.....तो राज ठाकरे की ठुकाई हो जाती

‘मराठी माणुस’ के लिए कुछ कर गुजरने के नाम राज ठाकरे की मूर्खतापूर्ण और निन्दनीय हरकतें देश भर के अखबारों और चैनलों पर छाई हुई हैं। उनकी इन हरकतों में ईमानदारी कितनी है और मतलबपरस्ती कितनी-यह बताने की जरूरत नहीं। कांग्रेसस का पैदा किया और संरक्षित किया जा रहा यह नराधम देश के लिए कितना घातक बना हुआ है, यह सब अनुभव कर रहे हैं। ‘राज ठाकरे की ये हरकतें अनायास ही गो। ना. सिंह की याद दिला देती हैं।’ कहा जमनालाल ने।


जमनालाल याने जमनालाल राठौर। मेरे तकलीफ के दिनों का साथी। मैं अपने महापुरुषों की सूची बनाऊँगा तो उसके प्रथम क्रम पर इसी का नाम होगा। इसके बारे में मौका मिलने पर विस्तार से लिखूँगा। फिलहाल इतना ही कि इस पोस्ट का जनक जमनालाल ही है। भोपाल के ‘भेल’ इलाके में लोक कथा की तरह गाहे-ब-गाहे सुनने को मिल सकने व वाला यह किस्सा उसी ने कल रात मुझे सुनाया।



यह घटना अगस्त/सितम्बर 1967 के आसपास की है। श्रीमती विजयाराजे सिन्धिया के निर्देशन, सहयोग और संरक्षण में कांग्रेस के लगभग 40 विधायकों ने दलबदल कर तत्कालीन लौह पुरुष और राजनीति के चाणक्य, पण्डित द्वारकाप्रसाद मिश्र के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को औंधे मुँह गिराकर मध्यप्रदेश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी जिसे ‘संविद सरकार’ (संयुक्त विधायक दल सरकार) के नाम से पहचाना गया। ‘संविद’ की नेता तो खुद श्रीमती सिन्धिया बनीं थी और मुख्यमन्त्री बने थे, दलबदलुओं के नेता श्री गोविन्द नारायण सिंह जिन्हें पत्रकारिता के हलकों में ‘गो। ना. सिंह’ के नाम से अधिक जाना-पहचाना जाता था।



तब भोपाल में ‘भेल’ (बी।एच.ई.एल. याने भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स) नहीं हुआ करता था। तब यह भारत-ब्रिटेन सहयोग वाला उद्यम एच.ई.एल. (हेवी इलेक्ट्रिकल्स इण्डिया लिमि.) हुआ करता था जब कि ‘बी.एच.ई.एल.’ के नाम से हरिद्वार, हैदराबाद और त्रिचनापल्ली में तीन संयन्त्र कार्यरत थे। इनमें से हरिद्वार वाला संयन्त्र भारत-सोवियत रूस सहयोग का उपक्रम था। शेष दो के बारे में अब इस समय मुझे कुछ याद नहीं आता। कालान्तर में भोपाल वाले एच.ई.एल. को बी.एच.ई.एल. में विलीन कर दिया गया। सो, भोपाल स्थित आज का ‘भेल’ (बी.एच.ई.एल.) तब का एच.ई.एल. हुआ करता था। प्रबन्धन से लेकर श्रमिक स्तर तक के अधिकांश कर्मचारी दक्षिण भारतीय थे।



इसी एच।ई.एल. के एक कार्यक्रम में भाग लेकर गो.ना.सिंह पिपलानी से लौट रहे थे। एच.ई.एल. भोपाल के सर्वोच्च अधिकारी भी उनके साथ ही थे। अचानक ही गो.ना. सिंह को एक बड़ी झुग्गी-बस्ती नजर आई। उन्होंने पूछा - ‘यह कौन सी बस्ती है?’ उत्तर मिला - ‘अन्ना नगर।’ गो. ना. सिंह अपनी किस्म के अलग ही व्यक्ति थे-विकट जीवट और प्रबल इच्छा शक्ति के धनी। उनकी कार्य शैली अटपटी थी-अंग्रेजी में जिसे ‘अनप्रिडिक्टबल’ कहते हैं। उन्होंने कार रुकवाई। पूछा - ‘अन्ना नगर? वह भी मध्यप्रदेश में? क्या मतलब?’ उन्हें बताया गया कि एच.ई.एल. में काम करने के लिए दक्षिण भारत के विभिन्न प्रान्तों से आए मजदूरों ने यह बस्ती बसाई है। इसमें कर्नाटक, तमलिनाडु (जिन्हें तब क्रमशः कर्नाटक और मद्रास कहा जाता था),केरल,आन्ध्र प्रदेश से आए लोग शामिल थे। अन्ना दुराई तब दक्षिण भारत के प्रतीक और पर्याय पुरुष हुआ करते थे। सो, उन्हीं के नाम पर इस बस्ती का नामकरण कर दिया गया था।



सुनकर गो। ना. सिंह को अटपटा लगा। उन्होंने एच.ई.एल. के सर्वोच्च अधिकारी से कुछ ऐसा कहा - ‘मैं मान लेता हूँ कि इंजीनीयर और तकनीकी लोग आपको मध्य प्रदेश में नहीं मिले होंगे। लेकिन ऐसी क्या बात हो गई कि आपको मजदूर भी दक्षिण भारत से बुलवाने पड़े? क्या आपको मध्यप्रदेश में मजदूर भी नहीं मिले?’ सर्वोच्च अधिकारी यूँ ही इस पद पर नहीं पहुँचे थे। कब बोलना और कब चुप रहना, यह खूब अच्छी तरह जानते थे। सो, उन्होंने चुप रह कर ही जवाब दिया। वैसे भी, गुस्से से रतनार हो चुके, गो. ना. सिंह के ‘विशाल नयन’ वह सब कह रहे थे जो गो. ना. सिंह मुँह से नहीं कह रहे थे।



कोई दूसरा मौका होता तो बात आई गई हो चुकी होती। किन्तु बात गो। ना सिंह की और उनके गुस्से की थी। जमनालाल ने कहा - ‘इस बात का असर बिजली की माफिक हुआ। गो. ना. सिंह ने एक अक्षर भी लिख कर नहीं दिया किन्तु इस घटना के बाद, पहली बार ऐसा हुआ कि एच.ई.एल. के विभिन्न पदों पर भर्ती के लिए प्रदेश के तमाम जिलों के रोजगार कार्यालयों के माध्यम से उपयुक्त उम्मीदवारों को सूचना भेजी गई और उसके बाद जो भी भर्ती हुई उसमें लगभग आधे लोग मध्य प्रदेश के लिए जाने लगे।’ लेकिन इससे जमनालाल का क्या सम्बन्ध? मेरी बात सुनकर जमनालाल ने अत्यन्त भावुक होकर, आर्द्र नेत्रों से कहा - ‘सम्बन्ध है मेरे भाई! तू जानता है, उन्हीं दिनों मैंने बी.एससी. पास की थी। नौकरी की जरुरत थी। बी.एच.ई.एल. का कोई विज्ञापन अखबारों में नहीं छपा था। छपता भी तो मुझ तक शायद ही पहुँचता। मुझे तो मन्दसौर स्थित रोजगार कार्यालय से ही सूचना मिली थी और उसी की बदौलत मैं एच.ई.एल. की नौकरी हासिल कर सका।’



सुन कर मैं सन्न रह गया। पता नहीं, गो। ना. सिंह को जीते-जी, अपने इस ‘करम’ की जानकारी हुई भी या नहीं। हुई हो तो भी उन्होंने प्रदेश के इतने सारे लोगों को रोजगार दिलाने का श्रेय लेने की कोई कोशिश, कभी नहीं की। उन्होंने इसे अपनी जिम्मेदारी मान कर, चुपचाप अपना काम किया। न जाने कितने जमनालाल उन्हें आज इसी तरह से याद करते होंगे। आपको बता दूँ कि जमनालाल ने 1999 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली। उस समय वह सीनीयर मैनेजर के रूप में काम कर रहा था। मालवा के जिस छोटे से गाँव भाटखेड़ी से जमनालाल आया था, उस गाँव का कोई भी बाशिन्दा आज तक इतने बड़े पद पर नहीं पहुँच पाया है।



किस्सा सुना कर जमनालाल ने कहा - ‘आज गो। ना सिंह होते तो राज ठाकरे की वो ठुकाई करते कि राज ठाकरे की बोलती बन्द हो जाती। काम करने वाले और काम करने का ढोंग करने वाले में क्या अन्तर होता है, यह ऐसी ही घटनाओं से मालूम हो सकता है। गो. ना. सिंह ने न तो हिन्दी की दुहाई दी और न ही दक्षिण भारतीय भाषाओं का विरोध किया। उन्होंने सबको यथावत रखते हुए अपने प्रदेश के लोगों को समाहित करने की बात की और उसमें कामयाब भी हुए।’



थोड़े लिखे को बहुत समझिएगा और इसमें जो कमी लगे उसे अपनी ओर से पूरी कर लीजिएगा।
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5 comments:

  1. गलत बहुत अभियान है जो करते हैं राज।
    उनके पीछे चल पड़े माननीय शिवराज।।
    सादर
    श्यामल सुमन
    099553732
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  2. Hi,
    there are some basic faults in this story, if we are asked to derive any moral from it.
    G.N. Singh was also wrong, as he was forcing a change in the employment patterns.
    The only difference was that he had not said anything directly.
    If Jamnalal came from a poor village, it is meaningless. Because the other people who came there for employment also came from similar villages.
    Sorry, no sympathy with this story.
    regards
    Vijay

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  3. भाई अननिमस्जि बात दक्षिण भारतीयो को लेने की या ना लेने की नही है पर सवाल ये है की क्या सारे के सारे दक्षिण भारतीयो को ही नौकरी पर रखना क्या ठीक था आख़िर योग्यता भी तो कोई चीज़ होती है आपके हिसाब से मध्यप्रदेश के लोगो का अधिकार सिर्फ़ इसलिए छीन लेना चाहिए क्योंकि अधिकारी वर्ग दक्षिण का है. भाई विष्णु जी और भाई जमनलाल को धन्यवाद पुरानी सच्चाई सामने लाने के लिए. गो. ना. सिंह जी का मध्यप्रदेश सदा अभारी रहेगा

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  4. Dear Anonymous,
    faults are not in this story actually your thinking is faulty as it is appeared from your namee "vijay". I am sure you are definitely from South India and that's why you can not see any moral from it. G. N. singh was not forcing a change in the employment patterns but he has changed the wrong pattern of employement made by some South Indian officers. Employement chances should be equall for every Indian. Thanks to Mr. Govind Narayan Singh. and also thanks to Mr. Jamnalal and Mr. Vishnu for this story

    Naveen Mishra (Retired from BHEL)

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  5. hi,
    the real problem is that you guys are only interested in somehow making sure that only your own group of people should get the opportunities.. It is a national disease in India, that is why you want to feel proud of somehow recruiting only your own 'people'. And if every Indian is doing it, it will lead to what??
    And for your kind information: I am from North India. But I do not have this thinking that "if we speak Hindi, we should somehow or other try to find employment for all Hindi-speaking people."
    Perhaps rajthakre is thinking that he is doing something right, just like you think you are right.
    Vijay

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