उन्‍होंने अण्‍णा का ईलाज कर दिया

यमुना ब्रिज-रतलाम यात्री गाड़ी से रतलाम आने के जिए मैं नीमच रेल्वे स्टेशन पर खड़ा था। गाड़ी आई। एक स्लीपर डिब्बे के सामने पहुँच, कोच-कण्डक्टर से बैठने की जगह माँगी। उसने कहा - ‘साठ रुपये लगेंगे। रसीद बनेगी।’ यह शर्त मेरे मनोनुकूल थी। ना करने का सवाल ही नहीं था। कण्डक्टर ने कहा - ‘कहीं भी बैठ जाईए। मैं मन्दसौर में आकर रसीद बना दूँगा।’ लगभग पूरा डिब्बा खाली था। मैंने खिड़कीवाली एक सीट पर अपना झोला फैला दिया।

मन्दसौर में कई लोग डिब्बे में चढ़े। तीन लोग मेरे वाले खाँचे (कूपे) में आकर बैठ गए। उनकी बातों ने पहले ही क्षण जता दिया कि वे, सरकारी विभागों से जुड़े, या तो ठकेदार थे या सप्लायर। सरकारी अधिकारियों और बाबुओं की रिश्वतखोरी को लेकर वे उनकी आलोचना भी कर रहे थे और परस्पर परिहास भी। उनकी बातों का निष्कर्ष था कि तमाम सरकारी अधिकारी और बाबू ‘बिकाऊ’ हैं जिनका मूल्य चुका कर उनसे कोई भी काम कराया जा सकता है। उनमें से एक, झबरीली मूँछोंवाला, शायद किसी अधिकारी या कर्मचारी से तनिक अधिक परेशान था। उसका, मोटी रकम का बिल अटक गया था। उसने गुस्से से कहा - ‘स्साले! इन्हें बिलकुल ही शरम नहीं आती। नाजायज पैसा ऐसे माँगते हैं जैसे इनके बाप का माल हो। दीमक की तरह देश को चूस रहे हैं। अण्णा हजारे को आने दो। सबका ईलाज हो जाएगा।’ उसके दोनों साथियों ने उससे सहमति भी जताई और सहानुभूति भी।

गाड़ी सरकी ही थी कि कोच-कण्डक्टर आ गया। सबसे पहले मेरे पास आकर मेरी रसीद बनाई और उन तीनों की तरफ मुड़ा। तीनों ने बीस-बीस रुपये उसकी ओर बढ़ा दिए जो उन्होंने, कण्डक्टर के आते ही अपनी-अपनी जेब से निकाल लिए थे। कण्डक्टर ने कहा - ‘यह क्या है?’ झबरीली मूँछोंवाला खुलकर मुस्कुराते हुए बोला - ‘आपका सेवा शुल्क।’ मेरी ओर इशारा करते हुए कण्डक्टर उनसे बोला - ‘अभी आपने देखा नहीं? इन साहब की, साठ रुपयों की रसीद बनाई है।’ जवाब आया - ‘हाँ। देखा। तो?’ कण्डक्टर ने जवाब दिया - ‘तो क्या? आप भी साठ-साठ रुपये निकालिए। रसीद बनेगी।’ इस बार दूसरा बोला - ‘आज सवेरे ही तो बीस-बीस रुपये देकर आए हैं!’ कण्डक्टर ने कहा - ‘सुबह आपने किसके साथ क्या किया, आप जानो। मैं अपनी बात कर रहा हूँ। साठ-साठ रुपये निकालिए और रसीद बनवा लीजिए वर्ना पाँच-पाँच सौ रुपयों का फाइन भी भरना पड़ जाएगा।’ सुनकर तीनों सहम गए। सौ रुपयों का नोट बढ़ाते हुए, इस बार तीसरा बोला - ‘चलिए! न आपकी और न हमारी। यह रखिए।’ कण्डक्टर ने घूर कर, तनिक कठोरता से कहा - ‘आपको बात समझ में नहीं आ रही? रसीद बनेगी। बस।’ तीनों तनिक अधिक सहम गए। कुछ क्षणों के मौन के बाद झबरीली मूँछोंवाला मन्द स्वरों में ऐसे बोला जैसे मिमिया रहा हो - ‘चलिए! आप खुश हो जाईए। दो की रसीद बना दीजिए।’ कह कर उसने, तीसरे के हाथ से सौ का नोट लिया और अपनेवाले बीस रुपयों के नोट के साथ, एक सौ बीस रुपये कण्डक्टर की ओर बढ़ा दिए। कण्डक्टर ने नोट लिए, जेब में रखे और आगे बढ़ने लगा। झबरीली मूँछोंवाले ने कहा - ‘रसीद?’ कण्डक्टर ने उसकी ओर देखे बिना, लापरवाही से जवाब दिया - ‘रसीद तो तीनों की बनेगी। बोलो! बनाऊँ?’ झबरीली मूँछोंवाला मानो सकते में आ गया। कोई जवाब देते नहीं बना। कण्डक्टर ने एक  पल प्रतीक्षा की और तीनों की चुप्पी  अपनी पीठ पर लादे आगे बढ़ गया। जब वह हमारेवाले खाँचे (कूपे) से तीसरेवाले खाँचे में में चला गया, इतनी दूर कि यहाँ की बात वहाँ सुनाई न दे, तो झबरीली मूँछोंवाला आपे से बाहर हो गया। भुनभुनाते हुए बोला - ‘स्साला। भ्रष्ट। देखा? एक सौ बीस रुपये जेब में रखते हुए और रसीद बनाने से इंकार करते हुए उसके चेहरे कहीं शरम नजर आई? रुपये जेब में ऐसे रख लिए जैसे उसके बाप का माल हो।’ उसके दोनों साथी, उससे पहले ही उससे सहमत थे। तीनों के तीनों गुस्से में भी थे और हतप्रभ भी। उन्हें लग रहा था कि कण्डक्टर उन्हें बेवकूफ बना गया है। उन्हें कुछ भी समझ नहीं पड़ रहा था। तीनों ही, कसमसाते हुए चुप हो गए थे।

गाड़ी जावरा पहुँची तो भीड़ का रेला डिब्बे में चढ़ आया। कोई सीट खाली नहीं रह गई थी। गाड़ी चली तो झबरीली मूँछोंवाला ऊँचा-नीचा होने लगा। उसे असहज देख दूसरे ने पूछा - ‘क्या बात है? क्या हुआ?’ झबरीली मूँछोंवाला बोला - ‘कण्डक्टर को देख रहा हूँ। देखता हूँ, किस-किसकी रसीद बनाता है? नहीं बनाता है तो परेड ले लूँगा स्साले की। अपन ही मिले थे भ्रष्टाचार की वसूली के लिए?’ दूसरा उससे तनिक अधिक समझदार निकला। हँसकर बोला - ‘अपन भी तो बीस-बीस रुपयों की बेईमानी करके बैठे हुए हैं। तुझे बुरा इस बात का लग रहा है कि तेरे हिसाब से उसने अपने से बीस-बीस रुपये ज्यादा ले लिए। चुपचाप बैठा रह वर्ना सबकी रसीद बनवाने के चक्कर में अभी साठ रुपये और लग जाएँगे।’ झबरीली मूँछोंवाले को बात तो समझ में आ गई, वह चुप भी हो गया किन्तु उसका गुस्सा कम नहीं हो रहा था। वह बार-बार गर्दन घुमा-घुमा कर कोच-कण्डक्टर को तलाश करता रहा।

गाड़ी ने रतलाम से ठीक पहलेवाला स्टेशन, धौंसवास पार किया और फिर भी कोच-कण्डक्टर नहीं आया तो झबरीली मूँछोंवाले का धैर्य छूट गया। अपना दाँव (बारी) आते ही खेल खत्म हो जाने की घोषणा सुनकर कोई बच्चा जिस तरह से चिल्लाता और झल्लाता है, बिलकुल उसी तरह, झबरीली मूँछोंवाला मानो चित्कार उठा - ‘अपन तीनों के तीनों बड़े शाणे (सयाने/चतुर) बनते हैं लेकिन हैं गधे। अरे! थोड़ी देर और उस भ्रष्ट कण्डक्टर को बहलाते रहते तो जावरा आ जाता और फिर उसके बाप की हिम्मत नहीं होती अपने से पैसे लेने की। अपन देख ही रहे हैं कि जावरा से पूरा डिब्बा स्लीपर से जनरल कोच बन गया है। वह किस-किस से पैसे लेता? सब मिल कर उस स्साले की शकल बिगाड़ कर रख देते। ऐसी हालत कर देते उस हरामखोर की कि बाकी जिन्दगी भर रसीद बनाना भूल जाता।’

कुछ ही मिनिटों में गाड़ी रतलाम स्टेशन पहुँची। सब जल्दी-जल्दी उतरने लगे। अपने दोनों साथियों के साथ झबरीली मूँछोंवाला भी उतरा किन्तु इस तरह मानो उसकी दुनिया लुट गई हो या कि उसे सबके सामने मूर्ख साबित कर दिया गया हो।

मैं सबके बाद उतरा। प्लेटफार्म पर पाँव रखते ही मुझे लगा - पता नहीं, अण्णा किस-किसका ईलाज कब करेंगे। फिलहाल तो इन्होंने अण्णा का ईलाज कर दिया।
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4 comments:

  1. सचमुच यही स्थिति हैं ... जब तक अपने गिरेबां में झांकने का कोई प्रभावकारी आन्दोलन या जरिया या इच्छाशक्ति नहीं जागेगी ... बुरे आचरण से निपटना कोई खेल नहीं ... !!

    दूसरों को ठगने पर यूँ आभास हो शायद की सुख उपजा पर अंततः दुःख से मुक्ति कहाँ ? कबीरदास जी भी यही समझाते हैं /

    कबीर आप ठगाइये और न ठगिये कोय /
    आप ठगे सुख उपजे , और ठगे दुखः होय //

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  2. बहुत दुर्गत होती है उनकी जो हर स्थिति के लिये नया नियम लिये घूमते हैं।

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  3. फेस बुक पर श्री हिमांशु राय, भोपाल की टिप्‍पणी -

    "अत्यन्‍त सटीक। कई पन्‍थ, धर्म, और धाराओं में ये एक नई धारा है जो कमोबेश सभी जगह देखने में आती है। इन्हें कभी कभी में विध्न-सन्‍तोषी कह देता हूँ क्योंकि ये किसी भी व्यवस्था से सन्‍तुष्ट नहीं होते और इनकी मानसिक व्यवस्था सन्‍तुलित नहीं होती।

    विषय पर सटीक प्रहार तो आपसे सीखने को मिलता ही है पर हर बार की तरह कुछ नया आपकी कलम देती है व्यंग्य के रूप में। जैसे किसी समय में झबरीले बाल या मूँछें संजीदगी का प्रतीक होती थी आज कल ऐसे लोग प्रहसन केन्द्र बने हुए है।"

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  4. फेस बुक पर श्री अमित चौधरी, आलोट(जिला-रतलाम) की टिप्‍पणी -

    ''ऐसे ही लोग तो अण्‍णा के आन्‍दोलन में भी आगे थे।''

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