बड़ेपन का विसर्जन, बड़प्पन का अर्जन

दादा श्री बालकवि बैरागी को लेकर यह सब जो मैं लिख रहा हूँ, है तो व्यक्तिगत किन्तु ऐसा ‘व्यक्तिगत’ है जो व्यापक सार्वजनिकता से जुड़ता है। यह सब कोरा उपदेश नहीं, दादा का, बरसों से आचरण में उतारा हुआ, जीया हुआ, आजमाया हुआ है। इसे ‘स्मृति शेष’ की श्रेणी में भी रखा जा सकता है और ‘वस्तुपरक अध्ययन’ की श्रेणी में भी। ‘सफल कैसे बनें’ या ‘रातों-रात लोकप्रिय बनें’ जैसे प्रेरक व्याख्यानों के व्यवसायियों के लिए ये बातें उपयोगी और सहायक हो सकती हैं। 

बरसों पहले दादा ने ‘व्यवहार का पंचशील’ बनाया था जिस पर वे मृत्युपर्यन्त आचरण करते रहे। इस पंचशील के पहले दो शील तो सर्वज्ञात हैं - किसी पुरुष से उसकी आय और किसी स्त्री से उसकी आयु मत पूछो। तीसरा शील था - किसी परिवार में कोई सयानी बिटिया नजर आए तो उसके विवाह के बारे में कोई पूछताछ मत करो। किसी भी परिवार के लिए यह बहुत ही सम्वेदनशील मामला होता है। चौथा शील - किसी परिवार में कोई सयाना, पढ़ा-लिखा नौजवान नजर आए तो कभी मत पूछो कि वह क्या काम कर रहा है और कितना कमा रहा है। दादा कहते थे - ‘भला कौन नौजवान बेकार रहना चाहता है? उसकी बेकारी, उसकी मजबूरी होती है। किसी की मजबूरी का उपहास नहीं करना चाहिए।’ दादा ने जब यह कहा था तब तो सरकारी नौकरियाँ फिर भी जैसे-तैसे मिल जाती थीं। आज तो प्रायवेट नौकरियाँ भी आसानी से नहीं मिलतीं। उनका पाँचवाँ शील था - कोई स्त्री-पुरुष आपको एक साथ मिलें तो उनका अन्तर्सम्बन्ध जानने की कोशिश कभी मत करो। ये बातें देखने-सुनने में बहुत छोटी, बहुत हलकी लगती हैं लेकिन इन पर चिन्तन-मनन करने पर जब इनकी गहराई और व्यापकता अनुभव होती है तो आदमी अकेले में भी डर जाए। इस पंचशील के निर्वहन से आदमी अतिरिक्त रूप से पहचाना जाने लगता है और अतिरिक्त रूप से लोकप्रिय भी होता है। 

पत्राचार और लोगों से मिलना - ये दो उपक्रम उन्हें जीवनी शक्ति देते थे। पत्राचार तो अकेले में किया जा सकता है लेकिन लोगों से मिलने के लिए तो लोगों का होना अपरिहार्य होता है। दादा खुद को भाग्यशाली मानते थे कि लोग चल कर उनके पास आते थे और उन्हें जीवनी शक्ति दे जाते थे। लोगों से बतियाते हुए वे अत्यन्त सतर्क रहते थे। कोई भी अप्रिय, अवांछित सवाल नहीं पूछते थे। वे लोगों से उनकी समस्याओं के बारे में बात करते थे और ऐसे सवाल करते थे जिनके जवाब में आदमी को अपनी सफलताएँ, अपनी उपलब्धियाँ बताने, गिनाने का मौका मिलता था। जाहिर है, ऐसे आदमी के पास कौन नहीं आना चाहेगा? सम्भवतः इसलिए भी लोग दादा से मिलने के लिए बार-बार आते थे और बिना किसी काम के आते थे।

लेकिन खेत पर निवास कर लेने के कारण लोगों का आना-जाना कम होने लगा था। तब, ‘रास्ते चलते’ आनेवालों का आना बन्द सा हो गया था। भौगोलिक दूरी बढ़ गई थी। तब वे ही लोग पहुँचते थे जिन्हें कोई काम होता या जो दादा से मिले बिना रह नहीं पाते थे। घर में तो गिनती के ही लोग थे - खुद दादा, मुन्ना, बहू सोना, चौबीस घण्टों का परिचारक भूरा। मुन्ना ने कोई तीस किलो मीटर दूर खेती ले रखी है। वह अस्थायी सदस्य की तरह सप्ताह में दो-एक दिन घर में रह पाता है। भरे-पुरे घरों के बूढ़े भी अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं। यहाँ तो वैसे भी गिनती के लोग थे। बूढ़ों के पास बैठने में लोग वैसे भी कतराते हैं। बूढ़े लोग इस तरह पूछताछ करते हैं मानो किसी अपराधी से पुलिसिया पूछताछ हो रही हो। बूढ़ों में एक और प्रवृत्ति सामान्य पाई जाती है। वे खुद को और अपने समय को श्रेष्ठ बताने की कोशिश में बच्चों को अक्षम, असमर्थ, निकम्मा साबित करते रहते हैं। 

दादा ने अपने अकेलेपन से खुद ही मुक्ति तलाशी। उन्होंने सूत्र खोजा - ‘लोग तुम तक नहीं आ पाते तो तुम ही लोगों तक पहुँचो।’ कोई चार महीने पहले उन्होंने गाँव के तमाम लिखने-पढ़नेवालों से कहा कि महीने में एक दिन सब लोग किसी एक जगह इकट्ठे हों और बिना किसी विषय के बात करें। सबको यह बात अच्छी लगी और मासिक समागम जुड़ने लगा। इस समागम के समाचार मुझे फेस बुक से मिलते थे। हर बार नया विषय और नई टिप्पणियाँ। दादा अपनी ओर से कुछ नहीं कहते-पूछते। उनसे जो पूछा जाता उसका जवाब देते। फेस बुकिया मित्रों की मानूँ तो उन्हें दादा से अनूठी जानकारियाँ मिलती थीं और जिन्दगी के अनछुए, अनदेखे पन्ने खुलते थे। दादा ने बताया था कि इन समागमों में, बच्चों का बोला सुनने में उन्हें बहुत मजा आता था। वे कहते थे - ‘हमारे बच्चे अद्भुत, विलक्षण, अनूठे और अत्यधिक प्रतिभाशाली हैं। हम सब इन्हें दुत्कारते, खारिज करते रहते हैं। कोई इनके पास बैठ कर इन्हें सुने, समझे तो सही!’ अपनी भावी पीढ़ियों की पैरवी करते हुए वे बार-बार कहा करते थे - ‘जो वृक्ष अपनी नई कोंपलों का स्वागत नहीं करता, वह ठूँठ बन कर रह जाता है।’ दादा ने बताया था कि उनकी चौथी पीढ़ी तक के बच्चे इस समागम में आते थे। चूँकि दादा ने सवाल पूछना बन्द कर रखा था इसलिए (चौथी पीढ़ी के) ये बच्चे भी उनसे मित्रवत बात-व्यवहार करते थे। बच्चे तो उत्साहित रहते ही थे, दादा भी खुद को अतिरिक्त रूप से ऊर्जावान अनुभव करते थे। 

मेरे छोटे बेटे के विवाह प्रसंग पर वे आए तो लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्हें अकेले नहीं रहने दिया। विवाह की भागदौड़ के बीच मैंने जब भी उन्हें देखा तो पाया कि वे श्रोता बने हुए हैं। अपनी ओर से किसी से कुछ नहीं पूछ रहे हैं। कोई कुछ पूछ रहा है, सवाल कर रहा है तो जवाब दे रहे हैं। पूछने के नाम पर सामनेवाले के परिवार की कुशल क्षेम और सफलताओं के बारे में पूछताछ कर रहे हैं। उनके आसपास बैठे लोग उनके तो परिचित थे लेकिन वे सब परस्पर परिचित नहीं थे। दादा उन सबका परिचय कराते हुए उनकी सफलताओं, उपलब्धियों, विशेषताओं की विस्तृत जानकारी दे रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो वे सबके प्रशस्ति-पत्र बाँच रहे हों। यह सामान्य मनोविज्ञान है कि हर कोई खुद को प्रमुख या विशेष अनुभव करना चाहता है। मुझे अब लग रहा है कि दादा अपने मिलनेवालों की यह अनकही मनोकामना सहजता से पूरी करते थे और बिना कंजूसी बरते करते थे। 

दादा में बड़ापन तो था ही, बड़प्पन उससे कहीं-कहीं अधिक था। ‘बड़ापन’ तो बैठे-बिठाए मिल जाता है लेकिन ‘बड़प्पन’ तो अर्जित करना पड़ता है। दादा की ये सारी बातें जब एक साथ जुड़कर सामने आती हैं तब अनुभव हो पाता है कि बड़प्पन अर्जित करना जितना दुसाध्य है उतना ही सरल भी। बड़प्पन अर्जित करने के लिए अपने बड़ेपन को विसर्जित करने का साहस करना पड़ता है। हम अपने बड़ेपन के बन्दी होकर खुद को बड़प्पन से वंचित कर लेते हैं। बात ले-दे कर आदमी की मानसिकता पर ही आकर टिकती है। 

हम दो ही भाई थे। वे मेरे इकलौते बड़े भाई और मैं उनका इकलौता छोटा भाई। लेकिन वे मेरे मानस पिता थे। मेरे पिताजी की मृत्यु जरूर 1992 में हुई लेकिन पितृविहीन तो मैं अब हुआ। वे चले गए, परिवार का अपना बड़ापन मुझे दे कर। बड़ापन मैं लेना नहीं चाहता था और बड़प्पन मुझ तक नहीं आ पाया। उनके रहते जो बेफिक्री, जो मदमस्ती बनी रहती थी, वह हवा हो गई है। लेकिन देख रहा हूँ कि अनगिनत लोग दादा के इन जीवन सूत्रों को थाम सफलताएँ, उपलब्धियाँ अर्जित किए जा रहे हैं। 

मैं क्यों घबरा रहा हूँ? मैं तो इन सबसे बहुत अधिक समृद्ध हूँ! 
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16 comments:

  1. अत्यंत सुंदर संस्मरण व श्रद्धांजलि ,उनके अपने जीवन में स्थापित तथा प्रयुक्त पंचशील अंतस को प्रभावित कर गए । सादर नमन ।

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  2. सच लिखा है, विष्णु जी ने कि बाल कृष्ण वैरागी के पंचशील से बहुत सीखा जा सकता है। विष्णु जी की भाषा और आत्मीय शैली किसी भी विषय को रोचक और अर्थवान बना देती है। बालकृष्ण जी के बारे में जानना मनुष्य-चित्त में विनय को पाना है।

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  3. प्रेरक संस्मरण, दादा को सादर नमन

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  4. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन सामाजिक कार्यकर्ता - अरुणा रॉय और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  5. बहुत-बहुत धन्यवाद।

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  6. कवि बालकवि बैरागी जी के शिशुगीत और कविताएँ बचपन से पढ़ी हैं। 'अपनी गंध नहीं बेचूँगा'जैसी अमर कविताओं के रूप में वे हमारे बीच हमेशा रहेंगे। 'तू चंदा मैं चाँदनी, तू तरुवर मैं शाख रे'जैसा अमर गीत देने वाले बैरागी जी अपने शब्दों के रूप में अजर अमर हैं। उनके 'व्यवहार के पंचशील'जानकर तो मैं हैरान हो गई। इतना बड़प्पन कम ही लोगों में मिलता है। मेरी ओर से दादा बैरागी जी को श्रद्धासुमन अर्पित करती हूँ।

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  7. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (28-05-2018) को "मोह सभी का भंग" (चर्चा अंक-2984) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  8. बहुत ही प्रेरक एवं मनोवैज्ञानिक संस्मरण।
    बहुत बहुत धन्याद। इसी प्रकार लिखते रहें।

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  9. दादा की हर बात,हम सबके लिये प्रेरणादायक रहती थी । दादा सर्वगुण सम्पन्न थे । साधुवाद ।

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  10. Balkaviji has been described well as an elder brother and a patron.badhai.

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  11. 'व्यवहार का पंचशील' बहुत ही महत्वपूर्ण लगा। आपके बताये गए उनके सारे गुण प्रेरणास्पद है। परिस्थितियां और मनोविज्ञान इंसान को संचालित करती है मगर वो इनसे ऊपर और बड़े थे।
    आपको बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने ये ब्लॉग लिखकर साझा किया। आपसे भी बहुत सीखने को मिलता है।

    -पूरब शर्मा

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  12. संस्मरण "बड़ेपन का विसर्जन...."एक बेमिसाल विचारों का नदी जैसा प्रवाह है।एक सहज संदेश है कि बड़ेपन का अहम आदमी में बड़प्पन नहीं आने देता।ज्यादा लोगों में पंचशील में से एक भी शील नहीं होता।और इसीलिए ऐसे लोगों की जब मृत्यु होती है तो सुनकर लोग चौंकते है कि "क्या अभी तक थे?"ऐसी जीतेजी मृत्यु को पाते हैं बिना शील वाले लोग!और दादा या शीलवान लोग सदा दादा की तरह अमर हैं।उनके विचार सदैव एक दिशाबोध देते रहेंगे।एक अच्छे संस्मरण के द्वारा लोगों में एक वैचारिक चिंतन दिए जाने के लिए धन्यवाद।यह बार बार पढ़े जाने वाला संस्मरण है।पढा जाएगा।
    अर्जुन पंजाबी

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  13. विराट व्यक्तित्व के स्वामी बालकवि बैरागी जी को विनम्र श्रद्धांजलि। उनके बारे में इतना सब जानकर बहुत अच्छा लगा।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.