पार्टनरशिप डीड वो बनवाए जो चोर हो



मैं मुश्किल में हूँ। 

चाह रहा हूँ कि गुल्लू भैया की बातें उन्हीं की जबानी कहूँ। लेकिन गुल्लू भैया ने जो कुछ कहा, वह मुझे न तो शब्दशः याद है और न ही मैंने उनके नोट्स लिए, इसलिए ऐसा करना न तो सम्भव है और न ही उचित। लेकिन यदि मैं अपनी जबान में वह सब कहूँ तो मुझे खुद को लग रहा कि बात लम्बी भी हो जाएगी और शायद बनावटी भी। सो, गुल्लू भैया से माफी माँगते हुए और आप सबकी ‘जबरिया अनुमति’ लेते हुए, सुनी-सुनाई सारी बातों को गुल्लू भैया की जबानी ही पेश कर रहा हूँ।

जो कुछ गुल्लू भैया ने कहा, वह कुछ इस तरह था -

“जब से मैंने होश सम्हाला, अपने वालिद (अब स्वर्गीय श्री एहमद अली स्टेशनवाला) को रतलाम के ‘मुकाम और मरतबा  हासिल’ कारोबारियों में पाया। वे केवल रेलवे के ठेके लेते थे। स्टेशनवाले इलाके मे ही मिठाइयों की एक दुकान थी। बयाना (राजस्थान) के रहनेवाले गिरिराजजी शर्मा उसके मालिक थे। वे ‘गिरिराज महाराज’ के नाम से ही जाने और पुकारे जाते थे। वे मेरे वालिद के बेहद करीबी दोस्त थे।

“एक बार रेल्वे की कोयला चूरी का टेण्डर निकला। मेरे वालिद ने बातों ही बातों में गिरिराज महाराज से कहा कि यह ठेका लेना मुनाफे का सौदा होगा। यदि वे (गिरिराज महाराज) चाहें तो इसमें भागीदार बन जाएँ। वालिद ने तो एक मशवरा दिया था। लेकिन, पता नहीं महाराज ने क्या सुना, क्या समझा कि सीधे बयाना गए और वहाँ की अपनी सारी जमीन-जायदाद-दुकान वगैरह बेच कर स्थायी रूप से रतलाम आ गए। 

“खैर, वालिद की और गिरिराज महाराज की भागीदारी में काम शुरु हुआ और खुदा के करम से नतीजे उम्मीद के मुताबिक मिले। काम धीरे-धीरे बढ़ने लगा और इतना बढ़ा कि रतलाम से बाहर शामगढ़ (म.प्र.), कोटा, गंगापुर (दोनों राजस्थान) और आगरा तक एस्टिब्लिशमेण्ट कायम करने पड़े।

“लेकिन वालिद ने सब जगहों पर अकेले काम नहीं किया। जहाँ-जहाँ काम किया, वहाँ-वहाँ भागीदारी फर्म या कम्पनी बनाई और सब जगहों पर स्थानीय लोगों से भागीदारी की। इस तरह वालिद चार कम्पनियों में भागीदार रहे। कम्पनियों में भागीदारों की तादाद हालात और सहूलियत के मुताबिक रही। एक कम्पनी में सबसे ज्यादा 13 भागीदार रहे तो एक कम्पनी में सबसे कम चार।  

“इन भागीदारी कम्पनियों की दो बातें आज के जमाने में यकीन से परे लगेंगी। पहली बात यह कि चारों कम्पनियों में केवल वालिद ही दाउदी बोहरा थे। बाकी सबके सब हिन्दू भागीदार थे। और दूसरी बात इससे भी अधिक अहम, काबिले गौर और मुश्किल-यकीन वाली है। इन कम्पनियों की पार्टनरशिप डीडें तभी बनवाईं गईं जब कानूनी तौर पर (और खास कर इनकम टैक्स के लिए) जरूरी हुआ।

“एक वाकये से बात शायद ज्यादा साफ होगी।

“आजादी के बाद जब इनकम टैक्स लागू हुआ तो इन्दौर से पेण्डसे वकील साहब ने रतलाम आकर यहाँ, इन्दौर धर्मशाला में मुकाम जमाया। उन्होंने वालिद से मुलाकात की। सारी बातें समझाईं। जब कागज-पत्तर की बात आई तो पेण्डसे साहब ने पार्टनरशिप डीड की कॉपी माँगी। वालिद ने बताया कि पार्टनरशिप डीड न तो बनवाई गई है और न ही बनवाई जाएगी। पेण्डसे साहब ने कहा कि अब तक नहीं बनी है तो अब बनवानी पड़ेगी। पेण्डसे साहब की यह बात वालिद को अच्छी नहीं लगी। तुनक कर बोले - ‘जो चोर हो वो पार्टनरशिप डीड बनवाए। हम पार्टनरों में से कोई भी चोर नहीं है।’ वालिद की जिद के चलते अपनी बात समझाने में पेण्डसे साहब को काफी मुश्किल आई। उन्हें कहना पड़ा कि वे (मेरे वालिद) रतलाम के, अपने भरोसे के वकील से उनकी (पेण्डसे साहब की) बात की ताईद कर लें। आखिरकार वालिद को पार्टनरशिप डीड बनवानी ही पड़ी लेकिन यह काम करने में उन्हें बड़ी तकलीफ हुई।

“गिरिराज महाराज से वालिद की पार्टनरशिप, कहने भर को पार्टनरशिप थी। दोनों परिवारों की दोस्ती पूरे रतलाम में अजूबा थी। ‘स्टेशनवाला’ और ‘शर्मा’ सरनेम के कारण ही दोनों परिवार अलग थे लेकिन हालत यह थी कि दोनों ने एक ही कुटुम्ब बन कर व्यवहार किया। महाराज के यहाँ जब भी शादी-ब्याह का मौका आया तो समधियों की मिलनी-रस्म के लिए  महाराज ने सबसे पहले मेरे वालिद को पटले पर खड़ा किया। और हमारे यहाँ जब भी ऐसा मौका आया, तब गिरधारी महाराज को यही इज्जत दी गई।”

इन दोनों परिवारों की भागीदारी तीन पीढ़ियों तक चली। रियाज और जफर (रियाज को आप पहली कड़ी में जान चुके हैं। जफर, गुल्लू भैया का छोटा बेटा है।) बताते हैं कि गिरिराज महाराज के पोते और ये दोनों भाई (एहमदअली साहब के पोते) साथ-साथ भगीदार रहे। आज यह भागीदारी अस्तित्व में नहीं हैं लेकिन इसकी वजह कोई विवाद या असहमति नहीं। इस भागीदारी में जो कारोबार किया जाता था, वह कारोबार ही बन्द हो गया। लिहाजा, भागीदारी फर्म विसर्जित करनी पड़ी।

गुल्लू भैया बोलेे - “लेकिन खुदा का करम है कि दोनों परिवारों का नाता आज भी जस का तस बना हुआ है। आप भी दुआ कीजिए कि हमारा यह रिश्ता बना रहे और इसे किसी की नजर न लगे।”

इस मुकाम पर आते-आते गुल्लू भैया तनिक भावुक हो गए। जो कुछ सुना, वह मुझे भी भावाकुल कर गया। जानने-सुनने की मेरी प्यास, तलब की हदें छू रहीं थीं। लेकिन मुझे लगा, गुल्लू भैया कहीं इस दशा में न आ जाएँ कि मेरा मकसद अधूरा रह जाए। इसी स्वार्थ के चलते बोला - ‘अब थोड़ा रुकिए। मुझे एक ग्लास पानी पिलवाइए और चाय भी।’

गुल्लू भैया ‘नम हँसी’ हँस दिए। बोले - ‘मुझे सम्हाल रहे हैं? शुक्रिया।’ 

उन्होंने चाय-पानी के लिए रियाज को निर्देशित किया। हम दोनों के बीच खामोशी पसर गई थी। मुझे तो कुछ बोलना था ही नहीं। मैं चुप था। लेकिन गुल्लू भैया!  वे भी चुप थे। कुछ इस तरह मानो अगली बात कहने के लिए खुद को तैयार और ताजा दम कर रहे हों। 

यह चुप्पी टूटी तो मुझे मानो जीवन सूत्र मिल गए। 

क्या थे वे जीवन सूत्र? जी तो कर रहा है कि मैं बिना रुके अपनी बात कहूँ। लेकिन इस क्षण मैं भी सहज-सामान्य नहीं रह गया हूँ। 


3 comments:

  1. पहले ऐसी भागीदारियाँ चल जाती थी, आज तो भागीदारों में गोलियाँ भी चल जाती हैं।

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  2. उस ज़माने का "घरोपा" आजकल न जाने कहाँ गुम हो गया है | आजकल ऐसी बातें परीकथाओं सी लगती हैं | मगर मन के कहीं बहुत भीतर कुछ बहुत मूल्यवान सा खो देने का अहसास भी होता है | आज ये पोस्ट पढ़कर न जाने क्यूँ आपकी एक पुरानी पोस्ट "एक माँगू सो रहा था एक माँगू रो रहा था" का स्मरण हो आया और साथ ही आँखों में नमी का हल्का सा बादल भी न जाने कहाँ से आ गया | उस समय के लोगों के जीवन चरित्र का परिचय करवाने के लिए आपका जितना धन्यवाद किया जाये, कम है | अगले भाग की बेसब्री से प्रतीक्षा है |

    सादर
    राजेश गोयल
    गाजियाबाद

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