देश बनाने का आधारभूत ‘गाँधी तत्व’

गाँधी तो अचेतन में भी बने रहते हैं किन्तु उनके जीवन की सारी घटनाएँ एक साथ याद रख पाना सम्भव नहीं हो पाता। हाँ, प्रसंगानुसार वे सब याद अवश्य आ जाती हैं। अपने आप ही। कोई विशेष तथा अतिरिक्त प्रयास नहीं करने पड़ते।
 
इन दिनों, नारायण भाई देसाई के विवाह को लेकर बापू का व्यवहार याद आ रहा है। बार-बार। लगातार।
 
गाँधी के लिए ‘अपने’ कभी अपवाद नहीं हो पाए। अपने निर्णयों को बापू स्वयम् पर तो अपनी सम्पूर्ण कठोरता, दृढ़ता और आत्म-बल से लागू करते ही, सब पर भी उसी समानता से लागू करते थे।
 
उन्होंने निर्णय कर लिया था कि वे उसी विवाह समारोह में नव-युगल को आशीर्वाद देने जाएँगे जब एक सवर्ण और दूसरा हरिजन हो। बापू के इस निर्णय के बाद नारायण भाई देसाई का विवाह तय हुआ। वर-वधू, दोनों सवर्ण थे। तब तक महादेव भाई देसाई (नारायण भाई के पिताजी) का देहावसान हो चुका था।
 
महादेव भाई देसाई और गाँधी का रिश्ता किसी विवरण की माँग नहीं करता। फिर भी कहने से रुका नहीं जा रहा। महादेव भाई देसाई को गाँधीजी अपना पुत्र मानते थे और जब महादेव भाई का निधन हुआ तो गाँधीजी ने उन्हें मुखाग्नि दी थी। यह कहते हुए कि ‘वह आजीवन मेरा पुत्र रहा किन्तु आज मैं उसका पुत्र बन कर उसे मुखाग्नि दूँगा।’
 
आज, गाँधी-कथा-वाचन को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर जी रहे नारायण भाई देसाई, उन्हीं महादेव भाई के बेटे हैं।
 
नारायण भाई का, घर का नाम ‘बाबला’ था। बाबला की माँ दुर्गाबाई की चिन्ता थी - बाबला के विवाह में बापू का आशीर्वाद तो चाहिए ही चाहिए। उन्होंने, अपने पारिवारिक हितैषी नरहरि भाई परिख को बापू से बात करने भेजा। ‘बापू! आपसे कुछ प्रायवेट बात करनी है।’ कह कर नरहरि भाई ने समय माँगा। बापू ने सन्ध्या भ्रमण का समय दिया। शाम को, घूमने के दौरान, साथ चलते हुए, भूमिका बनाते हुए नरहरि भाई ने कहा - ‘बापू! अपने बाबला का विवाह तय हो गया है।’ सुनकर बापू ठिठके। अचरज प्रकट करते हुए बोले - ‘अच्छा! बाबला इतना बड़ा हो गया?’ नरहरि भाई ने पूरी बात बताई। यह भी बताया कि दोनों पक्ष सवर्ण हैं। सुनकर और सारी बात समझकर बापू खिलखिलाकर बोलेे - ‘अच्छा! तो दुर्गा ने तुम्हें वकील बनाकर भेजा है। फिर बोले - ‘बाबला तो अपने परिवार का बच्चा है। उसके लिए अपवाद नहीं हो सकता। दुर्गा से कहना, मेरे आशीर्वाद तो बच्चों को मिलेंगे लेकिन उपस्थिति नहीं।’ और बापू विवाह में नहीं गए। ठीक विवाह वाले दिन उनका आशीर्वाद-पत्र वहाँ जरूर पहुँच गया।
 
बापू का कहना था - ‘जो सोचो वही बोलो और जो बोलो वही करो। मन-वचन-कर्म में एकरूपता इसी का तो पर्याय है!
 
लालच, मोह, स्वार्थ दिमाग में चढ़ने पर आदमी के मन पर भय का आवरण चढ़ जाता है। बापू निरावरण थे और यही उन्हें हम सबसे अलग करता है। उन्होंने बड़ी ही सहजता से कहा है - ‘सत्य मेरे लिए सहज था। बाकी गुणों के लिए मुझे प्रयत्न करने पड़े।’
 
इन दिनों, अपराधों-अपराधियों और शासकों-प्रशासकों के व्यवहार के प्रति हमारे आचरण को लेकर मुझ यह प्रसंग चौबीसों घण्टे याद आ रहा है। हम सारी बातों को निरपेक्ष, निरावरण भाव से न देखने का अपराध कर रहे हैं और इसीलिए अपराधविहीन समाज नहीं बन पा रहे हैं।
 
बलात्कार को लेकर इन दिनों यही हो रहा है। देख रहा हूँ कि हमारी चिन्ता का विषय बलात्कार कम और, बलात्कार कहाँ, किसकी सरकार में हुआ है - यह महत्वपूर्ण हो गया है। बलात्कार ही नहीं, सभी प्रकार के अपराध, सर्वकालिक और सर्वदेशीय हैं। कोई भी राज्य, कोई भी अंचल इससे अछूता नहीं है।

मैं मध्य प्रदेश में रह रहा हूँ। उन्नत तकनीक के कारण, राष्ट्रीय अखबार भी स्थानीय बनकर रह गए हैं। राष्ट्रीय समाचार नाम मात्र की संख्या में, प्रदेश के समाचार उनसे तनिक अधिक संख्या में, रतलाम जिले के समाचार उससे अधिक संख्या में और रतलाम कस्बे के समाचार सर्वाधिक संख्या में पढ़ने को मिलते हैं। मैं जानबूझकर, उन अपराध घटनाओं के (विशेषतः, महिलाओं से जुड़ी आपराधिक घटनाओं के) समाचारों की कतरनें फेस बेक पर चिपका रहा हूँ और व्यंग्योक्तियाँ-तीखे कटाक्ष रह रहा हूँ जो मध्य प्रदेश में घट रही हैं। दिल्ली और केन्द्र में काँग्रेसी सरकारें हैं और मध्य प्रदेश में भाजपा की। दिल्ली की और मध्य प्रदेश की, समान स्तर की आपराधिक घटनाओं पर भाजपाइयों की प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग हो रही हैं। अपनी सुविधा और आवश्यकतानुसार, काँग्रेसी भी ऐसा ही करते हैं। और केवल काँग्रेसी या भाजपाई ही क्यों? सबके सब ऐसा ही करते हैं।
जानता हूँ कि ‘वोट’ की राजनीति के चलते ही ऐसा हो रहा है। इस स्थिति पर मुझे न तो हँसी आ रही न ही आवेश-आक्रोश। हाँ, उदासी अवश्य आती है। क्या कोई ‘अपराध’ केवल इसलिए ‘अपराध’ माना जाए क्योंकि वह हमारी विरोधी दल की सरकार के राज में हुआ? क्या वही ‘अपराध’ इसलिए ‘अपराध’ न माना जाए क्योंकि वह हमारी सरकार के राज में हुआ है? क्या सच भी सापेक्षिक हो सकता है? क्या ऐसी ‘सापेक्षिक’ मानसिकता और सोच के चलते हम अपराधविहीन समाज बना सकेंगे और बन सकेंगे?
 
अचरज और कष्ट यह देख कर होता है कि ऐसी स्थिति में ‘सामनेवाले’ की आलोचना करनेवाले, ऐसी ही स्थिति में आए ‘अपनेवाले’ के बचाव में ढेरों ‘किन्तु-परन्तु’ लेकर, चकित कर देनेवाली सहजता से खड़े हो जाते हैं।
 
ऐसे आचरण से वोट हासिल किए जा सकते हैं, सरकारें भी बनाई जा सकती हैं, सरकारें बनाए रखी जा सकती हैं। किन्तु देश नहीं बनाया जा सकता।
 
‘अपनेवाले’ को अपवाद बनाने से हम सरकारें भले ही बना लें, देश नहीं बना सकते। देश बनाने के लिए तो हमें, ‘अपनेवाले’ को अपवाद बनाने से बचना ही होगा।
 

5 comments:

  1. samsamyik aur yuvaon ke liye antyant upyogi margdarshan ...abhar !!

    ReplyDelete
  2. vidambna he ham padosi ke dukh mE APNA sukh khojte he, YA HAM APNE DUKH SE KAM HI DUKHI RAHTE HE JITNA HAME PADOSI KA SUKH DUKHI KARTA HE, BJP WALE ROJANA AKHBAR ME ye KHOJTE HE KI AAJ KOI NAYA GHOTALA AAYA HOGA JISME CONGRESS KA NAAM HO, YA AAJ FIR KOI GALAT BAYAN HO JO CONGRESS RELATED HO,YA APRADHI CONGRESS RELATED HO. CONGRESS BHI YAHI KHOJTI HE KI IS BAAR SAMUHIK DUSHKARMA BJP SHASIT PARADESH ME HO , ya MATBHED , ZAGDA HO TO BJP ME HO, CONGRESS DESH KI TARAKKI KARE TO USME GHOTALE KHOJTE HE, BJP ACHCHHA KAAM KARE TO USE KENDRA KI YOJNA OR ANUDAN BATATE HE , "ham kare to FASHION tum KARO TO DIMAG KAM" APVAD HAMESH NIJI MAMLO ME HI KIYA JANE WALA HO GAYA HE SARVJANIK MAMLO ME KEWAL "virodh"

    ReplyDelete
  3. आपके बेबाक कथन और गांधी जी के जीवन के अनछुए प्रसंग पर प्रकाश के लिए प्रणाम .

    ReplyDelete
  4. एक सिद्धान्त, सर्वप्रयुक्त, कोई किन्तु परन्तु नहीं।

    ReplyDelete
  5. जिस दिन नेता और सरकार के नुमाइंदे पार्टी से परे हटकर देश के बारे मे सोचने लगेंगे,उस दिन समझ लेना कलयुग बिदा हो रहा है ।

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.