निर्लज्ज भी, सीनाजोर भी


आज के अखबारों के अनुसार, लालकृष्‍ण आडवाणी ने अपना वक्तव्य दोहराया है कि दिल्ली और राजस्थान में कांग्रेस नहीं जीती अपितु भाजपा हारी है और इस हार का मुख्य कारण रहा - गलत लोगों को उम्मीदवार बनाना । इससे पहले उन्होने कहा था कि राजस्थान में तो भाजपा के ‘खिलाड़ियों’ ने ‘आत्मघाती गोल’ कर पार्टी को मात दिलवा दी जबकि दिल्ली में, टिकिट वितरण में गलतियाँ की ।


किन्तु आडवाणी अकेले नहीं हैं । सोनिया गाँधी भी उनके साथ हैं जिन्होंने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की पराजय का कारण बताया कि दोनों राज्यों में ‘एण्टी इंकम्बेन्सी तत्व’ उपस्थित तो था लेकिन उनकी पार्टी उसका फायदा नहीं उठा सकी । लिहाजा, इन दोनों प्रदेशों में भाजपा नहीं जीती अपितु कांग्रेस हारी ।


केवल आडवाणी और सोनिया ही नहीं, यह बानगी है, हमारे तमाम नेताओं की मनःस्थिति और मानसिकता की । ये सब जानते हैं कि वास्तविकता क्या है । ये लोग ‘अनुचित टिकिट वितरण’ की बात तो मानते है किन्तु यह नहीं मानते कि यह सब उनकी ही सहमति से हुआ है और होता रहा है । ये लोग पार्टी में गुटबाजी को पराजय का कारण तो बताते हैं किन्तु मानते नहीं कि गुटबाजी को ये लोग न केवल प्रश्रय देते हैं अपितु गुटबाजी का प्रारम्भ ये ही करते हैं ताकि पार्टी पर इनका एकाधिकार यथावत् बना रहे ।


मुझ भली प्रकार याद आ रहा है कि एक चिट्ठाकार मित्र ने (वे मुझे क्षमा करने की अनुकम्पा करें कि इस समय मैं न तो उनका नाम याद कर पा रहा हूँ और न ही उनके चिट्ठे का, यद्यपि उनकी सम्बन्धित पोस्ट पर मैं ने भी टिप्पणी की थी), राजस्थान के तीन विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों के लिए भाजपा की पराजय की न केवल दो-टूक घोषणा (भवि’यवाणी नहीं, घोषणा) कर दी थी अपितु पराजय के कारण भी गिनवा दिए थे । कहना न होगा कि चिट्ठाकार मित्र की घोषणा भी सच साबित हुई और भाजपा की पराजय के कारण भी वे ही रहे जो उन्होंने, पहले ही गिनवाए थे ।


किनारे पर बैठा हुआ एक सामान्य समझवाला आदमी जो देख पा रहा है, उसे पार्टी के ‘विधाता’, मुख्‍य धारा के बीच खडे रहकर, क्षणांश को भी अनुभव न कर सकें, यह विचार ही अपने आप में मूर्खता होगी ।


मेरे निवासवाले विधानसभा क्षेत्र के प्रत्याशी निर्धारण को लेकर कांग्रेस में ऐसा घमासान कि नाम वापसी के अन्तिम दिन ही उसका प्रत्याशी स्पष्‍ट हो सका । कांग्रेसी प्रत्याशी की दशा किसी घटिया चुटकले जैसी हो गई और वह अपनी जमानत जप्त करा बैठा ।


स्पष्‍ट है कि, प्रत्याशी निर्धारण में जो कुछ भी हुआ वह न केवल इन सबकी जानकारी में हुआ अपितु उनकी इच्छा और सहमति से ही हुआ ।


जानते तो ये सब है कि मतदाताओं ने इनकी इस मानसिकता और मनमानी को अस्वीकार तथा निरस्त किया और केवल इसी कारण इन्हें प्रतिपक्ष की कुर्सियाँ दिखा दीं । किन्तु राजनीति सम्भवतः स्वयम् से असत्य सम्वाद करने और स्वयम् ही उस पर विश्‍वास करने का खेल हो गया है । इसीलिए ये लोग, सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करते कि मतदाताओं ने इन्हें निरस्त किया है । अपने निरस्तीकरण का सार्वजनिक स्वीकार कौन करे ?


ये भले ही शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गर्दनें रेत में गड़ा लें, लेकिन ‘नागर-नारायण’ इनके मन की ही नहीं जानता, इनकी रग-रग की प्रत्येक अदृष्‍य गतिविधि को भी अनुभव करता है और अपनी बारी आने पर इन्हें इनकी औकात दिखा देता है ।


काश ! यह ‘नागर-नारायण’ चैबीसों घण्टे सक्रिय, सचेष्‍ट रहे । तब हमें, जन सामान्य की अवमानना करने वाले ऐसे आपराधिक, निर्लज्ज, सीनाजोर वक्तव्य देखने/सुनने/पढ़ने को नहीं मिलेंगे ।


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9 comments:

  1. पिछले एक डेढ़ दशक में इन प्रमुख दलों का नेतृत्व लोकल चरित्र के समक्ष कमजोर होता गया है। और इसके लिये मूलत: जनता उत्तरदायी है। जनता छुद्र मुद्दों और व्यक्तित्वों के आधार पर वोट करती है। अपनी जाति/वर्ग/सम्प्रदाय या छुद्र प्रलोभन में फंसी है।

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  2. चौबीस घंटे सक्रिय रखकर क्यों नागर नारायणों को आत्मघाती कदम उठाने की सलाह दे रहे हैं । कुंठित होने के सिवाय हाथ कुछ नहीं आने वाला । हर शाख पर उल्लू बैठा है । उल्लू तो हटेंगे नहीं हां उस तरफ़ अंगुली उठाने वाले ज़रुर नेस्तनाबूद कर दिए जाएंगे ।

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  3. इन्हें अपनी हार का कोई न कोई कारण तलाशना पड़ा। कोई यह नहीं कहता कि जनता ने अपना प्रतिनिधित्व कराने से इन्कार कर दिया। जनतंत्र हमारा शैशव में ही भटक गया या अटक गया है। इस का विकास आवश्यक है।

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  4. हम नहीं सुधरेगें!!

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  5. kitne bhi joote maar lo ye kbhi sharamsaar nahi honge

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  6. हार के कारण ढूँढना भी महज एक राजनितिक प्रक्रिया बन कर रह गया है. चुनाव हुआ, हार-जीत हुई, हार के कारण बताये गए, और बात ख़त्म. इन कारणों से कुछ सीखना, जनता क्या सोचती है उस के बारे में जानने की कोशिश करना, राजनितिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है.

    मेरे विचार में जीत के कारणों की जांच करना भी बहुत जरूरी है. दिल्ली में कांग्रेस जीत गई. जनता के सामने जो मुद्दे थे वह अभी भी हैं, उन मुद्दों पर सरकार की जो सोच पहले थी वह अब भी वही है. बदला कुछ नहीं. सब व्यर्थ में यह सोच कर खुश हो रहे हैं कि चुनाव हुआ और नई सरकार आ गई. हुआ बस यह है कि जांच कमीशनों की तरह पिछली सरकार का कार्यकाल और पाँच वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया है.

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  7. क्या आप सोचते हैं कि ये नेता कुछ सीख लेंगे. हमारा ख़याल है कि यह ऐसे ही चलता रहेगा.

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  8. पब्लिक है, यह सब जानती है...

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  9. इसी को ही तो कहते हैं कि गिरे भी तो टांग ऊपर!

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