परम्परा से साक्षात्कार


इस वर्ष की दीपावली, मेरे दोनों बेटों को एक लोक परम्परा समझाने का माध्यम बनी।

मेरी भाभीजी की मृत्यु के बाद यह पहली दीपावली हमारे लिए ‘शोक की दीपावली’ थी। मेरे दोनों बेटे इसका अर्थ नहीं समझ पाए। उनके समझदार होने के बाद ऐसा यह पहला अवसर था। ‘ताईजी तो अपने घर आती ही नहीं थीं! उनकी मृत्यु के बाद शोक निवारण किया जा चुका है तो फिर शोक की दीपावली क्यों?’ बाईस वर्षीय छोटे बेटे तथागत ने कहा - ‘मुझे तो ताईजी की शकल भी याद नहीं!’ यही सार रहा दोनों के कौतूहल का।

जवाब में मैंने दोनों को गृहस्थी, परिवार, कुटुम्ब, खानदान के बारे में विस्तार से समझाने की कोशिश की और कहा - ‘कोई आता-जाता या नहीं, इससे मंगल प्रसंगों पर भले ही फर्क पड़ता हो किन्तु शोक प्रसंगों में फर्क नहीं पड़ता। शोक के अवसरों पर सारी बातें भुलाकर सब दौड़ पड़ते हैं। क्योंकि बाँटने से खुशियाँ बढ़ती हैं और दुःख कम होता है। कोई अपनी खुशियाँ नहीं बढ़ाना चाहे तो यह उसकी मर्जी। किन्तु किसी का शोक-दुःख कम करने की जिम्मेदारी तो हमारी अपनी ही होती है। इसीलिए, जो लोग खुशियों के मौके पर बुलाने के बाद भी नहीं जाते या जिन्हें जानबूझकर भी नहीं बुलाया जाता वे लोग भी शोक प्रसंगों पर, बिना बुलाये नंगे पाँवों दौड़ कर जाते हैं - जल्दी से जल्दी पहुँचने के लिए, सब कुछ भूल कर। यही पारिवारिकता और कौटुम्बिकता है।’ सुनकर बड़े बेटे वल्कल ने कहा - ‘‘अंग्रेजी कहावत ‘ब्लड इस थिकर देन वाटर’ शायद इसीलिए उद्धृत की जाती है।’’ सुनकर मुझे अच्छा लगा।दोनों ने पूछा - ‘मम्मी ने पूरे घर की सफाई करवाई, सारा कचरा-कुट्टा फिंकवाया, रंगाई-पुताई भले ही नहीं करवाई लेकिन पूरा घर चकाचक किया। तो फिर शोक की दीपावली कैसे हुई? बाकी क्या रहा?’

अब हमारा पूरा परिवार (मेरी उत्तमार्द्ध, बहू प्रशा, वल्कल, तथागत और मैं) इस विमर्श में शामिल हो गया था। मेरी उत्तमार्द्ध ने कहा - ‘खुद ही सोचो कि बाकी क्या रहा।’ सवाल के जवाब में तीनों बच्चे एक-एक कर गिनवाने लगे - ‘मिठाइयाँ नहीं बनी हैं, बाजार से भी नहीं मँगवाई हैं, पटाखे, मकान की मुँडेर के लिए और सजावट के लिए लटकानेवाले दीये नहीं खरीदे गए हैं, अगले कमरे की बैठक के लिए सजावट का कोई सामान नहीं खरीदा गया है, पर्दे वे ही पुराने हैं, मकान की सजावट के लिए फूल मालाएँ नहीं लाए हैं, अपन पाँचों में से किसी के लिए नए कपड़े नहीं बने हैं न ही नए जूते खरीदे गए हैं। आदि आदि।’ अपनी बातों का इतना विस्तृत उत्तर खुद से ही पाकर वे विस्मित भी हुए जा रहे थे और ‘शोक की दीपावली’ का मर्म भी समझते जा रहे थे। किन्तु अभी भी काफी कुछ बाकी था।

तथागत ने पूछा - ‘तो फिर दीपावली पर हम करेंगे क्या? कैसे मनाएँगे दीपावली?’ हम दोनों पति-पत्नी अब ‘ज्ञानपीठ’ पर विराजित हो गए। बताया कि दीपावली-मिलन के लिए हम कहीं नहीं जाएँगे, कोई आएगा तो सौंफ-सुपारी से अगवानी करेंगे। हम उत्सव मनाएँगे, पूजन भी करेंगे किन्तु उल्लास नहीं जताएँगे। यथा सम्भव घर में ही रहेंगे। किन्तु देखना, अपनी मुँडेर पर रोशनी भी होगी और तुम मिठाइयाँ भी खाओगे। तथागत ने जिन नजरों से दखा, तय करना कठिन था कि उनमें अविश्वास अधिक है या जिज्ञासा? हमारे पास एक ही जवाब था - ‘हम समझा नहीं पाएँगे। तुम खुद ही समझ जाओगे।

और तीनों बच्चों को धीरे-धीरे सब समझ में आने लगा। दीपावली से एक दिन पहले, भैया साहब (श्रीसुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़) की बहू ज्योति, भरपूर मात्रा मे मिठाइयाँ और नमकीन रख गई। दीपावली पूजन वल्कल, प्रशा और तथागत ने किया। हम लोग पूजन करके बैठे ही थे कि मीरा (पाराशर) भाभी ने अपने बहू-बेटे प्रेरणा और दिलीप के हाथों ढेर सारा सामान पहुँचा दिया। उनके पीछे-पीछे पाठक दम्पति (प्रो. स्वाति पाठक और प्रो. अभय पाठक) गुझियों सहित मिठाई-नमकीन ले आए। न्यू इण्डिया इंश्योरेन्स कम्पनी में कार्यरत, देवासवाले विजयजी शर्मा हमारा बहुत ध्यान रखते हैं। उनकी उत्तमार्द्ध श्रीमती मंजू ने घर के बने व्यंजन भिजवाए। मेरी उत्तमार्द्ध ने बहू प्रशा के हाथों, मुँडेर पर दो दीये रखवाए थे। किन्तु अँधेरा बढ़ते-बढ़ते पड़ौसियों ने बच्चों के हाथों दीये रखवा कर हमारी मुँडेर ‘जगमग’ कर दी थी। रात को मुहल्ले के बच्चों ने हमारे घर के सामने खूब पटाखे छोड़े। मेरे बच्चों-बहू ने देखा कि हम ‘पारिवारिकता’ निभा रहे थे और हमारे स्नेहीजन ‘सामाजिकता‘ निभाकर हमारे उत्सव में उल्लास की रोशनी भर रहे थे। हम अपने घर में चुपचाप बैठे थे और ‘समाज’ अपनी खुशियों में हमें शामिल कर रहा था। उनकी खुशियाँ वर्धित-विस्तारित हो रही थीं और हमारा शोक सिकुड़ता जा रहा था।

हम लोग कहीं नहीं गए किन्तु ‘लोक’ ने हमें अकेला और शोकग्रस्त नहीं रहने दिया, हमें अपने साथ बनाए रखा, हमारा त्यौहार करवाया। ‘लोकाचार’ या कि ‘सामाजिकता’ की उपयोगिता, उसकी भूमिका और उसका महत्व मेरे बच्चों ने शायद पहली ही बार देखा-अनुभव किया होगा। किन्तु जिस तरह से यह सब हुआ, उसे वे आजीवन नहीं भूल पाएँगे।

परम्पराएँ इसी तरह प्रवाहमान रहती हैं!

7 comments:

  1. त्योहारों में भी मध्यमार्गी पंथ जिया जा सकता है।

    ReplyDelete
  2. हम ‘पारिवारिकता’ निभा रहे थे और हमारे स्नेहीजन ‘सामाजिकता‘ निभाकर हमारे उत्सव में उल्लास की रोशनी भर रहे थे।
    सचमुच परंपराएं इसी प्रकार प्रवाहमान रहती हैं ..

    ReplyDelete
  3. इसलिए घर में बुजुर्गों का होना जरूरी है

    ReplyDelete
  4. बहुत सारी भूली यादें याद आ गईं।

    ReplyDelete
  5. really it's posible only in India only. On other perameters we may be undeveloped or developing country but in social structure we r well developed. We are proud of it. And thanks to you for high-lighting it. As I use to say good things must be told at any available platform to make equillibrimium because bed things spread up automatically. I too had on incident like this with baa, I will share it whenever we meet or get time. But really thank you for this post. HC Joshi frm mobile

    ReplyDelete
  6. Inhe 'Sansakar' kehte hai ....

    ReplyDelete
  7. यह सामाजिक सहयोग भारत की विशेषता है।

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.