समय, मनुष्य और मेरी उलझन

कल जो कुछ हुआ उससे उलझन में हूँ। बड़ा या कि बलवान कौन है - समय या मनुष्य?
 
कल रात ‘वे’ आए थे। बरसों से उन्हें देखता आ रहा हूँ। सम्पन्नता के सहोदर थे। आर्थिक सहायता की अपेक्षा में लोग उनके सामने पंक्तिबद्ध खड़े रहते थे। सब कुछ ठीक ही चल रहा था। किन्तु नहीं, कब, क्या हुआ कि दशा बदल गई। आज वे ‘विपन्न’ तो नहीं हैं किन्तु ‘भरे-पूरे’ भी नहीं रहे। उनके रहन-सहन और कपड़े-लत्तों से काफी-कुछ समझ में आ जाता है। उनके कहे बिना ही। कल के ‘दाता’ को आज ‘याचक-मुद्रा’ में देखना मुझे असहज भी कर रहा था और भयभीत भी।
 
घुमा-फिरा कर उन्होंने जो कुछ कहा उसका एक ही अर्थ था - उन्हें आर्थिक सहायता चाहिए थी। मुझे सिहरन हो आई। मैं भी किसी के लिए आर्थिक सहायता का अपेक्षा-बिन्दु हो सकता हूँ! मुझसे जो बन पड़ा, किया। रुपये हाथ में लेते-लेते वे रो पड़े। बोले - ‘आपने तो मुझसे कभी एक पैसे की मदद नहीं ली लेकिन मुझे मदद कर रहे हैं। दूसरी तरफ वो लोग हैं जिनकी मैंने बार-बार मदद की लेकिन आज जब मैं तंगी में हूँ तो मेरी ओर देख ही नहीं रहे हैं। माँगने पर भी मदद नहीं कर रहे हैं।’ यह स्थिति मेरे लिए और अधिक कष्टदायक थी। मैं पहले से ही असहज था और अब यह क्षण? उन्हें तसल्ली देने से पहले खुद को संयत करना जरूरी था। तनिक कठिनाई से उन्हें तसल्ली दी। ढाढस बँधाया। कहा कि जब ‘वह समय’ नहीं रहा तो ‘यह समय’ भी नहीं रहेगा। बस! हाथ-पाँव मारते रहें। गहरी और लम्बी निश्वास छोड़ते हुए वे बोले - ‘आप कह तो ठीक रहे हैं लकिन अब यही कर पाना तो मुमकिन नहीं हो पा रहा।’ उनका यह जवाब मुझे अच्छा नहीं लगा लेकिन चुप रहा गया।
 
वे तो चले गए लेकिन मुझे मोहनजी याद आ गए।
 
बात पुरानी तो है किन्तु बहुत पुरानी नहीं। मैं अलकापुरी में रहता था। दिसम्बर की, हाड़ जमा देनेवाली ठण्डी रात थी वह। रात एक बजेवाली गाड़ी से हमें बाहर जाना था। ऑटो रिक्शा की तलाश में सज्जन मील आया। दो ऑटो रिक्शा खड़े थे। एक खाली था। दूसरे में, पीछेवाली सीट पर एक आदमी सो रहा था। उसे उठाया। पूछा - ‘स्टेशन चलोगे?’ ताबड़तोड़ जवाब मिला - ‘हाँ। हाँ। जरूर चलेंगे सा’ब। इसीलिए तो आधी रात में यहाँ खड़े हैं।’ मैं भाव-ताव करने लगा तो वह बोला - ‘अपनी आत्मा की बात सुनकर आप जो भी देंगे, वही मेरा भाड़ा होगा। बेफिकर रहिए! मैं कोई बहस नहीं करूँगा। बस! मौसम, वक्त और आपकी जरूरत के आधार पर तय कीजिएगा।’ स्कूटर पर आगे-आगे मैं और पीछे-पीछे ऑटो रिक्शा।

घर के छोटे से आँगन में मैंने अपना स्कूटर खड़ा किया। तब तक मेरी उत्तमार्द्ध और बच्चे, सामान लेकर बाहर आ चके थे। दरवाजे पर ताला लगा कर ऑटो रिक्शा में सामान रखते हुए, ऑटो चालक की शकल देखते ही मैं जड़ हो गया। मेरी रीढ़ की हड्डी में सिहरन हो आई और हाड़ जमा देनेवाली उस ठण्ड में भी मुझे पसीना आ गया। वे मोहनजी थे। मोहनजी - पत्रकारितावाले अपने समय में मैं जिनके दफ्तर के बाहर, विज्ञापन माँगनेवालों की कतार में खड़ा रहा करता था! मोहनजी - विशाल कारोबारी संस्थान के स्वामी और बीसियों कर्मचारियों के नियोक्ता! मोहनजी - जिनके साथ चाय पीने का प्रसंग हमारे लिए उल्लेखनीय होता था! वही मोहनजी इस दशा में? मेरी घिघ्घी बँध गई। मेरी यह दशा देख, मोहनजी हँसे। मेरे हाथ से सामान लेते हुए बोले - ‘चौंकिए मत। मैं मोहन ही हूँ। मैंने तो आपको वहीं, सज्जन मील के सामने ही पहचान लिया था। जल्दी कीजिए। बैठिए। अभी तो यात्रा कीजिए। लौट कर मिलिएगा। तभी बात करेंगे।’ तब तक मेरी साँस में साँस आ चुकी थी। हकलाते हुए बोला - ‘मोहनजी! यह क्या? आप इस दशा में?’ वे बोले - ‘सब बता दूँगा। पहले आप बैठिए और स्टेशन चलिए।’

हम सब बैठे। उन्होंने एक झटके में ऑटो स्टार्ट किया। लेकिन मुझसे रहा नहीं जा रहा था। बोला - ‘मोहनजी! कुछ तो बताइए।’ पूरी सहजता से (मैं उनकी शकल नहीं देख पा रहा था किन्तु उनकी संयत आवाज से लग रहा था कि वे हँस रहे हैं) बोले - ‘बखत-बखत की बात है बैरागीजी! कभी घी घणा तो कभी मुट्ठी चणा। सब ठीक हो जाएगा। जब वो बखत नहीं रहा तो यह बखत भी नहीं रहेगा।’
 
मैं यात्रा पर गया तो जरूर लेकिन उन पाँच दिनों में मोहनजी की शकल आँखों के सामने बराबर बनी रही। लौटते ही मोहनजी को तलाश किया। आसानी से मिल गए। कोई घण्टा-सवा घण्टा हम साथ-साथ बैठे। जैसा उन्होंने बताया, कुछ निर्णय गलत हो गए और कारोबार की दशा-दिशा बदल गई। जिन कम्पनियों के सामान की एजेन्सी ले रखी थी, उनमें से कुछ कम्पनियों ने दूसरे व्यापारियों को समानान्तर एजेन्सियाँ दे दीं। मोहनजी की ‘डिपाजिट मनी’ लौटाने में जानबूझ कर देर की। लोगों/कर्मचारियों ने हवा देख कर अपने मचानों की दिशा बदल ली। मोहनजी अकेले भी पड़ गए और संसाधनविहीन भी हो गए। एक दिन अपना बचा-खुचा समेट कर, यहाँ चले आए। कुछ दिनों तक किराए पर लेकर ऑटो चलाया। बाद में खुद का ऑटो खरीद लिया। लेकिन वे रुके नहीं। जो कुछ कर रहे थे, वह मुकाम हासिल करने की जुगत मात्र था।

उनसे मिलना बना रहा। कभी मैं उनके पास चला जाता। कभी वे मेरे घर आ जाते। एक दिन बोले - ‘आज ऑटो बेच दिया है।’ मेरे कस्बे की एक बड़ी, अग्रणी, स्थापित और प्रतिष्ठित व्यापारिक पेढ़ी पर उन्हें प्रमुख मुनीम का काम मिल गया था। कुछ ही महीनों बाद उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और छोटी सी दुकान में ‘जनरल स्टोर’ शुरु कर दिया। उनके इस स्टोर पर मैंने पाँच-सात बार चाय पी। कोई दो-ढाई साल में यह दुकान छोटी पड़ गई। उन्होंने जैसे-तैसे पासवाली, खाली पड़ी दुकान ले ली। उनका जनरल स्टोर धड़ल्ले से चल पड़ा था। उन्होंने ‘मोहन सेठ’ की हैसियत हासिल कर ली थी। लगभग तीन बरस बाद, एक शाम वे आए - ढाई सौ ग्राम मिठाई का डिब्बा हाथ में लिए। बोले - ‘मुँह मीठा कीजिए। कल दुकान का सौदा कर दिया है। अच्छे पैसे मिल गए हैं। साज-सामान, घर-गिरस्ती समेट कर दस-बीस दिनों में गाँव लौट जाऊँगा। यहाँ आपके साथ ने हिम्मत और ताकत दी।’

मैं कुछ भी कह दूँ, कितना ही लिख दूँ किन्तु तब भी मेरी मनोदशा व्यक्त नहीं हो पाएगी। बरसों की इस अवधि में मैंने उन्हें एक बार भी निराश, थका, निरुत्साहित नहीं देखा। उनके मुँह से कभी, किसी की, कोई शिकायत नहीं सुनी। मैंने कहा - ‘मोहनजी! और कुछ नहीं, एक बात बताइए। अपने अच्छे वक्त में आपने अनेक लोगों को उपकृत किया। आपके इस समय में उनमें से किसी ने आपकी मदद की? आपने किसी से मदद माँगी?’ सदैव हँसते रहनेवाले मोहनजी अचानक ही गम्भीर हो गए। बोले - ‘बैरागीजी! मैंने क्या किसी की सहायता की या क्या किसी पर उपकार किया? सबको अपने-अपने भाग्य का मिला। मैं तो निमित्त मात्र था। रहा सवाल किसी से मदद माँगने या मिलने का तो मेरा मानना रहा कि सबको मेरी दशा मालूम थी। जिसे मदद करनी होती, मेरे बिना कहे/माँगे ही कर देता और जिसे नहीं करनी होती वो मेरे माँगने पर भी नहीं करता। इसलिए मैंने किसी से कुछ नहीं कहा। इसके बावजूद कुछ मित्रों ने मेरे माँगे बिना मेरी मदद की। और मदद केवल रुपये-पैसों से ही तो नहीं होती! मेरे इन दिनों में आप मुझसे बराबर मिलते रहे। मेरे साथ बैठते रहे। मेरे सुख-दुःख बाँटते रहे। यह भी तो मदद ही है। मेरा तो मानना है कि मुझे तो सबने मदद की। मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं। सब प्रभु इच्छा।’

मोहनजी अपने देस लौट गए। उनका कारोबार फिर अच्छा-भला चल रहा है। पहले जैसी बात तो नहीं है किन्तु तीन कर्मचारियों के नियोक्ता बने हुए हैं।

सोच रहा हूँ - एक ‘वे’ हैं जिनके पास शिकायतें ही शिकायतें हैं और एक मोहनजी हैं जिनके पास शिकायतों के लिए न तो वक्त हैं और न ही विचार और जिन्‍होंने अपनी कर्मठता/पुरुषार्थ से अपनी खोई हैसियत हासिल कर ली।

इन दोनों उदाहरणों ने ही मुझे उलझन में डाल रखा है।
 
बड़ा या बलवान कौन है - समय या मनुष्य?

10 comments:

  1. सच में मोहनजी एक आदर्श है
    "कभी घी घणा तो कभी मुट्ठी चणा।"

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  2. मोहन जी के पुरुषार्थ को सादर नमन !

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  3. मोहन जी के पुरुषार्थ को सादर नमन !

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  4. शिकायतों में उलझ जाना सरल है, उपयोगिता उनमें न उलझने से ही है।

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  5. आप कुछ भी कहें पर जमाना/व्यवस्था ठीक नहीं जिस में कर्मठ को भी सजाएँ मिलती हैं।

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    1. मैं तो समय और मनुष्‍य में ही झूल रहा था। आपने तो 'जमाना/व्‍यवस्‍था' का तीसरा कारक प्रस्‍तुत कर दिया। मेरी उलझन और बढ गई।

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  6. बड़ा या बलवान कौन है - समय और मनुष्य दोनों ही बड़े और बलवान होते है -बस समय-समय की बात है । हाँ मोहन जी के जज़्बे को सलाम ... जो समय को बलवान देखकर भी निर्बल न हो वो ही बड़ा होता है ।

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    1. यदि बात 'समय-समय' की ही है तब तो समय ही बलवान हुआ।

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  7. फेस बुक पर श्री हिमांशु रॉय, भोपाल की टिप्‍पणी -

    आँख भर आई मोहन जी पर गर्व करते करते। आज राष्ट्र कवि की इन पंक्तियों को आपने सार्थक कर दिया -

    नर हो न निराश करो मन को
    कुछ काम करो कुछ काम करो
    जग में रहके निज नाम करो ।
    यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
    समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो ।
    कुछ तो उपयुक्त करो तन को
    नर हो न निराश करो मन को ।।

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  8. समय अपनी गति से चलता है पर मनुष्य अपनी कर्मठता से सक्षम होता है ... शिकायत करने के बजाए स्वयं पर विश्वास होना चाहिए ... मोहन जी के विचार बहुत अच्छे लगे ...

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