संस्‍कृति और धर्म रक्षा : व्यापार बनाम उद्यम

कल रात कोई सवा ग्यारह बजे यह समाचार एक चैनल पर देखा था और आज प्रातः अखबारों में देख रहा हूँ। ‘आश्चर्यचकित’ तो क्षणांश को भी नहीं हुआ किन्तु तनिक असहज अवश्य हूँ।

महाराष्ट्र राज्य शासन ने केन्द्र शासन के ‘माता-पिता के भरण पोषण और कल्याण कानून’ को अपने राज्य में लागू करने पर सहमति दे दी है। अब, महाराष्ट्र में भी, उन पुत्रों/पुत्रियों को तीन माह का कारावास अथवा पाँच हजार रुपयों तक का अर्थ दण्ड हो सकेगा जो अपने वृध्द माता-पिता का ‘सम्मान’ नहीं करेंगे।

आश्चर्यचकित इसलिए नहीं हुआ क्यों कि ‘यह तो होना ही था’ वाला पूर्वानुमान था। ‘भारतीय समृध्दि’ परिवार को छोटा नहीं करती। इसमें ‘संयुक्त परिवार’ अथवा ‘पारिवारिक सामूहिकता’ स्वतः सन्निहित है जिसमें परिवार का मुखिया, चाहे कितना ही वृध्द क्यों न हो जाए, परिवार के निर्णय लेने का पारम्परिक अधिकारी होता है। ‘पाश्चात्य समृध्दि’ में ऐसा नहीं है। वहाँ ‘वैयक्तिकता’ प्रधान है। इसीके चलते हम ‘छोटे परिवार’ से प्रारम्भ होकर ‘एकल परिवार’ तक आ पहुँचे। ऐसे में परिवार के वृध्द भी एक अलग और स्वतन्त्र ‘एकल परिवार’ बन कर रह गए।
किन्तु ‘राज्य द्वारा अपने नागरिकों की देखभाल’ के मामले में पश्चिम में और हममें मूलभूत अन्तर है। वहाँ, वृध्दों की देखभाल का जिम्मा राज्य का होता है। हमारे यहाँ ऐसा नहीं है। हमारे यहाँ तो वृध्द आज भी सन्तान का ही उत्तरदायित्व हैं।

पश्चिम के रास्ते चल कर समृध्दि प्राप्त करने के लिए ‘एकल’ होना अपरिहार्यता है। वह तो हम हो गए किन्तु सामाजिक स्तर पर ‘संयुक्त’ बने रहना भी अपरिहार्य है, यह भूल गए। ऐसे में, ‘राज्य’ हमें ‘एकल’ होने के लिए सुविधाएँ और प्रोत्साहन तो उपलब्ध करता है किन्तु उसके ‘उप उत्पाद’ (बाय प्राडक्ट) से उपजी स्थिति की जिम्मेदारी नहीं लेता। विकराल जनसंख्या के कारण यह सम्भव भी नहीं लगता।

अब, जबकि ‘भारतीय संस्कृति’ में जो माता-पिता ‘तीर्थ’ और दिनारम्भ में प्रणम्य (‘प्रातःकाल उठि कर रघुनाथा, मात-पिता, गुरु नाँवहि माथा’) हुआ करते थे, वे अब ‘कानूनी जिम्मेदारी’ बनने लगे हैं, तब मुझे लगता है, यही वह बिन्दु है जहाँ से ‘भारतीय संस्कृति की रक्षा की चिन्ता’ शुरु की जानी चाहिए।

यह स्थिति, बहुत ही धीमे-धीमे आई है, बिल्ली की तरह दबे पाँव। किन्तु इसका प्रतिकार तो अपनी सम्पूर्ण शक्ति, क्षमता और सक्रियता से, अविलम्ब ही करना पड़ेगा। क्षरण तो सदैव ही मन्द गति से प्रारम्भ होता है किन्तु उसके प्रभावों से बचने के उपाय तो तीव्रतम गति से करने पड़ते हैं।

भारतीय संस्कृति और धर्म के पहरुओं की भूमिका निभाने वाले इस ओर शायद ही दृष्टिपात करें। क्योंकि उन्हें सबसे पहले अपने वृध्द परिजनों को सम्मान देने के लिए समय निकालना पड़ेगा और उनके लिए आवश्यक व्यवस्थाएँ करने का कष्ट उठाना पड़ेगा।

यह सब करने की अपेक्षा, सड़कों पर ताण्डव मचाना, लोगों को भयभीत करना, ‘अपनी सरकार’ होने के दम पर आतंक उपजा कर अपनी धाक जमाना अधिक सहज और सुविधाजनक होता है।

भारतीय संस्कृति के ठेकेदारों और धर्म रक्षकों के लिए यह एक और ‘स्वर्णिम अवसर’ उपलब्ध है। ‘पाश्चात्य समृध्दि’ के कारण अकेले हो रहे वृध्दों की सुरक्षा, सेवा और देख भाल के लिए वे कोई दीर्घकालीन और स्थायी प्रकल्प प्रारम्भ कर सकते हैं। हाँ, इस प्रकल्प से प्राप्त होने वाले सम्मान और दुआओं के लिए उन्हें वर्षों तक, अत्यन्त धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी होगी।

यह देखना रोचक होगा कि वे भय आतंक उपजाने वाले और ताण्डव मचाने जैसे ‘तत्काल प्रभाव’ वाले नकारात्मक काम करने में विश्वास करते हैं या भारतीय संस्कृति और धर्म की रक्षा के सच्चे और वास्तविक दीर्घकालीन प्रकल्प शुरु करते हैं।

हाथों-हाथ लाभ की कामना भरे प्रयत्‍न व्यापारी (ट्रेडर) करता है जबकि दीर्घकालीन प्रकल्प बना कर, दूरगामी-स्थायी लाभ की कामना करने का साहस कोई ‘उद्यमी’ (एण्टरप्रीनर) ही कर पाता है।

भारतीय संस्कृति और धर्म की ठेकेदारी कर रहे लोग ‘व्यापारी’ हैं या ‘उद्यमी’, यह उन्हें ही साबित करना है।

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5 comments:

  1. agar dharam ke thhekedaron par ye kaam chhoda to vo bujurgon kaa paka hi intjaam kar denge ki aap dhoondhte hi reh jaaoge agar ye log bharose ke kabil hote to smaaj ka ye haal na hota

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  2. आप ने इस आलेख से एक नए विषय को आरंभ किया है। चर्चा महत्वपूर्ण है। इस स्थिति तक आने में क्या क्या कारक रहे हैं? उन पर तो विचार होना ही चाहिए। साथ ही इस स्थिति में क्या व्यवस्थाएँ अपने देश में होनी चाहिए इस पर भी विचार होना चाहिए। हमारा अनुभव है कि कानून से समाज नहीं बदलते। यदि ऐसा होता तो अब तक बाल विवाह नहीं हो रहे होते।

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  3. पश्चिम की तर्ज पर नई नई बातें हमारे समाज में घुसपैठ करके समाज को बर्बाद कर रही हैं.

    "यह स्थिति, बहुत ही धीमे-धीमे आई है, बिल्ली की तरह दबे पाँव।"

    इस कारण जब मुझ जैसा व्यक्ति लोगों को चेतावनी देता है तो कई लोगों को बात समझ में नही आती है.

    सस्नेह -- शास्त्री

    -- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.

    महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)

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  4. विषय नया जरूर है परन्तु महत्वपूर्ण सामाजिक धरातल पर जब मूल्यों का ह्रास हो जाता है तोन धर्म के ठेकेदार कुछ कर पाएंगे और न ही कानून. बुजुर्गों के द्वारा छोटे बच्चों को दिया जाने वाला स्नेह प्रभावी हो सकता है.

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  5. कानून से इस बारे में लोगों को जिम्मेदार नहीं बनाया जा सकता। कोई समाज आन्दोलन जरूरी है।

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