मेरा फलसफा और मेरा इम्तिहान

कल अपराह्न, मोबाइल की घण्टी से झपकी खुली। उन्होंने न तो अपना नाम बताया और न ही शहर का। मेरी, कलवाली पोस्ट का हवाला देते हुए बोले - ‘आपकी बातें सच कम और नसीहतें ज्यादा लगती हैं। अच्छी तो लगती हैं लेकिन विश्वास नहीं हो पाता। सच-सच बताइए! आपकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं होता?’ मैंने कहा - ‘होता है। किन्तु यथासम्भव कम से कम। किन्तु मैंने ब्लॉग में जो कुछ भी लिखा है, वह सब सच है। लेकिन आपका यह सोचना सही है कि मेरी कथनी-करनी में अन्तर होता है।’ बोले - ‘आपका यह कबूलनामा सुनकर लगता है कि आप सच ही बोल रहे होंगे। आप दो-एक बातों की मिसाल दे सकते हैं जिनके लिए आपने ब्लॉग पर फलसफा झाड़ा और जिन पर आपने अमल किया हो?’ मैंने कहा - ‘आप यदि कोई मुद्दा या विषय साफ-साफ बताएँ तो शायद कुछ बता सकूँ।’ बोले - ‘ आज आपने बच्चों को तहजीब और तमीज सिखाने का जो फलसफा झाड़ा है, उसी मुद्दे पर बता दीजिए। आप मुझे फोन पर मत बताइए। ब्लॉग पर ही लिख दीजिएगा। और हाँ! अपना यह कबूलनामा भी जाहिर कीजिएगा।’ मैंने उनका नाम जानना चाहा तो शेक्सपीयर बन गए। बोले - ‘नाम में क्या रखा है। आप तो बरा-ए-महरबानी, जो कहा है, उसे अपना इम्तिहान समझ कर, कर दिखाएगा।’

ईश्वर के सिवाय और कोई साक्षी नहीं है इस सम्वाद का। इसलिए, यह सचमुच में परीक्षा है - मेरी व्यक्तिगत ईमानदारी की। अब यह बात अर्थहीन ही है कि वे कौन थे और कहाँ से बोल रहे थे। इतना अवश्य अनुभव कर रहा हूँ कि वे, इस मामले में मेरी पोस्ट की प्रतीक्षा अवश्य करेंगे।
कई बातें बता सकता हूँ इस मुद्दे पर। किन्तु यहाँ दो-तीन बातें ही रख रहा हूँ - बानगी के तौर पर।

हिन्दी के प्रति मेरा ‘दुराग्रह’ सार्वजनिक है। मेरे दोनों बेटे अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते थे। मैंने दोनों को भरपूर समझाया। छोटे-छोटे उदाहरण देकर। कभी विदेशियों के तो कभी भारतीयों के। कभी अखबारों से तो कभी पत्रिकाओं/टी वी से। पूरे दो वर्ष लगे मुझे अपनी बात समझाने में। अन्ततः मुझे सफलता मिली और गए कुछ बरसों से वे दोनों हिन्दी में हस्ताक्षर कर रहे हैं। दोनों में नौ वर्ष का अन्तर है। बड़े का जन्म 1980 में और छोटे का जन्म 1989 में हुआ। अनुमान लगाया जा सकता है छोटे बेटे को समझाना कितना कठिन रहा होगा। किन्तु सफलता मिली।

मेरे पास दुपहिया वाहन आया तब बड़ा बेटा आठ-साढ़े आठ वर्ष का था। पता नहीं वह मेरी बात समझता भी था या नहीं, किन्तु मैं यह बात बार-बार कहता रहता था कि अठारह वर्ष से कम आयु के बच्चों का वाहन चलाना गैर कानूनी है। वह जब नवीं कक्षा में गया तो वाहन चलाने के लिए उसके हाथ कसमसाने लगे। लेकिन मैं नहीं पिघला। पड़ौसियों ने मुझे खूब ‘समझाया’ किन्तु मैं नहीं समझा। इस मामले में मेरी उत्तमार्द्ध ने, मुझसे भी अधिक दृढ़ता से मेरा साथ दिया। मैं जानता था कि मेरा बेटा, अपने मित्रों के वाहन चलाता है। किन्तु वह डरता था कि ऐसा करते हुए मुझे नजर न आ जाए। मैं उसे बराबर टोकता था कि वह अनुचित कर रहा है और कभी पकड़ा गया तो मैं उसकी सहायता के लिए नहीं आऊँगा। यातायात प्रभारी मेरा परिचित था। मैंने उससे कह रखा था कि मेरा बेटा कभी वाहन चलाते हुए पकड़ा जाए तो उस पर जुर्माना अवश्य करे। एक बार ऐसा हुआ भी। यातायात प्रभारी ने मुझे बताया। किन्तु मेरे कुछ कहने से पहले ही इस घटना की सूचना देकर मेरे बेटे ने मुझे निहाल कर दिया। उसके बाद उसने वाहन तभी चलाया जब वह अठारह बरस का हो गया। मैंने इतनी सावधानी अवश्य बरती कि जैसे ही वह सोलह वर्ष का हुआ, उसका, बिना गीयरवाले वाहन का ड्रायविंग लायसेन्स बनवा दिया था। इसका लाभ यह हुआ कि अठारह बरस का होने पर उसका दूसरा लायसेन्स बनने में देर नहीं लगी। छोटे बेटे को तनिक छूट मिल गई थी। लेकिन स्थितियों में उन्नीस-बीस का ही फर्क रहा और वह भी कानून-कायदों में ही रहा।


 दोनों के लिए मैंने बाल पत्रिकाएँ लगवा रखी थीं। बड़ा बेटा जब नवीं कक्षा में आया तो, चैन्नई से प्रकाशित हो रही, अंग्रेजी मासिक पत्रिका ‘विजडम’ मँगवानी शुरु कर दी। सामान्य ज्ञान से जुड़ी, छोटी-छोटी जानकारियों के मामले में यह पत्रिका मुझे बहुत अच्छी लगी। इसका प्रभाव यह हुआ कि जानकारियों के मामले में मेरे दोनों बेटे अपने सहपाठियों की अपेक्षा अधिक समृद्ध बने रहे। दोनों की हिन्दी पर मुझे अतिरिक्त रूप से ध्यान नहीं देना पड़ा क्योंकि मेरे घर में वातावारण शुरु से ही ‘हिन्दीमय’ है। मैंने बस इतनी सावधानी बरती कि वे जब भी कोई चूक करते, मैं फौरन टोकता। इसका असर यह हुआ कि अपने आयु समूह के बच्चों के बीच मेरे दोनों बेटों की हिन्दी अलग से ही पहचानी जाती रही।

‘आइए’, ‘पधारिए’, ‘कहिए’, ‘बैठिए’, ‘लीजिए’, ‘दीजिए’, ‘पीजिए’ जैसे शब्दों पर अतिरिक्त सतर्कता बरतते हुए ध्यान दिया। जब तक दोनों हमारे साथ रहे, तब तक तो सब ठीक-ठाक ही रहा। अब गए कुछ बरसों से दोनों ही घर से दूर रह रहे हैं। नहीं जानता की वे ‘जस के तस’ हैं या जमाने के हिसाब से बदल गए हैं। लेकिन जब तक हमारे सामने रहे, वैसे ही रहे जैसा कि फलसफा मैंने अपनी कलवाली पोस्ट में झाड़ा है।

एक बात और मैंने दोनों को अनुभव कराई जिसमें भी मेरी उत्तमार्द्ध ने मुझसे आगे बढ़कर सहायता की। घर में फोन की घण्टी जब भी बजती, दोनों में से कोई उठाता और ‘हैलो’ कहते ही, ‘पा ऽ ऽ पा ऽ ऽ आ!’ या ‘म ऽ ऽ म्मी ऽ ऽ ई!’ की हाँक लगाता। मैंने उन्हें टेलिफोन-शिष्टाचार सिखाया और अनुपस्थिति में सन्देश लेकर, उसे पूरा-पूरा सम्प्रेषित करना सिखाया। यह भी सिखाया कि कोई भी काम किसी एक का काम नहीं है। सारे काम, हम चारों के काम है। यदि मैं बीमा करता हूँ तो बाकी तीनों भी यह काम कर रहे हैं। यदि उनकी माँ नौकरी कर रही है तो वह अकेली नहीं, हम चारों ही नौकरी कर रहे हैं। वे दोनों पढ़ रहे हैं तो वे दोनों ही नहीं, उनके साथ-साथ हम दोनों भी पढ़ रहे हैं। एक-दूसरे की सहायता के बिना हममें से कोई भी अपना काम नहीं कर पाएगा - यह बात समझाने की कोशिश की और मुझे यह कहते हुए गर्व और परम् सन्तोष अनुभव हो रहा है कि हमारे बेटों ने हमें कभी निराश नहीं किया।

दोनों ने सूचना प्रौद्योगिकी (आई.टी.) में बी. ई. किया है। बड़े ने एम. बी. ए. भी किया। दोनों जब इंजीनीयरिंग कॉलेज में गए तो दोनों को साफ-साफ बता दिया था कि यदि ‘रेगिंग’ को लेकर उनकी कोई शिकायत आई (फिर भले ही शिकायत झूठी ही क्यों न हो) तो मैं उनके बचाव में खड़ा नहीं होऊँगा, इस निमित्त कोई जुर्माना नहीं भरूँगा और उन्हें कॉलेज से निकलवा कर ले आऊँगा। इस चेतावनी का असर यह हुआ किवे ऐसे बच्चों से जुड़े ही नहीं जो रेगिंग में रुचि रखते थे।
ऐसी असंख्य छोटी-छोटी बातों की पूरी पोथी लिखी जा सकती है। हमारे बेटों से ही हमें यह कहने का विश्वास मिल पाया है कि यदि बच्चों को विश्वास में रखा जाए, उन पर भरोसा किया जाए तो वे बड़ों को कभी निराश नहीं करते।

मुझे लग रहा है, आज के इम्तिहान के लिए इतने जवाब ही काफी होंगे। उत्तीर्ण होने लायक अंक देने में ‘उन्हें’ असुविधा नहीं होगी। फिर भी, यह सब लिखने के अगले ही क्षण से, अपना परिणाम जानने को उत्सुक हो गया हूँ। आशा कर रहा हूँ कि कल की ही तरह, आज भी ‘वे’ मुझे मोबाइल पर घण्टी देंगे और मेरा परिणाम सूचित करेंगे।

तब तक, आप ही बताइएगा कि आप मुझे कितने अंकों का अधिकारी मानते हैं।  

17 comments:

  1. आपके परीक्षक को नहीं पता कि आप कितने लोगों के आदर्श हैं।

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    1. सर्वकालिक फिल्‍म 'मुगल-ए-आजम' में,अनारकली (मधुबाला) को सम्‍बोधित, अकबर(पापाजी, पृथ्‍वीराज कपूर)का एक सम्‍वाद था - ''अनारकली! सलीम तुम्‍हें मरने नहीं देगा और हम तुम्‍हें जीने नहीं देंगे।''

      आपकी टिप्‍पणी पढकर पहले तो गुदगुदी हुई लेकिन अगले ही क्षण उपरोक्‍त सम्‍वाद याद आ गया और मैं धरती पर आ गया।

      (आपकी) ऐसी बातें जिन्‍दगी को आकर्षक भी बनाती हैं और खुद के प्रति सचेत भी करती हैं।

      आभारी हूँ आपका।

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    2. दरअसल आपके परीक्षक आपसे मिले नहीं हैं व्यक्तिगत तौर पर इसीलिए आपकी परीक्षा ले रहे हैं.
      परंतु, यदा कदा लोगों की परीक्षा भी होते रहनी चाहिए. पता चलता है कि कितने पानी में हैं!, और साथ ही पैर जमीन पर गड़ाए रखने का माद्दा भी इन्हीं परीक्षाओं से ही तो हासिल होता है.

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    3. वस्‍तुपरक भाव से की जानेवाली ऐसी बातें इन दिनों 'विरल' हो गई हैं। आपकी बात ने मुझे बडी हिम्‍मत दी रविजी। सचमुच।

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  2. " बच्चों को विश्वास में रखा जाए, उन पर भरोसा किया जाए तो वे बड़ों को कभी निराश नहीं करते ..."

    असल में विश्वाश करना और निभा पाना ही लोक व्यवहार की नींव हैं ... उत्तम पोस्ट वह भी FB पर ... मैं धन्य हुआ .. आभार !!

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  3. विश्वास बहुत बड़ी चीज है, हम भी बहुत कुछ सीख रहे हैं आपसे ।

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    1. यह तो आपका सौजन्‍य और बडप्‍पन है। अभी तो मैं खुद ही सीख रहा हूँ।

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति..!
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (23-12-2012) के चर्चा मंच-1102 (महिला पर प्रभुत्व कायम) पर भी की गई है!
    सूचनार्थ!

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    1. कृपा है आपकी मयंकजी। आभार और धन्‍यवाद।

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  5. aisi post padhke hammai kya mila ......... 'shanti aur santosh'...........aur duniya me is-se adhik kimati kya hai????


    pranam.


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    1. आपने जो कहा है, यदि उसका करोडवॉं हिस्‍सा भी सच है तो यह सचमुच में मुझ पर ईश्‍वर की अनुकम्‍पा है। आपके माध्‍यम से ईश्‍वर बोल रहा है। मैं विगलित हूँ। धन्‍यवाद और आभार।

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  6. फेस बुक पर श्री सुरेशचन्‍द्रजी करमरकर की टिप्‍पणी -

    विष्‍णु के अंक शत प्रतिशत। ऐसे पिता कम हैं जो अपने बच्‍चों को सही चीजें बताते हैं।

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    1. मैंने करमरकरजी को लिखा - 'ऐसी बातें आदमी का दिमाग खराब करती हैं। आप मुझे बिगाड रहे हैं।'

      प्रसंगवश उल्‍लेख है कि करमरकरजी का अनुज और मैं, कक्षापाठी रहे हैं।

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  7. बच्चों पर विश्वास करें तो बच्चे निराश नहीं करते .... हम तो आपसे बहुत कुछ सीख रहे हैं अत: अंक तो आपके परीक्षक ही देंगे ....सार्थक पोस्ट

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  8. पता नहीं क्या प्रभाव होता होगा पर हम तो अपनी मान्यतायें बच्चों को बीच बीच में बताते रहते हैं, जानकारी के रूप में। स्वीकार करना, न करना उन पर निर्भर करता है।

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  9. वल्कल और तथागत दोनों ही मुझे तथा मेरी पत्नी को काकाजी और काकीजी कहकर ही संबोधित करते है और मुझे यह सुनकर अत्यधिक खुशी होती है,क्योंकि आमतौर पर बच्चे अंकल और आंटी से ही संबोधित करते है ।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.