काम एक : व्‍यवहार अनेक

एक ही काम के लिए, एक ही प्रकृति के संस्थानों/कार्यालयों में अलग-अलग व्यवहार देख कर अचम्भा होता है। कभी-कभी दुःख भी होता है। काम एक, संस्थान एक तो फिर अलग-अलग व्यवहार क्यों?
 
ऐसे अनुभवों की संख्या तो अधिक ही है किन्तु दैनन्दिन व्यवहारवाले तीन अनुभव मुझसे भूले नहीं बन रहे।

पहला अनुभव बैंकों का।

एक साथी अभिकर्ता के साथ एक निजी बैंक में जाना पड़ा। ‘पूछताछ‘ वाली टेबल पर उसने कहा कि उसे अपने खाते के लेन-देन की जानकारी उसके मोबाइल पर चाहिए। कर्मचारी ने अभिकर्ता की पहचान माँगी। पुष्टि होने पर खाता नम्बर पूछा। कम्प्यूटर पर उसका खाता खोल कर, एक बार फिर नाम की पुष्टि की, मोबाइल नम्बर पूछा, उसे दोहरा कर पुष्टि की। दो-तीन बटन दबाए और कहा - ‘हो गया। अब आपको एसएमएस अलर्ट मिलता रहेगा।’ साथी अभिकर्ता ने पूछा - ‘मैं कैसे कन्फर्म करूँ?’ कर्मचारी ने कहा - ‘आप अभी ही अपने खाते में कुछ रकम या तो जमा कर दें या निकाल लें। मालूम हो जाएगा।’ अभिकर्ता ने पाँच सौ रुपये जमा कराए। कुछ ही क्षणों में उसके मोबाइल पर सूचना आ गई।

हम तीन अभिकर्ता बैंक ऑफ बड़ौदा की शाखा में खड़े थे। एक कर्मचारी ने कहा कि हमारा काम खत्म कर, जाने से पहले हम उससे मिल लें। हमने वही किया। उसने एक-एक करके हमसे हमारा खाता नम्बर पूछा। अपने कम्प्यूटर में कुछ देखा। उसमें अंकित उनके मोबाइल नम्बर दोहरा कर पुष्टि की। मेरा नम्बर आया तो कम्प्यूटर देख कर बोला - ‘कमाल है! आपने एसएमएस अलर्ट सुविधा अब तक नहीं ली?’ उसे मेरा मोबाइल नम्बर याद था। कम्प्यूटर में लिखा और दोहरा कर पुष्टि कर बोला - ‘आपके खाते के लेन-देन की जानकारी अब आपको फौरन ही आपके मोबाइल पर मिल जाएगी।’

एक अन्य अभिकर्ता को यह सुविधा चाहिए थी। उसका खाता, भारतीय स्टेट बैंक में था। हम दोनों पहुँचे। सम्बन्धित बाबू से बात की। उसने अभिकर्ता की ओर देखा भी नहीं और रूखी आवाज में कहा - ‘एक एप्लीकेशन दे दो। साथ में पान कार्ड की फोटो कॉपी लगा देना।’ वांच्छित फोटो प्रति अभिकर्ता के पास पहले से ही थी। उसी बाबू से कागज माँगा। आवेदन लिखा। आलपिन माँग कर पान कार्ड की फोटो प्रति नत्थी की और बाबू को दी। उसने बेमन से आवेदन लिया, खाता नम्बर बुदबुदाया और आवेदन को दराज में रखते हुए बोला - ‘ठीक है। हो जाएगा।’ अभिकर्ता ने पूछा - ‘कब हो जाएगा?’ बाबू को अच्छा नहीं लगा। बोला - ‘कह दिया ना? हो जाएगा। आप जब भी ट्राँसेक्शन करोगे, मालूम पड़ जाएगा।’ अभिकर्ता ने कहा - ‘अभी जमा कर रहा हूँ। मालूम हो जाएगा?’ बाबू को अच्छा नहीं लगा। चिढ़ गया। बोला - ‘ऐसे कैसे हो जाएगा? अभी तो मैंने कुछ किया ही नहीं! अपने आप थोड़े ही ऐसे कुछ हो जाता है? जब होना होगा, हो जाएगा।’ अभिकर्ता ने बताया कि इसके तीसरे दिन उसे एसएमएस अलर्ट सुविधा मिल पाई।

दूसरा अनुभव ऑटो रिक्शा के किराये को लेकर है। जानता हूँ कि यह मामला किसी ‘संस्था’ से जुड़ा नहीं है लेकिन मेरी शुभेच्छा है कि ऐसा नहीं होना चाहिए।

रेल्वे स्टेशन से मेरे निवास तक का किराया अधिकतम तेईस रुपये लगता है। अभी, 29 अक्टूबर को हम दोनों पति-पत्नी, नीमच से, बस से लौटे। जावरा फाटक पर उतर कर दिल बहार चौराहा पहुँचे जहाँ से मेरे निवास की दूरी, रेल्वे स्टेशन से मेरे निवास की दूरी के मुकाबले आधा किलो मीटर कम है। हमने ऑटो रिक्शावाले से भाड़ा पूछा। उसने कहा - ‘तीस रुपये।’ वहाँ आठ-दस ऑटो रिक्शा खड़े थे। सो मैंने तनिक अतिरिक्त उत्साह से, अन्य रिक्शावालों से बात की। सबने, एक स्वर में भाड़ा तीस रुपये ही बताया। मैंने रेल्वे स्टेशन से वहाँ तक की आधा किलो मीटर कम दूरी का और स्टेशन से घर तक का किराया तेईस रुपये होने की बात कह कर अधिकतक बीस रुपये देने की पेशकश की तो सबने कहा कि वहाँ से तेईस रुपयेवाली बात उन सबको पता है। सबने एक स्वर से कहा - ‘आप स्टेशन जाकर वहाँ से तेईस रुपयों में अपने घर चले जाइए।’ मुझे बहुत बुरा लगा। सूझ-समझ नहीं पड़ी कि क्या करूँ? प्रतिवाद, प्रतिरोध का कोई उपाय तत्क्षण मेरे पास नहीं था। हम दोनों पति-पत्नी ने तय किया कि इस बेशर्मी और अनुचित के सामने समर्पण नहीं करेंगे। और हम दोनों पैदल-पैदल ही घर आए।

तीसरा अनुभव एल आई सी का है। तनिक पुराना है।

मेरे कस्बे में, एल आई सी की तीन शाखाएँ हैं। एक सज्जन ने दोनों शाखाओं से, एक ही दिन, एक-एक लाख रुपयों की, अलग-अलग, दो, मनी बेक पॉलिसियाँ लीं। पाँच वर्षों के बाद उन्हें, दोनों शाखाओं से, बीस-बीस हजार रुपयों के दो, अलग-अलग चेक मिले। वे सज्जन चेक जमा कराना भूल गए और तीन महीनों के बाद वे दोनों चेक ‘बासी’ (स्टेल) होकर अप्रभावी/अनुपयोगी हो गए। दोनों चेक लेकर वे, पहले काटजू नगर स्थित शाखा क्रमांक-1 पहुँचे। वहाँ के कर्मचारियों ने हाथों-हाथ दूसरा चेक बना कर दे दिया।

वे सज्जन खुशी-खुशी, शाखा क्रमांक-2 पहुँचे। मैं इसी शाखा से सम्बद्ध हूँ। यहाँ के कर्मचारियों ने उनसे, मूल पॉलिसी अभिलेख (ओरीजनल पॉलिसी बॉण्ड) तथा विमुक्ति पत्रक (डिस्चार्ज वाउचर) माँगा। वे सज्जन कुछ नहीं समझ पाए। उन्होंने शाखा क्रमांक-1 का हवाला दिया, वहाँ से जारी किया नया चेक दिखाया। कर्मचारियों से कहा कि वे चाहें तो शाखा क्रमांक-1 के कर्मचारियों से पूछ लें। लेकिन कर्मचारियों ने कुछ नहीं सुना। कहा - ‘वहाँ, उन्होंने क्या किया, इससे हमें कोई लेना-देना नहीं। हम तो मेन्युअल के हिसाब से चलेंगे जिसके मुताबिक दोनों कागज चाहिए। उनके बिना नया चेक नहीं दिया जा सकता। बस।’

हम सब लोग असहाय, निरुपाय बन, टुकुर-टुकुर देख रहे थे क्योंकि मेरी शाखा के कर्मचारियों की बात सही थी। किन्तु इसके समानान्तर, व्यावहारिक सच का प्रमाण, ग्राहक के हाथ में था। मेरी शाखा के कर्मचारी अपनी बात पर अड़े रहे। उन्होंने शाखा प्रबन्धक का अनुरोध भी अस्वीकार कर दिया। मुझ सहित, उपस्थित कोई भी अभिकर्ता उन सज्जन की कोई सहायता नहीं कर पाए।

उन सज्जन को अन्ततः चेक तो मिला लेकिन उन्होंने कहा - ‘आप मेरे जीते जी मुझे मेरे वाजिब पैसे नहीं दिलवा सके तो मेरे मरने के बाद मेरे बच्चों को क्या दिलवाओगे?’ उन्हें उत्तर दिया जा सकता था, समझाया जा सकता था। किन्तु परास्त नैतिकता से दबे हम लोग उन्हें कोई उत्तर नहीं दे सके।
ये और ऐसी ही छोटी-छोटी बातें मुझे कचोटती हैं। असहज करती हैं।

10 comments:

  1. कहने को कुछ नहीं. चलिए विविधता में एकता का आनन्द लेते हैं।

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  2. सच! बेशर्मी, अकुशलता और अनुचित के ब्लैकमेल के सामने समर्पण नहीं करना चाहिये!

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  3. काश सामने वाला यह समझ ले कि जो बातें हमें कचोटती हैं, वह उसे भी कचोटेंगी।

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  4. आप परेशां होते हैं तभी तो आप बैरागी जी हैं वे सभी अनुरागी जी हैं . आप की अकुलाहट स्वाभाविक है .

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  5. फेस बुक पर श्री शरद श्रीवास्‍तव, मुम्‍बई की टिप्‍पणी -

    विष्णु जी, बाक़ी तो सब ठीक लेकिन स्टेल चेक के लिये मूल पॉलिसी और डिस्चार्ज वाउचर कुछ असंगत लगता है। अगर कोई नियम भी हो तो बदलवाने का प्रयास करें।

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  6. जिस समय की (लगभगडेड वर्ष पहले की) यह घटना है तब हमारे इन्‍दौर मण्‍डल में यही व्‍यवस्‍था थी। पूछने पर कभी भी, किसी ने मेन्‍यूअल नहीं बताया किन्‍तु लगभग प्रत्‍ये शाखा में यही दशा थी। अब तो चूँकि भुगतान सीधे बैंक को (एनईएफटी प्रणाली से) किया जाने लगा है, इसलिए अब यह संकट अपने आप समाप्‍त हो गया है।

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  7. अच्छे, बुरे कर्मचारी हर जगह होते हुए भी भारत में ग्राहक सेवा, विशेषकर सहयोग और विनम्रता की कमी अक्सर देखने को मिलती है| सरकारी बैंक में अपनी नौकरी के दौरान मैंने यह भी देखा कि ग्राहक भी दुर्व्यवस्था के प्रति शिकायत करने से बचना चाहते हैं इसलिए अच्छे व्यवहार को वैसा प्रोत्साहन नहीं मिल पाटा जैसा मिलना चाहिए| कामचोर कर्मचारियों को इस बात का अहसास नहीं होता कि उनकी नौकरी का उद्देश्य ही ग्राहक सेवा है| उनके अधिकारियों में जन-प्रबंधन की योग्यता का अभाव भी दुर्व्यवहार को बढ़ावा देता है| बहुत कुछ करने की आवश्यकता है|

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  8. मेरा SBI का खाता पटना का है, मैं चेन्नई में. जब मैंने अपना नंबर खाते से जोड़ना चाहा तो उन्होंने बिलकुल वही प्रक्रिया अपनाई जो आपने ऊपर लिखा है. साथ में मेरा नंबर देख यह भी कहा की कोई लोकल नंबर भी दे दो. मैंने पापा का नंबर भी दे दिया. मेरा नंबर क्या ख़ाक जोड़े वे लोग, पापा का नंबर जोड़ दिया मेरे खाते से. तब से अब तक कोई भी ट्रांजैक्शन मैं उसमें करता हूँ, तो मैसेज पापा को जाता है की किसी ने दस हजार या ऐसी ही कोई रकम आपके खाते से निकाला है. हैरान-परेशान होकर मुझे फोन करते हैं.
    यह हाल तब है जबकी मेरा खाता पटना के जोनल ब्रांच में है.

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    1. बाप रे! इतना सब होने के बाद भी गडबडी दुरुस्‍त नहीं की? क्‍या कहा जाए? अपना सर पीटने को जी करता है।

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  9. ये अनुभव भी मजेदार हैं।

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