लोकतन्त्र का त्रासद कोलाज

तीन-सवा तीन लाख की आबादी वाले मेरे नगर रतलाम में, पिछले पखवाड़े, अलग-अलग समय और सन्दर्भों में हुई कुछ घटनाओं का ‘कोलाज’ अपनी सकलता में न केवल निराश करता है बल्कि यह सब सहजता से हो जाने और लोगों द्वारा स्वीकार कर लिए जाने पर चैंकाता भी है ।

स्वाधीनता दिवस पर आयोजित मुख्य शासकीय समारोह में तिरंगा फहराने का जिम्मा किसी जन प्रतिनिधि के बजाय कलेक्टर को (याने ‘गण’ के अनुचर ‘तन्त्र’ को) दिया गया । लोकतन्त्र की अवमानना का ऐसा निर्लज्ज उदाहरण रतलाम में यह पहला नहीं था । इससे पहले भी, ‘गण’ की उपेक्षा कर, कलेक्टर (‘तन्त्र’) को यह सम्मान दिया जा चुका है । पूर्णतः क्षुद्र और हीन राजनीतिक लक्ष्य पूर्ति के लिए यह घिनौनी हरकत की गई । मेरे प्रदेश में भाजपा की सरकार है और स्थानीय विधायकजी इन दिनों प्रदेश के मन्त्रि-मण्डल के सदस्य हैं जिन्हें प्रदेश में अन्यत्र ध्वजारोहण का जिम्मा दिया गया था । उनकी अनुपस्थिति में, सरकार को, भाजपा का ऐसा कोई निर्वाचित‘ उत्तरदायी जनप्रतिनिधि नजर नहीं आया जो ध्वजारोहण कर सके । इस पुनीत काम का अधिकार मिलता था जिला पंचायत के अध्यक्ष को जो प्रतिपक्ष (कांग्रेस) का है । भला अपनी सरकार में प्रतिपक्ष को ऐसा स्वर्णिम अवसर क्यों (और कैसे) दे दिया जाए ? सो, ‘लोक’ की अवहेलना, अवमानना कर, ‘तन्‍त्र' को यह सम्मान देने में किसी को तनिक भी हिचक नहीं हुई । रतलाम के कांग्रेसियों ने इसे लोकतन्त्र का मखौल और अपमान निरूपित करते हुए समारोह का ही बहिष्‍कार कर दिया । भाजपाइयों ने कांग्रेसियों के इस बहिष्‍कार को राष्‍ट्रीय अपमान कहा और बहिष्‍कार करने वाले तमाम कांग्रेसियों के खिलाफ कार्रवाई की माँग की । यह न केवल 'मूल क्रिया को क्षमा करो और प्रतिक्रया को दण्डित करो' का आग्रह था अपितु 'आक्रमण ही श्रेष्‍ठ बचाव है' वाली कहावत पर श्रेष्‍ठ अमल भी था ।

मेरे प्रदेश में जल्दी ही विधान सभा चुनाव होने वाले हैं । शिवराजसिंह चैहान प्रदेश सरकार के मुखिया हैं । अपनी और अपनी पार्टी की सरकार की पुनः सत्ता वापसी के लिए उन्होंने, गत एक वर्ष से लोक-लुभावन घोषणाओं की बाढ़ ला दी है । वर्ष 2003 में, भाजपा सरकार बनने के ठीक बाद से नागरिक और कर्मचारी भाजपा को अपने चुनावी वादे याद दिला कर उन्हें हकीकत में बदलने की माँग करते रहे हैं । लेकिन चार वर्षो तक कोई सुनवाई नहीं हुई । सुनवाई तो दूर की बात रही, चुनावी घोषणा पत्र के एक वादे को ‘छपाई की गलती’ कह कर नकार दिया गया और कुछ अन्य वादों को ‘घोषणा पत्र में कही गई हर बात पूरी की जाए, यह जरूरी नहीं’ जैसे सीनाजोर तर्क देकर मुँह फेर लिया गया । और तो और, शिक्षाकर्मियों, सम्विदा शिक्षकों को शिक्षकों की बराबरी देने का, घोषणा पत्र का वादा याद दिलाते हुए इन वर्गों के कर्मचारियों ने भोपाल में आन्दोलन किया तो उनकी निर्मम पिटाई की गई, अनेकों को जेल में डाल दिया गया और कई लोग, काफी दिनों बाद अपने घर पहुँच पाए । वही वादा, सराकर ने आखिरी वर्ष में पूरा कर दिया गया । ‘लोक कल्याण के सन्निपात से ग्रस्त’ सरकार को ये सारी बातें अपने पहले चार वर्षों में याद क्यों नहीं आई-इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है ।

बहरहाल, अपनी और अपनी पार्टी की सरकार की दुबारा वापसी के लिए, शिवराज सिंह चैहान 28 अगस्त से प्रदेश में ‘जन आशीर्वाद रथ यात्रा’ पर निकले और पहले ही दिन मेरे शहर आए । उन्हें रात आठ बजे पहुँच कर आम सभा को सम्बोधित करना था । जैसा कि ऐसी रथ यात्राओं के साथ होता है, चैहान की रथ यात्रा भी कोई पाँच घण्टे देरी से, रात डेड़ बजे पहुँची । उस समय भी भाजपा कार्यकर्ताओं की अच्छी-खासी भीड़ मौजूद थी । चैहान ने आम सभा को सम्बोधित किया ।

अगले ही दिन कांग्रेसी हरकत में आए । उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का हवाला दिया जिसमें साफ-साफ कहा गया था कि ध्वनि विस्तारक यन्त्र का उपयोग रात दस बजे तक ही किया जा सकता है । इस आम सभा के लिए भाजपा ने, जिला प्रशासन से जो अनुमति ली थी, वह भी रात दस बजे तक की ही थी । कांग्रेस ने मुख्यमन्त्री की आमसभा को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना कहते हुए मुख्यमन्त्री सहित कई लोगों के खिलाफ कार्रवाई की माँग की । पत्रकारों ने कलेक्टर से इस मामले में पूछताछ की तो कलेक्टर ने मासूमियत से जवाब दिया - मैं मामले को देखूँगा ।

ये घटनाएँ यूँ तो रोजमर्रा की सामान्य घटनाएँ हैं और देश में प्रतिदिन कहीं न कहीं होजी ही रहती हैं । कोई भी पार्टी हो, ऐसी हरकतें करने में कोई पीछे नहीं है । लेकिन इन सबको जोड़कर देखने पर हमारे लोकतन्त्र की दशा, दिशा और बेचारगी ही सामने आती है ।

निर्वाचित जन प्रतिनिधि को ध्वजारोहण करने से केवल इसलिए वंचित कर देना कि वह अपनी पार्टी का नहीं है और ऐसा अवसर देने से प्रतिपक्ष को राजनीतिक लाभ हो जाएगा - न केवल घटिया मानसिकता का द्योतक है बल्कि अपने आप में लोकतन्त्र विरोधी हरकत भी है । ऐसा करते समय यह तथ्य भुला दिया गया कि सरकार में जो भी पहुँचे हैं वे ‘लोकतन्त्र’ के कारण और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के माध्यम से ही पहुँचे हैं । क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए व्यापक राष्‍ट्रहित और लोकहित को परे रख देना किसी भी दशा में उचित नहीं हो सकता ।

इस मामले में कांग्रेसियों ने भी मूर्खता का जवाब मूर्खता से दिया । विरोध प्रकट करने के लिए कांग्रेस के पास श्रेष्‍ठ उपायों की शानदार विरासत है । लेकिन यह विरासत भुला दी गई । वे अपना विरोध प्रकट कर न केवल समारोह में बने रह सकते थे अपितु उन्हें बने रहना चाहिए था ।

लोकतन्त्र का निर्वहन इसके आचरण में निहित होता है । लेकिन आचरण की चिन्ता आज कहीं नजर नहीं आ रही । सबको अपना-अपना आचरण-धर्म निभाना चाहिए । राजा को ईमानदार होना तो चाहिए ही, उसे ईमानदार दिखना भी चाहिए । जाहिर है कि सत्ता में बैठने वाले को अतिरिक्त जिम्मेदार और लोकोपवाद के प्रति सतर्क होना चाहिए । ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि खुद शिवराज सिंह आम सभा को सम्बोधित करने से मना कर देते । वे प्रदेश सरकार के मुखिया हैं और चूंकि हम ‘आदर्श प्रेरित समाज’ हैं, इसलिए मुखियाओं को तो और अधिक सजग, सावधान रहना चाहिए । मुखिया ही यदि अपनी व्यवस्थाओं की धज्जियाँ उड़ाने लगे तो बाकी क्या रह जाएगा ? लेकिन उन्होंने तो इस बारे में क्षण भर को सोचा भी होगा - ऐसा बिलकुल ही नहीं लगा और अपनी ही सरकार के आदेश की सार्वजनिक अवहेलना करने का, चकित कर देने वाला लोकोपवाद कर बैठे ।

कलेक्टर का वक्तव्य न केवल सर्वाधिक चैंकाने वाला और निराशाजनक रहा बल्कि अत्यधिक आपत्तिजनक भी रहा । कलेक्टर जिला प्रशासन का मुखिया होता है । उसे तो राई-रत्ती की खबर होती है और होनी ही चाहिए । यदि उन्हें आँख की शरम बनाए रखनी ही थी अपने किसी अधीनस्थ से वह सब कहलवा देते जो उन्होंने ,खुद कह दिया - हालाँकि वह भी ‘लेम एक्स्क्यूज’ से कम या ज्यादा कुछ भी नहीं होता । फिर भी ‘तिनके की ओट’ तो बनी रह जाती ।

यह कैसे सम्भव है कि आधी रात में हजारों लोगों की मौजूदगी में और सैंकड़ों सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों की उपस्थिति में हुआ जलसा कलेक्टर की जानकारी में न रहा हो ? जिस कार्यक्रम के समाचार तमाम अखबार मुखपृष्‍ठ पर छापें और स्थानीय समाचार चैनलें लगातार प्रसारित करें, उस आयोजन के लिए कलेक्टर को कहना पड़े कि वे मामले को देखेंगे तो उनके कलेक्टर होने पर ही सवाल उठ जाते हैं। ‘तन्त्र’ के राजनीतीकरण का और उसके लाचार, पंगु, रीढ़विहीन हो जाने का यह त्रासद उदाहरण है ।

लेकिन मुझे जो बात परेशान करती है वह है - इन सारी बातों पर लोगों की उदासीनता भरी चुप्पी । ऐसी चुप्पी मानो इन सारी बातों से किसी का कोई लेना-देना ही नहीं रह गया हो । किसी को इस सबसे कहीं कोई फर्क ही नहीं पड़ता हो । यह स्थिति और आचरण ‘घातक’ नहीं, ‘आत्म घाती’ है ।

क्या यह उदासीनता और चुप्पी सहज-स्वाभाविक है ? यकीनन आम नागरिक असंगठित और दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में भीषण रुप से व्यस्त है । लेकिन क्या सबके सब ? नागरिकों के किसी भी वर्ग के पास इस सबकी ओर देखने की फुर्सत और जरुरत ही नहीं रह गई है ? जो भी बोला, अपने-अपने राजनीतिक कारणों, स्वार्थों से बोला ।

विधायिका, न्याय पालिका, कार्य पालिका और पत्रकारिता यदि लोकतन्त्र के स्तम्भ हैं तो ‘लोक’ तो इन सबकी वह ‘जमीन’ है जिस पर ये स्तम्भ खड़े हैं । इस जमीन को अपने होने न होने की और अपने साथ हो रहे की कोई चिन्ता ही नहीं रह गई है ?

लोकतन्त्र का यह कैसा ‘कोलाज’ है ?

6 comments:

  1. ऐसी सामयिक घटनाओं के बेबाक विश्लेषण से जो कोलाज प्रस्तुत हुआ वह इस माध्यम ( ब्लॉग ) में ही मुमकिन है । शुक्रिया ।

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  2. सच्चाई से रूबरू कराने के लिए धन्यवाद.
    अंधेर नगरी चौपट राजा, टेक सेर भाजी टेक सेर खाजा!

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  3. बैरागी जी, रोटी की जुगाड़ में लगे लोग भी बोलेंगे। वक्त आ रहा है। बोलने के सारे तरीके अपना चुके हैं, नया तरीका तलाश रहे हैं।

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  4. लोक तंत्र की त्रासदी है कि ब्यूरोक्रेसी निष्पक्ष न रह पाई।

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  5. Adarniya Vishnu Ji,

    Aapki Bate sabit kar deti hai ki aap pakke congessi hai par aap se ek anurodh hai ki vartmaan bjp shashan ki tulna digvijay singhji ke shashan ke das salo se kare tatha is bare mai bhi likhe. tulna karne par aap is sarkar ko lakh guna behtar payenge. Anyatha aap ka lekhan bekar hai aur ek tarpha hai. agar aap sachmuch satya likhna chahte hai tu jara congress ke shashan me vyapt corruption ke bare me likhne ka bhi sahas jutaen.

    ant me is tarah se hindi likhne ke liye mafi shahta hoon par kya karon hindi typing nahi jaanta hoon.
    dhanyawad

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