पागलों की तलाश

भली प्रकार ‘जानता’ हूँ कि ‘मान कर’ चलनेवाले लोग घातक होते हैं। फिर भी आज काफी-कुछ ‘मान कर’ ही कह रहा हूँ।
बरसों से मुझे बराबर और बार-बार लग रहा है कि मेरे कस्बे को वह काफी कुछ अब तक नहीं मिला है जो उसे बरसों पहले मिल जाना चाहिए था, ऐसा काफी कुछ नहीं हो रहा है जो बहुत पहले हो जाना चाहिए था। जैसे - मेरे कस्बा मुख्यालय को सम्भाग मुख्यालय बन जाना चाहिए था, एलआईसी का मण्डल कार्यालय खुल जाना चाहिए था, रेल सुविधाओं में समुचित बढ़ोतरी हो जानी चाहिए थी, रतलाम-नीमच मीटर गेज रेल लाइन को ब्राड गेज रेल लाइन में बदले जाने के लिए जब बन्द किया गया था तब आने-जाने के लिए सात जोड़ी रेलें मिलती थीं, ब्राड गेज रेल होने के बरसों बाद भी वे तक अब नहीं मिल रही हैं जो कि पहले ही दिन से मिल जानी चाहिए थीं आदि-आदि। यह सब नहीं हुआ सो तो कोई बात नहीं किन्तु मेरी हैरानी और चिन्ता यह है कि इन सबके, अब तक न होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है, किसी को चिन्ता न तो हुई है और न ही हो रही है। किसी से बात करो तो फौरन जवाब मिलता है - ‘आप बिलकुल सही कह रहे हो। कोई कुछ नहीं कर रहा है। आप ही कुछ करो।’ आज तक, एक ने भी नहीं कहा - ‘हाँ, अपन मिल कर यह करते हैं।’

मुझे लग रहा है अपने कस्बे के विकास की चिन्ता के मामले में मेरा कस्बा, अन्य स्थानों के मुकाबले यदि ‘मुर्दार’ नहीं तो कम से कम लापरवाह, असावधान और उदासीन तो है ही। जो भी होना होगा, जो भी करना होगा, अपने वक्त पर हो जाएगा, भगवान सब करेंगे। अपन को क्या?

मुझे बार-बार लगा और बराबर लग रहा है कि मेरे कस्बे के लोग या तो किसी अवतार की प्रतीक्षा में बैठे, अद्भुत भाग्यवादी लोग हैं या फिर बहुत ही समझदार। भाग्यवादी लोग कभी शिकायत नहीं करते और समझदार लोग कभी कोई जोखिम नहीं उठाते। वे भली प्रकार समझते हैं कि बदलाव के लिए खतरा उठाना पड़ता है। इसलिए जब भी बदलाव की कोई बात होती है तो वे फौरन ही लाभ-हानि की गणित लगाने लगते हैं और इसीलिए, खुद को सुरक्षित रखते हुए, बदलाव की बात करनेवाले को पूरी मासूमियत से कहते हैं - ‘आप ही कुछ कर सकते हैं। कीजिए।’ वे भूल कर भी नहीं कहते - ‘आईए। अपन मिल कर करते हैं।’

सो, मेरा निष्कर्ष रहा कि समझदार लोग कभी बदलाव नहीं ला सकते। यह काम पागल किस्म के लोग ही कर सकते हैं। पागल लोग - बिलकुल किसी के इश्क में पागल हो कर, दुनिया-जहान की चिन्ता किए बिना, अपने महबूब को पाने के लिए पागल की तरह। मुझे लगा, कस्बे के लिए कुछ कर गुजरने के लिए भी पागलपन ही चाहिए। अपने कस्बे को इश्क करनेवाले पागल ही बदलाव की बात कर सकते हैं। मुझे लगा, यह कस्बा मेरी जन्म स्थली भले ही न हो, मेरी कर्म स्थली तो है। इसी ने मुझे पहचान, सामाजिक स्वीकार्य, (और भले ही यह मेरा आत्म-भ्रम हो, किन्तु) भरपूर प्रतिष्ठा और हैसियत दी है। हैसियत भी ऐसी कि बदतमीजी से कही जानेवाली मेरी बातें भी ध्यान से और सम्मान से सुनी जाती हैं। सो, मुझे लगा कि कोई कुछ करे न करे, मैंने जरूर अपने कस्बे के लिए कुछ करना चाहिए। जब सब लोग लाभ-हानि की गणना करते हों तब ऐसा सोचना पागलपन से कम नहीं। सोचा, पागलपन ही सही।

किन्तु, अकेले कूदने की हिम्मत होते हुए भी कुछ सूझ नहीं पड़ा। सोचा - कुछ ‘पागलों’ की तलाश की जाए और इसके लिए क्यों न विज्ञापन दिया जाए? सो, अपने कस्बे के सबसे मँहगे अखबार के दफ्तर पहुँचा। वर्गीकृत विज्ञापनों में एक सप्ताह के लिए लिखा विज्ञापन कुछ इस तरह था: ‘पागल लोग चाहिए - समझदार लोग कभी बदलाव नहीं ला सकते। अपने कस्बे की बेहतरी के बदलाव के लिए ऐसे पागल लोगों की आवश्यकता है जो पार्टी-पोलिटिक्स से ऊपर उठकर, तटस्थ भाव से अपने कस्बे के लिए तन-मन-धन और समय दे कर काम कर सकें। सम्पर्क करें।’

विज्ञापन पढ़ कर विज्ञापन विभागवाले चकराए। ‘दो मिनिट बैठिए’ कह कर अन्दर गए। लौट कर बताया कि सम्पादकजी को ‘पागल’ शब्द पर आपत्ति है। मैं सम्पादकजी के पास गया। बात की। उन्होंने मेरे विज्ञापन को ‘लिंग वर्द्धन तेल’ और ‘साँडे के तेल’ के विज्ञापनों जैसा अशालीन विज्ञापन बताया और कहा कि वे ऐसे विज्ञापनों का विरोध करते रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा - ‘हम हैं तो सही कस्बे की बेहतरी की चिन्ता करनेवाले?’ मैं उनसे सहमत नहीं था। आखिरकार ‘पागल’ के स्थान पर ‘नादान’ कर देने पर सहमति हुई। मैंने निर्धारित शुल्क चुकाया, रसीद ली और चला आया। लेकिन सम्पादकजी के व्यवहार से मुझे विज्ञापन के छपने में खुटका था। मैं घर पहुँचा ही था कि अखबार से फोन आ गया - ‘इस स्वरूप में तो विज्ञापन नहीं छाप सकेंगे।’ मैं कोई और स्वरूप देने को तैयार नहीं हुआ (पागल जो था)। सो, विज्ञापन निरस्त कर दिया।

मैं कोशिश करता हूँ कि अपने बारे में कोई भ्रम न पालूँ। लेकिन जी कर रहा है कि इस प्रकरण से एक भ्रम पाल लूँ - ‘मैं जीनीयस हूँ।’ दुनिया का इतिहास गवाह है कि तमाम जीनियसों को लोगों ने पहले तो पागल ही माना था। लेकिन जब उनकी बातें सच हुईं तो उन्हीं पागलों को माथे पर बैठा कर अपनी गलती सुधारी। मेरे साथ भी यही तो नहीं हो रहा?

इसलिए, ‘मान कर’ मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मेरे कस्बे के लिए काफी-कुछ किया जाना है जिसे करने के लिए कोई समझदार कभी भी आगे नहीं आएगा। मैं ‘मान कर’ चल रहा हूँ कि कुछ पागलों को ही यह नेक काम करना पड़ेगा।

सो, मैं कुछ पागलों की तलाश में हूँ। ऐसे पागलों की, जो ‘पार्टी लाईन’ से ऊपर उठकर, सचमुच में निष्पक्ष भाव से साचते हों, अपने कस्बे के लिए तन-मन-धन और समय दे सकते हों, ‘अपनेवालों’ के नाराज होने का खतरा मोल लेकर कस्बे के हकों के लिए बोल सकते हों, मैदान में आ सकते हों।

सब जानते हैं कि बिना कुछ खोए, कुछ भी हासिल नहीं होता। मेरा कस्बा इसीलिए अब तक अपने प्राप्य से वंचित बना हुआ है।

अपना कुछ खोकर, कस्बे के लिए कुछ हासिल करनेवाला कोई पागल इसे पढ़े तो मुझसे सम्पर्क करे। आपसे मुझे कुछ नहीं कहना है। आपकी समझदारी पर मुझे पूरा भरोसा है। जानता हूँ कि आपको कोई ऐसा पागल मिलेगा तो आप उसे फौरन ही मेरे पास भेजने की समझदारी बरत ही लेंगे।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


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5 comments:

  1. जिस चमत्कार की उम्मीद में आपके कस्बे वाले बैठे हैं, वही हाल देशवासियों का भी है।

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  2. एक दम सटीक ...सोचना पड़ेगा ..पर बेहतर है हम अपना प्रयास जारी रखें ...सिर्फ उम्मीदों से कुछ नहीं होता

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  3. किसी भी काम को करवाने के लिये सच मे लोगो मे पागल पन तक का जनून होना चाहिये, यह सब क्रांतिया भी इसी पागल पन से होती हे, सच मे पागलो की एक पार्टी होनी चाहिये, क्योकि सयानए तो रोजी रोटी मे ही लगे रहते हे, ओर अगर देश को बचाना हे तो हम सब को यह पागल तो बनाना ही पडेगा. बहुत सुंदर बात कही आप ने अपने लेख मे धन्यवाद

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  4. ऐसे सम्पादक/अखबार के सहारे बैठना तो अ-पागलपन हो जायेगा। नगर के व्यस्त चौराहे पर एक होर्डिंग लगवाने के बारे में क्या ख्याल है। वैसे ईमानदारी से सोचें तो नादान/पागल शब्द कुछ ऐसे लोगों को आपके साथ जुडने से रोक सकता है जो अन्यथा शायद आपके सपने पूरे करने में सर्वाधिक सक्षम हों। सत्कार्य में हमें अपनी पसन्द के शब्दों का भी त्याग करना पडे तो क्या बुराई है?

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  5. बेहतरीन पोस्ट लेखन के लिए बधाई !

    आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।

    आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - पधारें - ठन-ठन गोपाल - क्या हमारे सांसद इतने गरीब हैं - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा

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