मिर्ची में मिर्ची मिलने की जुगत


‘घर से दूर एक घर’ वाला मुहावरा मैंने अनेक होटलों में देखा है। मित्रों/परिचितों बड़ी संख्या मेरी धरोहर है। जहाँ कहीं जाता हूँ, अपनापन पाता हूँ। सब जगह ‘घर जैसा’ ही होता है किन्तु इस शब्द युग्म का ‘जैसा’ पल-पल जताता रहता है कि घर जैसा कहीं, कुछ नहीं होता। घर, घर ही होता है। इसीलिए, घर से दूर, घर तलाशने की सनातन प्रक्रिया बनी रहती है।

वेंकटरमण सिंह श्याम ने यही सब आभास कराया मुझे। वे गोंडवानी चित्र कला शैली के उभरते, आश्वस्तिदायक चित्रकार हैं। डिंडोरी से आये हैं। मेरे कस्बे में चल रहे चित्रकला उत्सव ‘वर्णागम-वनजन’ में भाग ले रहे हैं। आज उनके पास कुछ देर बैठा रहा। उनकी कूची को कैनवास पर अठखेलियाँ करते देखता रहा। वे अपने काम में मगन थे और मेरे पास कोई काम नहीं था। किसी को अपना काम करते देखना भी भला कोई काम होता है? सो, बीच-बीच में उनसे बतियाता भी रहा, इस डर के साथ कि मेरा बतियाना उन्हें बाधित न कर दे।

कला से दूर का भी जिसका नाता न हो, ऐसा अदमी किसी कलाकार से कला पर बात करने का मूर्खतापूर्ण खतरा नहीं लेता। मैंने भी यही सावधानी बरती। उनके मिजाज और घर से दूर रहने पर खान-पान को लेकर होनेवाली असुवधिओं जैसे पारम्परिक विषय पर बात ले आया।

उन्होंने मालवा की, यहाँ के मौसम की, जितने लोग उनसे मिले उनके व्यवहार की, कला शिविर की व्यवस्थाओं की मुक्त कण्ठ और अन्तर्मन से प्रशंसा की। यह सब कहते हुए वे नाटक नहीं कर रहे हैं, यह उनकी आँखों, भंगिमाओं और स्वरों से सहज ही अनुभव होता था। किन्तु भोजन को लेकर वे तनिक समस्याग्रस्त लगे। थोड़ी ही देर में मालूम हुआ कि यह समस्या अकेले श्याम की नहीं, डिंडोरी-मण्डला से आये सारे चित्रकारों की समस्या थी।

श्याम के अनुसार यहाँ उनकी खूब आवभगत हो रही है। कोई कमी नहीं है। काम करने का अनुकूल वातावरण मिला है। सब कुछ निर्बन्ध और निर्बाध है। मालवा के विभिन्न व्यंजनों से पहली बार परिचय हुआ है। सब कुछ ठीक है किन्तु ‘थोड़ी सी कसर’ है। यह ‘थोड़ी सी कसर’ ही श्याम सहित सारे गोंड कलाकारों की समस्या है। मैंने कुरेदा तो तनिक संकोच से बोले - ‘आप अन्यथा मत ले लीजिएगा। यह आलोचना बिलकुल नहीं है। आप पूछ रहे हैं तो बता रहा हूँ। यहाँ पेट तो भर रहा है किन्तु तृप्ति नहीं मिल रही।’ मैंने सहज ही कहा कि वे बता देंगे तो उनके मनपसन्द व्यंजन जुटाने की कोशिश की जा सकती है। अत्यन्त संकोच और सम्पूर्ण विनम्रता से श्याम ने कहा - ‘आप ठीक कह रहे हैं किन्तु यहाँ वैसा हो पाना मुमकिन नहीं क्योंकि वे चाह कर भी नहीं बनाए जा सकेंगे।’

घर से दूर, खान-पान की थोड़ी-बहुत असुविधा तो हम सबको होती ही है। किन्तु इसका समानान्तर सच यह भी है कि हम सब प्रायः ही स्थिति के अनुसार खुद को ढाल कर, हमें परोसे जानेवाले आंचलिक व्यंजनों को आनन्द लेने की कोशिश करने लगते हैं और प्रायः ही इसमें सफल भी होते हैं। किन्तु श्याम की बातों से लग रहा था कि उनकी कोशिशें कामयाब नहीं हो रही थीं। मैंने कुरेदा तो मालूम हुआ कि ‘कोंदो’ किस्म का चावल और कुटकी की सब्जी उनके अंचल का लोक-भोजन है। वह यहाँ, मालवा में मिलना नितान्त असम्भव है। इसलिए किसी से (शिविर व्यवस्थापकों से) कहने का मतलब सामनेवाले को संकोच में डालना होगा।

श्याम की उदारता और सहृदयता मुझे छू गई। मैंने सहज ही पूछा कि इन व्यंजनों के विकल्प के रूप में किन्हीं और व्यंजनों की व्यवस्था करवाई जाए? पूर्ववत् ही विनम और संकोचग्रस्त श्याम ने जो कहा उसने, मेरे सामने संकटों का नया आयाम उद्घाटित किया। अनुकूल व्यंजन न मिलने के समानान्तर समस्या थी - भोजन में तेज मिर्च-मसालों का न होना। मैंने कहा - ‘आप लोग लाल या हरी मिर्च ही क्यों नहीं माँग लेते?’ जवाब में श्याम ने जो कहा, उसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं था। श्याम का उत्तर सुनकर मुझे ‘परदेस कलेस नरेसन को’ काव्य-पंक्ति याद आ गई। अत्यधिक असहज होकर श्याम ने कहा - ‘माँगी थी। लकिन आपके यहाँ की तो मिर्ची में भी तेजी नहीं है।’

मैं सोच में पड़ गया। ऐसी समस्या से मैं अब तक कभी भी रू-ब-रू नहीं हुआ। मिर्ची की तेजी बढ़ाने के लिए मिर्ची में कौन सी मिर्ची मिलाई जाए?

5 comments:

  1. haay-haay mirchi........!

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  2. तीखे की मिठास का आनंद है, वार्तालाप में.

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  3. वातावरण में सम्मिलित प्रयास अथाह ऊर्जा भर देता है।

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  4. maine is anubhav ko aapke sanidhya main share kiya
    aapke vichar aur yeh prasang adbhut hai

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  5. हर मैटर का एण्टीमैटर होता है। अब हमें देखिये - भोजन में नमक हल्दी के अलावा कोई मसाला न हो तो वह सबसे प्रिय व्यंजन होगा हमारा! :-)

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