बापू कथा में मेरी कथा‘












श्री धर्मेन्‍‍द्र रावल

































श्रीद रवि शर्मा






































श्री तरण सिंह



बापू कथा’ को लगातार पांच दिनों तक सुनना मेरे जीवन के, गिनती के अच्छे कामों में से एक है । लेकिन उस कथा को अपने ब्लाग के जरिए सार्वजनिक करना, मेरे अच्छे कामों (यदि मैं ने वाकई में अच्छे काम किए हों तो) की सूची में प्रथम क्रम का काम है इससे भी आगे बढ़कर कहूं, यह गिनती के उन कामों में श्रेष्‍‍ठ है जिनसे मुझे आत्म सन्तोष्‍ा मिला ।
लेकिन यह ऐसा काम रहा जिसे करने का न तो कोई पूर्व विचार मेरे मन में आया था और न ही इसकी कोई योजना मैं ने बनाई थी । सब कुछ, अचानक, अनायास और सर्वथा अनियोजित होता गया । मैं यही कह सकता हूं कि यह काम मुझसे करवाया गया । किसने करवाया ? इसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं है । यही कह सकता हूं कि ईश्‍वर चाहता था कि मैं यह काम मैं करुं ।







9 अगस्त की पूर्वाह्न जब मैं रतलाम से चला तो अपना लेपटाप और ‘की बोर्ड’ साथ में रख लिया । पता नहीं क्यों । मैं ‘रेग्यूलर टाइपिस्ट’ या कि ‘ब्लाइण्ड टाइपिस्ट’ नहीं हूं । मैं ने ‘की बोर्ड’ पर हिन्दी के स्टीकर चिपका रखे हैं और अक्षर देख-देख कर टाइप करता हूं ।

बापू कथा की पहली शाम को अपने झोले में एक ‘राइटिंग पैड’ रख लिया-यह सोचकर कि कोई महत्वपूर्ण, रोचक, उद्धरणीय बात सुनने को मिलेगी तो लिख लूंगा-मेरे बीमा व्यवसाय में काम आएगी । मेरे आत्मीय धर्मेन्द्र रावल, रवि शर्मा और तरण सिंह से पहले ही सब कुछ खरी-पक्की हो गई थी । तीनों ही समय पर मेरे होटल पहुंच गए । लेकिन निकलते-निकलते हमें देर हो ही गई । रवि ने वाहन-सुख उपलब्ध कराया ।







हम लोग कोई आधा घण्टा देर से पहुंचे । नारायण भाई का व्याख्यान गति पकड़ चुका था । मैं ने राइटिंग पैड खोला और लिखना शुरु किया । थोड़ी ही देर में मैं ने पाया कि मैं लगातार लिखे जा रहा हूं, कोई भी बात ऐसी नहीं लग रही थी जिसे न लिखा जा सके ।








साढ़े आठ बजे, कथा समाप्ति के बाद, निकलते-निकलते और फिर भोजन करते-करते दस बज गए । भोजन के दौरान ही मुझे लगा कि आज का व्याख्यान ब्लाग पर पोस्ट करना चाहिए । यह विचार समाप्त भी नहीं हुआ था कि अगला विचार आया - एक दिन का व्याख्यान ही क्यों ? पाचों दिन का व्याख्यान क्यों नहीं ? बस, उसी क्षण, ‘बापू कथा’ ब्लाग पर प्रस्तुत करने का निर्णय हो गया । लेकिन इण्टरनेट की व्यवस्था कहां से हो ? धर्मेन्द्र ने बताया कि उनके घर पर ब्राड बेण्ड कनेक्‍शन है । तय हुआ कि सवेरे, जल्दी ही मैं धर्मेन्द्र के घर पहुंचूंगा और वहीं से अपनी पोस्ट कर दूंगा । लेकिन धर्मेन्द्र का निवास मेरे होटल से पूरे सात किलो मीटर दूर था । एक दिन की बात हो तो आटो रिक्‍शा कर लूं लेकिन पूरे पांच दिन ? तरण सिंह ने तत्काल समाधान कर दिया - उन्होंने अपनी मोटर सायकिल मुझे सौंप दी - पूरे पांच दिनों के लिए ।








होटल आते ही मैं ने अपने ताम-झाम खोल कर पोस्ट लिखनी शुरु की । काम चलाऊ टाइपिस्ट के लिए इतनी लम्बी पोस्ट लिखना यकीनन बहुत ही कठिन काम होता है । रात को जब पोस्ट फायनल की तो पौने तीन बज रहे थे । उत्साह और उमंग में न तो समय का पता चला, न ही थकान आई ।सवेरे कोई आठ बजे ही मैं, सुदामा नगर में, धर्मेन्द्र के निवास पर था । वहां अपना तामझाम जमाया, नेट कनेक्‍शन का तार लेपटाप में लगाया, रविजी (श्री रवि रतलामी) द्वारा उपलब्ध कराए गए कन्वर्टर से पोस्ट को कृति से यूनीकोड में बदला । इस सबमें कोई डेड़ घण्टा लग गया ।








लेकिन मुश्किल तब आई जब देखा कि ‘नेट’ न तो इण्टरनेट एक्स्प्लोरर पर खुल रहा था न ही मोझिल्ला पर । हर बार ‘नेट कनेक्‍शन अनप्लग्ड’ का सन्देश आ रहा था जबकि टर्मीनल बराबर लगा हुआ था । मेरे हाथ-पांव फूल गए । लगा कि मनोकामना पूरी नहीं हो पाएगी । तकनीक की जानकारी न तो मुझे और न ही धर्मेन्द्र को । दोनों बराबरी के नासमझ । ऐसे में तनु ‘संकट मोचन’ बन कर सामने आई । तनु याने धर्मेन्द्र और सुमित्रा भाभी की इकलौती बिटिया जो हम सबके सर पर सवार रहती है । बोलती ऐसे है मानो बोलने के पैसे लगते हों । उसकी बात सुनने के लिए शरीर के रोम-रोम को कान बनाना पड़ता है । उसने इलेक्ट्रानिक्स एण्ड टेलीकम्यूनिकेशन में बी. ई. किया है । हम दोनों की दशा देख कर वह हंसती-हंसती दोहरी हो गई । हम अहमकों की तरह उसका मुंह देखें और वह हंसे जाए । उसने बताया कि जिस मोडम से ‘नेट’ सेवाएं ली जानी है, जब तक वह मेरे ‘सिस्टम’ में ‘इंस्टाल’ नहीं होगा तब तक ‘नेट कनेक्‍शन अनप्लग्ड’ का सन्देश आता रहेगा । ईश्वर चाहता था कि ‘बापू कथा’ आप तक पहुंचे इसीलिए, जो मोडम धर्मेन्द्र के यहां था उसकी सीडी तनु के पास थी । उसने कुछ ही मिनिटों में मोडम मेरे सिस्टम पर इंस्टाल कर दिया और मैं ‘बापू कथा’ की पहली पोस्ट कर पाया ।








अगले तीन दिनों तक भी यही क्रम चला । मैं रोज रात को तीन बजे तक पोस्ट टाइप करता, सवेरे सात किलोमीटर चल कर धर्मेन्द्र के घर जाता, पोस्ट को कृति से यूनीकोड में कन्वर्ट कर, पोस्टिंग करता ।








इस बीच, 13 अगस्त को मानो चमत्कार ही हुआ । अपराह्न कोई साढ़े तीन बजे मेरा मोबाइल घनघनाया । उधर से पूछा गया - ‘क्या मैं विष्णुजी बैरागी से बात कर रहा हूं ?’ मेरे हां कहने पर उधर से आवाज आई - ‘मैं वाराणसी से अफलातून बोल रहा हूं ।’ मेरे रोंगेटे खड़े हो गए । एक दिन पहले ही मुझे अफलातूनजी के बारे में जानकारी मिली थी कि वे नारायण भाई के बेटे हैं । मुझे लगा था कि ‘अफलातून’ कोई ‘निक नेम’ होगा । सो, उसी शाम मैं ने नारायण भाई से पूछा था - ‘अफलातूनजी का वास्तविक नाम क्या है ?’ उन्होंने मुझे तीखी नजरों से घूरते हुए कहा था - ‘अफलातून वास्तविक नाम ही है । आपको कम लगे तो आगे देसाई जोड़ दो ।’ वे ही अफलातून मुझसे बात कर रहे थे ! उन्होंने पहले तो प्रशंसा की फिर थोड़ी पूछताछ की और जब टाइपिंग वाले मामले में मेरी दरिद्रता जानी तो चकित होकर अत्यधिक प्रशंसा करने लगे । लेकिन उन्होंने एक बात कह कर मुझे निहाल कर दिया । उन्होंने कहा कि जय प्रकाश नारायण की सभाओं की रिपोर्टिंग नारायण भाई, बिना किसी के कहे किया करते थे । मेरी रिपोर्टिंग से उन्हें नारायण भाई की वही रिपोर्टिंग याद हो आई । मैं जानता हूं कि अफलातूनजी ने अतिशय सौजन्य, उदारता और बड़प्पन बरतते हुए अपात्र की अत्यधिक प्रशंसा की लेकिन मैं स्वीकार करता हूं कि उनकी प्रशंसा ने मुझे बौरा दिया ।








लेकिन पांचवें दिन (13 अगस्त) का व्याख्यान मैं 14 अगस्त को पोस्ट नहीं कर पाया । होटल की जिस कुर्सी पर बैठ कर पांच-पांच घण्टे ठाइप करता, वह कुर्सी तनिक भी आरामदायक नहीं थी । सो मेरी पीठ अकड़ गई, काया कष्‍ट में आ गई और छठवीं सवेरे मैं ‘टें’ बोल गया । मेरा क्रम बाधित हो गया । 14 अगस्त की शाम मैं रतलाम पहुंचा और उसी दिन ‘बापू कथा: कृपया समय दें’ वाली सूचना पोस्ट की । पूरे तीन दिन कष्ट बना रहा । इस बीच तमाम कृपालुओं की शुभ-कामनाएं मिलती रहीं । उन्हीं का प्रताप रहा कि 17 अगस्त को कथा की पांचवी शाम पोस्ट कर पाया ।








यह काम कर मुझे अपूर्व आत्म-सन्तोष मिला । नितान्त व्यक्तिगत स्तर पर मैं जीवन के प्रत्येक पक्ष में लाभान्वित हुआ । इन्दौर में अनेक पुराने मित्रों-परिचितों से सम्पर्क का नवीकरण तो हुआ ही लेकिन सबसे बड़ी बात रही - नारायण भाई के दर्शन कर, उनसे बात करना । उसके बाद महत्वूर्ण प्राप्ति रही - अफलातूनजी से व्यक्तिगत सम्पर्क होना । स्थापित ब्लागर महानुभावों ने अत्यधिक उदारता से मेरी पीठ थपथपाई मैं तो निहाल हो गया ।








लेकिन इस सबका असल श्रेय तो धर्मेन्द्र रावल, रवि शर्मा, तरण सिंह और तनु को जाता है । इन चारों ने मेरे लिए संरजाम जुटाए और मैं यह सब कर पाया ।जो काम करने का विचार भी मेरे मन में कोसों तक कहीं नहीं था, उस काम का निमित्त मैं बना ।








यह ईश्‍वर की कृपा ही रही कि मुझे ‘गांधी की चाकरी’ करने का सुख-सौभाग्य मिला ।








ऐसा सुख-सौभाग्य सबको मिले ।

1 comment:

  1. वाकई, ऐसा सुख-सौभाग्य सबको मिले।

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