बालकवि बैरागी: दास बैरागी जतन से ओढ़ी

डॉ. शरद पगारे

जो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी
ओढ़ के मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर जतन से ओढ़ी
ज्यों की त्यों धर दीनी चदारिया।।
सन्त कबीर की उपरोक्त साखी औरों के बारे में तो नहीं, लेकिन सौ प्रतिशत दावे के साथ कह सकता हूँ कि वह मेरे अग्रज, अन्तरंग एवं आदर्श भाई बालकवि बैरागी पर पूरी तरह से लागू होती है। विशेष कर अन्तिम दो पंक्तियाँ।
जिन जनसेवक, राष्ट्रभक्त के कन्धे पर आज हाथ रख पता चलता है कि उसके पास ईमानदारी, सच्चाई की रीढ़ ही नहीं है। रीढ़हीन नेता तत्काल बैठ जाता है। ऐसे माहौल में दादा बैरागी काजल की कोठरी, में बेदाग, स्वच्छ, ईमानदार, उज्ज्वल छवि लिए हैं। इसीलिए वे अभिनन्दनीय और अभिवन्दनीय हैं। उनके चरित्र की प्रामाणिकता मालवा-निमाड़ अंचल ही नहीं, मध्य प्रदेश, दिल्ली तक स्थापित है।
मेरे समान दादा बैरागी भी तीस के दशक की पैदाइश हैं। उन्होंने गाँधीजी को, उनके आदर्शाें को न केवल देखा, सुना, पढ़ा है, वरन गुना भी है। अपने जीवन को उसके अनुरूप ढालने को प्रयत्नशील भी हैं। उसे अपनी जीवन-चर्चा बना ली है। सत्ता ने जहाँ अनेकों को भ्रष्ट किया, यश और कीर्ति ने बहकाया है, एक गुरूर की भावना दी है, वहीं बड़े से बड़े पद पर पहुँचने, सत्ता सुख भोगते वक्त भी वे जमीन और आम आदमी से, खासकर साहित्यिक मित्रों-प्रेमियों से जुड़े रहे। यश-कीर्ति से न तो गर्वित हुए, न बहके। उनके पास अपनत्व का अकूत खजाना है, जिसे वे निःसंकोच रूप में बाँटते रहते हैं।
‘दादा! राजनीति की अपेक्षा आप पूरी तरह से साहित्य से ही जुड़े रहते तो समाज और साहित्य को आपकी रचनाधर्मिता का पूरा लाभ मिलता?’ मैंने शिकायत की। वे बोले- ‘शरद भाई! मेरा जन्म ही राजनीति के मंच पर हुआ है। उससे दूर रहना सम्भव नहीं। मेरा नामकरण भी राजनीति की देन है। भिक्षावृत्ति के लिए गाया करता था दान देने वालों का ध्यान आकर्षित करने के लिए। भजन गायन ने मन को रागात्मकता दी। उसी ने कविता को जन्म दिया।
‘जहाँ तक साहित्यिक रचनाकर्म का सवाल है शरद भाई! राजनीति को उस पर हावी नहीं होने देता।’ दादा की स्पष्टवादिता ने मुझे चौंकाया नहीं। उससे मैं वर्षों से परिचित हूँ। उन्होंने साहित्य और राजनीति को सदैव अलग-अलग दायरों में रखा, उनकी राजनीति ने साहित्य की लक्ष्मण रेखा का कभी अतिक्रमण नहीं किया। न ही राजनीति के लिए उन्होंने कविता का दुरुपयोग किया। राजनीति को उनकी आवश्यकता है। उन्हें राजनीति की नहीं। उज्ज्वल चरित्र के कारण बैरागी दादा को गाँधी-नेहरू परिवार की चार पीढ़ियों का विश्वास, आदर-प्रेम मिला। इन्दिरा गाँधी, राजीव गाँधी, सोनिया और राहुल गाँधी के वे विश्वासपात्र हैं।
मेरी मान्यता है कि एक अच्छा साहित्यकार बनने की ही अनिवार्य शर्त एक अच्छा इन्सान होने में निहित है। साहित्य में कमजोर लेखक तो चल जाएगा, लेकिन कमजोर चरित्र का इन्सान नहीं। चूँकि बैरागी दादा एक अच्छे चरित्र के जज्बाती और संवेदनशील इंसान हैं, इसीलिए उनकी रचनाओं का स्तर सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वाेत्तम है। न केवल उनकी कविताओं, वरन् कहानियों में भी उनकी इस ऊँचाई के दर्शन होते हैं। वे यारों के यार हैं। साहित्यकारों के बन्धु। उनके दिल की उदारता के मुझे व्यक्तिगत अनुभव हैं।
कुछ वर्ष पूर्व मेरी डेण्टल सर्जन बहू नीलिमा ने अपने डेण्टल क्लीनिक का शुभारम्भ-उद्घाटन किया। परिजनों, डॉक्टरों, परिचितों के साथ ही मैंने अपने साहित्यिक मित्रों को भी आमन्त्रित कर लिया। सरोज कुमार भी आनेवाले थे। मेरे यहाँ आने के लिए पहले एक अन्य कार्यक्रम में भी सरोज भाई आमन्त्रित थे। वहाँ दादा बैरागीजी भी विशेष अतिथि थे। सरोज भाई ने उन्हें बहू के क्लीनिक के उद्घाटन की बाबत बताया। दादा ने प्रसन्नता प्रगट करते हुए तत्काल कहा, ‘सरोजजी मैं भी आपके साथ चलूँगा। अपनी बहू को आशीर्वाद और शुभकामना देने।’ दादा के आगमन ने सारे परिवार को प्रसन्नता और कृतज्ञता से भर दिया। बड़प्पन का प्रदर्शन दम्भ की अभिव्यक्ति में नहीं है। सहज, सरल और आत्मीय व्यवहार ही असली बड़प्पन का परिचायक है और वह दादा में भरपूर है, जो सदैव छलकता रहता है।
सन् 1988-89 में मध्य प्रदेश शासन ने शासकीय महाविद्यालय, मनासा के प्राचार्य पद पर मुझे पदान्नत कर मनासा भेजा। मनासा अन्य कोई जाना नहीं चाहता था। मैंने पदान्नति इसलिए स्वीकारी, क्योंकि मेरे बड़े भाई बैरागी तथा मातृतुल्य सुशील भाभी वहाँ थीं। दादा बैरागी की कविताओं से तो मैं पूर्व परिचित था, लेकिन उनके व्यक्तित्व से दादा माखनलाल चतुर्वेदी ‘एक भारतीय आत्मा’ ने कराया। एक बार दादा ने बैरागीजी के बारे में कहा था, ‘इधर मनासा का एक लड़का बालकवि अच्छा लिख रहा है। साहित्य में काफी आगे जाएगा।’ एम.ए. की पढ़ाई हेतु जब मैं इन्दौर आने लगा तो दादा ने कहा था, ‘बैरागी से जरूर मिलना। वह हिन्दी का अच्छा कवि तो है, उसकी मालवी कलम में भी धार है। सुमन का भी उसे आशीष मिला है।’ और ऐसा हुआ भी। दादा से आत्मीय और पारिवारिक सम्बन्ध कायम हो गए। मनासा पहुँचने पर जब भी दादा के मनासा होने का पता चलता, मैं उनसे मिलने, साहित्यिक चर्चा करने अवश्य जाता। दादा के साथ ही सुशीला भाभी के स्नेह-वात्सल्य के आँचल की छाँव ब्याज स्वरूप मिलती। बिना नाश्ते-मोजन के आने नहीं देतीं।
कोई भी नगर, कस्बा, गाँव राजनीति से अछूता नहीं है। मनासा अपवाद नहीं था। नगर की राजनीति का विस्तार कालेज तक हो गया था। वहां कांग्रेस में तीन गुट थे। दादा के कारण किसी भी गुट की हिम्मत मुझे विवादास्पद बनाने की नहीं हुई। पर्दे के पीछे दादा है, इसका अहसास मुझे हो गया था। सुशील भाभी ने भी मुझे नियमानुसार दबंग तरीके से काम करते रहने का आशीष दिया। वे अत्यन्त हँसमुख, मृदुभाषी और वात्सल्य से भरपूर हैं। उनके व्यक्तित्व की गरिमा प्रणम्य है।
दादा कबीर के वंशधर ही नहीं हैं, कबीर उनकी आत्मा में हैं। कबीर का फक्कड़पन, बेबाकी और सरलता दादा के व्यक्तित्व, चरित्र और व्यवहार में परिलक्षित होती है। दादा भिक्षुक रहे हों या विधायक, मन्त्री या सांसद, उनमें स्पष्टवादिता, फक्कड़पन, सहजता और सरलता अक्षुण्ण है। बड़े से बड़ा पद भी उसे क्षतिग्रस्त नहीं कर पाया। मध्य प्रदेश के मन्त्री के रूप में भी देख चुका हूँ। घर जाने के लिए कुछ साहित्यकार मित्रों के साथ सचिवालय से बाहर आए। ड्राइवर उनकी गाड़ी कहीं ले गया हुआ था। सचिवालय के वातानुकूलित कमरे में वापस जाने के बजाय दादा गप्प लड़ाते, सचिवालय से कुछ दूर पड़ी मिट्टी के ढेर पर जा बैठे। गप्प और ठहाके लगाते रहे। सचिवालय के आईएएस, नौकरशाह, बाबू हैरान-परेशान, चुपचाप नीची निगाह कर खिसकते चले गए।
दादा साहित्यकारों में निष्कलंक राजनेता हैं और राजनेताओं के बीच संवेदनशील, मानवीय गुणों से भरपूर साहित्य सर्जक। उनकी सबसे बड़ी विशेषता राजनीति को संवेदनशील बनाने में रही, परन्तु उन्होंने साहित्य को राजनीति के कलुष से सदैव दूर रखा। साथ ही साहित्य की राजनीति से भी निरपेक्ष रहे। दोनों का उपयोग समाज के भले के लिए किया। इसीलिए समाज, साहित्य और राजनीति के सर्वप्रिय अजातशत्रु हैं।
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सुमन कुंज,
110, स्नेह नगर, नौलखा,
इंदौर-452007





नंदा बाबा: फकीर से वजीर
ISBN 978.93.80458.14.4
सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
3320-21, जटवाड़ा,
दरियागंज, एन. एस. मार्ग,
नई दिल्ली - 110002
मोबाइल - 98689 34715, 98116 07086
प्रथम संस्करण - 2010
मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
आवरण - निर्दोष त्यागी



यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।  


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2 comments:

  1. मेरी मान्यता है कि एक अच्छा साहित्यकार बनने की ही अनिवार्य शर्त एक अच्छा इन्सान होने में निहित है। साहित्य में कमजोर लेखक तो चल जाएगा, लेकिन कमजोर चरित्र का इन्सान नहीं।
    दादा भिक्षुक रहे हों या विधायक, मन्त्री या सांसद, उनमें स्पष्टवादिता, फक्कड़पन, सहजता और सरलता अक्षुण्ण है। बड़े से बड़ा पद भी उसे क्षतिग्रस्त नहीं कर पाया।
    सचिवालय के वातानुकूलित कमरे में वापस जाने के बजाय दादा गप्प लड़ाते, सचिवालय से कुछ दूर पड़ी मिट्टी के ढेर पर जा बैठे। गप्प और ठहाके लगाते रहे। सचिवालय के आईएएस, नौकरशाह, बाबू हैरान-परेशान, चुपचाप नीची निगाह कर खिसकते चले गए।
    दादा साहित्यकारों में निष्कलंक राजनेता हैं और राजनेताओं के बीच संवेदनशील, मानवीय गुणों से भरपूर साहित्य सर्जक। उनकी सबसे बड़ी विशेषता राजनीति को संवेदनशील बनाने में रही, परन्तु उन्होंने साहित्य को राजनीति के कलुष से सदैव दूर रखा। साथ ही साहित्य की राजनीति से भी निरपेक्ष रहे। दोनों का उपयोग समाज के भले के लिए किया। इसीलिए समाज, साहित्य और राजनीति के सर्वप्रिय अजातशत्रु हैं।

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    1. ब्‍लॉग पर आने के लिए और टिप्‍पणी के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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