जिन पर मुनाफा हावी नहीं हो सका

‘पाव आनी सेठ’ अपनी किस्म के अनूठे तो थे किन्तु एक मात्र नहीं थे। यादवजी, ‘पाव आनी सेठ’ की बात समाप्त करते, उससे पहले ही मुझे सैलानावाले, भेरुलालजी शर्मा ‘किरण’ याद आ गए। ऐसे ही किन्हीं एक सेठजी की बात उन्होंने  बताई थी किन्तु तब मैंने ध्यान नहीं दिया था।
किरणजी को फोन लगाया तो, उन्होंने रतनलालजी संघवी के बारे में बताया।

संघवीजी थे तो कपड़ों के व्यापारी किन्तु तमाम व्यापारियों से अलग हटकर। वे मानो ‘गृहस्थ सन्त’ थे। कहते हैं कि व्यापार और सन्तोष के बीच हमशा छत्तीस का आँकड़ा बना रहता है। किन्तु संघवीजी ने इस लोक मुहावरे को झूठा साबित कर रखा था। महावीर के अनुयायी संघवीजी ने ‘अपरिग्रह’  अपना रखा था। दीपावली से नया साल लगते ही वे तय कर लेते कि आजीविका हेतु  इस साल उन्हें कितना व्यापार (टर्न ओवर) करना है। व्यापार का स्वनिर्धारित आँकड़ा पूरा होते ही संघवीजी, वर्ष की शेष अवधि के लिए दुकान पर ताला लगा देते। कभी-कभी तो एक दिन के व्यापार का आँकड़ा तय कर लेते और जैसे ही आँकड़ा पूरा होता, दुकान ‘मंगल’ कर घर चले आते। साख के मामले में तय करना मुश्किल था कि किसकी साख ज्यादा है - संघवीजी की या उनकी पेढ़ी की। उनकी दुकान पर मोल-भाव करते शायद ही किसी को देखा गया हो। कालान्तर में उन्होंने दीक्षा ले ली - जैन साधु बन गए। उनकी बेटी उनसे पहले ही दीक्षा लेकर साध्वी हो चुकी थी। संघवीजी इन दिनों राजस्थान मे कहीं विराजित हैं। वृद्धावस्था के कारण उनका ‘विचरण’ बन्द हो गया है जो ‘साधु’ के लिए अनिवार्य होता है। अब वे ‘ठाणापति’ (‘स्थानपति’ अर्थात् एक स्थान पर स्थापित) हो गए हैं।


संघवीजी की दुकान आज भी सैलाना में चल रही है। उनके बेटों ने काम काज सम्हाला हुआ है। किन्तु ‘व्यापार के लिए जीवन नहीं, जीविका के लिए व्यापार’ का सूत्र संघवीजी के साथ ही चला गया है।

किरणजी से बात करते-करते ही मुझे झब्बालालजी जैन (तरसिंग) याद आ गए।  उनकी याद आते ही खुद पर झुंझलाहट हो आई। उनकी याद तो सबसे पहले आनी चाहिए थी। उनके छोटे पुत्र सुभाष भाई जैन मेरे मित्र से आगे बढ़कर मेरे संरक्षक बने हुए हैं - बरसों से। उनके मुँह से उनके पिताजी के बारे में खूब सुना। एक बार उनके दर्शन भी किए। उन पर प्रकाशित पुस्तिका में एक बार उन पर लिखा भी। किन्तु या तो मैं ‘कस्तूरी मृग’ हो गया या फिर ‘अपनेवाले की अनदेखी करने का अपराधी’ बन गया।

रतलाम जिले के ग्राम सुखेड़ा के मूल निवासी झब्बालालजी, रतलाम में ‘स्टेशन दलाल’ का काम किया करते थे - व्यापारियों के सामान/माल को रेल से बाहर भेजने और बाहर से आए सामान/माल को रेल कार्यालय से प्राप्त कर व्यापारियों तक पहुँचाने का काम। वे भी ‘गृहस्थ सन्त’ ही थे। ‘व्यापारिक-आचरण’ इतना साफ-सुथरा, इतना पारदर्शी, इतना विश्वसनीय कि विवाद की किसी भी स्थिति में रेल अधिकारियों के लिए झब्बालालजी की कही बात ‘अन्तिम सत्य’ हुआ करती थी। रेल्वे का ‘अभिलेखीय तथ्य-सत्य’ (रेकार्डेड फेक्ट-ट्रुथ) उनके कहे के सामने अनदेखा कर दिया जाता था।

महावीर का ‘अपरिग्रह’ झब्बालालजी के रहन-सहन और आचरण में साफ नजर आता था। व्यापार उनके जीवन का ‘साधन’ था, ‘साध्य’ नहीं। उन्होंने मन ही मन तय कर लिया था कि उनका व्यापार (टर्न ओवर) जिस वर्ष पन्द्रह हजार का आँकड़ा छू लेगा, उसी दिन वे व्यापार से मुक्ति लेकर साधु बन जाएँगे।

एक दीपावली पर हिसाब करते हुए उन्हें मालूम हुआ कि पन्द्रह हजार का आँकड़ा तो कुछ महीनों पहले ही पार हो चुका! यह जानकारी होते ही उन्होंने अपनी जीवन संगिनी को अपना निर्णय बताकर, सन्यास के लिए उनकी अनुमति माँगी। तत्काल तो नहीं किन्तु अन्ततः अनुमति मिल ही गई। अपने गुरु महाराज के सामने उपस्थित हो, अपना निर्णय और पत्नी की अनुमति की बात कही। गुरु महाराज ने अनुमति नहीं दी। कहा कि अभी झब्बालालजी के बच्चे छोटे हैं। जब तक वे सयाने नहीं हो जाएँ तब तक गुरु महाराज अनुमति नहीं देंगे। गुरु महाराज ने परिहास किया - ‘जिस दिन पन्द्रह हजार का संकल्प लिया था, उस दिन के पन्द्रह हजार का मूल्यांकन आज तो कहीं अधिक होगा। इसलिए, उस दिन के पन्द्रह हजार जिस दिन आज के पन्द्रह हजार बन जाए, उस दिन आना।’ झब्बालाजी खिन्न-मन लौटे। व्यापार में उनका मन फिर कभी नहीं लगा। अन्ततः कुछ बरसों बाद गुरु महाराज को उन्हें सन्यास धारण करने की अनुमति देनी ही पड़ी और उनका नामकरण किया - झब्बा मुनि। उनके इसी स्वरूप में उनके दर्शन, रतलाम में ही किए थे मैंने।

जब तक शरीर ने साथ दिया, झब्बा मुनिजी विचरणरत रहे। वृद्धावस्था के कारण आगर (जिला-शाजापुर) में ‘ठाणापति’ बने। कुछ बरस पहले ही उनका देहावसान हुआ है।

जब व्यापार खूब चल रहा हो, अपेक्षा से अधिक मुनाफा हो रहा हो तब संयमित रह पाना असम्भव नहीं तो दुरुह तो होता ही है। किन्तु ऐसे दुरुह क्षणों में संयमित रह कर, व्यापार को खुद पर हावी न होने देनेवाले लोग ही व्यापार को स्थापना और प्रतिष्ठा दिलाते हैं।

यही भारतीयता है और यही है ‘लक्ष्मी’ और ‘पूँजी’ की विभाजन रेखा।

(यह पोस्ट समाप्त करते-करते ही मुझे ‘कारु मामा’ स्मरण हो आए हैं। ‘खिलन्दड़’ किस्म के ‘कारु मामा’ के बारे में जानकर आपको निश्चय ही अच्छा लगेगा। किन्तु उन पर लिखने से पहले उनका चित्र हासिल करने की कोशिश करूँगा।)

7 comments:

  1. आपके पास तो संस्मरणों का महासागर है.
    और, शुक्र है कि आपको ये सब याद हैं - वो भी तरतीबवार!

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    1. समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्‍या कहूँ। और कोई जाने न जाने, आप तो जानते हैं कि मेरे इस मुकाम के पीछे आप ही हैं।

      त्‍वदीय वस्‍तु तुभ्‍यम् समपर्यामि कृष्‍णा।

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  2. सन्तोष को नियत कर पाना बड़ा कठिन होता है, व्यापार करने से अधिक कठिन है व्यापार छोड़ देना..

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  3. मन बैरागी, तन बैरागी.

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  4. धन्य है वे लोग जो अपनी इच्छाओ और तृष्णाओं पर संतोष की लगाम लगा पाते है।
    संत झ्ब्बामुनि जी की जीवनी से परिचित हूँ, आपके इन प्रेरणास्पद संस्मरणों के लिए आभार!!

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  5. गो धन गज धन वारी धन ,और रतन धन खान
    जब आवे संतोष धन ,सब धन धुरी समान
    ऐसे लोग वंदनीय हैं . सुन्दर संस्मरण के लिए
    धन्यवाद् .

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  6. यही सोच रहा हूँ कि कितने भाग्यशाली हैं आप जो इन सब महापुरुषों को साक्षात देखा है। हम तो आपके मुँह से सुनकर ही धन्य हैं!
    भारतभूमि इसीलिये पावन है।

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