भ्रष्टाचार: एक अण्णा बनाम चार ‘ना’

अण्णा ने तो सब गुड़ गोबर कर दिया। उनके चाहनेवाले और प्रशंसक हम चार बूढ़ों को तो उन्होंने निराश कर ही दिया यह कहकर कि उनके जन लोकपाल मसवदे के शब्दशः लागू होने के बाद भी कम से कम 35-40 प्रतिशत भ्रष्टाचार तो बना ही रहेगा। इस 35-40 प्रतिशत भ्रष्टाचार का आयतन और घनत्व, समाप्त होनेवाले 60-65 प्रतिशत भ्रष्टाचार के मुकाबले अधिक हुआ तो? तो फिर यह ताण्डव और उठा-पटक क्यों और किसलिए?

दादा से नीमच में और जीजी से (निम्बाहेड़ा से मंगलवाड़ के रास्ते पर स्थित) निकुम्भ में मिलने के लिए इसी रविवार को कोई चार सौ किलोमीटर की यात्रा की। दादा के साथ कच्चा-पक्का एक घण्टा बिताया। दादा ने मेरी उदासी का कारण जानकर मुझे ढाढस बँधाते हुए कहा - ‘‘मेरा शब्द चयन अटपटा हो सकता है किन्तु तू समझने की कोशिश करना कि मन्दिरों की बहुलता और ‘सबका काम छोड़कर मेरा काम सबसे पहले हो’ की मानसिकतवाले नागरिकों के देश में भ्रष्टाचार कैसे समूल नष्ट हो सकता है?’’ बात ‘बाउंसर’ की तरह सनसनाती हुई मेरे सर के ऊपर से गुजर गई और मैं अकबकाया, बौड़म की तरह दादा की ओर देखने लगा। दादा ने कहा - ‘नहीं! मैं और कुछ नहीं कहूँगा। तू खुद ही इन दोनों बातों का भाष्य और व्याख्या करने और मन ही मन समझने की कोशिश करना।

आज चौथा दिन है। ज्यों-ज्यों सोच रहा हूँ, त्यों-त्यों दोनों सूत्र वाक्य मानो अपना-अपना बखान खुद करने लगे। पहली नजर में देखूँ तो भला, मन्दिरों का भ्रष्टाचार से क्या वास्ता? लेकिन एक बिजली कौंधी और बात ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’ की तरह दाने-दाने बिखर कर खुलती गई।

मन्दिर याने देवालय, हमारे देवताओं, आराध्यों, इष्टों का निवास स्थान। मनुष्यों की बस्ती में वह स्थान जहाँ खुद ईश्वर रह रहा हो। ईश्वर याने वह अजर, अमर, अगम, चिरन्तन तत्व जो सारी दुनिया को देता ही देता हो, जिसके यहाँ कोई कमी नहीं, जिसे मनुष्य की भक्ति-भावनाओं के सिवाय और किसी भी चीज की आवश्यकता नहीं। मनुष्य यह भी न दे तो भी ईश्वर खिन्न/कुपित नहीं होता। सस्मित, दोनों हाथों से मनुष्य को असीसता रहता है, अपना कृपा-प्रसाद अनवरत लुटाता रहता है। लेकिन मनुष्य ने अपनी कमजोरी, अपनी लोलुपता ईश्वर पर थोप दी - अपनी मनोकामनाएँ पूरी करने के लिए चढ़ावा चढ़ाने लगा। किसे? जिसे कुछ भी नहीं चाहिए, उसी ईश्वर को। चढ़ावा किस बात का? तू मेरा यह काम कर दे, मैं तेरी कथा करवाऊँगा, तेरे मन्दिर में सोने/चाँदी का छप्पर चढ़ाऊँगा आदि-आदि। यह चढ़ावा क्या है? यह चढ़ावा कभी-कभी अग्रिम होता है तो कभी-कभी काम हो जाने के बाद। ईश्वर और मनुष्य के सम्पर्क सेतु के रूप में पण्डितजी विराजमान रहते हैं। उन्हीं के मुँह से हमें भगवान बोलता अनुभव होता है और उसी के माध्यम से हमारी बात ईश्वर तक पहुँचती है।

यही सब और ऐसा ही कुछ-कुछ सोचते-सोचते अनायास ही याद हो आए हमारे लोक कुम्हार के चाक पर गढ़े गए तीन शब्द - नजराना, शुकराना और जबराना। इन तीन शब्दों में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का संसार समाया हुआ है। ‘नजराना’ याने मुझे याद रखने की, जरूरत पड़ने पर मेरा काम सर्वोच्च प्राथमिकता से करने के लिए एडवांस बुकिंग। यादों की अपनी कोठरी को तनिक झाड़ेंगे-बुहारेंगे तो अनायास ही, ‘मिठाई’ के लिए नोटों की गड्डियाँ लेकर उन्हें ड्राअर में रखते हुए लक्ष्मण बंगारू याद आ जाएँगे। ‘तहलका’ के स्टिंग ऑपरेशन के तहत यह ‘नजराना’ ही था। ‘शुकराना’ याने आपने मेरा काम कर दिया। आपको धन्यवाद। मेरी ओर से यह छोटी सी (या जो तय हुई थी, वह) भेंट स्वीकार करें।

मन्दिरों का चढ़ावा इन दो श्रेणियों में से किसी एक श्रेणी में आता है। राजस्थान के प्रख्यात तीर्थ क्षेत्र ‘साँवरियाजी’ में तो डकैत और तस्कर मनौतियाँ लेकर जाते हैं और अभियान सिद्ध होने पर भगवान का हिस्सा दान पेटी में डाल जाते हैं। यहाँ की दान पेटी में से अफीम निकलने के समाचार आए दिनों अखबारों में पढ़ने को मिल जाते हैं। तिरुपति की दान पेटियाँ जो समृद्धि उगलती हैं उनकी गणना और मूल्यांकन करने के लिए तो तिरुमला देवस्थान ट्रस्ट ने एक पूरा विभाग ही बना रखा है। कहने की जरूरत नहीं कि वह सब या तो नजराना है या शुकराना। कोई ताज्जुब नहीं कि तिरुपति का वार्षिक बजट गोवा, झारखण्ड, उत्तराखण्ड जैसे किसी छोटे राज्य के वार्षिक बजट के बराबर बैठ जाए!

नजराना और शुकराना में तो फिर भी, ‘प्रसन्नता का भाव’ रहता है किन्तु तीसरा ‘ना’ याने ‘जबराना’ कम से कम एक पक्ष को तो दुखी करता ही है। ‘जबराना’ सुनते ही हममें से प्रत्येक को किसी न किसी नेता, अधिकारी, कर्मचारी का चेहरा याद आ जाएगा। ये भी किसी भगवान से कम नहीं। सरकारी मन्दिरों में बैठे भगवान। तीर्थ क्षेत्रों के पण्डे/पुजारी भी इसी श्रेणी में शामिल होने की आधिकारिक पात्रता रखते हैं। जरा, दिलीप कुमार, संजीव कुमार, वैजयन्तीमाला अभिनीत फिल्म ‘संघर्ष’ को याद करें जिसमें यजमान से वसूली के लिए पण्डे हत्या करने में भी चूकते। गोया, ‘जबराना’ न केवल दुखी कर सकता है अपितु प्राण भी ले सकता है। माँगी गई रिश्वत की रकम जुटाने में असमर्थ लोगों द्वारा आत्महत्या करने के समाचारों की संख्या और आवृत्ति साल-दर-साल बढ़ रही है।

चौथे ‘ना’ का नामकरण मैंने किया है और तुकबन्दी मिलाने के लिए यह ‘ना’ मैंने ठेठ मालवी बोली से लिया है - ‘छानामाना’ जिसके लिए आप हिन्दी में ‘गुपचुप’ या फिर ‘चुपचाप’ प्रयुक्त कर सकते हैं। इस चौथे ‘ना’ को हम सब, चौबीसों घण्टे पालते-पोसते रहते हैं, अनजाने में भी। कर चोरी, मोल में भी मारना और तोल में भी मारना, बताना कुछ और बेचना कुछ आदि-आदि रूपों में यह ‘छानामाना’ विद्यमान रहता है।

साल में पाँच-सात बार मैं भी इस ‘छानामाना’ में शरीक होता हूँ। जब-जब भी भाड़े की टैक्सी लेकर जाता हूँ, तब-तब हर बार इस ‘छानामाना’ में भागीदारी करता हूँ। सारी की सारी टैक्सियाँ, निजी कारें होती हैं। एक भी कार का पंजीयन टैक्सी के रूप में नहीं होता। एक की भी नम्बर प्लेट पीली नहीं होती। टैक्सी में रजिस्ट्रेशन कराओ तो दुगुना/तिगुना टैक्स देना पड़ेगा और ड्रायवर भी ‘वाणिज्यिक लायसेंसधारी’ होगा। वह भी अपने आप में अलग से खर्चा माँगता है। सो, सब कुछ ‘छानामाना’ चल रहा है।

दादा से मिले दो सूत्रों पर हुए इस निठल्ले चिन्तन ने अण्णा के वक्तव्य से उपजा मेरा संत्रास कम कर दिया। अब अण्णा असफल भी हो जाएँ तो कष्ट नहीं। अण्णा का बेचारा एक ‘ना’ और उधर एक साथ चार-चार ‘ना’ और चारों में से प्रत्येक ‘ना’ अण्णा के इकलौते ‘ना’ पर भारी! आखिर बेचारा ‘एक ना’ कब तक ‘चार ना’ से जूझेगा?

अब मैं बेफिकर हूँ। ‘अण्णा तुम संघर्ष करो’ वाले नारे का अर्थ मुझे अब समझ पड़ा। हे! अण्णा!! केवल ‘तुम’ संघर्ष करो। हम नहीं करेंगे। हम तो केवल साथ रहेंगे। तुम अपने इकलौते ‘ना’ के साथ मरो-मिटो। हम अपने चारों ‘ना’ के साथ राजी-खुशी रहेंगे।

तीन सौ की जगह केवल तीस!

मेरे कस्बे (रतलाम) में, भारतीय जीवन बीमा निगम के तीन शाखा कार्यालय हैं जिनके अभिकर्ताओं और कर्मचारियों की सकल संख्या लगभग 900 है।


गुरुवार की सुबह जब मैं अपने शाखा कार्यालय पहुँचा तो मुझे बताया गया कि शाम सवा पाँच बजे, तीनों शाखाओं के कर्मचारी और अभिकर्ता, अण्णा हजारे के समर्थन में पहले तो हमारे शाखा कार्यालय के सामने एकत्र होकर नारे लगाएँगे और बाद में जुलूस की शकल में, धरना स्थल पर पहुँच कर सभा करेंगे।

मैं निर्धारित समय से पन्द्रह मिनिट पहले ही पहुँच गया। सवा पाँच बजते-बजते लोगों का आना शुरु तो हुआ किन्तु संख्या उत्साहजनक नहीं थी। नारेबाजी शुरु करने से लेकर जुलूस की शकल में रवाना होने तक हम लोग मुश्किल से तीस की संख्या तक ही पहुँच पाए।


नारे लगाते हुए हम लोग दो बत्ती पर बने धरना स्थल पर पहुँचे और थोड़ी सी देर के लिए छोटी सी सभा की। मुझे भी बोलने का अवसर दिया गया।


मैं अत्यधिक उत्साहित होकर पहुँचा था किन्तु मेरा उत्साह बहुत देर तक नहीं टिक पाया। हमारी संख्या अधिक होनी चाहिए थी - कम से कम तीन सौ तो होनी ही चाहिए थी।


लेकिन कोई क्या कर सकता है? जबरन तो किसी को लाद कर नहीं लाया जा सकता!


मेरी हाँडी का यह चाँवल अच्छी दावत के संकेत नहीं दे रहा। मैं दुःखी हूँ।

यह अनूठा स्वर्ण पदक

सोलह अगस्त का मेरा दिन बहुत खराब रहा। नींद तो जल्दी खुल गई थी किन्तु बुद्धू बक्सा खोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी। सरकारों के चाल-चलन को थोड़ा-बहुत जानता हूँ। आशंका लग रही थी सूर्योदय से पहले ही अण्णा और उनके साथियों को पकड़ न लिया हो। लेकिन अपने आप को कब तक धोखा देता? हिम्म्त करके, आठ बजे बुद्धू बक्सा खोला तो समाचार जाना कि सुबह 7.25 पर अण्णा को पुलिस घर से उठा ले गई। जी खट्टा हो गया। एकाएक ही माथा चढ़ने लगा, आँखें भारी होने लगी, कनपटियाँ चटखने लगीं और जी मिचलाने लगा। लगा, चक्कर खाकर गिर पड़ूँगा। देर तक बुद्धू बक्सा नहीं देख सका।

अत्यधिक कठिनाई से, मानो खुद से जबरदस्ती कर रहा होऊँ, नित्य-कर्म से निवृत्त हुआ। स्नानोपरान्त ठाकुरजी के सामने बैठा तो पूजा-पाठ में मन लगा ही नहीं। मंगलवार था। सुन्दरकाण्ड पाठ करना था। लेकिन नहीं किया। कर पाना सम्भव ही नहीं हुआ।दस बीस पर उत्तमार्द्ध को नौकरी पर छोड़ा। वहाँ से मुझे अण्णा के समर्थन में धरनास्थल पर जाना था। जलजजी (आदरणीय श्रीयुत डॉक्टर जय कुमार जलज) से तय हुआ था कि हम दोनों साथ जाएँगे। जलजजी मेरे कस्बे में खरेपन का प्रतीक हैं। उनकी उपस्थिति किसी भी जमावड़े का न केवल सम्मान बढ़ाती है अपितु उसकी पवित्रता और विश्वसनीयता भी प्रमाणित करती है। किन्तु जलजजी ने कहा था - ‘पहले देखिएगा कि आयोजन किसके नियन्त्रण में है, आयोजक कौन है। ठोक बजा कर देखकर फिर मुझे बताइएगा। उसके बाद ही धरने पर बैठने पर विचार करेंगे।


धरनास्थल जाकर देखा तो निराशा हुई। साधनों की शुचिता वहाँ थी ही नहीं। मैंने जलजजी को विसतार से बताया तो खिन्न हो गए। बोले - ‘ऐसे लोगों के साथ बैठना तो क्षण भर को भी उचित नहीं। भगवान अण्णा की रक्षा करे।’ मैंने पूछा - ‘तो बताएँ, क्या करना है?’ जलजजी ने अत्यधिक दुःखी मन से कहा - ‘अपने-अपने घर में ही बैठ कर प्रभु स्मरण करें और अण्णा के लिए प्रार्थना करें। वैसे, आप क्या कहते हैं?’ मैंने कहा - ‘विवेक कहता है कि आपकी बात मान लूँ और हृदय कहता है कि जाकर बैठ जाऊँ।’ जलजजी ने उसी खिन्न स्वर में कहा - ‘निर्णय तो आप ही करें किन्तु विवेकसंगत निर्णय बेहतर और श्रेयस्कर होते हैं।’ लिहाजा, मैं दूर से देखकर ही लौट आया। एक छोटी सी रकम लेकर गया था। एक परिचित के हाथों, आयोजकों तक पहुँचाई और हसरत भरी नजरों से देखता हुआ, ‘दुःखी-मन, खिन्न वदन’ लौट आया।
लौट तो आया किन्तु मन उचटा रहा। माथा जस का तस चढ़ा हुआ था, आँखों का भारीपन, कनपटियों का चटखना और जी मिचलाना यथावत् बन हुआ था। दो बजे से, हमारी शाखा के बीमा अभिकर्ताओं की एक बैठक थी। वहाँ पहुँचा तो सही किन्तु मन कहीं और था। ऐसी बैठकों में मैं सबसे आगे, पहली पंक्ति में बैठता हूँ। किन्तु आज सबसे पीछे बैठा। सब कुछ भारी-भारी था, अनमनपना बना हुआ था, मन की उदासी तनिक भी कम नहीं हो रही थी। साढ़े चार बजे के आसपास वहाँ से निकल भागा। उत्तमार्द्ध को लिया। उन्हें कुछ खरीदी करनी थी। उन्हें बाजार ले गया। वे खरीदी में व्यस्त हुईं और मैं लस्त-पस्त दशा में दुकान में पसर गया। जी का मिचलाना अब घबराहट में बदल गया था। मुझे अपनी धड़कन की गति और आवाज तेज होती लगने लगी। लगा, यहाँ से उठ नहीं पाऊँगा। मेरी दशा देख दुकानदार घबरा गया। उसने तबीयत की पूछताछ की, पानी की मनुहार की। मैंने संकेतों से ही मना किया। उसकी घबराहट और बढ़ गई। बोला - ‘बाबूजी! आपको घर पर छोड़ दूँ?’ मेरी आँखें खुलने से मना कर रही थीं। मैंने हाथ से इशारा किया - नहीं। तब तक मेरी उत्तमार्द्ध अपनी खरीदी पूरी कर चुकी थीं। मैं उठने लगा तो बोली - ‘कुछ देर और रुकिए। मैं सब्जी भी खरीद लूँ।’ मैंने तत्क्षण मना कर दिया और कहा - ‘फौरन घर चलिए। मुझे अच्छा नहीं लग रहा। आपको छोड़ कर डॉक्टर साहब के पास जाऊँगा।’ वे घबरा गईं। चलने से पहले मैंने कैलाश शर्मा को फोन किया। वह अभिकर्ताओं की बैठक में ही था। उससे कहा - ‘बैठक खत्म होते ही मेरे घर पहुँचो। मेरी तबीयत ठीक नहीं है। डॉक्टर के पास चलना है।’ उत्तमार्द्ध को लेकर घर पहुँचा और डॉक्टर सुभेदार साहब के सहायक डॉक्टर समीर को फोन लगाया। मेरी दशा सुनते ही बोले - ‘फौरन आ जाईए। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।’ तब तक कैलाश भी पहुँच गया।


मुझे बिलकुल ही अच्छा नहीं लग रहा था। डॉक्टर के पास अकेले जाने का आत्म विश्वास नहीं था। कैलाश के साथ अस्पताल पहुँचा। डॉक्टर सुभेदार साहब और डॉक्टर समीर को कुछ कहता, उससे पहले ही डॉक्टर समीर ने कहा - ‘हजारेजी की गिरफ्तारी का तनाव ले बैठे हैं?’ हाँ करने की हिम्मत नहीं हुई और इंकार कर पाना मुमकिन नहीं था। सुभेदार साहब ने मेरी जाँच-परख की। दो बार रक्त-चाप जाँचा और कहा - ‘आपको तो हाई बीपी है!’ पूछने पर बताया - 150/120. इस बारे में मुझे कोई ज्ञान नहीं है। अपनी ओर मुझे ताकता देख सुभेदार साहब बोले - ‘ऊपरवाला 150 दुखदायी नहीं है किन्तु नीचेवाला 120 तो चिन्ताजनक है। आप लापरवाही बिलकुल मत बरतिएगा।’ उन्होंने ईसीजी भी हाथों-हाथ करवाया। रिपोर्ट देखी तो बोले - ‘आपकी धड़कन भी बढ़ी हुई है।’ उन्होंने दवाइयाँ लिखीं, उन्हें लेने के निर्देश समझाए और सख्ती से किए जाने वाले परहेज विस्तार से बताए।मैं चलने को हुआ तो सुभेदार साहब ने रोका और कहा - ‘एक बात याद रखिएगा! इस भ्रम में मत रहिएगा कि बीपी ठीक हो जाएगा। बीपी और डाइबीटीज एक बार हो जाने पर इनसे मुक्ति पाना असम्भवप्रायः ही होता है। नियमित रूप से दवाइयाँ लेकर आप इन्हें नियन्त्रित कर सकते हैं, इनसे मुक्त नहीं हो सकते।’


मैं चेम्बर से बाहर निकला। पीछे-पीछे कैलाश भी। दो कदम भी नहीं चला होऊँगा कि कैलाश ने कहा - ‘अण्णा हजारे की गिरफ्तारी से आप इतने परेशान हो गए? आप तो हमें समझाते हैं! मैं आपको क्या समझाऊँ। ऐसा तो होता रहता है। दिल पर मत लीजिए। भूल जाईए।’


मैं हँस नहीं पाया। मैं अण्णा से कई बातों पर असहमत हूँ किन्तु उनके अभियान का समर्थक हूँ। मैं अपने आपको ‘अण्णा का असहमत समर्थक’ कहता हूँ। नहीं जानता कि आज मेरा रक्त चाप क्यों बढ़ा। किन्तु यदि इसका कारण सचमुच में अण्णा की गिरफ्तारी ही है तो यकीन मानिए, मुझे बहुत खुशी है।


अण्णा के इस ‘असहमत समर्थक’ को यह प्राप्ति किसी स्वर्ण पदक से कम नहीं लग रही है।

सबके साथ ऐसा हो

मुझे बुलाकर बीमा देने के लिए, कोई दो बरस पहले, मैंने, जिस प्रकार उज्जैन निवासी डॉ. सत्यनारायण पाण्डे का सचित्र उल्लेख किया था, काश! उसी प्रकार मैं इन कृपालु का उल्लेख भी कर पाता। किन्तु क्या करूँ? ऐसा न करने के लिए इन्होंने न केवल अत्यन्त विनयपूर्वक आग्रह किया अपितु मुझे शपथ-बद्ध भी कर दिया।

एक सुबह इनका फोन आया। बोले - ‘एक बीमा करने के लिए आ जाइए।’ मुझे अच्छा तो लगना ही था किन्तु आश्चर्य भी हुआ। इनसे मेरा, कभी-कभार का ‘राम-राम, शाम-शाम’ का का ऐसा, रास्ते चलते का नाता है जिसे ‘परिचित’ की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता।

मैं पहुँचा। परस्पर अभिवादन की सामान्य औपाचारिकता के बाद बोले - ‘घर में लक्ष्मी आई है। पोती हुई है। उसकी उच्च शिक्षा के लिए कोई ढंग-ढांग की पॉलिसी बना दीजिए।’ मैंने चार-पाँच पॉलिसियों की विस्तृत जनकारी दी तो बोले - ‘मैं तो कुछ जानता-समझता नहीं। जो आपको सबसे अच्छा लगे, वह कर दीजिए।’ अपने स्तर मैंने सर्वाधिक अनुकूल और उपयोगी पॉलिसी बताई। उन्होंने बेटे को बुलाया। कागजी खानापूर्ति कराई और भुगतान कर दिया।

यह सब मेरे लिए ‘विचित्र किन्तु सत्य’ जैसा था। मैंने कहा - ‘मुझसे न तो रहा जा रहा है और न ही सहा जा रहा है। आपने अपनी ओर से बुलाकर मुझे बीमा दिया इस हेतु तो मैं आपका आभारी और कृतज्ञ हूँ किन्तु जिज्ञासा बनी हुई है कि आपने ऐसा क्यों किया।’ उन्होंने शान्त स्वरों में, लगभग निर्लिप्त भाव से कहा - ‘मैं आपके लेख ‘उपग्रह’ में पढ़ता हूँ। आप अच्छा लिखते हैं। आपके बारे में तलाश किया तो दो बातें ऐसी लगीं जिनके कारण आपको अपनी ओर से बुलाया।’ मैंने सवालिया नजरों से उन्हें देखा। उत्तर मिला - ‘आप कितने ईमानदार और साफ-सुथरे हैं यह तो मैं नहीं जानता किन्तु लोगों ने बताया कि आप कोरे उपदेश नहीं देते। जो लिखते-कहते हैं, उस पर अमल भी करते हैं। सो, मैंने माना कि आप यदि सौ टका ईमानदार न भी हों तो भी ‘अधिकतम ईमानदार’ तो हैं ही। ईमानदारी किसे अच्छी नहीं लगती? मैं ढंग-ढांग का, ठीक-ठीक व्यापारी हूँ लेकिन उतनी ईमानदारी नहीं बरत पाता जितना आप कहते-लिखते हैं। सो, सोचा कि जो अच्छा काम कर रहा है, वह अच्छा काम करता रहे इसलिए उसकी मदद क्यों न की जाए? दूसरा कारण जानकर आप इतरा मत जाइएगा। मुझे बताया गया कि पॉलिसी बेचने के बाद अच्छी ग्राहक सेवा देते हैं। मेरे लिए यह भी जरूरी था। बस! इन दो बातों के कारण आपको बुलाया।’ उनकी बातों ने मुझे अभिभूत और विगलित कर दिया। मुझसे बोला नहीं गया। जी भर आया था। (लगभग रुँधे कण्ठ से) उन्हें फिर धन्यवाद दिया और चला आया।

यह सब लिखते हुए भी मैं सामान्य नहीं हूँ। क्या कहूँ? कुछ बातें समझा पाना कठिन होता है।


यह भी, ऐसी ही एक बात है।


मुझे नहीं, आपको ही मुबारक हो

प्रासंगिक लेखन मुझे नहीं रुचता। यान्त्रिक अथवा खनापूर्ति लगता है। मैं इससे बचने की कोशिश करता हूँ। लेकिन, कभी-कभी आपको अनिच्छापूर्वक भी लिखना पड़द्यता है। इसी तरह मुझे ‘साप्ताहिक उपग्रह‘ के, अपने स्तम्भ ‘बिना विचारे‘ के लिए ‘लिखना पड़ा’, स्तम्भ की अनिवार्यता के अधीन। अनिच्छापूर्वक, विवशता में लिखा गए इस आलेख से मैं रंच मात्र भी सन्तुष्ट और प्रसन्न नहीं हूँ। किन्तु विस्मित हुआ यह देख कर कि इस पर भी बीसियों कृपालुओं के प्रशंसात्मक फोन आए।


‘वह’ पैंसठवीं बार मेरे सामने खड़ा है। वही स्निग्ध, ममताभरी मुस्कुराहट है ‘उसके’ होठों पर जैसी पहली बार थी। ‘वह’ वैसा का वैसा ताजा दम है, थकावट की एक लकीर नहीं, ‘उसकी’ आँखों में आशाओं के झरने वैसे ही रोशन बने हुए हैं जैसे पहली बार थे, मेरे प्रति ‘उसका’ भरोसा तनिक भी कम नहीं हुआ है, कोई सवाल पूछना तो दूर, ‘वह’ न तो झुंझला रहा है न ही खीझ रहा है मुझ पर। बस! ताजा दम, मुस्कुराए जा रहा है मेरी नजरों में नजरें गड़ाए। नहीं सहा जा रहा मुझसे ‘उसका’ इस तरह मुझे देखना। असहज ही नहीं, निस्तेज हो, शर्मिन्दा हुआ जा रहा हूँ मैं अपनी ही नजरों में। ‘उससे’ नजरें मिलाने का साहस, हर वर्ष कम होता जा रहा है मुझमें।

‘वह’ कभी चुपचाप नहीं आता। हर वर्ष, ‘उसके’ जाते ही ‘उसका’ अगला आगमन न केवल सुनिश्चित हो जाता है बल्कि ‘उसके’ आने से कई दिन पहले ही ढोल-नगाड़े बजने लगते हैं, दसों दिशाएँ गूँजने लगती हैं, आसमान में इन्द्रधनुष के रंग पुतने शुरु हो जाते हैं, शहनाइयाँ मंगल प्रभातियाँ बजाने लगती हैं। पहली बार से लेकर इस बार तक, ‘वह’ जब भी आया, उत्सव, उमंग, उल्लास लेकर ही आया। ‘उसने’ तो त्यौहार ही रचे। किन्तु मैंने?

डर रहा हूँ कि ‘उस’ उदारमना, औढरदानी ने कभी पूछ लिया - ‘मैंने अपने आपको तुम पर न्यौछावर कर दिया, तुम्हें दासता से मुक्ति दिला दी, तुम स्वाधीन हो गए। लेकिन तुमने क्या किया मेरे लिए? मेरी छोड़ो! खुद अपने लिए क्या किया? अपनी आजादी को बचा पाए?’ यही सवाल मेरी शर्मिन्दगी का कारण है। ‘उसने’ तो मुझे आजादी दे दी - अधिकार के रूप में। किन्तु इस आजादी को बचाने की जिम्मेदारी मैंने कभी याद नहीं रखी। नहीं। याद तो रही किन्तु जानबूझकर भूल जाने की आत्म वंचना करता चला आ रहा हूँ। शारीरिक रूप से मैं जरूर आजाद हो गया हूँ किन्तु गुलामी तो शायद मेरे लहू में रच-बस गई है। जाने का नाम ही नहीं लेती। अपनी मर्जी से काम करना मेरी आदत में ही नहीं। मुझे तो डण्डे से हाँके जाने की आदत है। मुझे तो अपने लिए एक राजा स्थायी रूप से चाहिए ही चाहिए। इसीलिए मैंने अपने आप को गुलाम बना लिया है - अपने नेताओं का, स्थितियों का, भ्रष्ट व्यवस्था का। मैं यह भी भूल जाने का नाटक करता रहता हूँ कि जिन लोगों को, जिन स्थितियों को, जिस व्यवस्था को मैं गालियाँ देकर आत्म-सन्तोष, अपने कर्तव्य की इतिश्री कर रहा हूँ, वह सब मैंने ही बनने दी हैं।

आजादी का सबसे बड़ा दुश्मन होता है - एक सन्तुष्ट गुलाम। मैंने अपनी दशा ऐसी ही बना ली है। मैं हमेशा कुछ न कुछ माँगता ही रहता हूँ। कहता रहता हूँ - ‘यह तो मेरा अधिकार है। यह मुझे मिलना चाहिए।’ सामान्यतः मेरी बात कोई नहीं सुनता। यदि कभी कुछ मिल गया, किसी ने कुछ दे दिया तो खुश हो जाता हूँ वर्ना सारा दोष भाग्य और भगवान के माथे मढ़कर खुश हो जाता हूँ। अपनी ओर से कभी कुछ नहीं करता।

करने के नाम पर मैं एक ही काम करता हूँ - पाँच साल में एक बार वोट देने का। वोट लेने के लिए, मेरा नेता जब याचक-मुद्रा में मेरे सामने आता है तो मेरी छाती ठण्डी होे जाती है। मैं अपनी भड़ास निकालता हूँ। वह, नीची नजर किए, मुस्कुराते हुए चुपचाप सुनता रहता है। मैं खुश हो जाता हूँ और मन ही मन ‘निपटा दिया स्साले नेता को’ कह अपना वोट उसे दे देता हूँ। वह मेरा वोट जेब में डालकर मुस्कुराते हुए चला जाता है। मैं तब भी जानता हूँ कि मैंने पाँच साल की गुलामी अपने नाम लिख दी है। लेकिन इसके लिए भी नेता को ही जिम्मेदार बताता रहता हूँ और उसे गालियाँ देता रहता हूँ।

अधिकारों की माँग कोई गुलाम ही करता है। आजाद आदमी तो अपने अधिकार पुरुषार्थ से और पुरुषार्थ से नहीं मिले तो छीन कर हासिल करता है। वोट देकर अपनी सरकार बनानेवाली व्यवस्था में तो वोट देनेवाला ही राजा होता है और राजा को अपने वजीरों, कारिन्दों, सेवकों पर चौबीसों घण्टे नजर रख कर उनसे काम लेना होता है। बेशक काम करना उन सबकी जिम्मेदारी है लेकिन उससे पहले राजा की जिम्मेदारी बनती है - उन सबसे काम लेने की। जब राजा गैर जिम्मेदार हो जाता है तो वजीर, कारिन्दे, सेवक याने सबके सब खुद राजा हो जाते हैं। मैंने भी यही होने दिया है। ‘उसने‘ तो मुझे राजा ही बनाया था किन्तु राज सम्हालने, सुव्यवस्थित और नियन्त्रित रखने की जिम्मेदारी निभाने के झंझट के मुकाबले गुलामी कर लेना अधिक आसान होता है। मैंने भी यही किया। ‘उसने’ मुझे ‘नागरिक’ बनाया था किन्तु ‘नागरिक’ को तो चौबीसों घण्टे जागरूक रहना पड़ता है! वह मेरे बस की बात नहीं। ‘प्रजा’ बनकर जीना अधिक आसान भी है और इस जीवन की मुझे आदत भी है।

फिर भी मुझे ‘उससे’, ‘उसके’ सम्भावित सवालों से डर लग रहा है। मैं कैसे कहूँ कि मैंने उसके लिए अब तक न तो कुछ किया है और न ही आगे कुछ करने की मानसिकता ही है। मैं अपने और अपने परिवार के लिए हाथ-पाँव हिलाऊँगा, उन्हीं के लिए कमाऊँगा-धमाऊँगा, ‘उसके’ नाम की दुहाइयाँ दूँगा, ‘उसके लिए’ मर मिटने की बातें चौराहों पर करूँगा किन्तु मर मिटना तो कोसों दूर रहा, मौका आएगा तो नाखून भी नहीं कटाऊँगा। यह सब मैं कर लूँगा तो फिर आप क्या करेंगे? आपकी भी तो कुछ जिम्मेदारी बनती है?


इसलिए, मुझे शर्मिन्दगी भले ही हो रही हो और ‘उसके’ सम्भावित सवालों से भले ही भय उपज रहा हो और ‘उसकी’ देखभाल की जिम्मेदारी भले ही मेरी हो किन्तु मैं तो गुलाम हूँ, प्रजा हूँ, मेरे पास तो कोई अधिकार भी नहीं है! अधिकार होता तो अपने नेताओं को नियन्त्रित करता, भ्रष्ट अफसरों को नकेल डालता, अनुचित का प्रतिकार और विरोध करता। किन्तु इस सबकी कीमत चुकानी पड़ती है। मैं कीमत चुकाने को तैयार नहीं हूँ। इसीलिए तो मैंने इन सबकी गुलामी कबूल कर ली है।

‘वह’ पैंसठवी बार मेरे सामने खड़ा है। मैं उसका सामना नहीं कर पा रहा हूँ। उसकी मोहक मुस्कान और चुम्बकीय आँखें मुझे असहज कर रही हैं, मुझे अपराध बोध से ग्रस्त कर रही हैं। मैं ‘उसे’ आपके दरवाजे पर भेज रहा हूँ।


‘वह’ भले ही मेरा स्वाधीनता दिवस हो लेकिन उसकी खातिरदारी की, उसके मान-सम्मान की रक्षा की जिम्मेदारी आपकी है। मुझे तो बस! बपने अधिकार चाहिए। जिम्मेदारी निभाने का यश आप हासिल करें।

अज्ञान का आतंक

सूचनाओं के विस्फोटवाले इस समय में भला कोई कैसे इतना अनजान रह सकता है? वह भी उस मुद्दे पर जो समय-समय पर देश को उद्वेलित करता है!

कल दोपहर हम सात लोग बैठे थे। सब के सब पढ़े-लिखे (स्नातक से कम कोई भी नहीं), अखबारों और खबरिया चैनलों से अच्छी-खासी वाकफियत रखनेवाले। सबसे अधिक आयुवाला मैं - 65 वर्ष का और सबसे कम आयुवाला अजमत, 32 वर्ष का। पाँच सनातनी और दो इस्लाम मतावलम्बी। पहले हम सबने धार्मिक गुरुओं, उपदेशकों के खोखले प्रवचनों की खिल्ली उड़ाई, फिर धर्म के नाम पर किए जा रहे अत्याचारों और फैलाए जानेवाले आंतक को कोसा, धार्मिक कट्टरता की आलोचना की और ‘फतवे’ पर आ पहुँचे।

मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि मुझे छोड़कर बाकी छहों में से किसी को फतवे के बारे में न्यूनतम जानकारी भी नहीं थी। पहले तो मुझे लगा कि वे सब मुझसे खेल रहे हैं या मेरी परीक्षा ले रहे हैं। किन्तु बात जब ‘भगवान की सौगन्ध’ और ‘अल्ला कसम’ तक आ पहुँची तो मुझे उन सबके अनजानपन पर विश्वास करना पड़ा। फतवे को लेकर मैंने जब अपनी जानकारियाँ उन्हें दीं तो किसी को विश्वास नहीं हुआ। अजमत और नासीर को तो मेरी बातें दूसरी दुनिया की लगीं। अजमत के माथे से तो मानो पहाड़ का वजन उतर गया। बोला - ‘अल्ला कसम दादा! फतवे की हकीकत अगर वाकई में वही है जो आपने बताई है, तो यकीन मानिए बन्दा तो आज से फतवे को ठेंगा दिखाना शुरु कर देगा।’

मुझे यह देखकर हैरत हुई कि छहों के छहों, फतवे को ‘आँख मूँदकर माने जानेवाला, अनुल्लंघनीय धार्मिक आदेश’ माने बैठे हैं। चारों सनातनी मित्र तो पश्चात्ताप की मुद्रा में आ गए। इस्लाम का विरोध करने के लिए फतवा उनके लिए अब तक अमोघ अस्त्र बना हुआ था। उपेन्द्र बोला - ‘यदि वाकई में ऐसा ही है जैसा आपने कहा है तो फिर तो हम अब तक बिना समझे ही आरोप लगाने और निन्दा करने का अपराध करते रहे हैं।’

यह विश्वास करते हुए कि समूचा ब्लॉगर समुदाय फतवे की हकीकत भली प्रकार जानता है, इस अनुभव से प्रेरित होकर मैं फतवे के बारे में अपनी जानकारियाँ यहाँ

जानबूझकर दे रहा हूँ - केवल इसलिए कि यदि मैंने कुछ गलत बता दिया हो तो ब्लॉगर समुदाय मुझे दुरुस्त करने का उपकार करे ताकि मैं भविष्य में गलती करने से बच सकूँ।

फतवा कोई अनुल्लंघनीय धार्मिक आदेश नहीं है। यह इस्लामी कानूनों से सम्बद्ध

केवल ‘धार्मिक मत’ है। गली-मुहल्ले का या रास्ते चलता कोई मुल्ला-मौलवी फतवा जारी नहीं कर सकता। कम से कम ‘मुफ्ती’ पदवीधारी इस्लामी विद्वान् ही फतवा देने का अधिकार रखता है। किन्तु यह ‘मुफ्ती’ भी अपनी मर्जी से, अपनी ओर से फतवा जारी नहीं कर सकता। किसी के माँगने पर ही फतवा दिया जा सकता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, फतवा ‘धार्मिक मत’ अर्थात् परामर्श या सलाह होता है जिसे मानना न मानना, उस पर अमल करना न करना, फतवा माँगनेवाले की मर्जी पर निर्भर करता है। बिलकुल उसी तरह जिस तरह किसी वकील या डॉक्टर से सलाह ली जाए और उस पर अमल करने की छूट, सलाह लेनेवाले को होती है।


गिनती की ये ही बातें मैंने बताईं किन्तु छहों की शकलें देख कर लगा कि यह ‘सार संक्षप’ भी उन्हें ‘महा सागर’ की तरह लगा।

1000 दफ्तर बन्द कर दिए निजी जीवन बीमा कम्पनियों ने

जीवन बीमा उद्योग के निजीकरण की कलई धीरे-धीरे खुलने लगी है।


इस उद्योग में निजी कम्पनियों के लिए लाल कालीन बिछाने के लिए दिए गए तर्कों में एक तर्क यह भी था कि बीमा करने योग्य लोगों का बीमा करने के मामले में भारत सरकार का उपक्रम ‘भारतीय जीवन बीमा निगम’ अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा है इसलिए निजी बीमा कम्पनियों के जरिए ऐसे लोगों को बीमा सुरक्षा उपलब्ध कराने का मौका दिया जाना चाहिए। तब, इस उद्योग के जरिए रोजगार के नये आयाम खुलने के दावे भी किए गए थे। किन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा है, इन दावों की हवा निकलने लगी है और यह बात तेजी से सामने आने लगी है कि बीमा योग्य लोगों का बीमा करने और लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने में निजी बीमा कम्पनियों की कोई दिलचस्पी नहीं है। इनकी दिलचस्पी केवल मुनाफा कमाने में है।


देश की, अग्रणी 6 निजी बीमा कम्पनियों के, दो वर्षों के तुलनात्मक आँकड़े साबित करते हैं कि मुनाफा कमाने के अपने एकमात्र लक्ष्य को हासिल करने के लिए इन कम्पनियों ने छोटे कस्बों/शहरों के अपने लगभग 1,000 से अधिक शाखा कार्यालय बन्द कर दिए, कर्मचारियों की संख्या में 27 प्रतिशत की कमी कर दी और लगभग 1,74,000 अभिकर्ताओं को विदा कर दिया।


किन्तु इन दो वर्षों में इन बीमा कम्पनियों का मुनाफा खूब बढ़ा। आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल लाइफ और बजाज अलियांज बीमा कम्पनियों ने वित्तीय वर्ष 2010-11 में 650 शाखा कार्यालय बन्द किए, लगभग 12,000 कर्मचारी निकाले और क्रमशः 810 करोड़ और 160 करोड़ रुपयांे का शुद्ध मुनाफा कूटा। मैक्स न्यूयार्क और टाटा एआईजी बीमा कम्पनियों ने इस वित्तीय वर्ष में पहली बार मुनाफा कमाया जबकि एचडीएफसी लाइफ तथा रिलायंस लाइफ ने अपने नुकसान में बड़ी हद तक कमी की। किन्तु शाखाएँ बन्द करने और कर्मचारियों को निकालने के मामले में ये भी पीछे नहीं रहीं। हाँ, रिलायंस लाइफ ने अपना कोई शाखा कार्यालय बन्द नहीं किया। इसके विपरीत इस कम्पनी ने इस संख्या में एक की बढ़ोतरी की।


कार्यालय बन्द करने, कर्मचारियों को निकालने और अभिकर्ताओं को रास्ता दिखाने के पीछे इन कम्पनियों का एक ही तर्क था कि अपना कारोबार बचाए रखने के लिए इनके पास इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं बचा था।


निजी बीमा कम्पनियों के इस चलन को मात देने का करिश्मा केवल एक बीमा कम्पनी ने किया लेकिन वह कोई निजी बीमा कम्पनी नहीं थी। वह सार्वजनिक क्षेत्र की, एसबीआई लाइफ बीमा कम्पनी थी जिसने 135 नई शाखाएँ खोलीं और कर्मचारियों की संख्या में 1,313 की वृद्धि की।


निजी बीमा कम्पनियों के ‘चाल-चलन’ की संक्षिप्त हकीकत इस प्रकार है -


शाखाओं की संख्या (क्रमशः 2009-10 और 2010-11) -


आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल लाइफ - 1,923 थी, 519 बन्द कर दी गईं। 1,404 रह गईं।

बजाज अलियांज - 1,151 थी, 151 बन्द कर दी गईं, 1,050 रह गईं।

मैक्स न्यूयार्क लाइफ - 705 थी, 200 बन्द कर दी गईं, 505 रह गईं।

टाटा एआईजी लाइफ - 433 थी, 75 बन्द कर दी गई, 358 रह गईं।

एचडीएफसी लाइफ - 568 थी, 70 बन्द कर दी गईं, 498 रह गईं।

रिलायंस लाइफ - 1,247 थी, एक नई खोली, 1,248 कार्यरत हैं।

एसबीआई लाइफ - 494 थी, 135 नई खोलीं, 629 कार्यरत हैं।
बन्द किए गए शाखा कार्यालयों की कुल संख्या - 1,015


मुनाफा कूटने के लिए इन बीमा कम्पनियों ने, बन्द किए गए कार्यालयोंवाले कस्बों/शहरों के ग्राहकों को भगवान भरोसे छोड़ दिया जबकि इन ग्राहकों को यह कह कर बीमे बेचे गए थे कि इन सबको, इनके अपने गृहनगर में ही विक्रयोपरान्त ग्राहक सेवाएँ उपलब्ध कराई जाएँगी। अब इन ‘अनाथ ग्राहकों’ को, अपनी बीमा पॉलिसियों पर सेवाएँ प्राप्त करने के लिए, उन शहरों के चक्कर लगाने पड़ेंगे जहाँ इन कम्पनियों के शाखा कार्यालय काम कर रहे हैं।


यहाँ यह सवाल स्वाभाविक रूप् से उठता है कि छोटे कस्बों/शहरों के अपने दफ्तर बन्द कर ये बीमा कम्पनियाँ, बीमा योग्य अधिकाधिक लोगों का बीमा कैसे कर पाएँगी? इस काम के लिए दिन-ब-दिन नए शाखा कार्यालय खोलने पड़ते हैं!


कर्मचारियों की संख्या - (क्रमशः 2009-10 और 2010-11) -
आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल लाइफ - 20,000 थे, 7,000 निकाले, 13,000 कार्यरत हैं।

बजाज अलियांज - 20,000 थे, 5,062 निकाले, 14,938 कार्यरत हैं।

मैक्स न्यूयार्क लाइफ - 10,454 थे, 3,454 निकाले, 7,000 कार्यरत हैं।

टाटा एआईजी लाइफ - 8,100 थे, 2,700 निकाले, 5,400 कार्यरत हैं।

एचडीएफसी लाइफ - 14,397 थे, 2,303 निकाले, 12,994 कार्यरत हैं।

रिलायंस लाइफ - 16,656 थे, 2,473 निकाले, 13,183 कार्यरत हैं।

एसबीआई लाइफ - 5,985 थे, 1,313 नए भर्ती किए, 7,298 कार्यरत हैं।
निकाले गए कर्मचारियों की कुल संख्या - 22,992


शुद्ध मुनाफा/घाटा (करोड़ रुपयों में) (क्रमशः 2009-10 और 2010-11) -
आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल लाइफ - मुनाफा 260 करोड़ से बढ़कर 810 करोड़ हो गया, 550 करोड़ की वृद्धि हुई।

बजाज अलियांज - मुनाफा 540 करोड़ से बढ़कर 1,060 करोड़ हो गया, 520 करोड़ की वृद्धि हुई।

मैक्स न्यूयार्क लाइफ - 20 करोड़ का घाटा था जो 190 करोड़ के मुनाफे में बदल गया। याने, 210 करोड़ की वृद्धि।

टाटा एआईजी लाइफ - 400 करोड़ का घाटा, 52 करोड़ के मुनाफे में बदला। याने, 452 करोड़ की वृद्धि।

एचडीएफसी लाइफ - 280 करोड़ का घाटा कम होकर 100 करोड़ रह गया। याने, 180 करोड़ का मुनाफा।

रिलायंस लाइफ - 280 करोड़ का घाटा कम होकर 130 करोड़ रह गया। याने, 150 करोड़ का मुनाफा।

एसबीआई लाइफ - 276 करोड़ का मुनाफा बढ़ कर 366 करोड़ हो गया। याने 90 करोड़ की वृद्धि।


आँकड़े सारी हकीकत बयान कर रहे हैं। किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं रह जाती।

(ऑंकडों का स्रोत : बिजनेस स्‍टैण्‍डर्ड दिनांक 06 जुलाई 2011)

यह छोटा सा बदलाव समाप्त कर सकता है भ्रष्टाचार

‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ वाली उक्ति इन दिनों बार-बार याद आने लगी है। होना तो यह चाहिए था कि जन भावनाओं का प्रकटीकरण, विधायी सदनों में, हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के माध्यम से होता। किन्तु यह बात ‘कर्मण्योवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन्’ की तरह ही, केवल कहने भर को (वह भी आदर्श बघारने के लिए) ही रह गई है - मात्र एक किताबी बात। आज तो न्यायपालिका और ‘निमले’ (‘सीएजी‘ के मुकाबले, ‘नियन्त्रक एवम् महा लेखाकार’ का यह ‘प्रथमाक्षररूप’ मैंने बनाया है।) के श्रीमुख और मसि-कलम से ही जन भावनाएँ प्रकट हो रही हैं। ऐसा करने में इन दोनों को अतिरिक्त श्रम करना पड़ रहा है। मजबूरी है। परिवार के चार में से दो सदस्य यदि निकम्मापन बरतने लगें या अपना काम छोड़ कर दूसरे काम करने लगें तो उन दोनों के हिस्से का काम शेष दोनों सदस्यों को ही करना पड़ेगा न! यही तो हो रहा है आज हमारे देश में! हमारी विधायिका और कार्यपालिका ने अपना मूल काम करना छोड़ दिया तो यह तो होना ही था! सारा देश इन दोनों (न्याय पालिका और ‘निमले’) की वाहवाही करे तो इसमें विचित्र और आपत्तिजनक क्या? लोग तो उन्हीं के पास जाएँगे जो उनकी बात सुनें और उनकी इच्छाओं को साकार करने की कोशिशें करें! चार का बोझा ढो रहे इन दोनों की वाहवाही से परेशान निकम्मे, इन दोनों पर ‘अतिरिक्त सक्रियता’ का आरोप लगाएँ, चीखें-चिल्लाएँ और बकौल राजेन्द्र यादव ‘राँड रोवना’ करें तो हँसी ही आएगी।

सो, निकम्मों की इस (दुः)दशा पर सारा देश ‘मुदित मन’, तालियाँ बजा रहा है और निकम्मों को चपतियाते, लतियाते, जुतियाते देखकर गहरा सन्तोष अनुभव कर रहा है। दिल्ली के वृत्ताकार विधायी भवन से लेकर प्रदेशों की विधान सभाओं में, ये दोनों निकम्मे पूरे देश में समान रूप से छाए हुए हैं। इन निकम्मों में सारे झण्डे, सारे रंग, सारे नेता समान रूप से शामिल हैं। कोई नहीं बचा है। बेशर्मी की हद यह कि प्रत्येक निकम्मा, सामनेवाले को निकम्मा, भ्रष्ट, चोर बताता है। जबकि लोग दोनों की हकीकत बखूबी जानते हैं।


सत्तर की दशक के अन्तिम वर्षों से लेकर अस्सी की दशक के प्रथम सात वर्षों में भी ऐसी ही स्थिति बनी थी। तब केवल न्यायपालिका पर ‘अतिरिक्त सक्रिय’ (प्रोएक्टिव) होने के आरोप लगे थे। किन्तु ये आरोप न तब सच थे न अब सच हैं। उम्मीद की जा रही थी कि न्याय पालिका की इस अतिरिक्त सक्रियता को सबक और चुनौती की तरह लेकर हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधि और प्रशासन तन्त्र अपना उतरा हुआ पानी और उतरने से बचाएँगे भी तथा पानीदार बने रहेंगे भी। किन्तु सबक सीखना तो दूर रहा, इन्होंने तो ‘कोढ़ में खाज’ वाली स्थिति ला दी। पहले केवल न्याय पालिका तमाचे मारती थी। आज तो ‘निमले’ भी शरीक हो गया है। निर्वाचित जन प्रतिनिधियों और प्रशासकीय अधिकारियों ने दशा यह कर दी है कि तय करना मुश्किल हो गया है कि हड़काने की इस जुगलबन्दी में मुख्य कलाकार कौन है और संगतकार कौन - न्याय पालिका या ‘निमले’? कोई दिन ऐसा नहीं जा रहा जब दोनों ही, जबड़े भींचकर, बराबरी से चौके-छक्के न मार रहे हों।

ऐसे में, किसी ‘आविष्कार’ की भले ही न हो किन्तु तनिक ‘प्रक्रियागत बदलाव’ की प्रबल सम्भावनाएँ तो बनती ही हैं।


क्यों नहीं, ‘निमले’ की भूमिका का स्थान बदल दिया जाए? शासन-प्रशासन के वित्तीय निर्णयों की जाँच-परख तो ‘निमले’ अभी भी करता ही है! अभी यह जाँच-परख, निर्णय ले लिए जाने और उनके क्रियान्वयन के बाद की जाती है। क्यों नहीं यह जाँच-परख, निर्णय लेने से पहले ही कर ली जाए? अर्थात् ‘निमले’ को निर्णय लेने की प्रक्रिया के अन्तिम चरण का, अन्तिम निर्णय लेने से ठीक पहले का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाए? काम तो वही का वही रहेगा किन्तु इसका वह असर होगा कि अखबारों के पन्ने और चैनलों के कई-कई घण्टे खाली हो जाएँगे। इसके लिए अतिरिक्त अमले की भी जरूरत नहीं होगी क्योंकि अभी भी यह सारा काम मौजूदा अमला ही कर रहा है।

एक और बदलाव पर विचार करना बुरा नहीं होगा। वित्तीय मामलें के तमाम निर्णय, बन्द कमरों में न लेकर, बड़े सभागारों में लिए जाएँ। ऐसे सभागार देश और प्रदेशों की राजधानियों में होते ही हैं। सारी निविदाएँ इन्हीं सभागारों में खोली जाएँ और उस समय, अधिकारियों तथा निविदाकारों अथवा उनके प्रतिनिधियों के साथ ही साथ जन-सामान्य और मीडिया को भी उपस्थित रहने की छूट दी जाए। अर्थात्, अभी ‘अँधेरे-बन्द कमरों में गुड़ फोड़ने’ की पारम्परिक शैली के स्थान पर सारे निर्णय ‘चौड़े-धाले’ लिए जाएँ। वैसे भी, पारदर्शिता की माँग और आवश्यकता दिन प्रति दिन बढ़ ही रही है।


पूरा देश देख रहा है कि बात तो कोई छुपती नहीं। यत्नपूर्वक छुपाए गए सारे ‘काले-धोले’, एक के बाद एक, रिस-रिस कर सामने आ ही रहे हैं! यदि पहले ही सब कुछ जाँच-परख लिया जाएगा तो लोग जरूर तमाशे से वंचित हो जाएँगे किन्तु हेराफेरी की आशंकाएँ समाप्त भले ही न हों, न्यूनतम तो होंगी ही। कल्पना कीजिए कि कितनी बचत होगी - जन-धन की लूट समाप्त होगी, मलेनि की रिपोर्टों के कारण विधायी सदनों में हंगामे समाप्त हो जाएँगे, अनेक जाँच समितियाँ गठित नहीं करनी पड़ेंगी, अखबारों और समाचार चैनलों पर समाचारों के लिए अधिक जगह और समय उपलब्ध रहेगा। हाँ, तब हमारे राजनीतिक दलों और नेताओं को कोई नया काम तलाश करना पड़ेगा। तब, मलेनि की रिपोर्ट के आधार पर वे किससे त्याग पत्र माँगेंगे?

‘निमले’ की भूमिका में यह बदलाव, इस समय मुझे तो ‘लाख दुःखों की एक दवा’ लग रहा है।


आपको?

भ्रष्टाचार को भ्रष्ट किया रामदेव ने

यह सब मैंने अपने चिट्ठे के लिए नहीं, ‘जनसत्ता’ के लिए लिखा था। पाँच अगस्त को दिल्ली और ग्वालियर से, कुल तीन कृपालुओं ने इस पत्र के छपने की बधाई दी तो मालूम हुआ कि ‘जनसत्ता‘ ने ‘परदे के पीछे’ शीर्षक से इसे अपने दिल्ली संस्करण में छापा है। मेरे कस्बे में ‘जनसत्ता’ एक दिन बाद आता है। सो, पाँच अगस्त का ‘जनसत्ता’ ‘ अगस्त को मेरे कस्बे में पहुँचा। मुझे आश्चर्य (और आनन्द भी) हुआ कि सात मित्रों ने फोन पर भरपूर ऊष्मायुक्त बधाइयाँ देते हुए इसकी प्रशंसा की। इन्हीं बातों से प्रेरित और प्रोत्साहित होकर मैं इसे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।

(बाबा) रामदेव को खदेड़ने के लिए, भारत सरकार ने चार जून की रात को दिल्ली पुलिस के जरिये ‘आत्मघाती मूर्खता’ करते हुए जो बर्बर कार्रवाई की, उसका दण्ड तो उसे मिलना ही चाहिए किन्तु इस पूरे मामले में इस आधारभूत तथ्य की अनदेखी की जा रही है कि जो कुछ हुआ वह ‘मूल क्रिया’ नहीं, ‘प्रतिक्रिया’ थी। ‘प्रतिक्रिया’ को अवश्य दण्डित किया जाए किन्तु यदि ‘मूल क्रिया’ को छोड़ दिया गया तो यह अनुचित तो होगा ही, प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध भी होगा।

अब यह बात साफ हो चुकी है कि (बाबा) रामदेव का अभियान न तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध था और न ही इसके पीछे ‘देश प्रेम’ जैसी कोई भावना थी। इसका एकमात्र लक्ष्य था - ‘खुद को स्थापित करना।’

तीन जून की अपराह्न, होटल क्लेरेजिज में प्रवेश करते समय अवश्य (बाबा) रामदेव, ‘बाबा रामदेव’ थे किन्तु लौटे ‘रामकिशन’ बनकर। इस पाँच सितारा होटल के वातानुकूलित कमरों की बन्द चारदीवारी में उन्होंने सरकार से समझौता किया और लिखित वचन दिया वह प्रथमदृष्टया अवश्य हतप्रभ करनेवाला रहा किन्त ‘ऐसे’ आन्दोलनों/अभियानों से जुड़े तमाम लोग और इन्हें ‘कवर’ करनेवाले तमाम पत्रकार और चैनलकर्मी भली प्रकार जानते हैं कि सड़कों पर जब आन्दोलन चल रहा होता है तो परदे के पीछे, सम्वाद की समानान्तर प्रक्रिया भी इसी प्रकार चलती है। कई बार तो यह भी तय हो जाता है कि कौन जूस पिलाएगा और किस-किस की उपस्थिति में अनशन समाप्त होगा।

इस लिहाज से, दुनिया से छुपाकर, बन्द कमरों में सरकार से समझौता कर और लिखित वचन देकर रामदेव ने कुछ भी अनूठा और अव्यवहारिक नहीं किया। वस्तुतः यह ‘अपने बचाव में लगे हुए दो जरूरतमन्दों का आपसी समझौता’ था। सरकार रामदेव से मुक्ति चाहती थी और रामदेव सरकार से स्वीकृती या मान्यता। दोनों को अपना-अपना नंगापन छिपाने के लिए एक दूसरे की मदद चाहिए थी।किन्तु परदे के पीछे खेले गए, बेईमानी के इस खेल में रामदेव ने बेईमानी कर दी। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार के विरोध का झण्डा उठाए रामदेव ने भ्रष्टाचार को भ्रष्ट कर दिया।

रामदेव ने मान लिया कि सरकार ने उनके सामने समर्पण कर दिया है और अब वे सरकार से, जो चाहे करवा सकते हैं। इसी ‘आत्म-भ्रम के अतिरेक’ के अधीन वे, चार जून की अपराह्न से लेकर सन्ध्या तक सरकार के विरुद्ध धुँआधार भाषण देते रहे जबकि लिखित वचनबद्धता निभाते हुए उन्हें चार बजे तक मंच से घोषणा कर देनी थी कि सरकार ने उनकी अधिकांश माँगें मान ली हैं इसलिए वे अपना आन्दोलन बन्द कर रहे हैं और सांकेतिक रूप से, छः जून तक ‘तप’ करेंगे।

सारा देश भले ही न जाने किन्तु दिल्ली का पूरा मीडिया (और खुद रामदेव) जानता है कि रामदेव के आन्दोलन को लेकर ही, चार जून की सन्ध्या 6 बजे सरकार की पत्रकार वार्ता भी होनी थी जिसमें रामदेव और सरकार के बीच, बन्द कमरों में हुए समझौते के अनुसार सरकारी घोषणाएँ होनी थीं। किन्तु सबने देखा कि रामदेव भाषण दिए जा रहे थे और सराकर, साँस रोके, रामदेव द्वारा आन्दोलन स्थगित किए जाने की घोषणा की प्रतीक्षा कर रही थी। इधर सरकार की बेचौनी पल-पल बढ़ रही थी, उधर रामदेव का भाषण पूरा होता नजर नहीं आ रहा था। समस्त सम्बन्धित लोग और पक्ष भली प्रकार जानते हैं कि रामदेव के भाषण के दौरान, सरकार ने बार-बार फोन करके रामदेव से अपना वादा निभाने के लिए कहा और रामदेव की घोषणा की प्रतीक्षा करते हुए अपनी पत्रकार वार्ता रोके रही। लेकिन रामदेव के लिए तो मानो खुद को नियन्त्रित कर पाना सम्भव नहीं रह गया था। अपने अन्तिम फोन में सरकार ने रामदेव को दो टूक सूचित किया यदि रामदेव ने अपना वादा नहीं निभाया तो मजबूर होकर सरकार, बालकृष्ण के हस्ताक्षरों वाला, रामदेव की वचनबद्धतावाला पत्र सार्वजनिक कर देगी। किन्तु रामदेव ने यह चेतावनी भी अनदेखी-अनसुनी कर दी। तब, सारे देश ने देखा कि, निर्धारित/घोषित समय से पौन घण्टा देरी से, शाम पौने सात बजे सरकार ने (या कहें कि ‘सिब्बल एण्ड कम्पनी’ ने) अपनी पत्रकार वार्ता शुरु की और रामदेव की लिखित वचनबद्धता की प्रतिलिपियाँ प्रेस तथा मीडिया को सौंप दी। कहना न होगा कि पर्दे के पीछे खेले गए इस खेल में सरकार ने, रामदेव के मुकबाले अधिक धैर्य ही नहीं अधिक ईमानदारी भी बरती।

यदि रामदेव अपनी वचनबद्धता निभाने की ईमानदारी बरतते तो दिल्ली पुलिस को कोई कार्रवाई करने की न तो स्थिति बनती और न ही नौबत आती।

इसलिए, चार जून की रात को, प्रतिक्रियास्वरूप की गई बर्बर कार्रवाई के लिए सरकार और पुलिस को तो दण्डित किया ही जाना चाहिए किन्तु यदि मूल क्रिया की अनदेखी कर उसे छोड़ दिया गया तो इससे अनुचित माँगों को लेकर आन्दोलन करनेवाले भी प्रोत्साहित होंगे।


यह बिलकुल वैसा ही होगा कि फुनगियों को काटा जा रहा है और जड़ों को छोड़ा जा रहा है। या कि चोर को तो दण्डित किया जा रहा है किन्तु चोर की माँ को अभयदान दिया जा रहा है।

शहादत की प्रतीक्षा में ठिठका हुआ देश

आसार अच्छे नहीं हैं। अण्णा विफल होते नजर आ रहे हैं। उनकी शब्दावली और शैली, उनकी विफलता की पूर्व घोषणा करती लग रही है।

अण्णा के नाम के साथ गाँधी का नाम सहज ही जुड़ जाता है। किन्तु आज ‘गाँधी तत्व’ अण्णा के अभियान के आसपास तो क्या, कोसों दूर तक भी नजर नहीं आ रहा। अण्णा को किसी हीन महत्वाकांक्षी, सड़कछाप राजनेता की तरह पेशेवर आरोप लगाते देखना किसी दुर्भाग्य से कम नहीं लग रहा। वे (सिब्बल पर) व्यक्तिगत आरोप-प्रतिरोप में व्यस्त हो गए हैं, (मनमोहनसिंह सहित अन्य नेताओं की) खिल्ली उड़ाने में अपार आनन्द का अनुभव करते नजर आ रहे हैं। विनम्रता का स्थान दम्भोक्तियाँ लेती नजर आ रही हैं। उन्होंने मानो अपने आप को अभी से ही ‘शहीद’ मान लिया है और इसी ‘शहीदाना मुद्रा’ में वे बातें कर रहे हैं। उनका ‘आग्रह’, ‘हठ’ में बदल गया है। ‘जन लोकपाल’ के अपने मसवदे की पैरवी के बजाय सरकार की आलोचना पहली प्राथमिकता पर आ गई है। ‘गाँधी’ में यह सब तो क्या, इनमें से कुछ भी नहीं है! ‘गाँधी’ में तो आत्म चिन्तन, आत्म मन्थन, आत्म विश्लेषण, आत्म शुद्धि और आत्मोत्थान के सिवाय और कुछ है ही नहीं! लेकिन अण्णा में फिलवक्त तो इनमें से कुछ भी नजर नहीं आ रहा।


अण्णा वही कहने लगे हैं और करने लगे हैं जो सरकार उनसे कहलवाना और करवाना चाहती थी। सरकार ने अण्णा के आन्दोलन का उद्ददेश्य, सरकार के विरुद्ध वातावरण निर्मित करना बताया था। ताज्जुब है कि अण्णा ने सरकार की इस धारणा को सार्वजनिक रूप से सच साबित कर दिया। उन्होंने कहा कि उनका आन्दोलन आन्दोलन सरकार के वरुद्ध है। संसद की अवमानना से बचने के लिए अण्णा ने यह बात कही थी। काँग्रेस और संप्रग के विरोधी दलों की सहानुभूति प्राप्त करने की रणनीति के तहत भले ही अण्णा ने ऐसा कहा हो किन्तु वास्तविकता तो यही है कि अण्णा का विरोध संसद से ही है!

अण्णा यदि यह माने बैठे हैं कि काँग्रेस और संप्रग के घटक दलों को छोड़ कर तमाम दल उनके, जन लोकपाल के मसवदे का आँख मूँदकर समर्थन करने को उतावले बैठे हैं तो अण्णा की इस मासूमियत पर सहानुभूति ही जताई जा सकती है। जन लोकपाल मसवदे के जिन 6 मुद्दों को अण्णा ने अपनी नाक का सवाल बना लिया है, उन छहों मुद्दों पर, प्रतिपक्षी दलों में से एक भी दल अण्णा के साथ नहीं है। प्रधानमन्त्री को लोकपाल के दायरे में लानेवाले केवल एक मुद्दे पर भाजपा सहित गिनती के कुछ दल अवश्य अण्णा के साथ हैं किन्तु यह उनकी सदाशयता और ईमानदारी नहीं, राजनीतिक मजबूरी (या कि राजनीति की ‘रणनीतिक धूर्तता’) है। ध्यान से देखें तो साफ नजर आ जाता है कि इस माँग का समर्थन करनेवाले किसी भी दल का प्रधानमन्त्री इस देश में कभी नहीं बन सकता।


यह सच है कि केन्द्र सरकार इस समय ‘सर्वाधिक भयभीत और कमजोर सरकार’ है किन्तु अण्णा के अभियान का दिशा परिवर्तन उसकी ताकत बनता जा रहा है। रामदेव की तरह ही अण्णा भी बड़बोलेपन के शिकार हो रहे हैं, दम्भोक्तियों/गर्वोक्तियों सहित आरोप लगा रहे हैं, अपनी बात कम और सरकार की खिंचाई ज्यादा कर रहे हैं। अण्णा ‘अतिरेकी आत्म मुग्धता’ के शिकार लग रहे हैं। वे यह भूल जाना चाह रहे हैं जिस संसद का विरोध न करने की दुहाई वे दे रहे हैं, उस संसद में एक भी दल, उनके जन लोकपाल के मसवदे के छहों विवादास्पद मुद्दों पर उनके साथ नहीं है।

वास्तविकता यह है कि तनिक धूर्तता बरतते हुए केन्द्र सरकार यदि, अण्णा के जन लोकपाल मसवदे को ज्यों का त्यों संसद में पेश कर दे और व्हीप का प्रतिबन्ध हटा कर सांसदों को ‘आत्मा की आवाज’ पर मतदान करने की छूट दे दे तो कोई ताज्जुब नहीं कि इस मसवदे के पक्ष में एक भी मत न पड़े।


अण्णा को वास्तविकताएँ समझने की कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए वे तैयार न हों तो उनके आसपासवालों को यह कोशिश करनी चाहिए। जन लोकपाल का मसवदा जस का तस स्वीकार हो न हो, इसके जरिए अण्णा ने, भ्रष्टाचार के प्रति केन्द्र सरकार की बेशर्मी, नंगई और नंगापन अत्यन्त प्रभावशीलता से प्रमाणित कर दी है। अभियान अपने मुकाम पर भले न पहुँचे किन्तु इसका मकसद तो पूरा हो गया है। यह जन उद्ववेलन अब शान्त होनेवाला नहीं है। किन्तु अण्णा को यह हकीकत माननी ही पड़ेगी कि उनके मसविदे को कानून बनाने का रास्ता सरकार से होकर नहीं, संसद से होकर जाता है। इस अभियान को, संसद में ऐसी अनुकूल स्थितियाँ बनाने की दिशा में मोड़ने पर विचार किया जाना चाहिए। अण्णा मानें, न मानें, चाहें, न चाहें, हकीकत तो यही है। परोक्षतः (संसद की अनिवार्यता की) इस बात को अण्णा खुद स्वीकार भी कर रहे हैं। सिब्बल और राहुल गाँधी के निर्वाचन क्षेत्रों सहित देश के अन्य नगरों में वे जन लोकपाल पर सार्वजनिक मतदान करवा कर लोगों की राय ले रहे हैं। एक ओर तो सार्वजनिक मतदान के जरिए अपने मसविदे के पक्ष में (और सिब्बल तथा राहुल गाँधी के विपक्ष में) जन भावना की बात कहना और दूसरी ओर संसद से बचने की कोशिश करना, समूचे अभियान की मंशा को कटघरे में खड़ा करता है।

यह बात याद रखी जानी चाहिए कि इस अभियान से जुड़ने के लिए अण्णा खुद चल कर ‘सिविल सोसायटी’ के पास नहीं आए थे। केजरीवाल, भूषण, बेदी आदि उनके पास गए थे क्योंकि इन्हें ऐसा व्यक्ति और व्यक्तित्व चाहिए था जिस पर लोग विश्वास कर सकें। अण्णा को न्यौतनेवाले सारे लोग इस बात से बखूबी वाकिफ थे कि इनमें से एक के भी पास न तो ‘जनाकर्षण’ (मास अपील) है और न ही जन विश्वास (मास फेथ)। अण्णा में ‘जनाकर्षण’ (मास अपील) भले ही कम रह हो किन्तु जन विश्वास (मास फेथ) भरपूर था और अब भी है। हम ‘आदर्श अनुप्रेरित समाज’ हैं। हम खुद शहीद हों न हों, गर्व करने के लिए हमें ‘शहीद’ चाहिए होते हैं। सारा देश अत्यधिक उत्सुकता और अधीरता से एक शहादत की प्रतीक्षा कर रहा है। विडम्बना है कि इस प्रतीक्षा को अण्णा अपने पक्ष में प्रचण्ड जन समर्थन मान कर चल रहे हैं।


भविष्य के गर्त में क्या छुपा है, कोई नहीं जानता। ईश्वर अणा को शतायु प्रदान करे। किन्तु यदि दुर्भाग्यवश अण्णा को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा तो वे शहीद हों न हों, केजरीवालों, भूषणों, बेदियों आदि की इच्छा-वेदी के बलि-पुरुष अवश्य बन जाएँगे।

कृतज्ञ-सजल नयनों की निमिष-निधि

कभी, कहीं पढ़ा था कि समय कि सबसे छोटी इकाई होती है - निमिष। पलक झपक कर उठने में जितना समय लगता है, समय के इसी अंश को निमिष कहते हैं। खुशियों का यही, एक निमिष किस तरह पूरी जिन्दगी ढक लेता है, किस तरह ‘आजीवन अनमोल निधि’ बन जाता है, इसी दैवीय अनुभव से अभी-अभी गुजरा हूँ। छोटी सी बात समझने में कितनी उमर बीत जाती है, यह भी अभी-अभी ही समझ पा रहा हूँ।


कैलाश भी बीमा अभिकर्ता है। अवस्था और अभिकरण (एजेन्सी) अवधि, दोनों में अवश्य मुझसे कनिष्ठ है किन्तु बीमा-ज्ञान के मामले में मैं उससे परामर्श लेता हूँ। यहाँ भले ही मैं कैलाश के लिए तृतीय पुरुष, एक वचन प्रयुक्त कर रहा हूँ किन्तु सामने तो प्रथम पुरुष, एक वचन प्रयुक्त करते हुए ‘कैलाशजी’ ही सम्बोधित करता हूँ। कैलाश शर्मा उसका पूरा नाम है और मूलतः राजस्थान निवासी है। आजीविका-अर्जन उसे रतलाम ले आया। उसका देहातीपन मुझे लुभाता है यह कहिए कि उसकी जीवन शैली और व्यक्तिगत आचरण में मैं अपनी देहाती जीवन शैली और आचरण में अपना प्रतिबिम्ब देखता हूँ। सम्पर्क और सम्बन्ध ऐसे हो गए हैं कि वह मुझ पर और मेरी उत्तमार्द्ध पर ‘आदरपूर्ण स्नेहाधिकार’ रखता है। मैं भी उसे, कभी-कभार अपनी गृहस्थी के छोटे-मोटे काम-काज बता देता हूँ जिन्हें वह प्रसन्नतापूर्वक कुछ इस तरह करता है मानो प्रतीक्षा ही कर रहा हो।

इसी कैलाश ने अभी-अभी अपने नए आवास-भवन का भूमि पूजन किया। समय था - सुबह साढ़े आठ बजे का। कैलाश भली प्रकार जानता है कि सुबह जल्दी उठने में मेरी नाड़ियाँ टूटती हैं। उसने कहा - ‘साहबजी! शनिवार को सुबह साढ़े आठ बजेपूजन है।’ वह भूमि पूजन करनेवाला है, यह तो पता था किन्‍तु किस दिन होगा, यह पता नहीं था। सो, कैलाश की बात सुनकर मुझे खुशी हुई। हाथ मिलाकर उसे बधाइयाँ दीं तो उसकी आँखें बोलती नजर आईं। लगा, वह कुछ और भी कहना चाहता था किन्तु कहा नहीं।


शनिवार को नींद तो जल्दी खुल गई किन्तु ‘दास मलूका’ का ‘अजगर’ बन, बिस्तर में पड़ा-पड़ा, ऊँचा-नीचा होता रहा। उठते ही याद आ गया था कि आज कैलाश का भवन भूमि पूजन मुहूर्त है। ‘मुझे वहाँ जाना चाहिए’ यह विचार तो नहीं आया किन्तु भूमि पूजनवाली बात, मन-मस्तिष्क पर बराबर ‘ठक्-ठक्’ कर रही थी। यह ‘ठक्-ठक्’ धीरे-धीरे बढ़ने लगी - आवृत्ति में भी और आवाज में भी। कुछ ही पलों में स्थिति यह हो गई कि चाय के ‘सिप’ की जगह भी यही ‘ठक्-ठक्’ सुनाई देने लगी और अखबारों की खबरों में भी ‘भूमि पूजन’ ही दिखाई देने लगा। लगे हाथों, कैलाश की बोलती आँखें भी नजर आने लगीं।


इस सबका एक ही मतलब था - ‘मुझे कैलाश के यहाँ भूमि-पूजन में जाना चाहिए।’ ‘चाहिए’ नहीं, ‘जाना ही है।’ और मेरा काया पलट हो गया। अजगरपन हवा होकर हरकत में बदल गया। चाय और आखबार, दोनों ही अधूरे छोड़ मैं तैयार होने लगा। उस दिन न तो प्राणायाम किया और न ही देव पूजा। स्नान कर, फटाफट तैयार हो भूमि पूजन स्थल पहुँचा तो देखा, पूजन प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी। कैलाश और उसकी पत्नी जया, पुरोहित के निर्देशानुसार पूजा-उपक्रम सम्पादित कर रहे थे। उनका बेटा दिव्यश कौतूहल भाव से देख रहा था। स्कूल जाने के कारण दोनों बेटियाँ, प्रियंका और डिम्पी अनुपस्थित थीं। कैलाश के विकास अधिकारी श्रीसुजय गुणावत तथा एक और सज्जन मौजूद थे। थोड़ी ही देर में एक और अभिकर्ता राजेन्द्र मेहता भी पहुँच गया।


अचानक ही मेरा ध्यान गया - ‘मौके पर कोई फोटोग्राफर नहीं है।’ इस क्षण तक नहीं जानता कि मैंने ऐसा क्यों किया किन्तु मैं अपने मोबाइल से आयोजन के चित्र उतारने लगा। साढ़े नौ बजते-बजते पूजा सम्पन्न हो गई। कैलाश और जया ने प्रणाम किया, मुँह मीठा कराया। कैलाश ने कहा - ‘साहबजी! परसों से लेकर आज सुबह तक, आठ-दस बार जी में आया कि आपको यहाँ आने के जिए कहूँ लेकिन आपको जानता हूँ इसलिए कहने की हिम्मत नहीं हुई। आपने आकर मेरी मनोकामना पूरी कर दी।’ मैं हँस कर रह गया। कुछ ही क्षणों में हम अपने-अपने घर लौट आए।


रास्ते में ही विचार आया - ‘ये चित्र मेरे तो किसी काम के नहीं। किन्तु यदि ये चित्र आज ही कैलाश के घर पहुँच जाएँ तो पूरे परिवार को कितनी खुशी होगी?’ मैं सीधा फोटो स्टूडियो पहुँचा। पूछताछ में मेरी उतावली देख कर स्टूडियो मालिक सुनील अग्रावत ने कहा कि दोपहर बारह बजे तक वे मुझे चित्र उपलब्ध करा देंगे।


अपने कुछ काम निपटा कर मैं भाजीबीनि के अपने शाखा कार्यालय पहुँचा। ठीक बारह बजे सुनील का फोन आया - ‘फोटो तैयार हैं।’ मैं तनिक व्यस्त था। कहा - ‘थोड़ी देर में आता हूँ।’ काम निपटाते-निपटाते एक बज गया। मैं उठ ही रहा था कि कैलाश भी पहुँच गया। मैंने कहा - ‘मेरे आने तक चले मत जाना। मेरी राह देखना।’ स्टूडियो पहुँचा, तब तक सब सामान्य था। किन्तु जैसे ही चित्रों का लिफाफा हाथ में आया, मुझे रोमांच हो आया, यह सोचकर कि चित्र देखकर कैलाश को कितनी खुशी होगी। सामान्य से तनिक अधिक तेज गति से स्कूटर चलाकर कार्यालय पहुँचा। अभिकर्ता-कक्ष में जाकर कैलाश को बुलाया और लिफाफा उसे सौंपते हुए कहा - ‘यह आपके लिए सरप्राइज है।’ कैलाश ने जिज्ञासापूर्वक, सवालिया नजरों से मेरी ओर देखते हुए लिफाफा खोला और यह जानते ही कि ये आज सम्पन्न हुए भूमि पूजन के चित्र हैं, मानो संज्ञा-शून्य हो गया। उससे बालते नहीं बना। अत्यन्त कठिनाई से, (कुछ ऐसे मानो कि उससे जबरन बुलवाया जा रहा हो) बोला - ‘साहबजी! इतनी जल्दी?’ और उसने चित्र देखना शुरु किया। वह चित्र देख रहा था और मैं उसका चेहरा। चित्रों के रंग उसके चेहरे पर फैलते जा रहे थे। उसकी खुशी देखते ही बन रही थी।


कोई तीस-पैंतीस चित्र देखने में कैलाश को बहुत अधिक समय नहीं लगा। दोनों हाथों में चित्र थामे उसने मेरी ओर देखा और मानो पाताल की गहराई में खड़ा होकर बोल रहा हो, कुछ इतनी ही धीमी आवाज में बोला - ‘साहबजी! यह तो मैंने बिलकुल ही नहीं सोचा था।’ यह वाक्य कहने में कैलाश को पलक झपकने जितना भी समय नहीं लगा। किन्तु निमिष मात्र में यह सब जो हुआ, वह सामान्य और छोटी घटना नहीं थी। इतनी बड़ी और इतनी व्यापक कि उसने मेरे मन-मस्तिष्क को ढक लिया।


कैलाश की आँखें झलझला आई थीं और उसका मन्द स्वर इतना भारी और इतना भीगा हुआ मानो आषाढ़ के पहले दिन बरसनेवाला वह बादल जिसके आसपास अकूत-असीमित खुशियों की बिजलियाँ नाच रही हों।


निमिष मात्र में उठी कैलाश की वह सजल कृतज्ञ दृष्टि और कहा गया वह एक वाक्य मेरी अमूल्य जीवन निधि बन गया। जो कुछ मैंने किया था उसका और चित्रों का आर्थिक मूल्यांकन तो पल भर में हो सकता है किन्तु इससे जो खुशी कैलाश को हुई और उस खुशी से उपजी उसकी एक नजर और एक वाक्य ने मुझे खुशियों से जिस तरह निहाल किया, उसका आर्थिक मूल्यांकन तो कुबेर भी नहीं कर सकेगा। मेरे लिए तो यह सब ‘राज तिहुँ पुर को तजि डारो’ जैसी निधि बन गया।


खूब सुना है और कई बार कहा भी है - ‘किसी को खुशी देने से बड़ी खुशी और कोई नहीं होती।’ किन्तु यह ‘सुनी और कही’ अब समझ पड़ रही है, जीवन के पैंसठवे बरस में - इस एक निमिष के माध्यम से।

मेरे आश्रम में आपका स्वागत है

सोच रहा हूँ, एक मठ या आश्रम खोल ही लूँ।

उम्र बढ़ती जा रही है, शारीरिक क्षमता दिन-प्रति-दिन कम होती जा रही है, चिढ़-झुंझलाहट जल्दी आने लगी है, लेप टॉप और ब्लेकबेरी से लैस नौजवान बीमा एजेण्टों से मुकाबला करना कठिन होता जा रहा है। किन्तु अभी छोटे बेटे की पढ़ाई और विवाह की जिम्मेदारियाँ माथे पर हैं। काम तो करना ही पड़ेगा! तो मठ या आश्रम ही खोलने में हर्ज ही क्या है?


न्यूनतम निवेश, शून्य जोखिम और प्रप्ति के नाम पर माल ही माल। शुरुआत के लिए कमरा तो बहुत बड़ा हो जाएगा, बरामदे से ही काम चलाया जा सकता है। मुझे तो बस शुरुआत करनी है, बाकी तो भक्तगण स्वयम् ही सब सम्हाल लेंगे और जल्दी ही मुझे बरामदे से उठाकर, हाथी-घोड़ा-पालकी वाली शोभा-यात्रा सहित, ढोल ढमाकों के साथ, भरपूर क्षेत्रफलवाले सरकारी भूखण्ड पर अतिक्रमण कर बनाए गए मठ/आश्रम में बैठा देंगे।

अपने चारों ओर देखता हूँ, धर्म का झण्डा थामे बैठे गुरुओं/महाराजों का आचरण और उनसे जुड़ी नाना प्रकार की असंख्य घटनाओं को देखता हूँ तो अत्यधिक आश्वस्त हो, आश्रम/मठ खोलने की इच्छा से पेट में मरोड़ें उठने लगती हैं।


दक्षिण के एक गुरु ने मुझे सर्वाधिक प्रेरित किया। युवतियों को इनकी शिष्या बनने के लिए स्टाम्प पर किए गए अनुबन्ध के अधीन सम्भोग की अनिवार्यता से बद्ध होना पड़ता था और अनुबन्ध को गोपनीय रखने का वचन भी देना पड़ता था। गए साल बात सामने आई तो बड़ा हल्ला मचा। इन गुरुजी के चित्रों को जूतों-चप्पलों से पिटते सारी दुनिया ने देखा। पुलिस और कानून हरकत में आए। समाचार चैनलों और अखबारों को कुछ दिन अच्छा काम मिला। किन्तु जल्दी ही सब ठण्डा हो गया। सोडा वॉटर की बोतल के उफान की तरह। अभी-अभी वे ही गुरुजी फिर समाचार चैनलों पर छाए हुए थे। लोग उन्हें स्वर्ण रथारूढ़ कर, भव्य शोभा-यात्रा से आश्रम में लाए। आश्रम में उनके चारों ओर स्त्रियाँ जोर-जोर से उछल रही थीं। कुछ इस तरह मानो धरती से ऊपर उठ रही हों। चैनल के उद्घोष कह रहे थे कि गुरुजी अपनी मन्त्र शक्ति से स्त्रियों को हवा में उड़ाने का चमत्कार कर रहे थे। वे ही गुरुजी, वे ही स्त्रियाँ, वे ही समाचार चैनल, वे ही अखबार किन्तु इस बार दुराचार, व्यभिचार का कोई उल्लेख नहीं। गोया, जो भी हुआ था, धर्म ही था।

आश्रम/मठ में कुछ भी करने की छूट और सुविधा रहती है। आश्रम में संदिग्ध स्थितियों में मौतें हो जाएँ, प्रवचन शिविरों में, बाहर से आई अवयस्क किशोरियों से बलात्कार हो जाए - किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। चिल्लानेवाले चिल्लाते रहते हैं और धर्म गंगा बहती रहती है।



करने के नाम पर मुझे बस यही सावधानी बरतनी होगी कि मैं कुछ कर न लूँ। उत्कृष्ट शब्दावली, प्रांजल भाषा, आलंकारिक वाक्य विन्यास, प्रभावी वक्तृत्वता में अनुप्रास और उपमाओं से लदे उपदेश ही तो देने होंगे? यह सावधानी भी बरतनी होगी कि उपदेशों पर अमल करने का आग्रह भूलकर भी न करूँ। लोग धर्म को अपने जीवन में उतारें, धर्म को अपना आचरण बनाएँ, यह आग्रह तो मुझे भूल कर भी नहीं करना है। मुझे यह चतुराई भी बरतनी पड़ेगी मैं लोगों से, खड़े-खड़े, कदम ताल कराता रहूँ और भरोसा दिलाता रहूँ कि मैं उन्हें आगे ले जा रहा हूँ। हाँ, मुझे यह ध्यान भी रखना पड़ेगा कि कहीं मैं भी उनके साथ कदम ताल ही करता न रह जाऊँ।


एक बार आश्रम/मठ खोल लिया तो बाकी सब कुछ अपने आप जुड़ता जाता है। लोग पहले तो टटोलते हैं कि बाबाजी वही सब कहते हैं या नहीं जो वे सुनना चाहते हैं। एक बार उनका भरोसा बँधा कि फिर तो गाड़ी चल निकलती है। चल निकलती क्या, सुपर फास्ट रेल की तरह, छोटे स्टेशनों पर रुके बिना, अपने गन्तव्य पर पहुँच कर ही रुकती है। लोगों का अटाटूट जमावड़ा ऐसा कि डिब्बों में जगह तो क्या डिब्बे ही कम पड़ जाएँ। यह जमावड़ा ही मेरी सबसे बड़ी ताकत होगा। इस जमावड़े के दम पर ही मैं प्रधानमन्त्री और भारत सरकार तक को गरिया सकता हूँ। सारे राजनीतिक दलों के नेता-मुखिया मेरे दर्शन कर स्वयम् को कृतार्थ अनुभव कर, गद्गद होंगे। लोकतन्त्र में माथे ही गिने जाते हैं - यह सत्य वे भी जानते हैं और मैं भी। हम दोनों एक दूसरे के लिए आवश्यक और अपरिहार्य होंगे। वे मेरी रक्षा करेंग और मैं उनके लिए वोटों की फसल उगाऊँगा। जब नेता मेरे कब्जें में होंगे तो सरकारी अधिकारी मेरा क्या बिगाड़ लेंगे? वे तो मेरे सामने पंक्तिबद्ध नत मस्तक खड़े रहेंगे और मैं उनसे मिलकर अपने भक्तों को शासन-प्रशासन और कानून की सुरक्षा उपलब्ध कराऊँगा। भक्तगण खुल कर नहीं खेल पाएँगे तो मेरी सेवा कैसे कर पाएँगे? मैंने देखा है, गेरुआ और दुग्ध-धवल श्वेत वस्त्र केवल वस्त्र नहीं होते। वे तो अभेद्य कवच होते हैं। मैं लोगों की काली कमाई को सफेद में बदलने, अपराधियों को अपने आश्रम में शरण-सुरक्षा देने का काम आराम से करूँगा। जाहिर है, ये नेक काम मैं मुफ्त में तो करने से रहा?

कुछ धर्म/सम्प्रदाय अवश्य ऐसे हैं जो अपने साधुओं के स्ख्लित आचरण को सहन नहीं करते और उन्हें साधु वेश से मुक्त कर, सद्गृहस्थ के कपड़े पहना देते हैं। किन्तु मेरे धर्म/सम्प्रदाय में ऐसी जोखिम पल भर को भी, रंच मात्र भी नहीं। साधु वेश के नीचे मैं बरमूडा पहनूँ, राजनीति करूँ, कारखाने-फैक्ट्रियाँ खोलूँ, करोड़ों का व्यापार करूँ, अपना अखबार निकालूँ, अपनी टीवी चैनल शुरु करूँ - कोई रोकने-टोकनेवाला नहीं। मैं जो भी करूँगा, वह धर्म ही होगा।


हाँ, एक काम मैं लीक से हटकर करूँगा। अपना और अपने मठ/आश्रम का नाम रखने में मैं कोई आदर्श नहीं वापरूँगा। खुद के लिए मैंने, लीक से हटकर नाम तय कर लिया है। मेरा नाम होगा - ‘असली पाखण्डी बाबा।’ मेरा यह नाम ही जादू और चमत्कार करेगा। लोग इसी नाम से आकर्षित होकर, जिज्ञासा-भाव से मेरे पास आएँगे। इतना भरोसा तो मुझे अपने आप पर है कि एक बार जो आया, उसे बार-बार आना पड़ेगा।


मेरा यह अनूठा विचार आपको कैसा लगा? लेकिन उत्साह के अतिरेक भूल कर भी खुद ‘असली पाखण्डी बाबा’ बनने की बात मत सोचिएगा। यारी दोस्‍ती गई भाड में। पापी पेट का सवाल है और धन्‍धे-पानी का मामला है। आपने यदि ऐसा कुछ किया तो मुझे मेरे धर्म की सौगन्‍ध, आपको बख्‍शूँगा नहीं। ध्‍यान रखिएगा, मैंने इस नाम और विचार का ‘कॉपी राइट’ करवा लिया है।

ताकि तोड़ी जा सके

इन दिनों मेरे कस्बे में शपथ ग्रहण समारोहों की बहार आई हुई है। प्रतिदिन एक के औसत से, समारोह हो रहे हैं। कभी किसी सेवा संगठन का तो कभी सामाजिक संगठन का। लगता है, सावन में केवल ‘जल वर्षा’ नहीं, ‘शपथ ग्रहण समारोह वर्षा’ भी होती है। ऐसे आयोजनों के बुलावे कभी-कभी मुझे भी आते हैं। कुछ में जा पाता हूँ। कुछ में नहीं। एक-दो संगठनों के सदस्य के रूप में शामिल हुआ हूँ तो एक-दो समारोहों में अतिथि या अध्यक्ष बन कर भी गया हूँ किन्तु भरपूर समय पहले। अब भी कभी-कभार (मुख्य अतिथि/अध्यक्ष बनने के) ऐसे बुलावे आते हैं किन्तु सविनय अस्वीकार कर देता हूँ।

ऐसे समारोहों का औचित्य और आवश्यकता मुझे अब तक समझ नहीं पड़ी है। जब-जब भी विचार किया तब-तब, हर बार इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि यदि ऐसे समारोह न हों तो भी संगठन की सेहत और उसके कामकाज पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। इस निष्कर्ष पर भी पहुँचा कि शपथ ग्रहण समारोह आयोजित करने को लेकर जितनी चिन्ता, गम्भीरता, सतर्कता बरती जाती है उस सबका सहस्त्रांश भी यदि शपथ निभाने में लग जाए तो देश की काया पलट जाए।

बानगी के लिए, शपथ ग्रहण समारोह के ठीक बाद, शपथ ग्रहण करनेवाले कुछ ‘शपथ गृहिताओं’ से शपथ के बारे में पूछा तो सबके सब बगलें झाँकते मिले। एक भी नहीं बता पाया कि उसने क्या शपथ ली है। मेरी बात पर भरोसा बिलकुल मत कीजिए किन्तु अपने स्तर पर इसे आजमाइए अवश्य। मुझे आकण्ठ विश्वास है कि आपका अनुभव भी मेरे अनुभव से मेल खाएगा।

ऐसा सम्भवतः केवल इसलिए हो रहा है कि हम समारोहीकरण और खानापूर्ति में ही विश्वास करने लगे हैं। यह स्थिति शिखर से लेकर धरातल तक समान है। हमारे विधायी पदों के लिए शपथ लेना अनिवार्यता है। कोई सम्विधान के नाम पर तो कोई ईश्वर के नाम पर शपथ लेता है। सेवा/सामाजिक संगठनों में किसी का नाम लेना आवश्यक नहीं होता। सम्भवतः इसलिए कि वहाँ शपथ ग्रहण करने का प्रावधान ही नहीं होता। कुछ संगठनों में यह स्वतः मान लिया जाता है कि निर्धारित दिनांक से नए पदारूढ़ व्यक्ति ने अपना काम शुरु कर दिया है।

‘शपथ’ के प्रति हम लेशमात्र भी शायद ही ईमानदार हों। सम्विधान या ईश्वर के नाम पर शपथ लेनेवाले किस निर्लज्जता से सम्विधान की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं और ईश्वर की शपथ लेनेवाले किस सीनाजोरी से ईश्वर को झक्कू टिका रहे हैं - यह हम प्रतिदिन देख ही रहे हैं। हम अपने आसपास ही नजर डालें तो पाएँगे कि चारों ओर लगभग यही दशा है। बैंक मे कार्यरत मेरे एक मित्र, वादा करके उसे न निभाने में विशेषज्ञ हैं। उनसे मित्रता के शुरुआती दिनों में, उन पर विश्वास कर मेरे कई काम अत्यधिक विलम्ब से पूरे हो पाए। वे वादा करते। मैं विश्वास कर उनकी प्रतीक्षा करता। थोड़े अन्तराल के बाद उन्हें याद दिलाता। वे खेद प्रकट कर, वादा दुहराते। मैं फिर प्रतीक्षा करता। लेकिन उन्होंने एक बार भी मेरी प्रतीक्षा को मंगल सूत्र नहीं पहनाया। अनेक अनुभवों के बाद मुझे समझ आया कि वे हमारे नेताओं के ‘मित्र संस्करण’ हैं - वादा करो, भूल जाओ, निभाओ कभी मत। अकल आने पर मैं उन्हें ‘यूबीएम साहब’ कह कर पुकारने लगा। मैंने उनसे कहा - ‘अब मैं आपको वही काम बताऊँगा जो मुझे किसी से नहीं करवाना होगा।’ ताकि तोड़ी जा सके ‘यूबीएम’ का मतलब आप भी जान लें - उल्लू बनाने की मशीन।

मेरे एक और मित्र हैं। मुख्य बाजार के मुख्य चौराहे पर उनकी अच्छी-भली दुकान है। सन्त स्वभाव के हैं। लालची और स्वार्थी बिलकुल नहीं। निजी आचरण में शत प्रतिशत सात्विक। किन्तु वादा करने और उसे न निभाने में वे भी ‘जूनीयर यूबीएम साहब’ हैं। इनको समझने में भी मुझे अपने अनेक काम विलम्बित करने पड़े। मुझे कहीं से एक शे’र मिला जो मैंने ताबड़तोड़ इन्हें लिख भेजा -


ये तेरी फितरत है कि वादा कर ले
मेरी हिम्मत है कि भरोसा करता हूँ

हमारे यहाँ तीन ‘भय’ बताए गए हैं - देव-भय, राज-भय और लोक-भय। ‘देव-भय’ अर्थात् ईश्वर का भय। जिससे सबसे पहले डरना चाहिए, उसे तो हम घोल कर पी गए। कल ही एक अभिकर्ता मित्र ने एक कथन (सम्भवतः विवेकानन्द का) सुनाया - ‘मैं केवल ईश्वर से डरता हूँ और ईश्वर के बाद उस आदमी से डरता हूँ जो ईश्वर से नहीं डरता।’ मुझे लगता है, हमारे चारों ओर अब (मुझ सहित )ऐसे ही लोग हैं जिनसे विवेकानन्द को डरना पड़ेगा। ‘राज-भय’ की क्या बात की जाए? जिस देश का प्रधानमन्त्री ‘गठबन्धन की मजबूरी’ की दुहाई देकर भ्रष्टाचार होते रहने का औचित्य सिद्ध करे, वहाँ कौन सा राज-भय? रही बात ‘लोक-भय’ की, अर्थात् ‘लोग क्या कहेंगे’ की तो, यह तो प्राथमिक शालाओं के बच्चों के चुटकुले से भी कमतर लगता है। ऐसे में, ‘शपथ ग्रहण’ को इतनी गम्भीरता से लेना अपनी मूर्खता का सहज प्रमाण देने से अधिक और है ही क्या?

वादा करने और उसे न निभाने की आदत को लेकर मेरे गुरु स्वर्गीय हेमेन्द्र कुमारजी त्यागी ये पंक्तियाँ सुनाया करते थे -

तौबा मेरी जाम-ए-शिकन
जाम-ए-मेरी तौबा शिकन
सामने है ढेर
टूटे हुए पैमानों का।

जब आदमी खुद से किए गए वादे, अकेले में ली गई शपथ ही नहीं निभाए तो उसे सार्वजनिक स्तर पर शपथ-भंग अथवा वादा खिलाफी करने में न तो पल भर की देर लगेगी और न ही रंच मात्र असुविधा होगी।

सोच रहा हूँ - कितना अच्छा हुआ कि सूरज, चाँद, धरती, प्रकृति ने अपना-अपना काम करते रहने के लिए कोई शपथ ग्रहण नहीं की और न ही, ऐसा करने के लिए कोई समारोह आयोजित किया। यदि ये सब भी वैसा ही करते जैसा हम कर रहे हैं तो?

लाखों में एक : भाभी भी और रोग भी

मेरी भाभी नहीं रहीं। सोमवार, अठारह जुलाई को सुबह दस बजकर पैंतीस मिनिट पर उनका निधन हो गया। मेरा ई-मेल बॉक्स सम्वेदना सन्देशों से भरा पड़ा है। अनेक कृपालुओं ने मेरी भाभी के बारे में जानकारी चाही है।



भाभी को लेकर क्या लिखूँ और क्या नहीं - तय कर पाना मेरे लिए दुरुह नहीं, नितान्त असम्भव है। जो भी और जितना भी लिखूँ, स्थायी रूप से अधूरा ही होगा होगा। समन्दर को शब्दों में समेट पाना शायद अधिक सुगम होगा मेरे लिए। इतना ही कह सकता हूँ कि यदि वे दादा के जीवन में और हमारे परिवार में नहीं आई होतीं तो मैं यह ब्लॉग नहीं लिख रहा होता। तब मैं और मेरा पूरा परिवार सम्भवतः भीख ही माँग रहा होता।



उनका पूरा नाम श्रीमती सुशील चन्द्रिका बैरागी था। (‘था’ क्यों? यह नाम तो अब भी है!) इस तेईस अगस्त को वे अपनी आयु के बहत्तर वर्ष पूर्ण कर चुकी होतीं। जननी तो वे दो बेटों की थीं किन्तु हम तीन भाई-बहन (मैं और मेरी दो बहनें) भी उनकी सन्तान बने रहे। अपने दोनों बेटों से अधिक चिन्ता उन्होंने हम तीनों की की।



दादा से उनका विवाह कमोबेश ‘प्रेम विवाह’ जैसा ही था। जैसा कि दादा खुद बताते हैं, यह 1951-52 के आसपास की बात रही होगी। तब दादा अपने मूल नाम ‘नन्दराम दास’ के साथ ‘पागल’ उपनाम लगाकर कविताएँ लिखते थे। भाभी के पिताजी श्री सु. देव. सुन्दरम्, जावद (जिला-नीमच) में ‘नईदुनिया’ के न्यूज पेपर एजेण्ट थे। दादा की एक कविता ‘नई दुनिया’ में छपी जिसकी पहली पंक्ति थी - ‘मधुमास बीता जा रहा है, सजो बाले! सजो बाले!’ कविता के नीचे नाम छपा था - नन्दराम दास बैरागी ‘पागल’। भाभी ने (तब निश्चय ही वे मेरी भाभी नहीं थीं) अपने पिताजी से कहा कि यह कविता लिखनेवाला भी बैरागी है। न हो तो इसीसे उनका विवाह करा दिया जाए। लगभग तेरह वर्षीया अबोध किशोरी की यह इच्छा कैसे परवान चढ़ी, यह अपने आप में सम्पूर्ण स्वतन्त्र कथा है।


1953 में वे दादा की जीवन संगिनी बन कर हमारे परिवार में आईं। तब उनकी अवस्था 14 वर्ष और दादा की अवस्था 23 वर्ष थी। दादा कहते हैं कि तब मेरे गृह नगर मनासा की जनसंख्या लगभग 6 हजार रही होगी। 53 वर्ष पहले, उस बस्ती में वे ‘बिना घूँघट वाली पहली बहू’ बनकर आई थीं। दादा बताते हैं कि बारात की बस से उतर कर, वे दोनों जब बस अड्डे से ताँगे में बैठकर घर के लिए चले तो भाभी को देखने के लिए पूरे रास्ते भर, लोग-लुगाइयों की भीड़ से, गलियों-मुहल्लों के दोनों ओर के, ओटले-चबूतरे छोटे पड़ गए थे। तब ‘इज्जतदार, शरीफ और खानदानी’ महिलाएँ, खुले मुँह घर से बाहर नहीं निकलती थीं। लिहाजा, भाभी को लेकर वे सारी टिप्पणियाँ हुईं जो ऐसे में होनी थीं।

लेकिन मैं यह सब क्या ले बैठा? इस तरह तो पता नहीं मैं वह सब कब बता पाऊँगा जो बताने के लिए मैंने यह बात शुरु की है। अतीत को यहीं छोड़ कर मुझे ‘आज’ पर आ जाना चाहिए।


2006 में भाभी को चिकनगुनिया हुआ जो 2007 में, ‘एप्लास्टिक एनीमिया’ में बदलगया। मोटे तौर पर इसे ’खून बनना बन्द हो जाना’ कहा जा सकता है जबकि चिकित्सा शास्त्र की शब्दावली में, ‘प्लेटलेट’ का बनना बन्द हो जाना कहा जाता है। इसका एक ही उपचार है - रोगी के शरीर को (जिस प्रकार खून दिया जाता है, उसी प्रकार) प्लेटलेट दिए जाएँ। रोग का और चिकित्सा दिशा (डायग्नोसिस तथा लाइन ऑफ ट्रीटमेण्ट) का निर्धारण ‘एम्स’ (दिल्ली) में हुआ जो भाभी की मृत्यु के अन्तिम क्षण तक जारी रहा।

प्लेटलेट चढ़ाने के लिए फरवरी में भाभी को इन्दौर स्थित बॉम्बे हास्पिटल में भर्ती कराया गया। खबर मिली तो मैं और मेरी उत्तमार्द्ध पहुँचे। दादा तो थे ही, मेरा छोटा भतीजा गोर्की और उसकी उत्तमार्द्ध मीरू (नीरजा) सेवा-सुश्रुषा में लगे हुए थे। भाभी के रोग की गम्भीरता का अनुभव मुझे गोर्की से पहली बार हुआ। मैंने गोर्की से पूछा - ‘भाभी पूरी तरह से कब ठीक हो जाएँगी?’ गोर्की ने सूनी आँखों से मुझे देखा और सपाट आवाज में बोला - ‘कभी नहीं।’ मुझे झटका लगा। कोई बेटा अपनी माँ के लिए ऐसा कैसे कह सकता है? मेरी शकल देख कर गोर्की बोला - ‘ऐसा है बब्बू भई (मेरा, घर का यही नाम है)! अभी साल में दो-तीन बार प्लेटलेट चढ़ रहे हैं। प्लेटलेट चढ़ाने का यह अन्तराल दिन-ब-दिन कम होता जाएगा और एक दिन वह आएगा जब शरीर इन प्लेटलेटों को स्वीकार करने से इंकार कर देगा। बस, उसी क्षण से भाभी की मृत्यु की प्रतीक्षा शुरु हो जाएगी।’



बिलकुल, शब्दशः यही हुआ। 5 जुलाई को गोर्की का फोन आया। वह उदयपुर से बोल रहा था। उसने कहा कि भाभी को गम्भीर हालत में सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया है और ‘आप रतलाम में ही बने रहना।’ 10 जुलाई की रात को लगभग आठ बजे फिर गोर्की का और थोड़ी ही देर बाद मीरू का फोन आया। दोनों बता रहे थे कि भाभी को नीमच ले आए हैं। हालत ठीक नहीं है और मैं किसी भी क्षण, अप्रिय समाचार के लिए तैयार रहूँ। 15 जुलाई को हम पति-पत्नी भाभी से मिलने नीमच पहुँचे। वे अपनी सम्पूर्ण चेतना से हमसे मिलीं। बातें की। पूरा परिवार उनकी सेवा में लगा हुआ था। शाम को हम लोग लौट आए। 18 को सुबह लगभग ग्यारह बजे गोर्की का फोन आया। सुबकते हुए उसने कुल चार शब्द कहे - ‘बब्बू भई! आ जाओ।’ थोड़ी ही देर में मीरू फोन पर थी। उससे बोला नहीं जा रहा था। बमुश्किल बोली - ‘पापा से बात कीजिए।’ दादा ने कहा - ‘अभी दस पैंतीस पर सुशील चली गई। हम लोग मनासा के लिए निकल रहे हैं। तू सीधा वहीं पहुँच। अन्तिम संस्कार वहीं करेंगे।’ हम लोग पहुँचे तब तक अन्तिम चाल-चलावा कर, उनकी पार्थिव देह बरामदे में रख दी गई थी। मैंने देखा, भाभी के चेहरे पर पीड़ा का कोई चिह्न नहीं था। हमारा पूरा कुटुम्ब मौजूद था। लोगों का आना शुरु हो चुका था। दादा का फार्म हाउस छोटा पड़ गया था। कोई डेड़-दो हजार लोगों ने भाभी को अन्तिम बिदा दी।

दादा ने अद्भुत दृढ़ता दिखाई। उनकी आँखें एक पल को भी सजल नजर नहीं आई और न ही उनका गला रुँधा। उन्होंने कहा - ‘कोई रोना-धोना नहीं होगा। यह मृत्यु नहीं, महोत्सव है।’ अर्थी उठते समय, दादा की इकलौती साली चित्कार करने लगी तो गुस्से में दादा ने उसे ऐसा धकेला कि वह गिरते-गिरते बची। मेरी छोटी बहन नीलू भी क्रन्दन करने लगी तो दादा ने उसे ऐसा डाँटा कि वह नाराज होकर उठावने में शरीक नहीं हुई।


रात में दादा ने बताया कि 13 जुलाई को भाभी को फिर उदयपुर ले गए थे। प्लेटलेट चढ़ाने की प्रक्रिया शुरु की किन्तु शरीर ने अस्वीकार कर दिया। गोर्की की बात सच होने लगी। 14 को डॉक्टरों ने कहा - ‘बैरागीजी! इन्हें घर ले जाईए। अधिकतम 6 दिनों की बात है।’ किन्तु भाभी तो पाँचवें दिन ही चली गईं। अपने तईं मैं दादा कोजितना जानता हूँ, उसके मुताबिक तो भाभी का दाह संस्कार नीमच में ही हो जाना चाहिए था। दादा ने कहा - ‘यह सुशील की इच्छा थी। उसने कहा था - ‘आप मुझ ब्याह कर मनासा लाए थे। वहीं मेरा अन्तिम संस्कार करना।’


बातों ही बातों में दादा ने जब बताया कि यह रोग (एप्लास्टिक एनीमिया) लाखों में एक व्यक्ति को होता है तो मुझे झुरझुरी हो आई। मेरी भाभी लाखों में एक थी। उन्होंने रोग पाला तो वह भी लाखों में एक वाला!

सच हो गई एक लोकोक्ति

रमेश पांचाल ने साबित कर दिया कि लोकोक्तियाँ यूँही नहीं बनतीं। उनके पीछे जीवन के अनुभूत सत्य होते हैं।


एक ही सन्देश देनेवाली लोकोक्तियाँ शायद पूरी धरती पर पाई जाती होंगी। फर्क होता होगा उनकी भाषा, उनके प्रतीकों और कहने के अन्दाज का। ऐसी ही एक लोकोक्ति है जिसका भावानुवाद कुछ ऐसा हो सकता है - ‘एक इंकार, मिटाए आफत हजार।’ रमेश ने इसी लोकोक्ति को साकार किया।


सामान्य स्थिति होती तो कहता - ‘रमेश भी मेरी ही तरह बीमा अभिकर्ता है।’ किन्तु रमेश का मामला तनिक असामान्य है। उसने मुझसे बाद में काम शुरु किया किन्तु आज वह मुझसे कोसों आगे है। वह ग्रामीण क्षेत्र में काम करता है। रतलाम से लगभग पन्द्रह-बीस किलोमीटर दूर, शिवगढ़ में रहता है और अपने ग्राहकों को विक्रयोपरान्त सेवाएँ देने हेतु लगभग प्रतिदिन उसे रतलाम आना पड़ता है। भारतीय जीवन बीमा निगम की जिस शाखा से मैं सम्बद्ध हूँ (जिसे आगे मैं ‘मेरी शाखा’ कहूँगा), उस शाखा में सर्वाधिक पॉलिसियाँ बेचनेवाला एजेण्ट रमेश ही होगा। इस वर्ष वह, एक और मामले में, मेरी शाखा में सर्वोच्च स्थान पर रहा। वित्तीय वर्ष 2010-11 में सर्वाधिक कमीशन प्राप्त करनेवाला एजेण्ट भी रमेश ही रहा। जैसे-जैसे हम लोगों को यह जानकारी मिलती गई वैसे-वैसे, एक के बाद एक, हम सबने रमेश को बारी-बारी से बधाइयाँ दीं।


जब-जब भी अवसर आता है, ‘निगम’ प्रबन्ध हम अभिकर्ताओं को ‘नींव के पत्थर’ कहकर हमारा महिमा मण्डन करता है। यह अलग बात है कि अधिकांश अभिकर्ता इस महिमा मण्डन को वाणी विलास या ‘दिल बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है’ ही मानते हैं। इसके समानान्तर ही एक स्थिति और है। नियमित रूप से काम करनेवाले प्रत्येक अभिकर्ता की मित्रता, शाखा के प्रत्येक कर्मचारी से होती है किन्तु ‘वर्गीय’ आधार पर कर्मचारी लोग नींव के इन पत्थरों से परहेज ही करते हैं। कड़वा सच होने के बाद भी मुझे यह अच्छा नहीं लगता। मैं भली प्रकार जानता हूँ कि इस ‘जन्नत की हकीकत’ को मैं बदल नहीं सकता, परहेज का यह भाव ‘आनुवांशिक गुण’ की तरह स्थायी बन चुका है। फिर भी मेरी कोशिश रहती है कि कुछ क्षणों के लिए ही सही या खुद को भरमाने के लिए ही सही, इस दूरी को ढँक दिया जाए। इसलिए, जब भी कोई अभिकर्ता कोई उपलब्धि प्राप्त करता है तो मैं उसे, पूरी शाखा में मिठाई बाँटने के लिए प्रेरित करता हूँ। अभिकर्ता मित्रों का बड़प्पन और उपकार है कि वे मेरे इस अनुरोध को प्रायः ही मान लेते हैं। ऐसे प्रयासों के कुछ न कुछ तो ‘मीठे परिणाम’ मिलते ही हैं। मैं खुद भी ऐसा करने के अवसर ढूँढता रहता हूँ।


सो, जब रमेश ने, शाखा में सर्वाधिक कमीशन अर्जित करने की उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की तो उसे बधाई देते हुए, लगभग आदेशित किया - ‘कल आते ही सबसे पहला काम करना - शाखा में मिठाई बाँट देना।’ रमेश बोला कुछ नहीं। स्वीकारोक्ति में गरदन हिला दी। यह बात थी अप्रेल के दूसरे सप्ताह की। अगले तीन दिनों तक मैं शाखा कार्यालय नहीं जा पाया। चौथे दिन पहुँचा तो मालूम हुआ कि रमेश ने मिठाई नहीं बाँटी। अपराह्न में रमेश आया तो मैंने पूछा - ‘मिठाई नहीं बाँटी?’ उसने नजरें झुका कर कहा - ‘हाँ, यार सा‘ब! नहीं बाँटी।’ मैंने कहा - ‘आज बाँट ही देना।’ कह कर, रमेश के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मैं अपने काम में लग गया।


किन्तु वह दिन और लगभग पौने तीन महीने बाद आज का दिन। रमेश ने मिठाई नहीं बाँटी। इस बीच मैंने बार-बार उसे टोका, डाँटा, प्रताड़ित किया, अभिकर्ताओं के बीच उसकी खिल्ली उड़ाई, उसे कंजूस साबित करने के लिए सहयोग राशि के एक रूपये का चन्दा देने का ढोंग किया। याने कि क्या-क्या नहीं किया? किन्तु रमेश ने न तो बुरा माना और न ही मिठाई बाँटी।


किन्तु समस्या को कब तक स्थगित रखा जा सकता है? एक दिन पहले जब मैंने तनिक अधिक तीखेपन से रमेश की फजीहत करनी चाही तो इस बार उसने मुझे टोक दिया। बोला - ‘आज आप सुन लो कि मैं मिठाई क्यों नहीं बाँट रहा हूँ।’ कह कर उसने अपना कारण बताया। मैंने उसके कारण को अनुचित या अपर्याप्त बताने की कोई कोशिश नहीं की। बस, इतना पूछा - ‘जब मैंने तुझसे, मिठाई बाँटने के लिए पहली बार कहा था तभी यह कारण बता कर मना क्यों नहीं कर दिया?’ रमेश ने कहा - ‘मैं आपकी बहुत इज्जत करता हूँ। आपकी बुजुर्गीयत का लिहाज करके चुप रहा।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर आज वह लिहाज कहाँ चला गया? आज मेरी बुजुर्गीयत कहाँ चली गई? आज मेरी बेइज्जती क्यों कर दी?’ तनिक सकपकाकर रमेश बोला - ‘आज मेरी सहनशक्ति ने जवाब दे दिया।’ मैंने कहा - ‘भैया! जब लिहाज तोड़ना ही था और मेरी बुजुर्गीयत का, मेरी इज्जत का फलूदा करना ही था तो पौने तीन माह तक प्रतीक्षा क्यों की? बार-बार तेरी मजाक उड़ाने का अपराध मुझसे क्यों कराया? कोई मुहूर्त देख रहा था?’ रमेश के पास कोई जवाब नहीं था। बात ही नहीं, पूरा मुद्दा ही यहीं समाप्त हो गया। हम दोनों अपने-अपने काम पर लग गए।


कुछ देर बाद मैंने रमेश को लोकोक्ति सुनाई तो बोला - ‘यार सा’ब! गलती हो गई। अब यह गलती नहीं दुहराऊँगा। जो काम नहीं कर सकूँगा, उसके लिए पहली ही बार में मना कर दूँगा।’


रमेश की बात सुनकर मुझे अच्छा तो लगा लेकिन मन में अपराध बोध भी उग आया। मैंने उसकी कितनी खिल्ली उड़ाई? कितनी अवमानना की? मैं इस सबसे बच सकता था। लेकिन अपने आप को यह कह कर तसल्ली दे रहा हूँ कि मुझे उस गलती की सजा मिली जो मैंने नहीं, रमेश ने की थी। रमेश का एक इंकार उसे ही नहीं, मुझे भी इस अपराध बोध से बचा सकता था।

अण्णा का भ्रष्टाचार : इनका शिष्टाचार

यह कल की ही बात है। मुहावरेवाले ‘कल की’ नहीं। सचमुच में कल, शुक्रवार, 15 जुलाई 2011 की। मैं नीमच में था। अपने एक मित्र से मिलने के लिए, केन्द्र सरकार के एक उपक्रम के जिला कार्यालय में जाना हुआ। मेरा मित्र इस जिला कार्यालय का प्रमुख है।

दोपहर लगभग बारह बजे मैं पहुँचा। वह मेरी प्रतीक्षा ही कर रहा था। रतलाम से नीमच के लिए निकलते समय मैंने उसे खबर कर दी थी। यथेष्ठ आत्मीय-ऊष्मा से उसने मेरी अगवानी की। अपनी टेबल कोई काम लम्बित नहीं रखना, फाईल को तुरन्त निपटा देना उसकी ‘गन्दी आदत’ है। उसकी इस आदत से परेशान उसके अधीनस्थ, उसके पास कोई फाईल तभी भेजते हैं जिसका ‘हिसाब-किताब’ पूरी तरह हो चुका हो। सो, उसकी टेबल एकदम साफ थी। वह लगभग खाली ही बैठा था।

बातों ही बातों में मालूम हुआ कि उसके कार्यालय का अंकेक्षण (ऑडिट) चल रहा है। क्षेत्रीय (झोनल) कार्यालय से चार अंकेक्षक (ऑडिटर) आए हुए हैं। तीन दिन पहले, मंगलवार को वे आए थे। आज उनका अन्तिम दिन था। फाईलें देखने का काम वे पूरा कर चुके थे और उनमें ‘पकड़ी गई’ अनियमितताओं के आधार पर उन्हें अपनी अन्तिम रिपोर्ट तैयार करनी थी। अनियमितताओं की सूची भी बहुत लम्बी नहीं थी। छोटी ही थी। गम्भीर तो बिलकुल ही नहीं थीं। सबकी सब, प्रक्रियागत थीं, व्यवहारगत नहीं। सो, उनके पास भी कोई अधिक काम नहीं था।

मित्र ने चाय मँगवाई तो चारों अंकेक्षकों को भी शामिल कर लिया। एक अंकेक्षक महोदय, नाम से और मेरे ‘लिखने-विखने’ से परिचत और प्रभावित भी थे। मित्र ने परिचय कराया तो प्रसन्न हुए। बातें शुरु हुईं तो बहुत ही जल्दी (लगभग तीसरे मिनिट ही) अण्णा के अभियान पर आ गईं। अण्णा का समर्थन, सरकार की आलोचना और नेताओं को गालियाँ देना आज का सर्वाधिक लोकप्रिय फैशन ही नहीं, अपनी जागरूकता और बौद्धिकता जताने का ‘प्रतीक चिह्न’ (स्टेटस सिम्बल) भी जो बन गया है! सो, वे चारों के चारों मुदित-मन और मुक्त-कण्ठ से इस ‘फैशन शो’ के ‘रेम्प’ पर इठलाते हुए, गर्वीली मुद्रा में ‘केट वॉक’ कर रहे थे। मैं तो बीच-बीच में छेड़खानी भी करता रहा किन्तु मेरा मित्र सस्मित मौन बना रहा-मानो, सबके मजे ले रहा हो।

बातों ही बातें में पता ही नहीं चला कि कब चाय आ गई और कब डेड़ बज गया। हमारे वाणी-विलास को बाधित किया कार्यालय के उप प्रमुख ने। अंकेक्षक-दल के प्रमुख को सम्बोधित करते हुए उसने कहा - ‘सर! लंच टाइम हो गया। चलिए! भोजन कर लीजिए।’ चारों उठ गए। मित्र को अविचल देख मैंने कहा - ‘मेरी वजह से तू अपना खाना खराब मत कर। तू भी जा और सबके साथ भोजन का आनन्द ले।’

मित्र ने जो कुछ बताया उसका सार यह था कि वह तो अपना भोजन साथ लेकर आता है और जहाँ तक ‘सबके साथ’ याने अंकेक्षकों के साथ भोजन करने की बात है तो उन्हें तो कार्यालय उप प्रमुख होटल में ले गया है। भोजन/आवास आदि के लिए अंकेक्षकों को यद्यपि प्रतिदिन का ‘भाड़ा भत्ता’ अलग से मिलता है किन्तु यह रकम तो उनकी ‘शुद्ध बचत’ होती है। अंकेक्षण के दौरान चारों ही दिन उनके आवास और भोजन की व्यवस्था कार्यालय खर्च पर की जाती है। इतना ही नहीं, कभी-कभार किसी ‘जरूरतमन्द’ अंकेक्षक केे परिवार के लिए कुछ आवश्यक खरीदी भी कार्यालय खर्च से करवाई जाती है। किन्तु कार्यालय की किताबों में यह खर्च इसी नाम से नहीं नहीं लिखा जाता। और यह भी कि ऐसा केवल मेरे मित्र के इस कार्यालय में नहीं होता। समस्त शासकीय, अर्द्ध शासकीय कार्यालयों में यही ‘चलन’ है। इस ‘परम्परा’ की भनक तो मुझे थी किन्तु इसकी आधिकारिक पुष्टि पहली ही बार हुई। मुझे अटपटा लगा।

मित्र ने अपना टिफिन खोला मुझे भोजन नहीं करना था। मुझे तो चले आना चाहिए था। हमारा मिलना हो चुका था और मुझे वहाँ कोई काम भी नहीं था। किन्तु मैं सोद्देश्य बैठा रहा। मित्र भोजन करता रहा और मैं उसे देखता रहा।

कोई पौन घण्टे बाद चारों अंकेक्षक लौटे। मैंने छूटते ही पूछा कि मेरे मित्र ने जो कुछ बताया था वह सच है? तीन तो चुप रहे किन्तु जो मुझे जानते और मुझसे प्रभावित थे, उन्होंने बहुत ही सहज भाव मेरे मित्र की बातों की पुष्टि की। मैंने पूछा - ‘इसके बाद भी आप भ्रष्टाचार का विरोध और अण्णा का समर्थ कर लेते हैं?’ उन्हें मेरा सवाल असम्बद्ध लगा। प्रतिप्रश्न किया - ‘इससे भ्रष्टाचार के विरोध और अण्णा के समर्थन का क्या लेना-देना?’ मैंने कहा - ‘आप जो कुछ भी कर रहे हैं वह भ्रष्टाचार ही तो है?’ वे चौंके - ‘क्या बात कर रहे हैं आप? यह तो पूरे देश में, सारे दफ्तरों में हो रहा है!’ मैंने कहा - ‘याने जो अनुचित काम सारे देश में और प्रत्येक दफ्तर में हो रहा हो, वह भ्रष्टाचार नहीं है?’ जवाब आया - ‘बिलकुल नहीं। यह तो शिष्टाचार है। सब कर रहे हैं।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर सारे देश के, सारे राजनीतिक दलों के नेता और तमाम अफसर जो अनुचित कर रहे हैं वह भ्रष्टाचार क्यों है? वह शिष्टाचार क्यों नहीं?’ उन्होंने कहा - ‘वे सब तो बड़ी-बड़ी तनख्वाह लेते हैं, दुनिया भर के ऐश-ओ-आराम उठाते हैं, सारी जनता उनकी सेवा करती है। उन्हें क्या कमी है? उन्होंने भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए।’ मैंने पूछा - ‘याने, किसी कर्मचारी का भ्रष्टाचार केवल इसलिए भ्रष्टाचार नहीं है क्योंकि वह कर्मचारी है और उसका वेतन नेताओं/अफसरों के मुकाबले कम है?’ वे बोले - ‘और नहीं तो क्या?’ मेरी सूरत निश्चय ही दर्शनीय हो गई होगी। लगभग हकलाते हुए पूछा - ‘आप भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं या बड़े नेताओं/अफसरों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध?’ उन्होंने आत्म विश्वास से कहा - ‘बड़े नेताओं/अफसरों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध।’ तनिक साहस जुटा कर मैंने कहा - ‘किन्तु अण्णा तो भ्रष्टाचार का विरोध कर रहे हैं!’ इस बार उन्होंने मुझे ‘चारों कोने चित्त’ कर दिया। बोले - ‘आपसे तो यह उम्मीद नहीं थी! जरा ध्यान से दखिए, पढ़िए और सुनिए। पूरा देश नेताओं के भ्रष्टाचार से दुखी है। पूरे देश को बेच खाया है लोगों ने। अण्णा इन्हीं मन्त्रियों और नेताओं के भ्रष्टाचार का विरोध तो कर रहे हैं! पूरा देश इसीलिए तो उनके साथ हुआ है!’

मेरे पास सवाल तो और भी थे किन्तु मेरी हिम्मत जवाब दे गई थी। मेरा मित्र अभी भी, पूर्ववत् सस्मित सारा सम्वाद सुन रहा था और अभी भी चुप था। मैंने सबको नमस्कार किया। विदा ली। उठने में अत्यधिक कठिनाई हुई। मित्र के दफ्तर से बाहर आया तो आँखों के आगे अँधेरा सा छाया हुआ था।


मैंने आँखें मसलीं तो मुझे अण्णा का चेहरा नजर आया। बस, उनके होठों पर सदा विराजमान मुस्कुराहट गैर हाजिर थी।

‘अण्णा’ ही बने रहिए अण्णा

शुक्रवार, 8 जुलाई की रात 8 बजे मैंने फेस बुक पर, अपने पन्ने पर लिखा - ‘हे भगवान! अण्णा को शहीद होते देखने को उतावले मूर्ख मित्रों से बचाना। हमें अण्णा की आवश्यकता है।’ मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इस टिप्पणी पर (मेरी ‘प्रति प्रतिक्रियाओं’ सहित) 20 से अधिक प्रतिक्रियाएँ दर्ज हुईं। मैं आत्म-मुग्ध होने ही वाला था कि मेरे विवेक ने टोका - ‘अपने कपड़ों में रहो! विषय की महत्ता के चलते तुम्हें ये प्रतिक्रियाएँ मिली हैं, तुम्हारी बात पर नहीं।’ और मैं खुद पर इतराने की आत्मघाती मूर्खता से बच गया।

तीन प्रतिक्रियाएँ मुझे महत्वपूर्ण लगीं। मेरी टिप्पणी दर्ज होने के 22 मिनिट बाद ही डॉक्टर प्रदीपजी त्रिवेदी (ई-मेल pk_trivedi@rediffmail.com मोबाइल नम्‍बर 9425106549) ने दो हिस्सों में लिखा -‘ये बात मुझे समझ में नहीं आती कि अण्णा और उनकी टीम तथा बाबा रामदेव चुनाव क्यों नहीं लड़ना चाहते? यदि बदलाव लाना है तो संसद से बेहतर कोई रास्ता नहीं है। बजाय अनशन करने के।’

प्रसंगवश उल्लेख है कि डॉक्टर त्रिवेदी नीमच के हैं और मेरे पॉलिसीधारक भी। ‘प्रति प्रतिक्रिया’ में मैंने लिखा - ‘डॉक्टर त्रिवेदी साहब! यह सवाल केवल आपका नहीं, असंख्य लोगों का है। लेकिन यह सवाल सबसे अन्त में पूछे जानेवाला है। मौजूदा चुनाव प्रणाली में केवल बाहुबली, धनबली और ऐसे ही अन्य बली ही जीत सकते हैं। अण्णा की माँग और नीयत पर मुझे कोई सन्देह नहीं है किन्तु मैं यह भी मान रहा हूँ कि लोकपाल से पहले चुनाव सुधारों पर काम किया जाना चाहिए। लोकपाल तो भ्रष्टाचार हो जाने के बाद हरकत में आएगा जबकि यदि वाजिब चुनाव सुधार हो जाएँ तो मुमकिन है, लोकपाल की आवश्यकता ही नहीं रहे। किन्तु इसके बाद भी, मैं अण्णा के साथ इस नीयत से हूँ कि लोगों ने इस बारे में सोचना तो शुरु किया। बहुत जल्दी मैं चुनाव सुधारों पर अपने मन की बात लिखनेवाला हूँ। आप पढेंगे तो शायद मेरी बात अधिक स्पष्ट हो सकेगी। मुझ पर नजर बनाए रखिएगा।’

लम्बे समय से मैं चुनाव सुधारों पर अपनी बात लिखना चाह रहा हूँ किन्तु हर बार आलस्य का शिकार हो रहा हूँ। ‘जन लोकपाल मसविदे’ को लेकर देश में जो उद्वेलन छाया हुआ है, उसे देखते हुए मैं तेजी से अनुभव कर रहा हूँ कि यदि वांच्छित चुनाव सुधार हो जाते तो परिदृष्य कुछ दूसरा ही होता। तब, लोकपाल और लोकपाल का कार्यालय उपेक्षित (और लगभग अनावश्यक) रहता। कोई पूछनेवाला शायद ही मिलता। यह मेरी ऐसी धारणा है जिस पर आज खुल कर हँसने का अधिकार और सुविधा सबको उपलब्ध है किन्तु मुझे विश्वास है कि चुनाव सुधारों से सम्बन्धित मेरे मन्तव्य निश्चय ही सबको अपना दृष्टिकोण बदलने को विवश करेंगे। किन्तु यह तभी हो सकेगा जब मैं आलस्य से मुक्ति पाऊँ।

दूसरी प्रतिक्रिया श्री अनीक गुप्ता( http://facebook.com/ANEEKGUPTA) की आई। यह भी दो अंशों में रही। पहला भाग सीधा-सपाट, दो-टूक था - ‘क्षमा करें श्रीमान्! वे (अण्णा) संसदीय लोकतन्त्र को नकारते हैं।’ दूसरा हिस्सा तनिक आक्रोशभरा और अण्णा तथा उनके साथियों की बखिया उधेड़नेवाला है। गुप्ताजी ने जो कुछ लिखा, उसकी अधिकांश बातें मैं पहले से ही जानता हूँ। यह दूसरा हिस्सा मैं यहाँ उद्धृत नहीं कर रहा। क्योंकि गुप्ताजी से सहमत और अण्णा से आंशिक रूप से असहमत होने के बावजूद मैं अण्णा की नीयत पर सन्देह नहीं करना चाह रहा। चाह रहा हूँ कि अण्णा के अभियान को पूरी न सही, आंशिक सफलता तो मिले ही मिले। इसलिए मैंने गुप्ताजी से उनका ई-मेल पता और फोन नम्बर माँगा जो उन्होंने उपलब्ध करा दिया। उनसे, अलग से अपनी बात कहूँगा।

किन्तु आशीष कुमार ‘अंशु’ (ई-मेल ashishkumaranshu@gmail.com मोबाइल - 9868419453) ने मानो मेरे मन का चोर पकड़ लिया। अगले दिन, शनिवार को दोपहर लगभग दो बजे उन्होंने लिखा - जिस अन्ना की आपको आवश्यकता है, वह ‘अन्ना’ बने रहें, इस बात की अधिक आवश्यकता है। ‘बहुत मुश्किल है दुनियाँ में बड़े बनकर बने रहना।’ उन्हें मेरा जवाब था - ‘दोपहर तक तो मैं आपसे सहमत न होता किन्तु दोपहर बाद समाचार चैनलों पर अण्णा को सिब्बल को मन्त्रिमण्डल से बाहर करने की माँग करते हुए देख कर मुझे आपसे सहमत होना पड़ रहा है। अण्णा को खुद को लोकपाल मसविदे तक सीमित रखना चाहिए।’

ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा है, त्यों-त्यों अण्णा अनावश्यक, अप्रासंगिक, असम्बद्ध वक्तव्य देते नजर आ रहे हैं। वे सरकार और मन्त्रियों पर आरोप लगा रहे हैं, व्यंग्योक्तियाँ कर रहे हैं, उनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं। वे सिब्बल को मन्त्रिमण्डल से बाहर करने की माँग कर रहे हैं और 65 वर्ष से अधिक के राजनेताओं को स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति का परामर्श दे रहे हैं। अनायास ही लगने लगता है कि असम्बद्ध-अप्रासंगिक-अनावश्यक वक्तव्यबाजी करने का ‘रामदेव प्रभाव’ कहीं अण्णा पर तो नहीं आ गया? इन सब बातों से ‘जन लोकपाल मसविदे’ का क्या लेना-देना? मुझे डर लग रहा है कि ये तमाम बातें, अण्णा के अभियान को गम्भीर क्षति पहुँचा सकती हैं। ऐसी बातें सुन-सुन कर सरकार और उसके मन्त्री खुश ही होते होंगे। ऐसी बातें, मुद्दे को पीछे धकेलने में और विषय को बदलने में अत्यधिक सहायक होंगी। सरकार और उसके मन्त्री यही तो चाहते हैं!

सिब्बल को मन्त्रिमण्डल से निकालने की, अण्णा की माँग चौंकानेवाली है। सिब्बल के प्रति व्यक्तिगत अरुचि के सिवाय और कोई कारण इस माँग पीछे नजर नहीं आता। अण्णा को याद रखना पड़ेगा कि लोग उन्हें गाँधी से जोड़ते हैं और उनमें गाँधी की न केवल छवि देखते हैं अपितु अपेक्षा भी करते हैं कि अण्णा का आचरण गाँधी जैसा हो। गाँधी ने निजी बैर भाव को अपने चिन्तन, मनन, वचन, आचरण में कभी स्थान नहीं दिया। उन्होंने जब भी, जो कुछ भी कहा, सदैव ही वृत्ति को केन्द्र में रखकर ही कहा। नील की खेती को लेकर चलाए अपने आन्दोलन में गाँधी ने किसानों के लिए न्याय माँगा था - नीलगर किसानों को बन्दी बनाकर और उन पर अत्याचार करनेवाले अंग्रेजों के विरुद्व किसी कार्रवाई की माँग नहीं की थी। यहाँ अण्णा जब सिब्बल को मन्त्रिमण्डल से बाहर करने की माँग करते हैं तो वे गाँधी को परे धकेल कर, निजी घृणा-अप्रसन्नता को परवान चढ़ाते नजर आते हैं।

ऐसी बातें और ऐसी स्थितियाँ अण्णा और उनके साथियों के विरुद्ध व्यक्तिगत मोर्चे खोलेंगी। होना तो यह चाहिए कि मामले को केवल जन लोकपाल मसविदे तक ही सीमित और उसी पर केन्द्रित रखा जाए। यदि मन्त्रियों पर व्यक्तिगत छींटाकशी की जाएगी, उनकी जग हँसाई की जाएगी और सरकार तथा मन्त्रियों को गरियाया जाएगा तो अण्णा के साथियों की कमजोरियों को मुख्य विषय बनाकर लोकपाल को पार्श्व में धकेल दिया जाएगा। तब, व्यापक जनहितों को लेकर चल रहे आन्दोलनों से इन लोगों की दूरी, इन लोगों को मिलनेवाली आर्थिक सहायता के स्रोतों की शुचिता, केवल सरकारी भ्रष्टाचार पर हमला करना और कार्पोरेट भ्रष्टाचार से आँखें चुराना आदि को मुख्य विषय बनाकर वह दशा कर दी जाएगी कि इन लोगों को बोलना मुश्किल हो जाएगा। तब, अभियान की दिशा भले ही न बदले, ‘दशा’ बदलने का खतरा अवश्य पैदा हो जाएगा।

इसलिए यह केवल जरूरी नहीं, अनिवार्य है कि अण्णा खुद को केवल लोकपाल मसविदे तक ही सीमित रखें। कोई कुछ भी कहे, कुछ भी करे, उन्हें कितना ही उकसाए, उत्तेजित करे, करने दें। कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करें। मुद्दे को भटकने न दें। याने जैसा कि भाई आशीष कुमार ‘अंशु’ ने कहा है - अण्णा केवल ‘अण्णा’ ही बने रहें। वे यदि रंचमात्र भी अण्णा से इतर कुछ और हो गए बेड़ा गर्क और सब कुछ तो बण्टाढार हो जाएगा।

नाव की दिशा में यदि एक अंश (डिग्री) का अन्तर आ जाए तो उसके गन्तव्य में कुछ मीटरों का ही अन्तर होगा। किन्तु दिशा में एक अंश (डिग्री) का यही बदलाव, जहाज के गन्तव्य में सैंकड़ों मीलों का अन्तर ला देता है। तब, ‘जाते थे जापान, पहुँच गए चीन’ वाली स्थिति हो जाती है।

सो! अण्णा!! मेरी नहीं, ‘अंशु’ की सुनिए। अण्णा ही बने रहिए।