नागरिकता से दूर

तेरह अगस्त। आधा दिन बीतने को है। तरेंसठवाँ स्वाधीनता दिवस अब छत्तीस घण्टों से भी कम दूरी पर है। मैं खुद को टटोल रहा हूँ और पा रहा हूँ कि निराश तो नहीं किन्तु उदास, अनमना अवश्य हूँ। इस प्रसंग पर होने वाली प्रसन्नता में वर्ष-प्रति-वर्ष कमी होती जा रही है।

स्कूली दिनों में अपनों से बड़ों के विमर्श-विवाद के बीच जब-तब ‘हमें तो आजादी बहुत सस्ते में मिल गई’ जैसा वाक्य सुनता था तो उलझन में पड़ जाता था। सच क्या है-जो सुन रहा हूँ वह या जो पुस्तकों में पढ़ रहा हूँ वह? पुस्तकें कहती थीं कि असंख्य लोगों ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, असंख्य सुहागिनों का सिन्दूर पुँछ गया, उनसे अधिक बच्चे अनाथ हो गए, कई वंश निर्मूल हो गए, अनेक माँओं की गोदें सूनी हो गईं तब कहीं जाकर हमें स्वाधीनता मिल पाई। किन्तु बड़ों की बातें यह सब झुठलाती थीं।

विद्यार्थी जीवन की इस उलझन से उबरने में बरसों लग गए। किताबों की बातें राई-रत्ती भर असत्य नहीं किन्तु प्रति वर्ष कम होती जा रही प्रसन्नता अनुभव करा रही है कि स्वाधीनता का मोल हम वास्तव में नहीं पहचान पाए। अपने शहीदों के प्राणोत्सर्ग का मूल्यांकन करने में हम आपराधिक कृपणता और असावधानी बरत कर उस सब कुछ को व्यर्थ साबित कर रहे हैं।

स्वाधीनता मिलने वाले पहले ही क्षण से हमें जिस उत्तरदायित्व का बोध हो जाना चाहिए था, लगता ही नहीं 62 वर्षों की इस दीर्घावधि में हम उसके आस-पास भी पहुँच पाए हों। पहुँच पाना तो कोसों दूर रहा, ऐसा करने के बारे में सोचा भी नहीं।

अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हम भले ही तेजी से उभर रही शक्तिशाली अर्थ व्यवस्था और तीसरी दुनिया के सिरमौर बन रहे हों किन्तु आन्तरिक स्थितियों और अपने आचरण के सन्दर्भों में शोचनीय से कम के पड़ाव पर नहीं हैं। देश का प्रत्येक प्रमुख राजनीतिक दल कहीं न कहीं सत्तारूढ़ है। सबकी विचारधारा और कार्यक्रम भले ही अलग-अलग हों किन्तु जन समस्याएँ सबके सामने एक जैसी हैं। इसी के चलते ये तमाम दल दोगला व्यवहार करने को अभिशप्त हो गए हैं। अपने शासन वाले राज्य में ये जिस समस्या को औचित्यपूर्ण बताते हैं उसी समस्या पर दूसरे राज्य में धरना, प्रदर्शन और बन्द कराते हैं। किन्तु एक समस्या की ओर शायद ही किसी का ध्यान गया हो। यह है - किसी भी सरकार को नागरिक योगदान न मिलना।

हम सब खुद को सरकार से अलग मानते हैं। गोया सरकार, सरकार न हुई, कोई विदेशी तत्व हो। जिस सरकार को हम चुनते हैं, कुर्सी पर बैठाते हैं, उसी सरकार को, कुर्सी पर बैठाने के अगले ही क्षण निकम्मी, अक्षम और लापरवाह घोषित कर उसके विरुद्ध सड़कों पर उतर आते हैं। राजनीतिक स्तर पर तो स्थिति ‘विचित्र’ से आगे बढ़कर ‘लज्जाजनक’ हो गई है। विरोध के लिए विरोध करने के नाम पर हम अपने ही प्रधान मन्त्री को ‘देश को बेच देनेवाला’ तक कह देते हैं और चुनावी विजय के लिए प्रधान मन्त्री को अक्षम, असफल और अयोग्य तक कहने में हमें असुविधा, असहजता अनुभव नहीं होती।

स्वाधीनता को हमने अपना अधिकार तो माना किन्तु यह भूल गए कि अधिकारों का सुख भोगने से पहले उत्तरदायित्व पूरे करने पड़ते हैं। उत्तरदायित्व और अधिकार, स्वाधीनता के सिक्के के दो पहलू हैं और कोई भी सिक्का तभी बाजार में चल पाता है जब उसके दोनों पहलू उजले, स्पष्ट और चमकदार हों। इस दृष्टि से हम अपनी स्वाधीनता को खोटे सिक्के में बदलते नजर आ रहे हैं।

देश में व्याप्त विसंगतियाँ, असमानता, आर्थिक खाइयाँ, ऊँच-नीच, दुराचरण, अनुचित निर्णय हमें उत्तेजित, आक्रोशित करना तो दूर, रंच मात्र भी असहज, विचलित, व्याकुल नहीं करते। जिस देश के लगभग 80 प्रतिशत लोग, 20 रुपये प्रतिदिन भी मुश्किल से जुटा पाते हैं, उनके जनप्रतिनिधियों का करोड़पति/अरबपति होना हमें न तो चौंकाता है न ही असहज करता है। अन्याय सहन करना भी अन्याय करना ही है वाली उक्ति हम भूल गए हैं। जिन नेताओं को नियन्त्रित किया जाना चाहिए, उनकी चापूलसी करने में हमने अलस्येशियनों को भी मात दे रखी है।

गाँधी ने उस शासन पद्धति को श्रेष्ठ बताया था जो नागरिक जीवन में कम से कम हस्तक्षेप करे। हमने इसकी अनुचित व्याख्या कर, स्वच्छन्दता और उच्छृंखलता बरतने की सुविधा स्वयम् ही प्राप्त कर ली जबकि गाँधी का आशय था कि हममें से प्रत्येक, अपना नागरिक उत्तरदायित्व ऐसा और इतना निभाए कि ‘शासन’ को सक्रिय होने की आवश्यकता ही नहीं पड़े।

‘लोकतन्त्र अर्थात् लोगों का शासन, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा’ वाली परिभाषा किताबों में ही कैद होकर रह गई है। अपनी स्वाधीनता के तरेसठवें वर्ष में प्रवेश वाले इस क्षण तक भी हम ‘जनता’ या ‘प्रजा’ ही बने हुए हैं। ‘नागरिक’ बनने की न तो हमें याद आई है और नही आवश्यकता अनुभव की। लगता है कि हम ‘नागरिक’ बनना चाहते भी नहीं। यदि हम नागरिक बन गए तो उत्तरदायित्व निभाना पड़ेगा।हमें, ‘गैरजिम्मेदार’ बन कर रहने ही न केवल आदत हो गई है अपितु लगता है, अपनी इस दशा पर हम गर्व भी अनुभव करने लगे हैं।

किन्तु एक बात तो है। हम ‘गैरजिम्मेदार’ भले ही हों, ‘नासमझ’ बिलकुल ही नहीं हैं। जीवन का अधिकतम आनन्द, ‘नासमझ’ बनकर ही उठाया जा सकता है। क्यों कि हम सबमें यह समझ अवश्य है कि ‘समझदार की मौत है।’

3 comments:

  1. समझदारी बेहद कष्टकारी बन जाती है । नासमझी तेरा ही आसरा ।

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  2. जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई.
    ( Treasurer-S. T. )

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  3. एक सुन्दर आलेख के लिए धन्यवाद।

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