इसलिए सागर बन गया आयोजन

आशीष दशोत्तर ने मेरे सोच को नया आयाम दे दिया।

‘शब्द’ और ‘किताब’ के नाम पर इतनी भीड़? मुझे अपनी ही आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। याद नहीं आता कि इससे पहले, कितने बरस पहले, इस निमित्त इतनी भीड़, अपने कस्बे में देखी थी मैंने।

यह इसी रविवार की, परसों, 8 अप्रेल की सुबह की बात है। प्रिय आशीष दशोत्तर की दो पुस्तकों का विमोचन था - गजल संग्रह ‘लकीरें’ और अमर शहीद भगतसिंह की पत्रकारिता पर केन्द्रित, ‘समर में शब्द’ का। आशीष का अनुमान है कि उसकी यह पुस्तक, भगतसिंह की पत्रकारिता पर केन्द्रित देश की सम्भवतः पहली और अब तक की इकलौती पुस्तक है। भगतसिंह पर प्राधिकार का दर्जा प्राप्त कर चुके, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्राध्यापक चमनलालजी मुख्य अतिथि और मुख्य वक्ता थे और नवोदित कथाकारों में अपनी पुख्ता जगह बना चुके कैलाश वानखेड़े विशेष अतिथि थे। वे, राज्य प्रशासकीय सेवा के सदस्य भी हैं और इन दिनों, धार जिले के बदनावर में, अनुभागीय दण्डाधिकारी (एस.डी.एम.) के रूप में पदस्थ हैं।

आयोजन मेरी रुचि का था सो मैंने खुद को इससे जोड़ लिया था। अपने स्तर पर मैंने भी कुछ लोगों को न्यौता दिया था। निर्धारित समय साढ़े दस बजे से तनिक थोड़ा पहले ही पहुँच गया था। उपस्थिति को लेकर तनिक भी उत्साहित नहीं था। इसीलिए, सवा दो सौ से अधिक कुर्सियों से सजे रोटरी हॉल को देखकर घबराहट हुई - लोग कम और खाली कुर्सियाँ ज्यादा नजर आएँगी।

लेकिन साढ़े दस बजते, उससे पहले ही चमत्कार का प्रारम्भ हो गया। लोग ऐसे आने लगे मानो चींटियाँ अपने बिल से निकल रही हों। मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था किन्तु यही सच था - पौने ग्यारह बजते-बजते सभागार लगभग पूरा भर चुका था। स्थिति ऐसी थी कि कार्यक्रम तत्काल शुरु कर दिया जाए। किन्तु चमनलालजी नहीं पहुँचे थे। पता लगा, यह मानकर कि सदैव की तरह लोग देर से ही आएँगे, चमनलालजी को कह दिया गया था कि ग्यारह बजे के बाद ही उन्हें लिवाया जाएगा। वे लगभग सवा ग्यारह बजे पहुँचे। तब तक सब आगन्तुक अधीर हो चुके थे। अब तक मैंने आयोजकों को ही प्रतीक्षारत रहते देखा था। किन्तु यहाँ स्थिति उसके सर्वथा विपरीत थी।

आयोजन शुरु हुआ। फूलों और शब्दों से स्वागत, अतिथि परिचय की खानापूर्ति हुई। मुझसे रहा नहीं गया। चलते कार्यक्रम के बीच मैंने खड़े होकर पूरे हॉल पर नजरें दौड़ाईं। मैं तो श्रोताओं को गिनने की मानसिकता लेकर आया था लेकिन यहाँ तो नजारा कुछ और ही था! खाली कुर्सियाँ गिनने में भी तकलीफ हो रही थी। यह चिन्ता किए बिना कि लोग मेरी इस अशिष्टता पर क्या सोचेंगे, मैं ने कुर्सियाँ गिनीं। यह गिनती अठारह पर जाकर रुक गई। याने, दो सौ से अधिक श्रोता? मेरे लिए तो यह चमत्कार ही था।

वानखेड़ेजी द्वारा विषय प्रवर्तन के बाद दोनों किताबों का विमोचन हुआ। चमनलालजी ने लगभग सवा-डेड़ घण्टे का उद्बोधन दिया। आशीष द्वारा आभार प्रदर्शन से पहले, जिला कलेक्टर श्री राजेन्द्र शर्मा ने ‘कलेक्टरी की लीक से हटकर’ अपनी बात कह कर सबको चौंकाया भी और सबकी सराहना भी अर्जित की। (शर्माजी के इस ‘व्यवहार’ पर अलग से लिखूँगा।) चमनलालजी के उद्बोधन पर उपजी जिज्ञासाओं पर आधारित प्रश्नों के ‘लघु सत्र’ के साथ आयोजन समाप्त हुआ।

पूर्व निर्धारित कुछ काम निपटाने के कारण मुझे तनिक जल्दी थी। सो, आशीष से अनुमति ले, चाय पी कर फौरन ही निकल आया। शाम को, चमनलालजी के मुकाम, होटल सेण्ट्रल पहुँचा। आशीष के अतिरिक्त माँगीलालजी यादव और रणजीसिंह राठौर पहले से ही मौजूद थे। पहले भरपेट बतियाए फिर भर पेट खाया। उपस्थिति को लेकर हम सब ‘मुदित मन’ थे। मुझे लग रहा था कि उपस्थिति को लेकर आशीष ने निश्चय ही विशेष और अतिरिक्त प्रयत्न किए होंगे। उससे पूछा तो उसने सहज भाव से जो कहा, उसी ने मेरे सोच को नया आयाम दे दिया।

आशीष ने बताया कि उसने ‘अपनेवालों’ को निमन्त्रित करने के बजाय उन लोगों को निमन्त्रित किया जो ऐसे आयोजनों की टोह में रहते हैं किन्तु जिन्हें या तो सूचना नहीं मिलती या फिर न्यौता नहीं मिलता। आशीष ने यह भी चिन्ता नहीं कि ऐसे ‘प्रेमी’ लोग किस वर्ग, समुदाय, व्यवसाय से हैं। उसने एक ही बात पर ध्यान दिया - पिपासुओं को कुए की जानकारी दे दी। सड़कछाप मुहावरों में कहें तो उसने शक्करखोरों को शकर की बोरी का अता-पता दे दिया और चमत्कार हो गया। आशीष ने कहा कि गिनती के अपवादों को छोड़ दें तो उसने किसी को भी दूसरी बार याद नहीं दिलाया।

आयोजनों में श्रोताओं की अल्पता का रहस्य शायद यही है। हम लोग ‘अपनेवालों’ को बुलाते हैं। अचेतन में शायद यही भावना रहती होगी कि अपनेवाले हमारे महत्व, प्रभाव को, हमारी उपलब्धियों को अनुभव करें। आत्म केन्द्रित, अचेतन में व्याप्त इस भावना के वशीभूत हो हम खुद को ही दो दण्ड दे देते हैं। पहला - श्रोताओं की कमी का और दूसरा - सुपात्रों को उनकी अभिरुचि पूरी होने के अवसर से वंचित कर खुद को, सागर से पोखर में बदल देने का।

(चित्र, ‘समर में शब्द’ के विमोचन का। चित्र में बाँये से - युसूफ जावेदी, कैलाश वानखेड़े, चमनलालजी, आशीष दशोत्तर, कलेक्टर शर्माजी और रतन चौहान।)

6 comments:

  1. बड़े शहरों में दूरियों ने भी दूरियां बढ़ा दी हैं शायद, बहरहाल आयोजकों को बधाई.

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  2. आजकल इतनी भागदौड़ है कि चाहकर भी अपने मनपसंदीदा आयोजन में जाना असंभव प्रतीत होता है। आयोजकों ने अपने वालों को छोड़कर बुलाया इसीलिये उनका आयोजन सफ़ल हुआ, बधाई, ऐसे कार्यक्रमों से जनता जुड़ना चाहती है, परंतु उन तक आयोजन की जानकारी नहीं पहुँच पाती है।

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  3. पुस्तकों के विमोचन पर ढेरों बधाईयाँ।

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  4. Aashishji apni umda soach ke liye Badhai ke paatra hain. Shri Madhya Bharat Hindi Sahitya Samiti,Indore ke aise hi Aayojanon me 70-75% kursiya ant tak khaali hi rahti hain.Unhe bahut-bahut Badhai.

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