अनूठा देनदार


कल की मेरी पोस्ट पर श्रीयुत अज्ञात (एनोनीमस) ने अपनी टिप्पणी के चैथे बिन्दु में वह बात कह दी है जिसे विषय बना कर मैं कल की पोस्ट लिखना चाहता था । मेरी तकदीर अच्छी है कि वे केवल सूत्र प्रस्तुत कर रह गए । अज्ञातजी को धन्यवाद कि उन्होंने न केवल मेरे लिए ठोस भूमिका बना दी बल्कि मेरी कल की पोस्ट की कुछ तथ्यात्मक भूलों की मरम्मत भी कर दी ।


अपनी रकम वसूली के लिए लोगों को लेनदार के दरवाजे पर जाकर तकादे करने पडते हैं । वित्तीय संस्थाएं अपनी बकाया वसूली के लिए ‘रिकवरी एजेण्ट‘ नियुक्त करती हैं जो ‘रिकवरी‘ के नाम पर डकैती या फिरौती वसूली करते नजर आते हैं । लेकिन भाजीबीनि इस मामले में ‘अनूठा देनदार’ है । अपने ग्राहकों को भुगतान करने के लिए यह दर-दर भटकता है और अखबारों में विज्ञापन देता है - आईए ! अपनी रकम ले जाइए और हमें कृतार्थ कीजिए ।

भाजीबीनि की योजनाओं में ‘मनी बेक पालिसी‘ सम्‍भवत: सर्वाधिक लोकप्रिय योजना है । इसके अन्तर्गत ग्राहक को प्रति पांच वर्ष बाद एक सुनिश्चित रकम मिलने का प्रावधान है । कुछ मनी बेक योजनाओं में यह अवधि चार वर्ष भी होती है । यह रकम प्राप्त करने के लिए ग्राहक को न तो कोई पत्र लिखना होता है और न ही भाजीबीनि कार्यालय के चक्कर काटने पडते हैं । भाजीबीनि पर्याप्त समय पूर्व (इन दिनों, लगभग एक माह पूर्व) ही अपने ग्राहकों को इस रकम का चेक भेज देता है । यह चेक पंजीकृत डाक से या स्पीड पोस्ट से भेजा जाता है । भाजीबीनि के रेकार्ड में ग्राहक का जो पता होता है, उसी पते पर चेक भेजा जाता है । ऐसा प्रायः ही होता है कि बीमा लेते समय ग्राहक का जो पता होता है वह चार-पांच वर्ष बीतते-बीतते बदल जाता है । ऐसे में, कई बार चेक, अवितरित होकर, भेजने वाले कार्यालय के पास लौट आता है । ऐसी दशा में कार्यालय, सम्बन्धित एजेण्ट को, अवितरित चेक पहुंचाने की जिम्मेदारी देता है । एजेण्ट को अपने ग्राहक का अता-पता मालूम होता है । सो, अवितरित होकर लौटने के बाद भी अधिकांश चेक सम्बन्धित ग्राहक तक, ठीक समय पर पहुंच ही जाता है ।


इतना सब होने के बाद भी कई लोग चेक को भूल जाते हैं । कई बार ऐसा होता है कि पंजीकृत डाक, परिवार के किसी सदस्य ने प्राप्त कर ली और वह लिफाफा रख कर भूल गया । ऐसे तमाम मामलों वाले चेक, बासी (स्टेल) होकर अपनी वैधता खो देते हैं । उधर, बैंक से मिलने वाले स्टेटमेण्ट के कारण भाजीबीनि कार्यालय को जल्दी ही मालूम हो जाता है कि ग्राहक के पास चेक पहुंचने के बाद भी वह बैंक में जमा नहीं हुआ है और ग्राहक की रकम, कार्यालय में जमा पडी रह गई है । ऐसे चेकों की संख्या हजारों तक और रकम का आंकड़ा (कम से कम) लाखों तक तो पहुंच ही जाता है ।


भाजीबीनि की जिस शाखा से मैं सम्बध्द हूं वहां ऐसे बासी चेकों की रकम 20 लाख रुपयों से अधिक हो गई है । मेरे कस्बे में भाजीबीनि की तीन शाखाएं हैं । उनमें से एक शाखा में यह रकम 25 लाख रुपये हो गई है । तीसरी शाखा की रकम का आंकडा न तो मुझे मालूम है और न ही मैं ने जानने की कोशिश की है ।

जैसा कि मैं ने अपनी पोस्ट में कल बताया था, देश भर में भाजीबीनि की 2048 शाखाएं हैं । मेरे कस्बे की दो शाखाओं के, बासी चेकों की रकम के आंकड़े के आधार पर यदि प्रति शाखा 15 लाख रुपयों का औसत मान लें तो 2048 शाखाओं का आंकड़ा 30,720 लाख रुपये बैठता है । इसे और अधिक आसान शब्दावली में कहा जाए तो यह रकम 30 अरब 72 लाख रुपये होती है । कृपया इसे ‘निगम’ का अधिकृत आंकड़ा बिलकुल न मानें, मेरे कस्बे की दो शाखाओं के आंकड़ों के आधार पर यह मेरा अनुमान है ।

कानून का तकाजा तो केवल इतना ही है कि बीमा कम्पनी, सम्बन्धित ग्राहक को, कम्पनी के पास उपलब्ध (ग्राहक के) पते पर चेक भेज दे । यदि चेक अवितरित होकर लौट आता है तो बीमा कम्पनी की जिम्मेदारी यहीं समाप्त हो जाती है । समझदार और चतुर व्यापारी ऐसी रकम को अपने व्यापार में प्रयुक्त करता रहेगा और ग्राहक को दूसरी बार याद दिलाने के बारे में सोचेगा भी नहीं ।


लेकिन भाजीबीनि ऐसे मामलों में यहीं पल्ला झाड कर नहीं रह जाता । चेक के बासी हो जाते ही वह अतिरिक्त रुप से सक्रिय हो जाता है । प्रत्येक शाखा का दावा विभाग ऐसे बासी चेकों की सूची लेकर ताक में बैठा रहता है कि कोई एजेण्ट आए और उसके सामने सूची रख कर अधिकाधिक ग्राहकों का भुगतान उसके जिम्मे किया जाए । जरूरी नहीं कि जिन ग्राहकों की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है वे उस एजेण्ट के ग्राहक हों या वह बीमा उसी एजेण्ट ने बेचा हो । ‘निगम’ की प्रत्येक शाखा का प्रयास होता है कि ऐसे अवितरित चेकों की रकम का भुगतान जल्दी से जल्दी कर दिया जाए । इसके पीछे कोई कानूनी आग्रह या बाध्यता बिलकुल ही नहीं है । इसके पीछे है ‘निगम‘ की मानसिकता - ‘ग्राहक का पैसा ग्राहक को मिलना ही चाहिए और जल्दी से जल्दी मिलना चाहिए ।’ इस मानसिकता के चलते ही ‘निगम’ का दावा भुगतान प्रतिशत 98 तक पहुंच पाया है, जैसा कि अज्ञातजी ने अपनी टिप्पणी में बताया है । प्रत्येक शाखा के दावा विभाग का प्रयास होता है कि उसकी सूची जल्दी से जल्दी ‘निरंक‘ की स्थिति में आ जाए ।


ऐसा भुगतान कराने में हम एजेण्टों को बडा आनन्द आता है । कोई सात-आठ वर्ष पूर्व मैं लगभग पौने चार लाख रुपयों का ऐसा ही भुगतान एक सज्जन को कराने का निमित्त बना था । वे सज्जन रतलाम के ‘श्री सज्जन मिल्स लि.’ के कर्मचारी थे और सेवा निवृत्त होकर, उत्तराखण्ड स्थित अपने पैतृक गांव चले गए थे । उन्हें तो पता भी नहीं था कि उनकी पालिसी परिपक्व हो चुकी है । उनका सरनेम तनिक असामान्य था और मैं अपने स्वभावानुसार, उनके अटपटे सरनेम का अर्थ जानने के लिए उनसे एक बार मिला था । दावा विभाग ने जब उनका नाम मेरे सामने रखा तो मुझे यह तो याद आ गया कि मैं उनसे मिला था, लेकिन यह याद नहीं कर पाया कि कहां मिला था । अपनी लिखा पढ़ी का काम करते हुए एक रात लगभग तीन बजे अकस्मात ही सज्जन मिल में हुई उनसे मुलाकात याद हो आई । मारे प्रसन्नता के मैं सवेरे तक सो नहीं पाया । साढ़े दस बजे तक का समय मैं ने बहुत ही बेचैनी में गुजारा । कार्यालय खुलने पर मालूम हुआ कि वे तो सेवा निवृत्त होकर अपने गांव चले गए । किसी को भी उनके गांव का नाम और उनका पता नहीं मालूम । एक सज्जन ने उनके एक भानजे का फोन नम्बर दिया । वह चण्डीगढ़ में था । उसने अपने मामा का फोन नम्बर दिया । मैं ने उन सज्जन से बात की तो वे फोन पर ही रोने लगे । उन्होंने कहा - ‘उत्तराखण्ड के दूर-दराज के गांव में बैठे एक रिटायर्ड आदमी के लिए पौने चार लाख रुपयों का महत्व आप तभी अनुभव कर सकेंगे जब आप मेरे गांव आएं ।‘ उन्होंने अपने गांव के निकटतम भाजीबीनि कार्यालय से विमुक्ति पत्र (डिस्चार्ज वाउचर) प्राप्त किया और पालिसी सहित भिजवाया । उस पालिसी से मेरा कोई लेना-देना नहीं था । उन्होंने जब वह पालिसी ली थी तब तो मैं भाजीबीनि का एजेण्ट भी नहीं था । जब उन्हें उनका भुगतान मिला तो उन्होंने मुझे फोन पर प्राप्ति सूचना दी । उनसे बोला नहीं जा रहा था । आंसुओं में भीगे और हिचकियों में सने उनके आशीष आज भी मुझे मेरे माथे पर सुरक्षा-छत्र की तरह अनुभव होते हैं । स्थानीय स्तर पर ऐसे पचासों किस्से प्रत्येक एजेण्ट के पास सुनने को मिल जाएंगे ।


लेने के लिए कोई पचास चक्कर लगाए यह नई और बड़ी बात नहीं । लेकिन देने के लिए कोई इतनी चिन्ता करे, इतनी सक्रियता बरते - यह असमान्य और अनूठी बात है ।

मुझे लगता है, दुनिया की बड़ी से बड़ी बीमा कम्पनियों से टक्कर लेने वाला ‘भारतीय जीवन बीमा निगम’ अपने नाम के ‘भारतीय‘ शब्द की व्‍यंजना को पूरी तरह सार्थक करता है । हम भारतीय आज भी अपना कर्ज चुकाने को सर्वोच्च वरीयता देते हैं । हममें से प्रत्येक, जल्दी से जल्दी कर्ज मुक्त हो जाना चाहता है । एक मालवी कहावत के अनुसार जिन नौ तरह के लोगों को रात में नींद नहीं आती उनमें वह व्यक्ति भी शरीक होता है जिसके माथे पर कर्ज होता है । ‘कर्ज युक्त‘ बने रहना पाश्‍चात्य अवधारणा है (जहां दिवालिया होना भी एक कानूनी-तकनीकी खानापूर्ति होती है) जबकि ‘कर्ज मुक्त‘ रहना, भारतीय अवधारणा है । इस लिहाज से भारतीय जीवन बीमा निगम न केवल एक जिम्मेदार वित्तीय उपक्रम बनकर सामने आता है अपितु वह ‘भारतीयता‘ को साकार और सार्थक भी करता है । जरा कल्पना कीजिए - कोई निजी बीमा कम्पनी ऐसा भुगतान करने के बारे में कभी सोचेगी भी ?


कहिए ! है न यह अनूठा देनदार ?

मैं इस अनूठे देनदार का एक छोटा सा, बहुत ही छोटा सा मुनीम हूं ।

मुझे अपने सेठ पर गर्व है ।

4 comments:

  1. मुनीम जी, आप का सेठ जब लोगों को चैक भेजता है तो कई बार पता बदल जाने पर उन्हें गलत लोग प्राप्त कर लेते हैं। फिर किसी तरह उस नाम का खाता बैंक में खुलवा कर उस का भुगतान प्राप्त कर लेते हैं। जब असली दावेदार अपनी रकम मांगता है तो उसे तो देनी ही पड़ती है। फिर पुलिस में मामला जाता है तो पुलिस उस का पता नहीं कर पाती मगर आप के सेठ के कारिंदे उसे भी तलाश कर लेते हैं। फिर रकम हड़पने के लिए पुलिस तो मुकदमा करती ही है, उस से रकम वसूली में आप का सेठ भी पीछे नहीं रहता। आप के सेठ के लिए ऐसे अनेक मुकदमे मैं ने लड़े हैं।

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  2. सच मे अनूठा देनदार है।

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  3. प्रभु बढ़िया थ्रिलर लिख सकते हैं।आपके नें ऎसा सस्पेन्स अन्त तक बनाये रखा कि पूरी पोस्ट पढ़्ने के बाद ही ‘भाजीबीनि’ पता पड़ा।ऎसे ही नान आ‌परेटिव एकाउन्टस में बैंको में भी हजारों करोड़ रुपया बरसों से पड़ा हुआ है।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.