कलेक्‍टर, भला आदमी और मेरी उलझन




ये हैं राजेन्द्रजी शर्मा। हमारे, रतलाम जिले के कलेक्टर। इन्होंने मुझे उलझन में डाल रखा है।

व्यक्तिगत स्तर पर हम दोनों एक दूसरे को नहीं जानते। मैं जानता हूँ कि ये उस जिले के कलेक्टर हैं जिसका मैं नागरिक हूँ और निश्चय ही शर्माजी नहीं जानते होंगे कि मैं इनकी कलेक्टरीवाले जिले का नागरिक हूँ। इनसे मैं दो बार मिला हूँ - दोनों बार मिला कर अधिकतक पाँच मिनिटों का मिलना हुआ होगा। जाहिर है कि यह मिलना ऐसा नहीं कि हम दोनों एक दूसरे को याद रखें। (वैसे भी किसी कलेक्टर को क्या पड़ी है कि किसी आम आदमी को याद रखे!) यदि वे कलेक्टर नहीं हुए होते और उनकी इसी हैसियत के कारण मैं उनसे नहीं मिला होता तो मुझे भी याद नहीं रहता कि मैं राजेन्द्र शर्मा नाम के किसी आदमी से मिला होऊँगा। इन्हीं शर्माजी ने मुझे उलझन में डाल दिया।

एक समय था, कोई बारह-पन्द्रह बरस पहले तक कि मैं जिला मुख्यालय पर पदस्थ लगभग प्रत्येक अधिकारी को जानता था और उनमें से अधिसंख्य को व्यक्तिगत स्तर पर भी। बीमा करानेवालों की तलाश में ही यह जान-पहचान हुआ करती थी। मुझे यह कहना ‘अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना’ लग रहा है किन्तु सर्वथा वस्तुपरक भाव से कह रहा हूँ, उन दिनों बीमा एजेण्टों के बीच मेरी पहचान ही ‘कलेक्टर, एसपी का बीमा करनेवाला’ की बन गई थी। किन्तु कोई दौर स्थायी नहीं होता। सो, एक तो मुझसे बेहतर बीमा एजेण्ट आते गए, दूसरे - मेरी जरूरतें कम होने लगीं और तीसरे (जो निश्चय ही पहले से भी पहले वाला कारण रहा होगा) - अधिकारियों के निरन्तर सम्पर्क ने मुझे दम्भी बना दिया। आज स्थिति यह है कि मैं कलेक्टोरेट परिसर की चाय दुकानवाले को भी नहीं जानता। अपने इस निष्कासन को मैं इस प्रगतिशील जुमले में छुपा लेता हूँ कि मुझे यह प्रतीति जल्दी ही हो गई कि नेताओं, धन्ना सेठों और अफसरों की तिकड़ी ही देश की सबसे बड़ी समस्या है।

साहित्यिक, सांस्कृतिक और ललितकलाओं से जुडे़ आयोजनों में नेताओं, अफसरों और धन्ना सेठों को मंचों पर, मुख्य अतिथि, अध्यक्ष जैसी हैसियत में बैठे देखना मुझे कभी नहीं सुहाया - तब भी, जब अफसरों से मेरी निकटता थी। मेरी सुनिश्चित धारणा बनी हुई है कि इन विधाओं से इन लोगों का कोई लेना-देना नहीं होता और ये लोग वाजिब लोगों का हक मारते हैं और इन क्षेत्रों को प्रदूषित करते हैं। मेरी धारणा के अपवाद, निश्चय ही होंगे तो, किन्तु अपवाद अन्ततः सामान्य नियमों की ही पुष्टि करते हैं। किन्तु इसका कड़वा समानान्तर सच यह भी है कि लोग भी जबरन इन्हें इन कुर्सियों पर बैठाते हैं।

इसीलिए, जब मैं, अमर शहीद भगतसिंह पर ‘प्राधिकार’ की हैसियत अर्जित कर चुके प्रो. चमनलालजी के हाथों, प्रिय आशीष दशोत्तर की दो पुस्तकों के विमोचन हेतु आयोजित, इसलिए सागर बन गया आयोजन वाले समारोह में (समय से पहले) पहुँचा था तो तनिक खिन्न था। निमन्त्रण-पत्र से मुझे पता था कि ‘आई. ए. एस. शर्माजी’ इस ‘साहित्यिक आयोजन’ के अध्यक्ष हैं। इसलिए, जब शर्माजी को अध्यक्ष के आसन पर विराजित होने के लिए आमन्त्रित किया गया तो मुझे अप्रसन्नता तो हुई किन्तु धक्का नहीं लगा। किन्तु इसके समानान्तर ही मुझे तनिक अचरज भी हो रहा था। 2011 के दो अक्टूबर को सम्पन्न, ‘हम लोग’ के आयोजन में ये ही शर्माजी (और जिला पुलिस अधीक्षक डॉ. रमणसिंह सिकरवार) बहुत ही सहजता से, पूरे समय तक श्रोताओं में बैठे रहे थे और समय-समय पर तालियाँ बजाने में श्रोताओं का साथ देते रहे थे। मुझे यह देखकर अतिरिक्त प्रसन्नता हुई थी कि, गाँधी पर आयोजित, केन्द्रीय लोक सेवा आयोग के सदस्य और जे. एन. यू. के पूर्व प्राध्यापक डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल के इस व्याख्यान को सुनने का अवसर देने के लिए इन्हीं शर्माजी ने आयोजकों को अलग से, विशेष रूप से धन्यवाद दिया था। मैं चूँकि इस आयोजन में पार्श्व भूमिका निभा रहा था और मंच के समानान्तर ही बैठा था सो शर्माजी मुझे पूरे समय नजर आते रहे और मैं अचरज करता रहा कि श्रोता के रूप में बैठने को लेकर वे एक क्षण भी असहज नहीं हुए।

जब शर्माजी को उद्बोधन हेतु आमन्त्रित किया तो मैं ऊँचा-नीचा होने लगा। अपनी सुनिश्चित धारणा के अधीन मैंने खुद को, ‘अफसरी प्रभाव से सक्रंमित, साहित्यिक सम्बोधन’ सुनने के लिए तनिक कठिनाई से तैयार किया। किन्तु शर्माजी ने पहले ही क्षण से मेरी असहजता नष्ट कर दी। अपनी बात की शुरुआत ही उन्होंने यह कह कर की कि जहाँ उन्हें बैठरया गया है, वह उनकी जगह नहीं है। वे आयोजन का आनन्द तो लेना चाहते थे किन्तु एक श्रोता के रूप में। आयोजन का अध्यक्ष बनने को बिलकुल ही तैयार नहीं थे। जब उन्हें इस हेतु निवेदन किया गया तो उन्होंने आश्वस्त किया कि यदि उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए उन्हें अध्यक्ष बनाया जा रहा है तो ऐसा न किया जाए। वे खुद चमनलालजी को सुनना चाहते हैं और इसीलिए आयोजन में अवश्य आएँगे। किन्तु आशीष सहित अन्य लोग अपने अनुरोध पर अड़े रहे और उन्हें अन्ततः ‘स्नेहाधीन’ हो, इस कुर्सी पर बैठना पड़ा। उन्होंने कम से कम तीन बार साफ-साफ कहा कि साहित्य उनका क्षेत्र नहीं है और यदि है तो केवल एक पाठक और श्रोता के रूप में ही। मुझे यह सुनकर अच्छा ही नहीं लगा, बहुत अच्छा लगा - चलो! इस बारे में शर्माजी को कोई मुगालता नहीं है। (वर्ना जब कोई अफसर, केवल अफसर होने के कारण ही साहित्यकार होता है तो अफसरी का तो ‘ग्लेमर’ बढ़ता है किन्तु साहित्य दुर्घटनाग्रस्त होकर लज्जित होता है।)

किन्तु जिस बात से शर्माजी ने मुझे उलझन में डाला, वह अभी बाकी थी। भगतसिंह के जज्बे के सन्दर्भ में देश की मौजूदा स्थिति पर शर्माजी ने कहा - ‘सारा संकट, नैतिक मूल्यों आई गिरावट से उपजा है। यह सामाजिक संकट है जिसका निदान कोई सरकार या प्रशासन नहीं कर पाएगा। इस संकट का समाधान, समाज को ही तलाश करना पड़ेगा।’ किसी ‘कलेक्टर’ से ऐसा जुमला सुनने के लिए मैं बिलकुल ही तैयार नहीं था। मैं उलझन में पड़ गया। यह कौन बोल रहा है - एक कलेक्टर या स्थितियों से परेशान/चिन्तित कोई सम्वेदनशील, समझदार/जागरूक नागरिक? बात तो बहुत ही अच्छी और सच्ची कही किन्तु कोई ‘कलेक्टर’ भला ऐसी बातों से कब और क्यों परेशान होने लगा?

बात मुझे अधूरी लगी - उपदेश की तरह। मुझसे रहा नहीं गया। आयोजन समाप्ति के बाद जब शर्माजी जाने लगे तो मैं अपनी पूरी अक्खड़ता के साथ उनका रास्ता रोक कर खड़ा हो गया। उनके ‘सुविचार’ के लिए उन्हें साधुवाद दिया और लगभग आरोप लगाया - ‘आप भी तो इसी समाज में हैं। समाज की एक जिम्मेदार इकाई के रूप में, आपके पास इस समस्या का क्या निदान है?’ शर्माजी मुस्कुराए। बोले - ‘लगता है, आप मुझे कोई काम बताना चाहते हैं। आप ही बताइए, मैं क्या करूँ?’ पता नहीं क्यों, मैं इसी सवाल की प्रतीक्षा कर रहा था। बोला - ‘हम आदश अनुप्रेरित समाज हैं। हम खुद तो राम नहीं बनना चाहते किन्तु हमें कोई न कोई राम चाहिए जिसका अनुसरण कर सकें। आज गुण्डों-बदमाशों के चर्चे तो होते हैं किन्तु नेकचलन, भले आदमियों की बात कोई नहीं करता। आप एक काम कर सकते हैं। ‘सकते हैं’ नहीं, आपको करना ही चाहिए। वह यह कि आप रतलाम में रहें या कहीं और, जब भी आपको किसी आम आदमी द्वारा किए गए किसी अच्छे काम की जानकारी मिले तो आप अपनी ओर से उस आदमी से सम्पर्क करें - या तो चलकर उसके पास जाएँ या ससम्मान उसे बुलाएँ और भीड़ के बीच उसकी पीठ थपथपाएँ, उसे बधाई-धन्यवाद दें, उसकी प्रशंसा करें। इससे उसका मनोबल तो बढ़ेगा ही, अपनी इस प्रवृत्ति पर कायम रहने का उसका आत्म विश्वास भी बढ़ेगा। लोग जब देखेंगे-सुनेंगे कि अच्छे काम करनेवाले को कलेक्टर ने बुलाकर या खुद चलकर बधाई दी तो लोग न केवल उस आदमी को सम्मान की नजर से देखेंगे बल्कि खुद भी ऐसे अच्छे काम करने को प्ररित होंगे।’ शर्माजी ने ‘प्रणाम’ की मुद्रा में हाथ जोड़े और कहा - ‘आपने आज कहा है। विश्वास कीजिएगा, मैं ऐसा ही करूँगा और मेरे ऐसा करने की जानकारी आपको भी मिल जाएगी।’ मुझे अच्छा लगा। (वैसे, मुझे अच्छा लगने न लगने से भला किसी ‘कलेक्टर’ को क्या फर्क पड़ना है?) कहा - ‘आज की यह बात मैं कहीं न कहीं लिखूँगा।’ उनकी अनुमति से मैंने उनका चित्र लिया।

अब मैं, किसी आम आदमी द्वारा किए गए किसी अच्छे काम के लिए, किसी ‘कलेक्टर’ द्वारा उसे बधाई देने के, उसकी प्रशंसा करने के समाचार की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

किन्तु मेरी उलझन यह नहीं है। उलझन यह है कि मैं शर्माजी को क्या मानूँ - भला आदमी या अच्छा कलेक्टर? कोई कलेक्टर भला आदमी कैसे हो सकता है और कोई भला आदमी अच्छा कलेक्टर कैसे हो सकता है?

6 comments:

  1. अधिकार, कर्तव्य और शक्ति के बीच अन्ततः मानव ही झूलते हैं।

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  2. आपकी उलझन नाहक ही नहीं है, लेकिन अपवाद हर जगह होते ही हैं| आपका सुझाव उत्तम था|

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  3. Afsarvratti,Chaaplooson ki jamaat,Ochhi raajneeti aur tuchchi-netaagiri ne haalaat hi aise kar diye hain ki aaj koi 'Bhala Aadmi' hame Bhala Aadmi nahi lagtaa jab tak ki hum uske paas 'Bhalaa Aadmi' hone ka Pramaan-patra/takhti ( 'ISO Bhalaa Aadmi' ) ki khaatri na karlen.Yah sab bhi hame kewal doosron se hi chaahiye.

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  4. VISHNU BHAIYA JI ACHCHHE SANSAMARAN KE LIYE DHANYAWAD'
    AANKHE CHAHIYE AAJ BHI 100 ME 65 LOG BHALE MILTE HAIN .
    SANJOG SE BURE HI MIL JATE HAIN.

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  5. @ नेताओं, धन्ना सेठों और अफसरों की तिकड़ी ही देश की सबसे बड़ी समस्या है।
    अनजाने ही एक महत्वपूर्ण सूत्र दे दिया आपने.

    @मैं शर्माजी को क्या मानूँ - भला आदमी या अच्छा कलेक्टर? कोई कलेक्टर भला आदमी कैसे हो सकता है और कोई भला आदमी अच्छा कलेक्टर कैसे हो सकता है?
    ख़ुशी हुई कि जिस खोये हुए भले आदमी को आप ढूंढ रहे थे वह एक अच्छे कलेक्टर के रूप में मिला.

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  6. ई-मेल से प्राप्‍त, श्रीसुरेशचन्‍द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्‍पणी -

    विष्‍णुजी! राम राम। भुवनेश्‍वर से लिख रहा हूँ। यहाँ सब भांति सुहाई, वहाँ कुशल राखे रघुराई।

    कई कलेक्टर भले आदमी होतें हैं और कई भले आदमी कलेक्टर बनते हैं। आपकी कालोनी के ही श्री दुर्गा भाई साहेब बहुत अछे कलेक्टर रहें हैं। भागीरथ प्रसादजी को मैंने निकट से देखा है। वे भी अच्‍छे आदमी हैं।अपने प्रदेश के ही कृष्‍णमुरारी आचार्य भले आदमी हैं।यदि आपको याद हो, रामपुरा महाविद्यालय मैं एक प्राचार्य थे-श्री पेंडसे। उस वक्त मंदसौर जिले मैं मुनव्वर साहब कलेक्टर थे। शकर पर नियन्‍त्रण था। पेंडसे साहेब ब्लैक से शकर खरीदते नहीं थे और अपने कोटे की शकर युवा चपरासी को दिया करते थे क्योंकि उसके बच्चे छोटे थे और पेंडसे साहेब अकेले रहा करते थे। जब मुन्नवर साहब उनसे मिलने गए तो पेंडसे सर ने गुड से बनी चाय पिलाई और कलेक्‍टर साहेब ने पी। छोटे-मोटे अधिकारियों ने कहा कि पेंडसेजी, आप पहले बताते तो हम बोरा लाकर रख देते। इस पर कलेक्टर साहेब ने कहा कि मैं इन्हें जानता हूँ, आप नहीं जानते।

    तो भैया अच्‍छे और भले कलेक्टर होतें है, मगर ये नेताओं के, भ्रष्ट कर्मचारियों के काम के नहीं होते। इसलिए जिले की आम जनता मैं इनका नाम चाहे चले न चले जनता को लाभ तो होता ही है।

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