मिठास को उकेरती कसक

खेत में रखे अपने अण्डों की तरफ बढ़ते साँप को देखकर टिटहरी जो क्रन्दन करती है, वह मैंने आज तक नहीं सुना। किताबों में पढ़ा और लोक कथाओं, लोकोक्तियों में सुना भर है। किन्तु उस रात ऋषि की आवाज में मुझे टिटहरी का क्रन्दन सुनाई दे रहा था।

यह इसी पन्द्रह फरवरी की रात की बात है। कोई साढ़े आठ-पौने नौ बजे होंगे। मोबाइल घनघनाया। निपट अनजान नम्बर था। मेरी ‘हेलो‘ के जवाब में विगलित और व्याकुल स्वर सुनाई पड़ा -‘अंकलजी! मैं ऋषि बोल रहा हूँ। मेरी मदद कीजिए। प्लीज।’ उस रात को सर्दी ठीक-ठीक ही थी। किन्तु ऋषि की आवाज सुनकर पसीना आ गया। लगा, धड़कन बन्द होने के लिए सरपट दौड़ने लगी है। साँस घुटने लगी। लगा, प्राणान्त हो जाएगा।

ऋषि मेरे बड़े बेटे वल्कल का ‘सखा‘ और ‘सहपाठी’ है। बेंगलुरु में नौकरी पर था। कम्पनी ने उसे, दक्षिण कोरिया के ‘सुवों’ (SUWON) शहर भेजा है। अभी-अभी। इसी पहली फरवरी को वहाँ पहुँचा है ऋषि। बेंगलुरु से पूरे नौ घण्टों की हवाई-यात्रा कर। 'देस' से कोई 5600 किलोमीटर दूर। वहाँ के मुकाबले भारत में सवेरा कोई साढ़े तीन घण्टे पहले हो जाता है। याने जब भारत में सवेरे के सात बजते हैं तो वहाँ साढ़े दस बज रहे होते हैं। समय के इस अन्तर ने ही मुझे इस ‘प्राणान्तक’ स्थिति में ला खड़ा कर दिया था। याने, कोरियाई समय के हिसाब से ऋषि मुझसे आधी रात मे बात कर रहा था। नहीं, बात नहीं कर रहा था। ‘मेरी मदद कीजिए’ कह रहा था। परदेस में बैठा अकेला लड़का, आधी रात में 'मदद' के लिए आवाज लगा रहा था! जितनी भी हो सकती थीं, वे सब की सब कुशंकाएँ ‘शेष नाग’ बन कर अपने फन फहराने लगी थीं। कौन सी विपत्ति आ पड़ी उस अकेले लड़के पर? लेकिन उससे पहले ही सवाल आया-मैं उसकी क्या मदद कर पाऊँगा? उसकी अज्ञात विपत्ति की आशंका और अपनी ‘कोई भी सहायता न कर पाने की दशा’ ने मुझे संज्ञाहीन ही बना दिया।

मेरा तो मानो पुनर्जन्म हुआ। बड़ी कठिनाई से पूछ पाया - ‘क्या बात है? सब ठीक तो है ना? तुम्हें कुछ हुआ तो नहीं?’ मेरी आवाज से ही मानो ऋषि ने मेरी दशा का अनुमान लगा लिया। तत्काल ही बोला -‘नहीं! नहीं! अंकलजी। वैसी कोई बात नहीं।’ उसने कहे तो कुल ये सात शब्द किन्तु मुझे लगा कि मैं ने चैरासी लाख योनियाँ पार कर लीं। मेरी साँस सामान्य तो हुई किन्तु संयत तो तब भी नहीं हो पाया। तनिक कठिनाई से ही पूछ पाया - ‘फिर क्या बात है? कैसी मदद चाहिए?’

उत्तर में ऋषि ने जो कुछ कहा, सुनकर मैं अपने आपे में नहीं रह सका। रोना आ गया। यूँ देखूँ तो ‘बात न बात का नाम’। किन्तु ऋषि की बात को ‘यूँ’ देख पाना ही तो मुमकिन नहीं हुआ! ऋषि ने कहा-‘हिन्दुस्तान के समय के मुताबिक आज सवेरे साढे़ आठ बजे से मैं कोशिश कर रहा हूँ कि या तो अभिषेक से मेरी बात हो जाए या फिर उस तक मेरी बात पहुँच जाए। किन्तु पूरे बारह घण्टे हो गए हैं। मैं हलकान हो गया हूँ। आज अभिषेक की शादी है। मुझे आज वहाँ होना चाहिए था। लेकिन मेरा होना तो दूर रहा, मेरी आवाज भी अभिषेक तक नहीं पहुँच पा रही है। हार कर मैंने आपको फोन लगाया है। प्लीज ऐसा कुछ कीजिए कि या तो अभिषेक से मेरी बात हो जाए या फिर मेरी बात उस तक पहुँच जाए।’

अभिषेक याने ऋषि और वल्कल का ‘सखा‘ और सहपाठी। उसी की शादी में ठुमके लगाने के लिए वल्कल हैदराबाद से यहाँ पहुँचा था। आते ही उसने भी ऋषि को याद किया था-अत्यन्त दुखी मन से। ऋषि का यहाँ न होना, उसके होने की कसक को और उभार रहा था। पता नहीं, इन तीनों ने क्या-क्या सोचा होगा इस प्रसंग के लिए। ऋषि भारत में होता तो सारी बाधाओं को चीर कर अभिषेक की शादी में आता और अपनी उपस्थिति को यादगार बना देता।


ऋषि की आवाज में यही कसक हुमक रही थी। वह रुँआसा था। शायद हताश भी। ऋषि, अभिषेक और वल्कल की तिकड़ी अपने स्कूल में पर्याप्त ‘ख्यात’ थी। अध्यापक इसके पहले ‘कु’ और छात्र ‘वि’ लगा लिया करते थे। वल्कल की शादी में भी ऋषि नहीं पहुँच पाया था। और अब अभिषेक की शादी में भी?


वह बता रहा था कि उसने अभिषेक और वल्कल के मोबाइलों पर वास्तव में अनगिनत बार ‘ट्राई’ किया किन्तु एक बार भी सफल नहीं हो पाया। उसने कहा-‘अंकलजी! यह भी कोई बात हुई? मैं क्या बताऊँ कि मुझे कैसा लग रहा है?’ मैंने उसे ढाढस बँधाने की कोशिश की। कहा कि मैं अभिषेक के घर बात कर, सम्पर्क कराने की कोशिश करता हूँ। मैंने उसे अभिषेक के घर का नम्बर भी दिया। अभिषेक की माताजी से बात कर ऋषि की व्याकुलता सूचित की। ऋषि से कहा कि फोन बन्द कर, ‘चेट’ पर आ जाए।


थोड़ी ही देर बाद चेट बाक्स में ऋषि का सन्देश आया - ‘अच्छा अंकलजी। गुड नाइट।’ उसने यह नहीं बताया कि अभिषेक से उसका सम्पर्क हुआ या नहीं। किन्तु उसकी पहली आवाज सुनने से लेकर चेट बाक्स में उसके सन्देश के आने के इन कुछ मिनिटों के समय में मैं एक पूर युग को जी गया। इस युग में प्रगाढ़ आत्मीयता थी, वह मिठास थी जो मिठास की तमाम उपमाओं और प्रतिमानों को बौना, अपर्याप्त और अधूरा साबित कर रही थी, अपनेपन की वह ऊष्मा थी जिसने कृत्रिमता, दिखावा, औपचारिकता को भस्म कर दिया था। इस युग में रिश्तों का वह सब कुछ था जो आज ‘अजायब घर के काबिल’ हो गया है। ये बच्चे भले ही अपनी आयु के तीसरे दशक को जी रहे हैं किन्तु दूरियाँ अभी भी इन्हें सालती हैं, ‘सखा का बाराती’ न बन पाना व्याकुल और व्यग्र करता है, उससे बात न कर पाना जीवन की व्यर्थता लगता है।

‘पैकेज के मारे’ इन युवाओं के मन में यह तड़प अभी भी बाकी है-यह अनुभव कर मन को शान्ति मिली। लगा, जेठ की तपती दुपहरी में ऋषि ने मुझे घने नीम की ठण्डी छाया में बैठा दिया है। ऋषि की आवाज की कसक ‘दोस्ती’ की मिठास को उकेर रही थी। इस कसक पर मैं न्यौछावर।

टिटहरी का क्रन्दन मैं अब भी सुन रहा हूँ किन्तु लग रहा है कि उसके अण्डों को खाने के लिए बढ़ रहा साँप क्रन्दन की विकरालता से भयभीत हो लौट गया है। शायद अपने प्राण बचा कर।

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7 comments:

  1. बैरागी जी यह आलेख अद्भुत है. ऋषि की पीड़ा को आपने ही आत्मसात कर लिया. आप भी महान हैं

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  3. बहुत अच्छा लेख है। आपका स्नेही स्वभाव आपको सबका कष्ट महसूस करने व समझने देता है।
    घुघूती बासूती

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  4. हम भी बह गए आपकी भावनाओं के साथ. "सुखान्त" अच्छा लगा.

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  5. जिस तपिश का आपने अनुभव कराया उस के बिना जीवन भी कोई जीवन है।

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  6. टिटिहरी का क्रन्दन और यह घटना - पोस्ट में बांध लिया बैरागी जी आपने!

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