मूक मालियों का ‘अंकुर’


रविवार की सुबह वे ‘दोनों प्रकाश’ मुझे वहाँ नजर आए जहाँ उनका होना असामान्य और अनपेक्षित था। किन्तु दोनों के चेहरे, ‘सब ठीक है’ की हाँक लगा रहे थे। मैं जल्दी में था। रुका नहीं। इशारों में ही अभिवादन कर निकल गया।

‘दोनों प्रकाश’ याने प्रकाश अग्रवाल और प्रकाश जैन। यहाँ भले ही दोनों को ‘प्रकाश’ लिख रहा हूँ किन्तु सम्बोधित करता हूँ ‘प्रकाशजी’ कह कर ही। दोनों ही बैंक ऑफ बड़ौदा के कर्मचारी। ऐसे कर्मचारी जो सुबह तनिक जल्दी दफ्तर पहुँचते हैं और शाम देर तक काम करते रहते हैं। वैसे, यह अलग बात है कि इन दिनों बैंक कर्मचारियों पर काम का बोझ इतना बढ़ गया है कि न्यूनाधिक प्रत्येक कर्मचारी की यही दशा हो गई है - जल्दी पहुँचना और देर से लौटना।

अगले दिन मैंने पूछताछ की तो बड़े संकोच से बताया कि वे अखबार की रद्दी लेने के लिए वहाँ खड़े थे। मुझे लगा, निजी समय में रद्दी का व्यापार करते हैं। एकाधिक कारणों से मुझे ऐसा लगा। पहला तो यह कि दोनों ही अत्यधिक परिश्रमी हैं और अतिरिक्त सक्रिय रहते हैं - बिलकुल किसी उद्यमी की तरह। दूसरा यह कि दोनों ही ‘व्यापारी समुदाय’ से हैं। और तीसरा यह कि मेरे कस्बे में ऐसे लोग हैं जो भंगार/कबाड़ और रद्दी का व्यापार करते हुए 30 प्रतिशत की ‘कर-दर’ से आय-कर चुका रहे हैं। ऐसे में ‘दोनों प्रकाश’ भी यदि ऐसा ही और यही कर रहे हों तो अचरज कैसा?

किन्तु दोनों ने मेरी धारणा खण्डित कर दी।

दोनों ने ससंकोच बताया कि वे और उनके कुछ सहकर्मी-मित्र, प्रत्येक रविवार को, पूर्व निर्धारित परिवारों से सूचना पाकर, उनके यहाँ एकत्र, अखबारी रद्दी लेने जाते हैं जिसे बेचकर वे गरीब और असहाय लोगों को चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध कराने में मदद करते हैं। शुरुआत तो इन्होंने बच्चों को शिक्षा सहायता उपलब्ध कराने से की थी। बैंक से शिक्षा ऋण हेतु आनेवालों से इनका सामना होता था। सो, सबसे पहले यही बात सामने आई। किन्तु जल्दी ही यह बात भी सामने आ गई कि माध्यमिक स्तर तक के बच्चों को लगभग सारी सुविधाएँ (पुस्तकें और कपड़े) शासकीय स्‍तर पर निःशुल्क मिल जाती हैं और उच्च स्तर की आवश्यकताएँ अधिक खर्चीली होती हैं - इनकी सीमाओं से परे। सो इन्होंने अपने अभियान को स्वास्थ्य क्षेत्र की ओर मोड़ दिया। किन्तु प्रारम्भिक काल में शुरु की गई शिक्षा सहायता जारी रखना अनिवार्य था। सो, गए दो वर्षों से 10-10 बच्चों को, दो हजार रुपये प्रति बच्चे के मान से अब तक 40 हजार रुपये दे चुके हैं। अपने अभियान को इन्होंने ‘अंकुर’ नाम दिया हुआ है। आज ‘अंकुर’ के खाते मे लगभग 40 हजार रुपये जमा हैं।

दो साल पहले जब इन्होंने यह काम शुरु किया था तो इनकी बैंक की स्थानीय शाखाओं के अनेक (लगभग सारे के सारे) सहकर्मी ‘अंकुर’ से जुड़े हुए थे। किन्तु धीरे-धीरे वे लोग स्थानान्तरित होते गए और नए आए लोगों को ‘अंकुर’ से या तो ये जोड़ नहीं पाए या वे ही नहीं जुड़ पाए। इस समय मुख्यतः 5 लोग ही ‘अंकुर’ की देखभाल कर रहे हैं। इनमें से चार रतलाम में और पाँचवा, रतलाम के पास की ही एक शाखा में पदस्थ है।

अखबारी रद्दी लेना इनके लिए अब कठिनाईवाला काम बनता जा रहा है। देनेवालों की संख्या बढ़ती जा रही है और लेनेवाले घटते जा रहे हैं। देनेवाले फोन पर फोन करते हैं - ‘रद्दी उठाओ।’ इनकी दिक्कत यह कि आदमी और साधन-संसाधन सीमित। कभी-कभी पाँच क्विण्टल रद्दी एकत्र हो जाती है। यह काम बैंक की नौकरी और परिवार के कामों से फुरसत निकाल कर ही करना पड़ता है। सुनकर मुझे अच्छा लगा। काम अच्छा है। किन्तु इतनी मेहनत कर पाना मेरे लिए तो मुमकिन नहीं! जो काम खुद नहीं कर सको, उससे जुड़ जाओ। सो, मैंने अपना नाम-पता भी ‘अंकुर’ की सूची में लिखवा दिया। अपने कुछ मित्रों/परिचितों से बात की तो वे भी सहर्ष तैयार हो गए। अगले ही दिन उन सबके भी नाम-पते प्रकाशजी को लिखवाए। नाम-पते लिखते हुए प्रकाशजी ससंकोच बोले - ‘पता नहीं आप क्या समझेंगे, किन्तु एक निवेदन है। हम और हमारे साधन नाम मात्र के हैं। इसलिए अभी हम इसे अपनी क्षमतानुसार ही विस्तारित कर पाएँगे। आप तो बीमा एजेण्ट हैं! आपका परिचय क्षेत्र व्यापक है। इसलिए हम आपकी गति से शायद ही चल पाएँ।’ मैंने संकेत समझा और कहा - ‘मैं भी अपने साधन सहित आपके साथ हूँ। अपनी रद्दी, जहाँ आप कहेंगे, वहाँ पहुँचा दूँगा। अपने मिलनेवालों से भी ऐसा ही करने को कहूँगा। यदि वे ऐसा नहीं कर पाए तो उनके यहाँ से रद्दी लाने के बारे में मैं सोचूँगा और तदनुसार ही कोशिश भी करूँगा। आप हिम्मत रखिए। नेक इरादों को मंजिल मिल ही जाती है। ताज्जुब मत कीजिएगा यदि लोग आपको बुलाने की बजाय आप तक पहुँचना शुरु कर दें!’ यह कहते समय मैंने मन ही मन तय कर लिया कि मेरे घर की रद्दी के लिए मैं इन्हें नहीं बुलाऊँगा। मैं खुद ही इनके कहे स्थान पर पहुँचा दूँगा। पता नहीं क्यों, मुझे आशा है कि मेरे मित्र/परिचित भी ऐसा कर लेंगे।

मुमकिन है, इस लिखे को रतलाम के लोग भी पढ़ें और ‘अंकुर’ को ‘वट वृक्ष’ बनाने में सहायक बनना चाहें। इसलिए ‘अंकुर’ के पाँचों ‘मालियों’ के नाम और मोबाइल नम्बर दे रहा हूँ - प्रकाश अग्रवाल (94240 48484), दर्शन सिंह अरोड़ा (99931 08384), प्रकाश जैन (94251 04292) (यहाँ दिए चित्र में तीनों इसी क्रम में नजर आ रहे हैं), मिलिन्द तम्हाणे (94066 36401) और विजय राव तावरे (94251 02491)।

9 comments:

  1. प्रशंसनीय कार्य !

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  2. Uncle,
    Dhanyawad
    Aap raddhi bhejne ka address bhi daal dijiye
    khair main inse sampark kar raha hun

    Regards,
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  3. विष्णु जी, इस पोस्ट ने मन को छू लिया। नमन है इन सभी को। काश भारत में ऐसी ही कुछ और ज्योतिपुंज होते तो हमारी दशा और दिशा कुछ और ही होती।

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  4. सराहनीय कार्य है. इन्हें नमन.

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  5. सराहनीय कार्य, आपको बहुत धन्यवाद इस सराहनीय प्रयास की सूचना प्रदान करने के लिए. इस अभियान में जुड़ना हर्ष और गर्व का विषय होगा.

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  6. बिना किसी शोर-शराबे के चुपचाप अपने सामाजिक कर्तव्‍यों को निभाते जाना, भारतीय होने की यही तो सच्‍ची पहचान है। मुझे लगता है कि इन्‍हीं कर्मवीरों से देश को दिशा मिल रही है। और हम भ्रम पाले हुए हैं कि समाज को बडे़- नेता और अभिनेता राह दिखा रहे हैं। सलाम।

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