दुनिया की कोई ताकत मेरे चरित्र को झुका नहीं सकती

          06 जुलाई 1944 को सिंगापुर से लिखा गया, गाँधीजी के नाम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का यह पत्र मुझे केशवचन्द्रजी शर्मा के सौजन्य से मिला है। इस पत्र में गाँधी और सुभाष के आत्मीय सम्बन्धों की खुशबू बरबस ही हमें घेर लेती है। इस पत्र में गाँधी के प्रति सुभाष का न केवल आदर भाव उत्कटता से प्रकट होता है अपितु ‘आपको आशीर्वाद देना ही पड़ेगा।’ जैसा अधिकार भाव भी सहजता से प्रकट हो जाता है। 
            नहीं जानता कि गाँधी जयन्ती पर यह पत्र कितना प्रासंगिक है। किन्तु इन दोनों राष्ट्र नायकों के आत्मीय अन्तर्सम्बन्धों की स्पष्ट झलक इसमें आसानी से अनुभव की जा सकती है। 


सिंगापुर 06 जुलाई 1944
महात्माजी!

अंग्रेजी कारागार में कस्तूरबा की मृत्यु के बाद सारे देश का, आपके स्वास्थ्य के बारे में चिन्तित हो उठना स्वाभाविक था।

हमारा उद्देश्य एक है और हम हिन्दुस्तानी जो आज हिन्दोस्तान के बाहर हैं, उनकी निगाह में साधनों की भिन्नता तो महज घरेलू सवाल है। 1929 के पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव के बाद काँग्रेस के सभी सदस्यों का एकमात्र उद्देश्य आजादी रहा है। हम सभी हिन्दुस्तानियों की निगाह में आप जागृति के अग्रदूत हैं। जबसे आपने 1942 में गरज कर भारत छोड़ने की माँग की है तब से हमारे हृदय में आपके लिए सहस्रगुनी श्रद्धा बढ़ गयी।

मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इस खतरनाक काम को करने के पहले मैं हफ्तों और महीनों तक मैं इसके पक्ष और विपक्ष के बारे में सोचता रहा। इतने दिनों तक अपने देश की सेवा करने के बाद, अपने देश को प्यार करने के बाद, मुझे पहला देशद्रोही बन जाने का शौक नहीं था। मैं अपनी जनता का, अपने भाइयों का विश्वास जीत चुका था और उन्होंने राष्ट्रपति बनाकर मुझे जीवन का सर्वोच्च गौरव दिया था।  मुझे एक दल मिल गया था, फारवर्ड ब्लाक, जिसका हर सदस्य मेरे लिए जान देने के लिए तैयार था। मैं जानता हूँ कि हिन्दोस्तान से भागने में न केवल मैं, वरन् मेरी पार्टी भी खतरे में पड़ रही है। लेकिन मुझे अणु भर भी विश्वास होता कि युद्धकाल में भारत में ही रहकर मैं स्वतन्त्रता का आन्दोलन चला सकूँगा तो यकीन मानिये मैं आपके चरणों से दूर न आया होता। 

हाँ, धुरी राष्ट्रों का प्रश्न शेष है। क्या उन्होंने मुझे धोखा दिया? क्या मैं धोखा खा गया हूँ? दुनिया जानती है कि अंग्रेज दुनिया की सबसे बड़ी धोखेबाज कौम है। जो व्यक्ति जीवन भर उन धोखेबाजों से जिन्दगी और मौत की लड़ाई लड़ता रहा है वह फिर दूसरों से धोखा नहीं खायेगा। अगर अंग्रेज राजनीतिज्ञ मुझे धोखा नहीं दे सके तो दूसरे भला क्या धोखा दे सकेंगे? और अगर जिन्दगी भर जेल में बन्द रखकर, मेरी नसों को चूर-चूर कर ब्रिटिश सरकार मेरी नैतिकता पर दाग नहीं लगा सकी तो यकीन मानिये कि दुनिया की कोई ताकत मेरे चरित्र को झुका नहीं सकती। मैंने आज तक हिन्दोस्तान की आन कायम रखी है। हिन्दोस्तान के झण्डे को झुकता हुआ देखने से पहले मैं हमेशा के लिए आँखें मूँद लूँगा।

एक जमाना था जब जापान हमारे दुश्मन का साथी था। जब तक जापान और अंग्रेजी की दोस्ती थी, मैं जापान नहीं आया। जब जापान ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी तब मैं जापान आया हूँ। वैसे, चीन के साथ मेरी पूरी सहानुभूति रही है। आपको याद होगा कि सन् 1938 में मेरे ही उद्देश्यों से चीन की सहायता के लिए एक चिकित्सा दल भेजा गया था। आप खुद जानते हैं, मैं झूठे वादों पर विश्वास करना ही नहीं जानता। मैं जापान की मदद लेनेवाला आखिर व्यक्ति होता यदि मैं समझता कि जापान महज झूठे वादे कर रहा है। अगर अपने उद्योग से, आन्दोलन से भारतवासी स्वतन्त्र हो जायें तो मुझसे ज्यादा और कोई प्रसन्न नहीं होगा। अगर अंग्रेज भी आपका प्रस्ताव स्वीकार कर भारत छोड़ दें तो मैं अपना उद्देश्य पूरा समझ लूँगा। मगर न तो यह सम्भव है न मेरी समझ में आता है। एक सशस्त्र हिंसात्मक क्रान्ति की आवश्यकता पड़ेगी। 

इसलिए हम लोगों ने यहाँ आजादी की आखरी लड़ाई की रणभेरी फूँक दी है। आजाद हिन्द फौज के दल आज हिन्दोस्तान की जमीन पर लड़ रहे हैं और मौत को पीछे धकेल कर आगे बढ़ रहे हैं। यह सशस्त्र संग्राम चलता रहेगा। जब तक कि आखिरी अंग्रेज स्वेज शहर के पार नहीं ढकेल दिया जाएगा और वायसराय भवन पर तिरंगा (भारत का झण्डा) नहीं फहराने लगेगा। 

हम सभी हिन्दोस्तानियों के श्रद्धेय बापू! आजादी के इस धर्म-युद्ध में आपको आशीर्वाद देना ही पड़ेगा। इस पवित्र धर्म-युद्ध में हम आपका आशीर्वाद चाहते हैं। आशीर्वाद दीजिए।
- सुभाष।

1 comment:

  1. महान नायकों को नमन.
    गाँधी जी का अपना तरीका था और सुभाष जी का अपना.
    लेकिन काम एक था हिंदुस्तान की आजादी.
    इस पत्र को साझा करने के लिए आभार भी तुच्छ लगेगा.
    ये हमारी धरोहर है.

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