शहर का लोकतान्त्रिक भ्रम


भले ही सारा शहर अच्छी तरह जानता हो कि वे चारों अनेक धन्धों में भागीदार हैं पर वे शहर मे एक साथ कहीं नजर नहीं आते। चारों अलग-अलग पार्टियों के कर्ता-धर्ता। कोई भी अपनी पार्टी का अध्यक्ष नहीं किन्तु कौन अध्यक्ष बने, यह वे ही तय करते। सो, वे अपनी-अपनी पार्टी में अध्यक्षों के अध्यक्ष। अपनी-अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता जताने के लिए ही वे शहर में एक साथ नजर नहीं आते। सो, आज भी बन्द कमरे में ही साथ-साथ बैठे थे।


वे अपने आप में लघु भारत थे - एकता में अनेकता के सच्चे प्रतीक। वे उन भिन्न-भिन्न धर्माचार्यों की तरह थे जिनके रास्ते भले ही अलग-अलग होते हैं किन्तु अन्तिम लक्ष्य ईश्वर होता है। इसी लिहाज से इनका व्यावसायिक हित ही इनका राष्ट्र या ईश्वर था। इसीलिए, अपनी-अपनी पार्टी की राजनीति करते हुए इनमें से प्रत्येक, अपनी चैकड़ी के हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देता था।


सदा बेफिकर और अलमस्त रहने वाले वे चारों आज चिन्तित थे। उन्हें अपने शहर के महापौर पद के लिए उपयुक्त आदमी तय करना था, कुछ इस तरह कि चुनाव भी वास्तव में होते हुए नजर आए और जीते भी वही जिसे ये चारों चाहें। पिछड़े वर्ग से या सुरक्षित वर्ग से किसी को या किसी महिला को उम्मीदवार बनाना होता तो कोई दिक्कत नहीं थी। किसी को भी बिजूका बनाया जा सकता था। किन्तु इस बार महापौर पद अनारक्षित हो गया था-सबके लिए खुला। याने कि सामान्य वर्ग के लिए। यही कठिनाई थी। इस वर्ग में तो उम्मीदवारों की भरमार थी। इस भरमार में से अपने लिए अनुकूल, ‘सूटेबल ब्‍वाय’ का चयन करने में चारों को पसीने छूट रहे थे।


‘बोलो! क्या कहते हो? लड़वा दें रामप्रसाद को?’


‘आदमी तो अच्छा है। पढ़ा-लिखा भी है। रुपये-पैसे से मोहताज भी है, अपने पर निर्भर है। लेकिन स्साला खुद्दार है। उसका स्वाभिमान जाग जाए तो किसी के बाप का नहीं रहता। कोई और नाम बताओ।’


‘तो फिर सलीम कैसा रहेगा? माइनारिटी का है। अपना सप्लायर भी है। काम धन्धे के लिए अपने पर ही निर्भर है।’


‘हाँ। आदमी तो कहना माननेवाला है। किन्तु तुम तो जानते हो, अपने यहाँ से कोई अल्पसंख्यक जीत ही नहीं सकता।’


‘देखो। सरकार भले ही हमारी पार्टी की है लेकिन पक्की बात है कि हमारे समाज के आदमी को उम्मीदवार बनाया जाएगा। चुनाव में हमारे समाज की निर्णायक भूमिका सारा शहर जानता है। सो, तुम हमारे समाज के किसी आदमी को अपना उम्मीदवार बनाओ। उसके जीतने की गुंजाइश ज्यादा रहेगी।’


‘क्या बात कही है पार्टनर! इसीलिए तो तुम्हें मानते हैं। लेकिन पार्टी लाइन और पार्टी अनुशासन आड़े नहीं आएगा?’


‘तू भी यार! क्या बेवकूफों जैसी बातें करता है? पार्टी अनुशासन तो अन्धों का हाथी है। अपनी सुविधानुसार उसे परिभाषित किया जा सकता है। तुम तो आदमी का नाम बताओ।’


‘है एक आदमी। पार्टी के प्रति निष्ठावान। ईमानदार भी है। उस पर कोई दाग भी नहीं है। रुपये-पैसे के नाम पर पूरी तरह से चन्दे पर निर्भर। बस! वह हाँ कर दे और पार्टी मान जाए।’


‘कौन है इस जमाने में ऐसा?’


‘अरे वही! अपना सुजान! गोली-बिस्किट की दुकानवाला। तकदीर का मारा है वर्ना एम। ए. फर्स्‍ट डिविजन में पास है। वो भी 68 बेच का जब डिग्री की इज्जत होती थी।’


‘अरे हाँ! बढ़िया रहेगा। वह हमारे समाज का भी है। उससे हाँ करवाना तो बाँये हाथ का खेल है। पार्टी हाईकमान को तुम सम्हालना। वहाँ मेरे मिलनेवाले भी हैं। मैं भी समझाऊँगा कि सुजान को उम्मीदवार बनाने पर तुम्हारी पार्टी का महापौर बनने का सपना पूरा हो सकता है।’


‘तो फिर सुजान तय रहा?’


‘मेरी ओर से तो पक्का।’


‘तुम दोनों कुछ नहीं बोल रहे? बोलो। क्या कहते हो?’


‘हमें बीच में क्यों घसीटते हो। हमारी पार्टियों को तो बस उम्मीदवार खड़ा करने की खानापूर्ति करनी है। पार्टी की मान्यता बनी रहे, इतने वोट पूरे प्रदेश में प्राप्त करना है। तुम जो करो वो तो हमें शुरु से ही मंजूर है।’‘तो फिर सुजान पक्का। चलो। शुरु हो जाओ। काम पर लग जाओ।’


चारों काम पर लग गए हैं। शहर को लग रहा है कि वो अपना महापौर चुन रहा है।

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(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। उसी सन्दर्भ में लिखी यह पोस्ट, सम्पादित स्वरूप में, दैनिक भास्कर के रतलाम संस्करण में दिनांक 23 नवम्बर 2009 को प्रकाशित हुई है।)

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4 comments:

  1. वाह विष्णु जी,
    आज की राजनीति पर गजब लिखा आपने ....अंदाज जुदा है आपका

    अजय कुमार झा

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  2. यही हो रहा है। बहुत सामयिक और यथार्थ कहानी है।

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  3. बिलकुल सत्य को कहती कथा। आशाहै आप सव्स्थ होंगे । शुभकामनायें

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  4. सही कहा. राजनीति के परदे के पीछे छिपे हाथ आज भी बदले नहीं हैं.

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