नोटबन्दी: इसमें देश कहीं नहीं था

नोटबन्दी की विफलता का बचाव करते हुए वित्त मन्त्री अरुण जेटली सच ही कह रहे थे कि नोटबन्दी का मकसद यह देखना नहीं था कि बन्द किए गए नोटों में से कितने नोट वापस आएँगे। यह कहते हुए वे यह भी कह रहे थे कि आठ नवम्बर 2016 की रात को, नोटबन्दी की घोषणा करते हुए प्रधान मन्त्री मोदी झूठ बोले थे कि नोटबन्दी का लक्ष्य  आतंकवाद, नकली मुद्रा, काले धन और भ्रष्टाचार से मुक्ति पाना था। आँकड़े और जमीनी वास्तविकताएँ बता रही हैं कि जेटली ही सच्चे हैं, प्रधान मन्त्री नहीं। नोटबन्दी का लक्ष्य देश की बेहतरी नहीं था।

तब, क्या था नोटबन्दी का लक्ष्य?

वही, जो मेरे एक सीए मित्र ने मुझे, नोटबन्दी की घोषणा के अगले दिन, नौ नवम्बर को बताया था। 

सरकारों की आर्थिक नीतियों/निर्णयों का राजनीतिक भाष्य करने के शौकीन इन सीए मित्र ने कहा था ‘यह नोटबन्दी राजनीति है बैरागीजी! जोरदार राजनीति। मुद्दा यूपी का चुनाव है। यूपी में सपा, बसपा, काँग्रेस सबकी खाट खड़ी हो गई है। भाजपा सबका सूपड़ा साफ कर देगी।’ मुझे बात न तो समझ पड़ी थी न ही इसे राजनीतिक कदम मानने को तैयार हुआ था। मेरा विश्वास रहा है कि राजनीतिज्ञ कितना ही टुच्चा, घटिया, झूठा, दम्भी हो, पार्टी या राजनीति के लिए देश को तो दाँव पर कभी नहीं लगाएगा। नोटबन्दी के बाद फैली अफरा-तफरी, अपना ही पैसा पाने के लिए तड़पते, तरसते, करुण क्रन्दन करते, अपनी बेटियों के हाथ पीले करने के लिए पाई-पाई को मोहताज हो गए, पैसों के अभाव में ईलाज हासिल न करने से मर गए लोगों को, बैंकों के सामने लाइन में लगे मरते लोगों को देख-देख कर, उनके बारे में सुन-सुन कर, पढ़-पढ़ कर भी मैं नोटबन्दी को राजनीतिक फैसला मानने को कभी तैयार नहीं हुआ। फिर, ‘संघ’ और भाजपा तो ‘दल से पहले देश’ की दुहाई देते हैं! ये भला अपने राजनीतिक लाभ के लिए देश को दाँव पर कैसे लगा सकते हैं?

लेकिन धीरे-धीरे सामने आई, आती रही वास्तविकताओं से मोह भंग होने लगा। सरकार द्वारा जारी किए गए, दो हजार के जाली नोट तो नोटबन्दी की अवधि में ही काश्मीर में आतंकियों से बरामद हो गए। आठ नवम्बर को नोटबन्दी की घोषणा हुई और नवम्बर समाप्त होते-होते ही 155 बड़ी आतंकी घटनाएँ हो गईं। 2017 में ये बढ़कर 184 हो गईं और 31 जुलाई 2018 तक 191 घटनाएँ हो गईं। आतंकियों के हाथों हमारे जवानों का मरना जारी रहा।

भ्रष्टाचार के मामले में हमारी दशा तो बद से बदतर हो गई। ट्रांसपरेंसी इण्टरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक, भ्रष्टाचार के मामले में, 2017 में दुनिया के 175 देशों में हमारा स्थान 79वाँ था जो 2018 में 81वाँ हो गया। 

जाली नोटों के मामले में, आतंकवादी हमें असफल साबित कर ही चुके थे। देश में भी ‘कलाकारों’ ने हमें धूल चटा दी। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार 2016-17 में देश में 2000 के 638 नकली नोट बरामद हुए थे। 2017-18 में यह संख्या बढ़कर 17,929 हो गई। 

काले धन के मामले में तो न केवल सरकार की बल्कि हमारे देश की, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जोरदार किरकिरी हो गई। बन्द किए नोटों के मूल्य के 99.3 प्रतिशत नोट वापस आ गए! सरकारी आँकड़ों के मुताबिक केवल 10,270 हजार करोड़ रुपये ही वापस नहीं आए। लेकिन इस रकम को भी पूरी तरह काला धन नहीं कह पा रहे क्योंकि नेपाल-भूटान में अभी भी हमारे पुराने नोट चल रहे हैं। नौ दिसम्बर 2016 को सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को अपना अनुमान बताया था कि नोटबन्दी से तीन से चार लाख करोड़ रुपयों के नोट वापस नहीं आएँगे। अब जेटली कह रहे हैं कि नोटबन्दी का लक्ष्य यह देखना नहीं था कि कितने नोट वापस आएँगे। सच यही है। नोटबन्दी का लक्ष्य यह नहीं था।

वापस आए नोटों की संख्या का समाचार 30 अगस्त को सामने आया तो मेरे ज्ञान-चक्षु खुले। मैंने उन सीए मित्र को फोन लगाया। वे बाहर थे। मैंने पूछा - ‘आपने कैसे कहा था कि नोटबन्दी का मुद्दा यूपी चुनाव हैं?’ वे बोले - ‘मुझे पता था, आप फोन करोगे ही करोगे। अभी बाहर हूँ। सोमवार रात को आऊँगा। मंगलवार को बात करेंगे।’

बड़ी ही आकुलता में बीते मेरे ये पाँच दिन। मंगलवार (4 सितम्बर) की सुबह, उन्हें फोन किए बिना ही उनके यहाँ पहुँच गया। वे उठे-उठे ही थे। खुलकर हँसते हुए अगवानी की। मुझसे रहा नहीं जा रहा था। बैठते-बैठते ही पूछताछ शुरु कर दी। और जोर से हँसते हुए बोले - ‘अरे! इतनी भी क्या जल्दी? इस उमर में ऐसी बेकरारी शोभा नहीं देती। सब बताता हूँ। बैठिए तो सही!’ 

उनके मुताबिक राजनीति उनका विषय नहीं है न ही इसमें उन्हें दिलचस्पी है। सीए होने के कारण सरकार की आर्थिक नीतियों/निर्णयों पर उनकी नजर रहती है। इसीलिए इन नीतियों/निर्णयों के राजनीतिक प्रभावों का अनुमान लगाने की कोशिश करते हैं। नोटबन्दी के राजनीतिक आयाम भी इसी तरह देखने की कोशिश की थी। नोटबन्दी की घोषणा के ‘टाइमिंग’ से उन्होंने अनुमान लगाया और यह मात्र संयोग ही रहा कि कड़ियाँ एक के बाद एक, कुछ ऐसी जुड़ती गईं कि उनका अनुमान  सही निकला।

उन्होंने सविस्तार पूरी कहानी सुनाई। मौजूदा सरकार में अब सीबीआई इकलौता तोता नहीं रह गया। संवैधानिक संस्थाएँ एक के बाद एक ‘तोता-दशा’ प्राप्त करती जा रही हैं। सो, यूपी के चुनावों का पूरा खाका सरकार के पास था ही। आठ नवम्‍बर की रात को नोटबन्दी की घोषणा के कारण जेब में पड़ा पैसा अप्रभावी-अनुपयोगी हो गया। बैंकों से लेन-देन की सीमा लगा दी गई। 27 दिसम्बर को, बसपा के पार्टी फण्ड में जमा 104 करोड़ रुपयों की जाँच शुरु कर दी गई। 17 जनवरी को यूपी विधान सभा चुनाव घोषित हो गए। मँहगी रैलियाँ हों या साधन-संसाधन, हर मामले में भाजपा ही भाजपा थी। भाजपा के 30 से अधिक हेलिकाफ्टर उड़ रहे थे। बाकी पार्टियों के पास 10 भी नहीं थे। ‘आपको याद होगा, तब अखबारों में भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए खरीदी गई, पार्टी के रंग और चुनाव चिह्नवाली सैंकड़ों मोटर सायकिलों के फोटू छपे थे। ये सब नोटबन्दी से पहले ही खरीद ली गईं थीं।’ 12 मार्च को यूपी विधान सभा चुनाव परिणाम आए। भाजपा ने सबका सूपड़ा साफ कर दिया। इसके ठीक अगले ही दिन, 13 मार्च को चुनाव आयोग ने घोषणा की कि बसपा के पार्टी फण्ड के 104 करोड़ रुपयों के मामले में कोई गड़बड़ी नहीं पाई गई। और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि 13 मार्च को,  यूपी विधान सभा चुनाव परिणाम घोषित होने के अगले ही दिन, रिजर्व बैंक ने बैंकों से रकम निकासी सीमा पर लगाया प्रतिबन्ध हटा लिया।
उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों के दौरान भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए खरीदी गई मोटर सायकिलों 
का ऐसा ही चित्र उन दिनों अखबारों में छपा था।  यह चित्र फेस बुक से 05 सितम्बर को लिया गया है।  


सीए मित्र की बातें सुनते-सुनते मुझे भी कुछ बातें याद आने लगीं। नोटबन्दी के बाद दिल्ली के मुख्य मन्त्री अरविन्द केजरीवाल ने एक चैनल पर बैंकों के आँकड़े दिए थे जिनके मुताबिक 2016 की, जुलाई-सितम्‍बर वाली दूसरी तिमाही में बैंकों में जमा धन, पूर्व वर्षों की इसी  समयावधि के मुकाबले कई गुना अधिक था। केजरीवाल का दावा था कि नोटबन्दी की पूर्व सूचना मिलने के बाद भाजपा ने ही यह धन जमा कराया था। यह भी याद आया कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अध्यक्षतावाले सहकारी बैंक में बहुत बड़ी संख्या में (सम्भवतः भारत के किसी भी सहकारी बैंक में सबसे ज्यादा) पुराने नोट जमा किए गए थे। यह भी याद आया कि स्विस बैंकों में भारतीयों के जमा धन में 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। यह याद आते-आते जेटली का वह वक्तव्य भी याद आया जिसमें उन्होंने कहा था कि स्विस बैंकों में भारतीयों का जमा धन सारा का सारा काला धन नहीं कहा जा सकता।     

पूरी कहानी सुनते-सुनते मुझे, अपने स्कूली दिनों में पढ़े हुए, कर्नल रंजीत के जासूसी उपन्यास याद आ गए। जिसे सारा देश राष्ट्र सेवा मान रहा था, अपना ही पैसा पाने के लिए, लाइनों में लगे, एड़ियाँ रगड़ते-रगड़ते मर गए लोगों के परिजनों को सीमा पर शहीद हुए जवान याद दिलाए जा रहे थे, वह सब झूठ, छलावा था! इस सबमें देश कहीं नहीं था! देश के लिए राजनीति थी या राजनीति के लिए देश को काम में ले लिया गया! 

मैं आर्थिक मामलों का जानकार नहीं। लेकिन नोटबन्दी की विभीषिका एक सच है। उस पर, ‘कर्नल रंजीत’ की तरह मेरे इन सीए मित्र का दिया यह ब्यौरा! जहाँ चश्मदीद गवाह न हों, दस्तावेजी सबूत न हों, वहाँ परिस्थितिजन्य साक्ष्य बोलते हैं। 

तो क्या ‘दल से पहले देश’ वाला मुहावरा उलट दिया गया था? जेटली यही तो नहीं कह रहे थे?
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 06 सितम्बर 2018



2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (07-09-2018) को "स्लेट और तख्ती" (चर्चा अंक-3087) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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