वरुण के बच जाने से उपजी खुशी


रीमा और वरुण मुझे चमत्कृत किए जा रहे हैं। मेरी कुछ धारणाओं को झुठलाए जा रहे हैं। कोई तीन-साढ़े तीन वर्षों से दोनों को ध्यान से देख रहा हूँ। प्रतिदिन उनके साथ कुछ समय गुजारना पड़ रहा है। कभी आधा घण्टा तो कभी एक घण्टा तो कभी इससे भी अधिक। जब भी उनके पास से उठकर आता हूँ, हर बार पहले से अधिक चमत्कृत होकर लौटता हूँ।


यह तो मैं भली भाँति जानता समझता हूँ कि पति-पत्नी असंख्य असहमतियों के साथ एक छत के नीचे प्रसन्नतापूर्वक आजीवन रह लेते हैं। किन्तु यह कैसे सम्भव है कि उनकी आदतों और स्वभाव का प्रभाव एक दूसरे पर नहीं पड़े? कहा भी गया है - संसर्ग जा दोष गुणा भवन्ति। अर्थात्, संगति का असर तो होता ही है। रीमा और वरुण मुझे इसी मुद्दे पर चमत्कृत किए जा रहे हैं।


दोनों ही शासकीय सेवक हैं। वरुण राजस्व विभाग में लिपिक है तो रीमा सहायक शिक्षक। नौकरी तो दोनों कर रहे हैं किन्तु दोनों के तरीके और तेवर एकदम अलग-अलग हैं। बिलकुल पूरब-पश्चिम की तरह। रंच मात्र भी साम्य नहीं।


वरुण की पहचान है - समयबद्धता, नियमितता, काम के प्रति निष्ठा, रोज का काम रोज निपटाना, गलत काम न तो स्वेच्छा से करना और न ही नियन्त्रक अधिकारी के मौखिक आदेश से। अधिकारी यदि अनुचित आदेश लिखित में जारी कर दे तो भी उसे करने से यथा सम्भव बचना। हाथ का साफ और बात का पक्का। लगभग बीस वर्षों की नौकरी हो गई है किन्तु एक छींटा भी नहीं है उसके दामन पर। ‘कामचोरी’ और ‘मक्कारी’, ये दोनों शब्द उसके शब्दकोश से निर्वासन भोग रहे हैं। उसकी ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, स्पष्टवादिता और विनम्रतापूर्ण दृढ़ता के आगे उसके नियन्त्रक अधिकारी भी न केवल उससे अनुचित बात करने से परहेज करते हैं अपितु उसे अतिरिक्त आदर भी देते हैं।


और रीमा? वह वरुण की विलोम प्रति है। पूरे विभाग में उसे कामचोर, मक्कार, आलसी और झूठे बहाने बनानेवाली के रूप में ही पहचाना जाता है। समय पर कभी नहीं आना और प्रति दिन समय से पहले चले जाना उसका स्थायी चरित्र बना हुआ है। उसने अपनी पाठशाला को कभी भी बन्द नहीं पाया। वह जब भी अपनी पाठशाला पहुँची, उसने अपनी पाठशाला को सदैव खुली और अपनी प्रधानाध्यापक तथा सहकर्मिणी को सदैव ही काम करते पाया और लौटी तब भी उन्हें काम करता हुआ छोड़कर। आलसी इतनी कि उसका बस चले तो अपनी उपस्थिति के हस्ताक्षर भी किसी और से करवा ले।


गए दिनों अध्यापकों को एक सर्वेक्षण करना था। सहयोगी अध्यापक के साथ रीमा की भी ड्यूटी लगी। ड्यूटी क्या लगी मानो साक्षात यमराज सामने आ खड़े हो गए! अपने उच्च रक्तचाप की, मधुमेह की दुहाई दी किन्तु किसी ने नहीं सुना। ‘आँ, ऊँ’ कर, ड्यूटी से बचने की एक भी कोशिश कामयाब नहीं हुई। हारकर बेशर्मी और ढिठाई से बोली - ‘लिखने-पढ़ने का काम मुझसे नहीं होता। मैं तो बस साथ चली चलूँगी।’ बेचारी सहकर्मिणी परिश्रमी और सबको साथ लेकर चलनेवाली थी। सो रीमा का सारा काम उसीने किया। सर्वेक्षण के, सौ-सौ पन्नों वाले तीन कट्टे सहकर्मिणी ने ही भरे।


तय हुआ था कि इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट का दूसरा भाग दो दिनों बाद, पाठशाला में ही तैयार कर लिया जाएगा। किन्तु अगले ही दिन एक जाँच दल आ गया और दूसरा भाग उसी दिन तैयार करना जरूरी बताया। रीमा को दस्तें लग गईं। उसने अपने मोबाइल से कोई नम्बर घुमाया, किसी से बात की और बात समाप्त करते ही बोली - ‘मेरे ननदोई की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई है। अस्पताल में भर्ती कराया है। मुझे फौरन जाना पड़ेगा।’ और कह कर, किसी की कुछ भी सुने बिना रीमा यह जा, वह जा। बेचारी सहकर्मिणी ने घण्टों खट कर रिपोर्ट का दूसरा भाग तैयार किया।


रीमा है तो अध्यापक किन्तु बच्चों को पढ़ाने में उसकी रुचि कभी नहीं रही। आज भी नहीं है। उसके पढ़ाए बच्चे पहली कक्षा से शुरु होकर चौथी कक्षा तक आ गए हैं किन्तु उन्हें अक्षर ज्ञान भी नहीं है। रीमा को इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। इतनी कामचोरी, इतना आलस, इतनी मक्कारी! क्या उसके अफसरों को कुछ भी पता नहीं? कैसे धक रही है नौकरी में वह? ऐसे सवालों के जवाब में रीमा बेशर्मी से ठठाकर हँस पड़ती है। कहती है - ‘कामचोर, मक्कार और आलसी लोग ही तो मिल कर मुझे निभा रहे हैं! केवल जन शिक्षक ही है जो पाठशाला में प्रायः ही आता रहता है। उसकी खुशामद कर लेती हूँ और महीने में दो-एक बार उसकी तगड़ी चाय-पानी कर देती हूँ। बस। सब सेट हो जाता है।’ अपनी इस दशा पर उसे शर्म नहीं आती? रीमा का जवाब होता है - ‘शर्म तो आनी-जानी है। बन्दा ढीठ होना चाहिए।’


वरुण और रीमा कम से कम बीस-बाईस बरसों से साथ रह रहे हैं। सोचता हूँ, वरुण के ‘सत्संग’ का असर रीमा पर क्यों कर नहीं हुआ? सवाल का कोई जवाब मन में उभरे उससे पहले ही मानो कोई चेतावनी गूँज उठी - रीमा पर वरुण का कोई प्रभाव नहीं हुआ वो तो अपनी जगह। किन्तु यदि वरुण पर रीमा का प्रभाव हो गया होता तो?


मैं घबरा जाता हूँ। रीमा की कामचोरी, मक्कारी, बेशर्मी मुझे अब कम तकलीफ दे रही है। लोकोक्ति के सच साबित न होने पर मैं अब खुश हूँ।

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3 comments:

  1. नियम हैं तो अपवाद भी होंगे - वैसे कई लोकोक्तियों में तो अपवाद ज़्यादा हैं और नियम कम. इस केस में तो जैसे स्कूल वाले ढो रहे हैं शायद वैसे ही घरवाला भी ढो रहा हो.

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  2. मोटी चमड़ी वालों पर न तो संसर्ग का असर होता है न ही सत्संग का.

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  3. बैरागी जी आपने इस कहानी मे रीमा के अवगुणो का ही विवरण दिया है कोशिश करे और जाने कि इन अवगुणो के सन्तुलन मे उनके गुण क्या है? अभी ४५ साल के अपने जीवन मे मै ऐसे किसी इन्सान से नही मिला हू जिसमे गुण और अवगुणो का सन्तुलन नही हो.

    रही बात रीमा के पति पर असर ना पडने की तो डा कुवर बेचैन जी की ४ पन्क्तिया याद आयी है.
    थोडी बहुत कमी तो यहा हर किसी मे है
    दरिया भी खूबियो का मगर आदमी मे है
    उसके गुनाह की सजा औरो को क्यू मिले
    क्या चन्द्रमा का दाग कही चान्दनी मे है?

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