देश? क्या होता है देश?


दन्तेवाड़ा में हुए नक्सली हमले के बाद एक बार फिर राष्ट्र भक्ति का ज्वार आ गया है। हर कोई सरकार को कोस रहा है, सरकार की असफलताएँ उजागर कर रहा है। शहीदों के परिजनों को आर्थिक सहायता दिए जाने का मखौल उड़ाते हुए कोई कह रहा है कि प्रधानमन्त्री और गृह मन्त्री ऐसे हमलों में मरकर दिखाएँ तो वह इतने-इतने करोड़, इन दोनों के परिजनों को दे देगा। हर कोई अपने आप को सबसे बड़ा देश प्रेमी और सबसे बड़ा देश भक्त साबित करने के लिए छटपटा रहा है।


ढोंग है यह सब। कोई सचाई नहीं है इन सारी बातों में और ऐसी सारी बातों में। बात कड़वी लगेगी किन्तु सच यह है कि हमारे खून में देश कहीं नहीं रह गया है। देश हमारी प्राथमिकताओं में कहीं नहीं है। देश तो हमारे लिए ऐसा झुनझुना बन कर रह गया है जिसे हम अपनी सुविधानुसार बजा-बजा कर अपने देशप्रेमी होने का प्रमाण पत्र खुद के लिए ही जारी करते रहते हैं। हममें से हर कोई उपदेशक बना हुआ है। चाह रहा है कि बाकी लोग देश के लिए कुछ करें या फिर पूछ रहा है कि बाकी लोग देश के लिए क्या कर रहे हैं?


बात कुछ इस तरह पेश की जा रही है मानो देश के लिए मरना ही देश प्रेम या देश भक्ति का एक मात्र पैमाना बन कर रह गया है। क्या वाकई में ऐसा ही है? जी नहीं। ऐसा बिलकुल ही नहीं है। देश तो हमारे आचरण में झलकना चाहिए। इस बात पर हँसा जा सकता है किन्तु एक बार फिर कड़वी किन्तु सच बात यह है कि देश सदैव बलिदान नहीं माँगता वह तो छोटी-छोटी बातें ही हमसे माँगता है।


क्या है ये छोटी-छोटी बातें? कुछ नमूने पेश हैं - हम यातायात के नियमों का पालन करें, अपना वाहन व्यवस्थित रूप से पार्क करें, विचित्र ध्वनियोंवाले हार्न अपने वाहन में न लगाएँ, अपने अवयस्क बच्चों को वाहन न सौंपें, वयस्क बच्चों को बिना लायसेन्स वाहन न चलाने दें, अपने देय कर समय पर जमा कराएँ, सरकारी या नगर पालिका/निगम की जमीन पर अतिक्रमण न करें, जो उपदेश दूसरों को दें उस पर खुद पहले अमल करें आदि आदि।


हम लोकतन्त्र-रक्षा के भी उपदेशक बने हुए हैं। लोकतन्त्र के क्षय और हनन के प्रत्येक क्षण पर स्यापा करने में सबसे आगे रहने के लिए मरे जाते हैं। चाहते हैं कि सबसे पहला रुदन हमारा ही हो और वही सबसे पहले सुना जाए। किन्तु लोकतन्त्र की रक्षा के लिए हम करेंगे कुछ भी नहीं। अपने लोकतन्त्र को हम केवल अपना अधिकार मानते हैं। जानबूझकर (बेशर्मी से) भूल जाना चाहते हैं कि लोकतन्त्र हमारी जिम्मेदारी, हमारा कर्तव्य भी है। हमने अपने नेताओं को उच्छृंखल छोड़ दिया है। उन्होंने लोकतन्त्र को ‘गरीब की जोरु’ बना दिया है - जब चाहते हैं, उससे अश्लील हरकतें कर लेते हैं। विधायी सदनों को व्यर्थ साबित करने की उनकी प्रत्येक कुचेष्टा हमें उत्तेजित तो करती है किन्तु हम उनमें से किसी से कुछ भी नहीं कहते। कहेंगे भी नहीं। कहना चाहते ही नहीं। क्या पता, कब, किस नेता से काम पड़ जाए? इसलिए हम तमाम नेताओं को दोषी ठहराने की समझदारी बरत कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं। एक की कुचेष्टा को पूरी बिरादरी की कुचेष्टा प्रमाणित कर हम खुश होकर बैठ जाते हैं। हम वो माहिर लोग हैं जो खीर बनाने के लिए मँगवाए दूध में नींबू निचोड देते हें और फिर दूध के फट जाने की शिकायत करते हैं - इसके लिए दूसरे को जिम्‍मेदार ठहराते हुए।


हम ही सरकार बनाते हैं और अपनी ही बनाई सरकार को निकम्मी, भ्रष्ट करार देने में देर नहीं करते। जिस देश के नागरिक सचेत, सतर्क, ईमानदार नहीं होंगे उस देश की सरकार भला सक्रिय और ईमानदार कैसे हो सकती है? हम सरकार को दोषी करार देते हैं किन्तु उस सरकार को बनाने की जिम्मेदारी कभी नहीं लेते। देश (के प्रान्तों) में कहीं न कहीं लगभग प्रत्येक प्रमुख राजनीतिक दल की सरकार चल रही है। किन्तु एक और कड़वा सच यह है कि किसी भी सरकार को नागरिक योगदान नहीं मिल रहा। हम सब सरकार को ऐसा कोई तीसरा पक्ष मानकर चलते हैं जिससे हमारा कोई लेना-देना नहीं, जिसके प्रति हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है।


मुझे कोई भी क्षमा न करे। मेरी धारणा है कि देश हमारे खून में कहीं नहीं है। रह ही नहीं गया है। हम तो बेशर्म, स्वार्थी समाज बन कर रह गए हैं और स्वार्थी के लिए ‘स्व-अर्थ’ ही महत्व रखता है, देश-वेश जैसी बातें तो फालतू हैं। यदि हमें मालूम हो जाए कि कल से हमारे देश पर चीन का कब्जा हो जाएगा तो कल का सूरज उगने से पहले ही हम लोग दीपक-कुंकुम सजी पूजा की थालियाँ लेकर हिमालय के पार खड़े नजर आएँगे।


देश बलिदान माँगता है, उपदेश और आशा/अपेक्षा नहीं। यह बलिदान केवल प्राणों का नहीं होता। हमारे क्षुद्र स्वार्थों का बलिदान, हमारी अनुचित हरकतों का बलिदान, उपदेशक की भूमिका में बने रहने का बलिदान, खुद की गरेबान में झाँकने की बजाय दूसरों की हरकतों की चैकीदारी करने की आदत का बलिदान।


देश बातों से नहीं, आचरण से बनता और चलता है। है हममें हिम्मत कि हम अपनी गरेबान में झाँकें और खुद को दुरुस्त करने में जुट जाएँ - यह चिन्ता किए बिना कि दूसरा क्या कर रहा है?
नहीं। हममें यह हिम्मत नहीं है। यह देश मेरा है जरूर किन्तु इसकी चिन्ता, इसकी रखवाली, इसकी देख-भाल, सब-कुछ आप करेंगे। मैं नहीं। देने के लिए मेरे पास कुछ है ही कहाँ? मैं तो दीन-हीन, बेचारा, अक्षम, असहाय, निरुपाय हूँ।


आप किस देश की बात कर रहे हैं? कौन सा देश? किसका देश? इस देश ने मुझे दिया ही क्या है? जो कुछ आज मेरे पास है, वह तो मैंने अपनी मेहनत से, अपने पुरुषार्थ से प्राप्त किया है। देश की वर्तमान दुर्दशा के लिए मैं कहीं दोषी नहीं। वह तो आप सबने देश को इस मुकाम पर पहुँचा दिया है।
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2 comments:

  1. aap ne stik likha hai
    hm koi bhi bat apne upr to lago krte nhi hai pr doosro ko updesh jroor dete hain
    dr. ved vyathit

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  2. इस आलेख में प्रयुक्त बहुत सी उक्तियों से असहमति है। पर यह सही है कि कम से कम हर व्यक्ति को देश के प्रति अपना कर्तव्य निर्धारित करना और पालना चाहिए।

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