-बार कह रही थीं - ‘रतलाम ने हमें जो दिया, उसे भुलाया नहीं जा सकता।’ वे यही रट लगाए हुए थीं और मैं हर बार टोक रहा था - ‘आपने सद्भाव के बीज बोए थे, उसी की फसल के ढेर आपके आँगन में जमा हुए।’ मिलनेवाला जो भी आ रहा था, ज्ञानजी के सहयोग, संरक्षण, उपकार गिना रहा था। एक सज्जन ने बताया (उनका नाम मुझे भटनागर साहब याद आ रहा है) कि वे इन्दौर से आए थे और अचानक ही उन्हें ज्ञानजी के रतलाम में होने की जानकारी मिली तो वे भाग कर ‘सैलून’ पर पहुँचे। बात करने की उनकी प्रत्येक कोशिश गले की भर्राहट में बदलती रही। आँसू भरी उनकी बातों का निष्कर्ष था कि ज्ञानजी के कारण ही उनके परिवार का भविष्य सुधर गया, उनके बच्चे समुचित रूप से उच्च शिक्षित हो सके। साफ लग रहा था कि उनका मन जाने का बिलकुल ही नहीं था किन्तु जाना उनकी मजबूरी थी। जाते-जाते रुँधे कण्ठ से बोले - ‘सर! आज तो मुझे अचानक मालूम हो गया। अगली बार आप जब भी पधारें, मुझे अलग से खबर जरूर कीजिएगा।’ कह कर वे रीताजी की ओर मुखतिब हो गए। बोले - ‘मैडम! आप नहीं जानतीं, सर ने मेरे लिए क्या किया?’ और जाने के लिए खड़े हुए भटनागरजी ने खड़े-खड़े ही एक बार फिर वे सारी बातें कहीं जो वे पहले रुक-रुक कर कह पाए था। यह एक नमूना था, ज्ञानजी की ‘अर्जित सम्पदा’ का।

लोगों का आना-जाना बना हुआ था। मुझसे बाद में आए लोग, मुझसे पहले, मेरे सामने ही विदा हो रहे थे लेकिन मैं सोफे में धँसा बैठा था - जस का तस। रीताजी के मुँह से रतलाम के बारे में सुनना मुझे अच्छा लग रहा था। कैसे उनके किराना व्यापारी ने उन्हें पहली ही नजर में पहचान लिया, कैसे जलाराम स्वीट्सवाला उन्हें देखकर खुशी के मारे अकबका गया, ऑरो आश्रम में पहुँचने पर कैसे उन्हें सब कुछ वैसा का वैसा ही लगा आदि-आदि। लग रहा था, वे कुछ ही पलों में समूचे डेड़ दशक के प्रत्येक पल को एक बार फिर जी लेना चाह रही हों - किसी स्कूली बच्चे की तरह। इस दौरान वे, स्वल्पाहार की व्यवस्था कर सुघढ़ और जिम्मेदार गृहिणी की भूमिका भी निभा रही थीं।
समय चक्र भले ही अविराम चलता रहे किन्तु समय के अधीन लोगों को तो विराम लेना ही पड़ता है। सो, मुझ ‘बतरस के व्यसनी’ ने भी विराम लिया। पाण्डेय दम्पति से विदा ली। ज्ञानजी से अनुरोध किया कि वे खुद के लिए न सही, ब्लॉग जगत के लिए स्वस्थ रहें। (इस बारे में वे मुझे भरपूर सतर्क लगे। इसीलिए, सुबह हाशमजी द्वारा लाई गई, रतलाम की प्रख्यात ‘कारू मामा की कचोरी’ को उन्होंने हाथ भी नहीं लगाया। कहा कि वे इसके ‘जायके का आनन्द लेने की जोखिम’ इलाहाबाद पहुँच कर ही उठाएँगे।) सैलून के दरवाजे तक आकर दोनों पति-पत्नी ने मुझे विदा किया।




मुझे भूखा रख दिया दोनों ने

बात पहले ही काफी लम्बी हो गई है किन्तु दो ‘बड़े-बूढ़े ब्लॉगियों’ द्वारा मुझ ‘बच्चा ब्लॉगीया’ पर किया गया अत्याचार परोसने से खुद को नहीं रोक पा रहा हूँ।

रविवार की रात को हाशमीजी ने जब कहा कि सोमवार को लंच ज्ञानजी के साथ लेंगे तो मैंने तत्क्षण ही मेरी उत्तमार्द्ध को कहा - ‘कल मेरा भोजन मत बनाइएगा। ज्ञानजी के साथ भोजन होगा।’ उन्होंने मेरा कहा माना। मेरा भोजन नहीं बनाया। और जैसा कि मैंने कहा, घर से निकलने से ठीक पहले ज्ञानजी का सन्देश मिला कि वे तो निकल रहे हैं और शाम को ही मिलेंगे। हाशमजी वहीं बैठे थे। उनसे पूछा - ‘अब लंच का क्या?’ अत्यधिक संकोचग्रस्त हाशमीजी बोले - ‘अब मैं क्या कहूँ? सारी बात तो आपके सामने है!’ और इस तरह मेरे दानों ‘वरिष्ठों’ ने अनजाने ही मेरा ‘श्रावण सोमवार व्रत’ करवा दिया।

यह विचित्र कष्ट
मेरे बड़े बेटे ने मुझे मँहगा मोबाइल दिलवाया हुआ है। उसी से मैंने पाण्डेय दम्पति के चित्र लिए और ज्ञानजी के एक मिलनेवाले से मेरा और ज्ञानजी का चित्र खिंचवाया। किन्तु मेरा अभाग्य कि मोबाइल को कम्प्यूटर से जोड़नेवाली डोरी मुझे मिल ही नहीं रही। इसलिए, वे चित्र मैं इस समय यहाँ नहीं दे पा रहा हूँ। हाशमीजी ने फेस बुक पर, अपने पन्ने पर जो चित्र लगाया है, वही मैंने भी उपयोग में लिया है।

लड़की : सरोजकुमार

भीतर-भीतर भीगी लड़की
ऊपर कितनी सख्त है?


सबकी नजर बचाकर वो
रखती है सब पर कड़ी नजर
सारे डर वो लाँघ चुकी
बस एक अकेला अपना डर!


जिसे बहारों ने लूटा हो
ऐसा एक दरख्त है!


अपनी परछाईं पर रीझी
फिदा इस कदर अपने पर,
दाँव लगा देगी वो, सारा
जीवन अपने सपने पर!


सबसे माया-मोह छोड़
वह अपने पर अनुरक्त है!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

आगत की आहट

मार्च में सम्पन्न हुए, उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में हुई, काँग्रेस की करारी हार पर टिप्पणी करते हुए सोनिया गाँधी ने कहा था - ‘हमारी समस्या है......बहुत सारे नेताओं का होना।’
कल मुझे लगा, यह समस्या धीरे-धीरे तमाम राजनीतिक दलों और अधिकांश सगठनों को अपने लपेटे में लेती जा रही है - नेताओं की भीड़ और कार्यकर्ताओं की गुमशुदगी।

राष्ट्रीय स्तर के एक प्रमुख राजनीतिक दल के एक प्रकोष्ठ के स्थानीय संयोजक कल मिले तो चिन्तित थे। उन्हें अपने प्रकोष्ठ की बैठक करनी थी किन्तु उन्हें समुचित सहयोग नहीं मिल पा रहा था। उपस्थितों की संख्या अधिकतम तीस होनी थी किन्तु इतनी छोटी बैठक की व्यवस्था भी नहीं कर पा रहे थे। जेब में इतनी रकम थी नहीं कि किसी मझौले स्तर की होटल में भी बैठक आयोजित कर लें और किसी सार्वजनिक स्थल पर या किसी  सराय/धर्मशाला में कर पाना भी मुमकिन नहीं हो पा रहा था क्योंकि वहाँ व्यवस्थाएँ और भाग-दौड़ करने के लिए न्यूनतम कार्यकर्ता भी उनके पास नहीं थे।

वे बड़े परेशान थे। राजनीतिक स्तर इतनी हैसियत या कि धाक नहीं बनी है कि प्रशासकी सहायता प्राप्त कर सकें। किसी से चन्दा लेकर उपकृत होने से भी बचना चाह रहे थे - पता नहीं आज के चन्दे की वसूली कल किस तरह से कर पाएँगे? और यह भी पता नहीं कि चन्दा देनेवाले का काम करवा सकें, इस हैसियत में कल रहें भी या नहीं? खुद के परिवार में भी इतने सदस्य नहीं कि व्यवस्थाओं हेतु भाग दौड़ कर सकें। इधर, बैठक करनी भी जरूरी।

उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था। मुझसे सलाह माँगी तो मेरे पास भी कुछ नहीं था। यही कहा कि या तो बैठक करें ही नहीं या फिर पद त्याग कर दें। उनसे यह भी नहीं हो पा रहा।

अब मुझे जिज्ञासा हो गई है। यह देखना रोचक होगा कि वे बैठक कर पाते भी हैं या नहीं और यदि कर पाते हैं तो कैसे?

बात बहुत ही छोटी है किन्तु मुझे इतनी छोटी भी नहीं लग रही कि ध्यान से उतर जाए।

शब्द तो कुली हैं: सरोजकुमार

हर बीस कोस पर
बदल जाती है भाषा,
इधर, हर चौबीस घण्टे में
बदल जाते हैं विचार!
ऐबों की तरह भाने लगते हैं
न्ए तर्क!
धीरे-धीरे ऐसे बदला जाता हूँ
कि जो था
सोच नहीं पाता, कि वो था!


क्या विचार को पकड़कर
बैठ जाऊँ?
जहाज का लंगर बनकर
इठलाऊँ?
दाद नहीं मिलती विचार-
परायण को,
जहाज को क्यों न छोड़ दूँ
समुन्दर में
विजय यात्रा के प्रयाण में?


शब्द तो कुली हैं विचरों के
कुलियों के मुँह, मैं क्यों लगूँ,
कुलियों के पारिवारिक झगड़े
मैं क्यों लड़ूँ?
कुली को भी क्यों लेना चाहिए
मेरी यात्रा में रुचि?
क्यों पड़ना चाहिए फर्क
कि वो मेरी पेटी लादे है
या होल्डाल?


और यह भी मेरी चिन्ता है
कि मेरी पेटी में
क्या-क्या बन्द है
और होल्डाल में
क्या बँधा है?

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

अब चेक नहीं भेजेगी एल. आई. सी.

यदि आपने या आपके परिजनों ने या आपके परिचितों/मित्रों ने एल. आई. सी. की पालिसी/पालिसियाँ ले रखी हैं तो इसे ध्यान से पढ़िएगा और तदनुसार ही कार्रवाई कीजिएगा और ऐसा ही करने के लिए दूसरों से भी कहिएगा क्योंकि अब एल. आई. सी. आपको भुगतान की जानेवाली रकम चेक से नहीं भेजेगी। भारतीय रिजर्व बैंक के आदेशानुसार अब एल. आई. सी. आपकी रकम सीधे आपके बैंक खाते में जमा करेगी।

भारतीय रिजर्व बैंक ने एल. आई. सी. (और ऐसी लगभग प्रत्येक संस्था) के लिए अनिवार्य कर दिया है कि वह अब एन. ई. एफ. टी. (नेशनल इलेक्ट्रानिक फण्ड ट्रांसफर) प्रणाली से ही अपने ग्राहकों को भुगतान करे।

इसके लिए आपको एक मेण्डेट फार्म एल. आई. सी. के उस शाखा कार्यालय में प्रस्तुत करना पड़ेगा जहाँ से आपकी पॉलिसी/पॉलिसियाँ सेवित (सर्व) हो रही हैं। अर्थात् जिस शाखा कार्यालय से आपको, समय-समय पर आपकी पॉलिसी/पॉलिसियों के बारे में विभिन्न सूचनाएँ मिल रही हैं।

आपकी सुविधा के लिए इस मेण्डेट फार्म की स्केन प्रति यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। इन दिनों एल. आई. सी. अपने ग्राहकों को जो प्रीमीयम नोटिस भेज रही है, उसके पीछे भी यह फार्म छपा हुआ है। प्रत्येक ग्राहक को, प्रत्येक पॉलिसी के लिए अलग-अलग मेण्डेट फार्म, अलग से भी भेजा जा रहा है। इसके अतिरिक्त, एल. आई. सी. की प्रत्येक शाखा में यह मेण्डेट फार्म सहजता से उपलब्ध है।

इस मेण्डेट फार्म में आपको अपना पॉलिसी नम्बर, अपना नाम, अपने बैंक का नाम, पता, खाते का प्रकार (यथा, बचत खाता/चालू खाता), आपका खाता नम्बर, आपके बैंक का (जिस शाखा में आपका खाता  है, उस शाखा का) आई. एफ. एस. सी. कोड अनिवार्यतः देना है। बेहतर होगा कि आप अपना मोबाइल नम्बर और ई-मेल पता भी दे दें जिसके लिए समुचित प्रावधान मेण्डेट फार्म में किया गया है।

यह फार्म पूरी तरह से भर कर, एल. आई. सी. की सम्बन्धित शाखा में (अर्थात् जहाँ से आपकी पॉलिसी/पॉलिसियाँ सेवित हो रही हैं) प्रस्तुत कर दें। आपका मेण्डेट फार्म प्राप्त होने के कुछ दिनों बाद, एल. आई. सी. का सम्बन्धित शाखा कार्यालय आपको, आपके मेण्डेट फार्म का पुष्टि-पत्र भेजेगा जिसमें आपका/आपके पॉलिसी नम्बर तथा आपके द्वारा दिए गए बैंक ब्यौरों की पुष्टि की जाएगी। कृपया इन ब्यौरों को ध्यानपूर्वक जाँच लें और यदि कोई गलती/विसंगति हो तो तत्काल ही, व्यक्तिशः जाकर इसे ठीक करवा लें। आपकी छोटी सी चूक आपके भुगतान में विलम्ब का कारण बन सकती है। इसके बाद, आपको जब भी एल. आई. सी. से कोई भुगतान मिलना होगा, वह सीधे आपके बैंक खाते में जमा कर, आपको पत्र द्वारा सूचित कर दिया जाएगा।

इस बारे में निम्नांकित बातों पर ध्यान देंगे तो आपको अधिक सुविधा होगी -

- आपके खाता नम्बर की तथा बैंक ब्यौरों की पुष्टि के लिए आपको आपके बैंक का अभिलेखीय प्रमाण प्रस्तुत करना होगा। इसके लिए बेहतर होगा कि आप अपने खाते का एक चेक निरस्त करके मेण्डेट फार्म के साथ लगा दें। किन्तु यह तभी उपयोगी होगा जब चेक पर आपका नाम छपा हुआ हो। कई बैंकों में अभी भी पुरानी चेक बुकें चल रही हैं जिन पर खातेदार का नाम नहीं है। ऐसे चेकों पर बैंक का आई. एफ. एस. सी. कोड नहीं होता। यह कोड उन्हीं चेकों पर छपा दिखाई दे रहा है जिन पर खातेदार/खातेदारों का/के नाम छपा/छपे हुए हैं। ऐसी चेक बुक न होने की दशा में आपकी पास बुक के उस पन्ने की फोटो प्रति लगाएँ जिस पर आपका नाम, खाता नम्बर और बैंक के ब्यौरे छपे होते हैं। मुमकिन है कि पास बुक मेें भी बैंक का आई. एफ. एस. सी. कोड अंकित नहीं हो। उस दशा में बेहतर होगा कि आप अपने बैंक (के शाखा कार्यालय) से उसका यह कोड प्राप्त कर खुद ही अपनी पास बुक पर लिख लें और फिर फोटो प्रति करवाएँ। एन. ई. एफ. टी. व्यवस्था लागू होने के कारण आपको इस कोड की आवश्यकता अब अनेक बार पड़ेगी और पड़ती रहेगी।

- यदि आपने एकाधिक पॉलिसियाँ ले रखी हैं तो समस्त पॉलिसियों के नम्बर इस फार्म में उल्लेखित करें। यदि जगह कम पड़े तो सारी पॉलिसियों की सूची अलग कागज पर बना कर संलग्न करें। ऐसा बिलकुल न करें कि कुछ पॉलिसियों के नम्बर तो आप फार्म में लिख दें और कुछ पॉलिसियों के नम्बर अलग कागज पर लिख कर संलग्न करें। सूची अलग से संलग्न करने की दशा में, फार्म में पॉलिसी नम्बर लिखने के प्रावधानवाले स्थान पर ‘विस्तृत सूची संलग्न है’ अवश्य अंकित करें।

- यदि आपकी पालिसी/पॉलिसियाँ अगल-अलग शहरों में या आपके नगर में ही, अलग-अलग शाखाओं से सेवित हो रही हैं तो चिन्‍ता न करें। देश भर में,एल आई सी की किसी भी शाखा में आप अपनी सारी पॉलिसियों का पंजीयन करवा सकते हैं चाहे वह पॉलिसी किसी भी शाखा से सेवित क्‍यों नहीं हो रही हो।
- खाता नम्बर और आई. एफ. एस. सी. कोड हमेशा दाहिनी ओर से बाँयी ओर लिखें। अर्थात् सबसे अन्तिम अंक से शुरु करते हुए सबसे पहले अंक तक आएँ ताकि यदि कोई खाना खाली रहे तो पहले वाला/वाले खाना खाली रहे। इससे, शाखा कार्यालय को की-इनिंग में तो सुविधा होगी ही, गलती होने की आशंका न्यूनतम रहेगी।

- मेण्डेट फार्म की पावती अवश्य लें और उसे सुरक्षित रूप से सम्हाल कर रखें। वैसे तो मेण्डेट फार्म में ही पावती का प्रावधान किया गया है किन्तु बेहतर होगा कि आप मेण्डेट फार्म की (और यदि संलग्न की गई हो तो पॉलिसियों की सूची की भी) फोटो प्रति पर शाखा कार्यालय से पावती लें।

- जैसाकि मैंने पहले कहा है, आपकी रकम आपके खाते में जमा करने के बाद एल. आई. सी. पत्र द्वारा आपको इसकी सूचना देगी। कृपया यह पत्र सम्हाल कर रखें। यदि आप आय करदाता हैं तो यह पत्र आपके लिए ‘अनिवार्य’ होने की सीमा तक उपयोगी है क्योंकि एल. आई. सी. की पॉलिसियों से मिलनेवाली रकम, आय कर अधिनियम की धारा 10 (10) (डी) के अन्तर्गत पूरी तरह से ‘कर मुक्त’ होती है। आप ऐसी रकम को अपनी आय कर विवरणी में अवश्य दर्शाएँ। यह आपकी ‘अभिलेखीय पूँजी’ (रेकार्डेड केपिटल याने नम्बर एक की पूँजी) होगी।

- यदि आपने बैंक सेवाओं के लिए ‘मोबाइल अलर्ट’ सुविधा नहीं ले रखी है तो अब ले लीजिएगा ताकि आपके खाते में रकम जमा होते ही आपको सूचना मिल जाए। वरना, सम्भव है कि रकम जमा करने की सूचना देनेवाला, एल. आई. सी. से मिलनेवाला पत्र आपको या तो अत्यधिक विलम्ब से मिले या मिले ही नहीं।  कारण कुछ भी हो सकता है - एल. आई. सी. कार्यालय की चूक या फिर डाक सेवाओं की वर्तमान दशा। मेरा सुझाव है कि बैंक से ‘मोबाइल अलर्ट’ के जरिए, रकम जमा होने की सूचना मिलते ही आप, एल. आई. सी. शाखा कार्यालय से यह पत्र, खुद जाकर प्राप्त कर लें। {आखिर नम्बर एक की आय का मामला जो है -:):):):)}


- कृपया ध्यान दें कि यदि आप अपना बैंक बदलते हैं तो आपको नए सिरे से यह मेण्डेट फार्म प्रस्तुत करना होगा और एल. आई. सी. के उस प्रत्येक कार्यालय में प्रस्तुत करना होगा जहाँ से आपकी पॉलिसी/पॉलिसियाँ सेवित हो रही हैं। यदि आपने ऐसा नहीं किया तो एल. आई. सी. उसी बैंक में और उसी खाते में रकम भेजेगी जिसके लिए आपने मेण्डेट फार्म दिया था। आपकी यह चूक, आपको आपका भुगतान मिलने में देरी का कारण बन जाएगी।

मैंने अपनी समझ के अनुसार अधिकाधिक जानकारी, अधिकाधिक स्पष्टता और विस्तार से देने की कोशिश की है। किन्तु चूक की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। यदि आपको ऐसा लगे तो मुझे सूचित अवश्य करें। मैं इस ब्लॉग पर तो उपलब्ध हूँ ही, ई-मेल तथा मोबाइल पर भी उपलब्ध हूँ। आपके लिए उपयोगी/सहयोगी बनने पर मुझे आत्मीय प्रसन्नता और आत्म-सन्तोष होगा।

हाँ - इस काम में देर न करें और इसकी सूचना अपने तमाम परिजनों, मित्रों, परिचितों को भी जल्दी से जल्दी देकर यह फार्म प्रस्तुत करने के लिए कहें। आखिर उनको भी तो लगना चाहिए कि आप उनके शुभ-चिन्तक हैं!

अमरूद : सरोजकुमार

वह बच्चों को
पाँच साल से पढ़ा रही है
अमरूद से अ.....!
वही वही अमरूद और
वही वही अ.....
उसके वेतन की तरह!
जहाँ का तहाँ!
किताबों में!


वह ‘अ’ अन्याय का पढ़ाना चाहती है
पर किताबों में अमरूद छपा है!
उसे याद आता है,
बहुत दिनों से उसने
अमरूद नहीं खाए!
वैसे अमरूद का स्वाद
कोर्स में नहीं है!


अन्याय का ‘अ’
वह पढ़ाए भी तो कैसे?
अन्याय की शक्ल नहीं होती, और
बच्चे केवल शक्ल समझते हैं!

केवल बच्चे ही शक्ल समझते
तो भी ठीक था
स्कूल का सेक्रेटरी तो बच्चा नहीं है,
पर वह भी बस शक्ल ही समझता है,
नहीं तो उसका वेतन नहीं बढ़ चुका होता
नई टीचर की तरह?

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

हमारी चुप्पी ले आई हमें इस मुकाम पर



                                                              
गुवाहाटी में जो कुछ हुआ उस पर काफी कुछ कहा जा चुका है। निजी स्तर मैं खुद को लज्जित और क्षुब्ध अनुभव कर रहा हूँ और कहीं न कहीं खुद को भी इसके लिए दोषी मानता हूँ। अनुचित की अनदेखी करने और सहन करने की जो प्रवृत्ति सामाजिक चलन में तेजी से घर करती जा रही है, उसे ही मैं एक बड़ा कारण मानता हूँ। यह ‘चलन’ मुझे, कहीं न कहीं ‘नव कुबेर संस्कृति का प्रभाव’ लगता है।

गए बीस बरसों में आए बदलावों को केवल सरकारी नीतियों में बदलाव के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए। इसके आर्थिक-सामाजिक बदलावों की अनदेखी करना आत्मवंचना होगा।

गए बीस बरसों में औसत मध्यमवर्गीय परिवारों में आए पूँजी प्रवाह ने हमारी संस्कारशीलता की चूलें हिला दी हैं। लोगों की बढ़ती क्रय शक्ति ने भौतिकता को जो प्रधानता दी, उसके चलते हमारी सहिष्णुता और पारस्परिकता ‘खण्डित’ होने से आगे बढ़कर ‘नष्ट’ होती नजर आ रही है। उदारीकरण के पूँजीगत प्रभावों ने पीढ़ियों के रिश्तों को झकझोर कर रख दिया है। मैं अनेक युवा ‘प्रोफेशनलों’ के पालकों से सम्पर्क में हूँ और उनसे खुलकर बात करता हूँ। इन पालकों ने अपना पेट काटकर (पेट पर पत्थर बाँधकर) अपने बच्चों को ‘प्रोफेशनल’ की हैसियत दी। ऐसे कई पालकों की पीड़ा यह है कि भारी-भरकम पेकेज (एक अध्यापक के लिए 6 लाख का पेकेज भी भारी भरकम होता है) पाकर इनके बेटे इन्हें मूर्ख मानने लगे हैं और बाप की जिस वेतन श्रेणी के दम पर भारी-भरकम पेकेज हासिल किया, उसी वेतन श्रेणी की खिल्ली उड़ाते हैं। बेशक ऐसे पालक अधिसंख्य नहीं हैं किन्तु हैं तो सही। ये पालक जब टोकते हैं, संयमित जीवन जीने की सलाह देते हैं तो बच्चे कहते हैं - ‘जिन्दगी भर कलम घसीट कर आपने बीस-बाईस हजार की मास्टरी हासिल की। आप उसी तरह से सोचते हैं जबकि आज जमाना बदल गया है।’ पूँजी के आतंक से माँ-बाप की बोलती बन्द होने लगी है। रिश्तों का लिहाज और आँख की शरम टूटने लगी है। संस्कारवान बच्चों के उदाहरण सामने नहीं आते। आते हैं तो   बिगड़े बच्चों के किस्से ही सामने आते हैं, प्रचुरता से आते हैं और लगातार आते हैं। ऐसे में ‘कगार पर बैठे बच्चे’ अचेतन में ही ऐसे किस्सों से प्रेरित होते हों तो अचरज क्या?

हमारी दशा बिलकुल वैसी ही है कि पिघलता तो हिमालय है किन्तु बाढ़ मैदान में आती है। बचाव हमें अपने स्तर पर ही करना होगा। हमें अपना घर सम्हालना होगा। नव कुबेरों के रास्ते चलने को उद्यत अपने बच्चों को रोकना-टोकना होगा। वैयक्तिकता ही सामाजिकता में बदलती है। गुवाहाटी काण्ड में शामिल युवकों के चित्रों के साथ ही साथ यदि उनके माता-पिता के चित्र भी प्रदर्शित किए जाते तो निश्चय ही इसका अतिरिक्त प्रभाव पड़ता और अधिक प्रभावी सन्देश जाता - ‘देखो! ये वे माँ-बाप हैं जिन्होंने अपने बच्चों को नियन्त्रित नहीं किया। इन्हें मनमानी करने दी। अच्छे संस्कार नहीं दिए।’ बच्चों की करनी से माँ-बाप को और माँ-बाप की करनी से बच्चों को जोड़ा ही जाना चाहिए। आज परिवारों में साथ-साथ रहते हुए भी बच्चे और माँ-बाप अलग-अलग इकाइयाँ बन कर जी रहे हैं। ‘बच्चों को टोको मत, बुरा मान जाएँगे।’ के नाम पर अनुचित की अनदेखी की जा रही है। आचरण के नाम बरती जा रही वैयक्तिकता जब परिवार से जुड़ती है तो उसके अर्थ बदल जाते हैं।

पूँजी का प्रवाह हमारे बच्चों को बौराता नजर आ रहा है। इसका असर हमारी जड़ों पर हो रहा है। हमारे बच्चों के इस दुराचरण के लिए हम भी कहीं न कहीं जिम्मेदार तो हैं ही। 
हमें अपने बच्चों को ‘अपने बच्चे’ मानना होगा। मैं तेजी से अनुभव कर रहा हूँ कि हम अपने बच्चों को टोकने का साहस खोते जा रहे हैं। हमें तनिक सख्ती से कहना होगा - ‘प्रगतिशीलता का अर्थ असामाजिकता नहीं होता। तुम हमारे बाप नहीं, हम तुम्हारे बाप हैं। हमारे किए से तुम्हारा ‘बेहतर आज’ बना है तो तुम्हारी जिम्‍मेदारी है कि तुम्हारे किए से हमारा आज बदतर न बने।’ हमें समझाना होगा कि उनकी जिन्दगी, उनकी करनी केवल उनकी नहीं है। उनकी जिन्दगी और करनी हमसे भी जुड़ती और प्रभावित करती है।

इसकी शुरुआत कुछ इस तरह से की जा सकती है कि गुवाहाटी काण्ड के नायक युवाओं के माँ-बाप, अपने-अपने बच्चों को पुलिस को सौंपे और कहें - ‘हमारे बच्चों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाए। अपने बच्चों की इस हरकत के लिए हम भी कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। हमें भी दण्ड मिलना चाहिए और अपने बच्चों को दण्डित होते देखना हमारे लिए कठोर दण्ड है।’

मुमकिन है मेरी बातें आड़ी-तिरछी हों, क्रमबध्द न हों, परस्पर जुड़ती न हों। किन्तु शुरुआत तो हमें ही करनी होगी। हममें से प्रत्येक को करनी होगी - अपने-अपने घर से।