लोक पुरुष का परलोक प्रयाण

 बालकवि बैरागी

(03 दिसम्‍बर 1981 को सामरजी का निधन हुआ। उन्‍हें गए 23 बरस बीत रहे हैं। इस कालखण्ड में दो पीढ़ियाँ सामने आ गई होंगी। पता नहीं, ये पीढ़ियाँ सामरजी को जानती भी होंगी या नहीं। सामरजी पर केन्द्रित दादा का यह विरला लेख, मध्य प्रदेश के देवास निवासी, ख्यात कलमकार श्री ओमजी वर्मा ने, दादा के प्रति अत्यधिक आत्मीयता और चिन्ता से मुझे उपलब्ध कराया है। उनकी इस अतिशय कृपा और सौजन्य के लिए मैं हृदय से उनका आभारी हूँ। लेख के साथ देने के लिए, ओमजी से उनका चित्र और परिचय माँगा तो अत्यन्त विनम्रता से इंकार कर दिया। दूसरी बार माँगा तो पलटकर जवाब नहीं दिया। अन्ततः उनका चित्र मुझे फेस बुक से लेना पड़ा। उनका परिचय, उनके साले डॉ. हरिकृष्णजी बड़ोदिया से मिल सका।  ओमजी का चित्र और परिचय, लेख के अन्त में दिया है। सामरजी की प्रतिमा और भारतीय लोक कला मण्‍डल के भवन के चित्र 'गूगल' से साभारा - विष्‍णु बैरागी।)

 उदयपुर में, भारतीय लोक कला मण्डल के भवन परिसर में स्थापित सामरजी की प्रतिमा


उदयपुर में भारतीय लोक कला मण्डल का भवन

उन्होंने काठ को प्राण दिए। कठपुतलियों को मुद्राएँ दीं। लोक-कथाओं की फड़ों को फानूस  में बदल दिया। उनका स्पर्श पाकर माँडणे वाचाल हो गए। वस्त्र, वैभव में बदल गए और काठ के पुतले टीप लगा कर गाने लगे। यह सब उन्होंने देखते-देखते कर दिया। अकेले एक व्यक्ति का लोकसंकल्प समूचे राष्ट्र को इतना यश, इतनी कीर्ति, इतना गौरव, इतनी गरिमा दे देगा, यह उनके किसी भी समकालीन के विश्वास के बाहर की बात है। 

मुझे खूब याद है, कि सन् 1954 तक तो वे गाँव-गाँव लोक कलाकारों की तलाश में घूम रहे थे। यदि मैंने उनका आग्रह मान लिया होता तो आज सर्वथा दूसरा बालकवि बैरागी आपके सामने होता। सन् 1954 में दो बार वे खुद चलकर मनासा, मेरे घर तक पधारे। तब भी वे ढीला सफेद पायजामा, काली शेरवानी और गहरी काली दीवाल वाली ऊँची टोपी लगाते थे। आजीवन मैंने उन्हें इसी पोषाख में देखा। टोपी वे कुछ इतनी ढीली सी लगाते थे कि सहज अनुमान होता था कि मानों उन्होंने अपनी लम्बी केश राशि को उसमें छिपा रखा है।

देश और विदेश ने उनको ‘सामरजी’ के नाम से जाना। पूरा नाम था, देवीलाल सामर। उदयपुर के एक संभ्रान्त ओसवाल परिवार में वे जन्मे। लेकिन सारे जीवन वे एक लोक-जाति के निर्माण में लगे रहे। पूरे 27 वर्षों तक उनका मेरा पारिवारिक परिचय रहा। तब वे 43 वर्ष के थे और एक श्रेष्ठ नर्तक के तौर पर पहचाने जाते थे। मैं मात्र 24 बरस का था। मेरी शादी 1954 में हुई। बालकवि बैरागी के तौर मेरा नाम कुल-जमा तीन बरस का था। पर वह मालवा से चलकर मेवाड़ तक पहुँच चुका था। मेरा मालवी गीत ‘पीयुजी की गलियाँ में आजे रे लखारा’, चम्बल, क्षिप्रा, रेतम और ईडर की कछारों से पंख लेकर पिछोला की नावों में जा बैठा था। सहेलियों की बाड़ी (उदयपुर) में कतिपय मालवी सैलानी महिलाओं के मुँह से यह गीत सुनकर वे इस गीत के अन्तिम छन्द में लिखित ‘बालकवि खेले गोदी में आशा, आँगणा में म्हारे रोज बँटे रे पताशा’ पंक्ति सुनकर ‘बालकवि’ को ढूँढते-ढूँढते ठेठ मेरे घर तक आ गए।

पहली यात्रा में मैं नहीं मिला। जिला काँग्रेस कमेटी मन्दसौर के दफ्तर में गुमा हुआ था। मेरे पिताजी से वे बड़ी देर तक न जाने क्या-क्या पूछताछ करके खाली हाथ लौट गए। फिर उनके पत्र आते रहे। एक दिन वे फिर आ गए। चटाई पर बैठकर मुझसे वही ‘लखारा’ सुनते रहे। मुझे समझाते रहे, ‘इस लोकधुन का आधार ठाठ राग पीलू है।’ और फिर सीधा प्रस्ताव - ‘पाँच सौ रुपया महीना पारिश्रमिक। भोजन, भ्रमण और रमण की सारी सुवधिाएँ।’ ये शब्द उन्हीं के हैं। तब इस शब्द ‘रमण’ को उन्होंने पूरी रसिकता के साथ उचारा था। वे मुझे ‘भारतीय लोक कला मण्डल’ का स्थायी कलाकार बनाता चाहते थें। मैं झिझका। वे और आगे बढ़े ‘सपत्नीक आ जाइए। एक हजार रुपया महीना और शेष सारी सुविधाएँ।’ पारिवारिक परिस्थितियों ने मेरे पैर बाँध दिए और हाथ जुड़वा लिए। मैं उनका हो गया, पर घर नहीं छोड़ सका।

मेरे सुझाए कई लोग उन्होंने उसके बाद रखे। मालवा के श्रेष्ठ बाँसुरी वादक, मन्दसौर जिले के बिल्लौद ग्राम के भाई खुर्शीद साहब को उन्होंने मेरी ही प्रार्थना पर रखा। उन्हें खुर्शीद भाई में दूसरे पन्नालाल घोष दिखाई पढ़े। भाग कर खुर्शीद भाई ही छोड़ आए। सामरजी ने अपनी तरफ से रिश्ता नहीं तोड़ा। सैकड़ों लोगों को उन्होंने विदेशों का पानी पिलवा दिया। हजारों लोक कलाकारों को उन्होंने उनके घोंसलों से पकड़-पकड़ कर बाहर निकाला। उन्हें पंख ही नहीं दिए, परवाज भी दी। ‘भारतीय लोक कला मण्डल’ एक वट वृक्ष बन गया। उसकी जटाएँ जड़ पकड़ती गईं। बीसों कला मण्डल पैदा हो गए। अन्यों के पास अन्यान्य सब कुछ था पर सामरजी नहीं थे। नारायण, दयाराम, तुलसी, नारायणी याने कि लोक कलाकारों और लोक नर्तकों की पूरी आकाश गंगा का सृजन उन्होंने किया। ‘तेरह ताल’ जैसे कठिन लोक नृत्य को उन्होने सर्वथा मनोहारी बना दिया। गोविन्द कुलकर्णी जैसा कठपुतलीकार उन्होंने सिरजा। उसे पुत्रवत् पाला। सम्पत्ति का मालिक बनाया चेकोस्लोवाकिया में जब गोविन्द कठपुतली से देश के लिए गौरव बटोर रहा था तब वे विह्वल होकर अवरुद्ध कण्ठ से बोलने के प्रयत्न में बह चले। भारत के लिए लोक कला के सरोवर में यह पहला ‘पुरुस्कार पारिजात’ था। बहुत कच्ची उम्र में गोविन्द चल बसा तो वेे जड़ हो गए। इस घक्के को उनका कोमल मन कभी नहीं सह सका। वे तभी से मृतवत् हो गए। डॉक्टर महेन्द्र भानावत और शूरवीर सिंह जैसे लोगों ने उन्हें इस तरह सम्हाला जैसे कोई टिटहरी अपने अण्डे को संभालती है।

‘भारतीय लोक कला मण्डल’ को राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रय कलामर्मज्ञों का तीर्थ बना दिया। उदयपुर जानेवाले यात्रियों के लिए ‘भारतीय लोक कला मण्डल’ एक दर्शनीय स्थल बन गया। वहाँ का लोक संग्रहालय अध्येताओं और शोधार्थियों का काबा कहा जाने लगा। यद्यपि मैंने उन्हें मंच पर नर्तक के रूप में कभी नहीं देखा पर पूर्वाभ्यास में, दयाराम के साथ खुद ढोलक बजाते सामरजी को कभी नहीं भूल पाऊँगा। रिहर्सल हॉल में दयाराम यहाँ से वहाँ तक लहरें लेता नाच रहा है और वे ढोलक बजा रहे हैं। एक-एक वस्त्र और भूषा के एक-एक भूषण पर उनकी पैनी नजर पड़े बिना नहीं रहती थी। कठपुतलियों को दृष्टि और स्मित देते समय वे रेशे-रेशे पर आँख रखते थे। कठपुतली को वे प्यार से सहलाते, पुचकारते, उससे बोलते और बतियाते रहते। मैं सोचता हूँ कि कठपुतली कला में ‘रामायण’ को इतनी समग्रता शायद ही किसी ने दी होगी।

देश को जितना सम्मान अकेले सामरजी ने अपनी तपस्या से दिया उसकी मिसाल लोक कला के इतिहास में नहीं मिलेगी। उन्होंने मंच पर मेक-अप करके जाना और नाचना बरसों पहले छोड़ दिया। मैंने उन्हें ‘एक्शन’ में नहीं देखा। पर नेपथ्य में वे हर जगह पाए गए। यदि वे सम्माननीय दर्शकों के बीच में बैठकर भी देख रहे होते, तब भी नेपथ्य उन्हें हर क्षण अपने में पाता था। एक निर्देशक के नाते वे बेहद चौकस, चौकन्ने और चपल रहे। लोक कला को एक आन्दोलन बना कर विदा हो गए।

70 वर्ष की उम्र में वे परलोकवासी हुए पर कभी 70 के नहीं लगे। आज भी वे 50-55 के लगते थे। दिव्य, सहज, सरल, सस्मित और सबके। मुझे नहीं पता कि उनका पारिवारिक जीवन कैसा था। पर पहले उन्होंने मुझ पर वात्सल्य उँडेला। जब मैं उन्हें उनकी परछाई से परे लगा तो उन्होंने गोविन्द को अपना सब कुछ बना लिया। जब गोविन्द को प्रभु ने छीन लिया तो उन्होंने मुझसे और मेरी पत्नी सुशील से बहुत कातर होकर मेरा एक बेटा माँगा था। उनकी वह मुद्रा मैं आज भी असह्य पाता हूँ। उनके यहाँ से खाना खाकर जब हम लोग निकले तब एक बार फिर उन्होंने मुझसे कहा था,  ‘आपको भगवान ने दो बेटे दिए हैं। मुझे  कोई सा भी एक दे दो। मैं उसे अन्तरराष्ट्रीय व्यक्ति बनाने का नया साहस जुटाऊँगा।’ मैं उन्हें कुछ नहीं दे पाया। न उनकी बात कभी समझ पाया। दीपावली के ठीक एक सप्ताह पहले तक वे डॉ. पूरन सहगल ‘मधु’ से पूछताछ करते रहे। एक अभाव कहीं तो भी था। कहीं-न-कहीं वे अकेले थे। अनमने थे। शायद किसी से कुछ कह गए हों। सुनते हैं, उनकी मृत्यु बिलकुल  अनायास, अनपेक्षित और औचक हुई।  तीन दिसम्बर को वे अनायास चले गए। लोक गीतों का सारा रस निचुड़ गया। लोक कला का एक लोक महर्षि समाधिस्थ हो गया। वे आजीवन देते रहे। कभी चुके नहीं। अथक और अटूट रहे। अर्पित तो थे ही। आज उनकी कठपुतलियों तक के आँसू सूखते नहीं हैं। कौन पोंछे?

आठ दिसम्बर को डॉ. महेन्द्र भानावत ने मुझे उदयपुर से लिखा:  ‘सामरजी को 15 नवम्बर की रात्रि अचानक जबान पर लकवा असर कर गया; जिससे उन्होंने बोलता बन्द कर दिया। 5 दिन तक यहाँ इलाज चलता रहा। पर इस बीच हाथ-पाँव पर भी लकवे का असर देख उन्हें बम्बई ले जाने का निर्णय लिया गया और 20 को बॉम्बे हॉस्पिटल में उन्हें दाखिल कराया गया। मुख्यमन्त्री शिवचरण माथुर के प्रयासों से उनका उच्च स्तरीय इलाज चला और वे क्रमशः स्वस्थ भी होते रहे। पर अचानक दो दिसम्बर को उनकी किडनी खराब हो गई और तीन को इस वजह से वहीं उनका देहावसान हो गया। यह सब ऐसी त्वरा में हो गया कि किसी को कुछ एहसास तक नहीं हुआ। बम्बई से उनका शव यहाँ लाया गया और 4 को दाह संस्कार किया गया। 5 को शोक श्रद्धांजलि हुई, जिसमें सुखाड़ियाजी और चन्दनमलजी बेद भी उपस्थित थे।

‘सामरजी के कोई सन्तान तो थी नहीं। उनकी पत्नी है। कला मण्डल उनके सम्मान में सब तरह से सब कुछ कर रहा है - करेगा ही। अब तो आवश्यकता यह है कि सामरजी का कार्य अच्छी तरह प्रवहमान होता रहे और उसे मजबूती मिले। आप जैसे हितैषियों का मार्गदर्शन स्नेह-सम्बल अब हम लोगों को, कला मंडल को अधिकाधिक में मिले यह अपेक्षा और उम्मीद है।’
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