तू चन्‍दा मैं चांदनी : विस्‍तार (2)

यह तब की बात है जब 'रेशमा और शेरा' का अता-पता कल्‍पना में भी शायद ही रहा होगा ।


फिल्‍मों में गीत लिखने के सिलसिले में दादा साठ के दशक में कुछ अरसा मुम्‍बई में रह चुके थे । तब उन्‍होंने श्री मुबारक मर्चेण्‍ट के यहां मुकाम जमाया था । ये मुबारकजी वे ही थे जिन्‍होंने फिल्‍म 'अनारकली' में अकबर की भूमिका निभाई थी और जो बाद में स्‍थापित चरित्र अभिनेता के रूप में पहचाने गए । दुर्गा खोटे की आत्‍मकथा 'मी दुर्गा' में मुबारकजी का सन्‍दर्भ अत्‍यन्‍त भावुकता से आया है । मुबारकजी मूलत: तारापुर के रहने वाले थे । यह तारापुर, महाराष्‍ट्र वाला नहीं बल्कि मालवा वाला तारापुर है जो इस समय नीमच जिले की जावद तहसील का हिस्‍सा है । इस तारापुर की रंगाई और इसकी छींटें (प्रिण्‍ट्स) विश्‍व प्रसिध्‍द है जिन्‍हें 'तारापुर प्रिण्‍ट्स' के नाम से जाना जाता है । इन छींटों की रंगाई के लिए प्रयुक्‍त किए जाने वाले प्राकृतिक रंग खूब गहरे/गाढे होते हैं जो सैंकडों धुलाइयों के बाद भी फीके नहीं पडते । तारापुर के रंगरेजों की पीढियां बीत गई हैं लेकिन कोई भी यह बताने की स्थिति में नहीं है नहीं कि रंगों के कडाहों में पहली बार रंग किसने डाला था । इन कडाहों को पूरा खाली होते किसी ने नहीं देखा । अपने से पहली वाली पीढी से प्राप्‍त, इन रंग भरे कडाहों को अपने से आगे वाली पीढी को सौंपने का क्रम आज भी बना हुआ है । तारापुर के रंगरेज अपनी इस परम्‍परा का सगर्व बखान करने का कोई अवसर नहीं चूकते । इन रंगरेजों को 'छीपा' जाति के नाम से पहचाना जाता है और इस जाति में दोनों सम्‍प्रदायों (हिन्‍दू और मुसलमान) के लोग हैं । सच बात तो यह है कि तारापुर की यह छपाई अपने आप में अध्‍ययन और लेखन का स्‍वतन्‍त्र/वृहद् विषय है ।


फिल्‍मी दुनिया में मुबारकजी को किस सम्‍बोधन से पुकारा जाता था यह मुझे नहीं पता क्‍यों कि उनके रहते मैं कभी मुम्‍बई नहीं गया । हम लोगों ने उनका जिक्र सदैव ही दादा से सुना और दादा उन्‍हें 'चाचाजी' कहते थे । सो, वे हम सबके चाचाजी थे । मुम्‍बई जाकर भी चाचाजी ने तारापुर को अपने मन में बराबर बसाए/बनाए रखा । वे मालवी न केवल फर्राटे से बालते थे बल्कि मालवी बोलने के मौके खुद पैदा करते थे । दादा के आग्रह पर वे एक बार मनासा आए थे और हमारे परिवार के साथ कुछ दिन रहे थे । उन्‍हें मनासा के, लोक निर्माण विभाग के डाक बंगले में ठहराया गया था । वे शिकार के शौकीन थे । दादा के कुछ मित्रों ने उनके लिए शिकार खेलने की व्‍यवस्‍था की थी । जिज्ञासा भाव से मैं भी उस शिकार में शरीक हुआ था । कंजार्डा पठार के जंगलों में, चाचाजी के साथ, शिकारी जीप में की गई वह यात्रा मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा । प्रत्‍येक क्षण मुझे लगता रहा कि यह जीप या तो कहीं टकरा जाएगी या फिर उलट जाएगी और हम लोगों के शव ही घर पहुंचेंगे । लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । काफी भाग दौड के बाद उन्‍होंने अन्‍तत:, बारहसिंघे की प्रजाति के जानवर एक 'जरख' को उन्‍होंने मार गिराया था । लेकिन इससे पहले, जब काफी देर तक कोई शिकार नहीं मिला और एक खरगोश सामने आया तो शिकार आयोजित करने वाले मेजबानों ने चाचाजी को सलाह दी कि वे खरगोश का शिकार कर लें । उन्‍होंने फौरन ही इंकार कर दिया । मेरे लिए यह 'विचित्र किन्‍तु सत्‍य' जैसी स्थिति थी । अंधरे की अभ्‍यस्‍त हो चुकी आंखों से , मैं ने चाचाजी का चेहरा देखा तो वहां शिकारी की क्रूरता और हिंसा कहीं नहीं थी । जीप की हेड लाइट की तेज रोशनी में खरगोश की शरबती आंखें चमक रही थीं और चाचाजी के चेहरे पर मानों मक्‍खन का हिमालय उग आया था । वे खरगोश को ऐसे देख रहे थे मानों खुदा की सबसे बडी नेमत उनके सामने मौजूद हो । उन्‍होंने कहा था - 'कैसी बातें करते हैं आप ? इतना खूबसूरत और मुलायम जानवर तो प्‍यार करने के लिए है, मारने के लिए नहीं ।' उस समय वे 'सोमदत्‍त' के भेस में थे और उनका व्‍यवहार 'सिध्‍दार्थ' जैसा था । कंजार्डा पठार के घने जंगलों में, उस गहरी, अंधरी रात में मैं ने एक कलाकार का जो स्‍वरूप देखा, वह मेरे लिए जीवन निधी से कम नहीं है ।


चाचाजी नियमित सुरा-सेवी थे । मनासा तब मुश्किल से नौ-दस हजार की आबादी वाला कस्‍बा था । आबादी में माहेश्‍वरियों और श्‍वेताम्‍बर/दिगम्‍बर जैनियों प्रभुत्‍व तथा प्रभाव । माहेश्‍वरियों ने तो उस गांव को बसाने में भागीदारी की । सो, सकल वातावरण 'सात्विक' । देसी शराब का ठेका जरूर वहां था लेकिन 'अंग्रेजी शराब' की तो बस बातें ही होती थीं । ऐसे में एक शाम, जब डाक बंगले मैं अकेला उनके पास था, उन्‍होंने अचानक ही शराब की फरमाइश की । मैं अचकचा गया । शराब का नाम मैं ने तब तक सुना जरूर था लेकिन शराब देखी नहीं थी । शराब का ठेका भी मैं ने देखा जरूर था लेकिन वह 'स्‍थायी वर्जित प्रदेश' था । मैं घबरा गया । समझ नहीं पाया और तय नहीं कर पा रहा था कि क्‍या करूं और चाचाजी को क्‍या जवाब दूं । तब तक चाचाजी ने फरमाईश दुहरा दी । शराब ला पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं था और डाक बंगले पर रूक पाना उससे भी अधिक कठिन हो गया था । मैं वहां से चला तो मेरे कानों में सीटियां बज रही थीं और आंखें कुछ भी देख पाने में मदद नहीं कर रही थीं । एक प्रतिष्ठित कवि का छोटा भाई और 'बैरागी-साधु' जाति के महन्‍त का बेटा, छोटी सी बस्‍ती में, जहां सब उसे खूब अच्‍छी तरह जानते-पहचानते हों, दारू लाने के लिए दारू के ठेके पर जा रहा था । मुझे लग रहा था मानों बस्‍ती के लोग तो लोग, सडक पर विचर रहे ढोर-डंगर भी मुझे कौतूहल से देख रहे हैं और धिक्‍कार रहे हैं । लेकिन मेरा भाग्‍य शायद साथ दे रहा था । मैं डाक बंगले से सौ-डेड सौ कदम ही चला होऊंगा कि मैं ने देखा कि सामने से मोहम्‍मद साहब चले आ रहे हैं । मोहम्‍मद साहब के पिताजी और मेरे पिताजी गहरे मित्र थे और उनसे हमारा पारिवारिक व्‍यवहार था । मोहम्‍मद साहब खुद दादा के अच्‍छे मित्र थे और चाचाजी के शिकार की व्‍यवस्‍थाएं करने में वे अग्रणी थे । लेकिन उस क्षण की सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण बात यह थी कि वे आबकारी विभाग में कांस्‍टेबल के पद पर मनासा में ही पदस्‍थ थे । मेरी शकल की इबारत उन्‍होंने मानो उन्‍होंने पढ ली । मेरी बात सुन कर वे खूब हंसे और मुझे डाक बंगले वापस भेजा । बाद में, जब वे देसी दारू की बोतल लेकर चाचाजी के पास आए तो मेरी दशा का बखान कर, खूब मजे लिए ।


इन्‍हीं चाचाजी ने मुम्‍बई में दादा को अपने पास रखा । दादा तब तक हालांकि 'बालकवि' के रूप में स्‍थापित हो चुके थे लेकिन अन्‍तरंग स्‍तर पर वे अपने मूल नाम 'नन्‍दराम दास' से ही सम्‍बोधन पाते थे । चाचाजी दादा को 'नन्‍दू' कह कर पुकारते थे । मुम्‍बई में दादा के संघर्ष गाथा की जानकारी मुझे बिलकुल ही नहीं रही । लेकिन वे वहां इतने समय तक रहे कि पिताजी, दादा की सफलता की प्रतीक्षा नहीं कर सके और एक दिन मुम्‍बई जाकर, चाचाजी से उनके 'नन्‍दू' और अपने 'नन्‍दा' को मनासा लिवा लाए ।


मनासा लौटने के बाद भी मुम्‍बई से दादा का सम्‍पर्क बना रहा । तब तक दादा को कवि सम्‍मेलनों के न्‍यौते मिलने लगे थे और वे मंच लूटने के लिए पहचाने जाने लगे थे । उनकी मालवी रचना 'पनिहारी' लोगों के दिलों पर तब से ही राज करने लगी थी । उन्‍हें 'मालवी का राजकुमार' कहा जाने लगा था । इसी क्रम में उनका सम्‍पर्क बालाघाट के अग्रिणी खनिज व्‍यवसायी 'त्रिवेदी बन्‍धुओं', भानु भाई त्रिवेदी और मुकुन्‍द भाई त्रिवेदी से हुआ । इनकी रूचि फिल्‍मों में थी ही । नितिन बोस निर्देशित फिल्‍म 'नर्तकी' के निर्माता ये 'त्रिवेदी बन्‍धु' ही थे ।


मुकुन्‍द भाई त्रिवेदी फिल्‍म निर्देशक बनने के अवसर तलाश रहे थे । योजना बनी कि खुद ही खुद की फिल्‍म क्‍यों न निर्देशित कर ली जाए । सो, फिल्‍म बनना तय हुआ । मामला बातों से कागजों पर उतरना शुरू हुआ । गीत लिखने का जिम्‍मा दादा को मिला । यह एक स्‍टण्‍ट/हॉरर/थ्रिलर श्‍याम-श्‍वेत फिल्‍म थी । नाम था - 'गोगोला' । ऐसी फिल्‍मों की कहानी जैसी होती है, वैसी ही कहानी इस फिल्‍म की भी थी । आजाद नायक और तबस्‍सुम इसकी नायिका थीं । संगीत का जिम्‍मा 'राॅय और फ्रेंकी' को सौंपा गया । इनमें से कोई एक (सम्‍भवत: फ्रेंकी), प्रख्‍यात संगीतकार रवि के सहायक थे । दादा की यह पहली फिल्‍म थी जिसके सारे के सारे गीत दादा ने लिखे थे । फिल्‍म बनी, सेंसर हुई और जैसे-तैसे प्रदर्शित भी हुई । उन दिनों रेडियो सीलोन से, सवेरे-सवेरे पन्‍द्रह मिनिट का कार्यक्रम (सम्‍भवत: सवेरे सात बजे) 'एक ही फिल्‍म के गीत' आया करता था । जिस दिन इस कार्यक्रम में 'गोगोला' के गीत बजे उस पूरे दिन हम सब लोग मानो नशे में रहे । फिल्‍म में चार गीत थे और यह संयोग ही था कि उस कार्यक्रम में चार गीत ही बजाए जाते थे । याने उस कार्यक्रम में, 'गोगोला' के सारे के सारे गीत बजे । इनमें से एक गीत (जो वस्‍तुत: गजल था) उन दिनों लोकप्रिय गीतों के दायरे में शामिल हुआ था । गीत का मुखडा था -


जरा कह दो फिजाओं से हमें इतना सताए ना ।

तुम्‍हीं कह दो हवाओं से तुम्‍हारी याद लाए ना ।

इसे मुबारक बेगम और तलत मेहमूद ने गाया था । कुछ ही दिनों बाद 'गोगोला' के रेकार्ड दादा के पास आए । हमारे घर में 'रेकार्ड प्‍लेयर' नहीं था । ऐसे समय में मांगने की आदत खूब काम आई । मैं ने एक रेकार्ड प्‍लेयर जुगाडा और पूरे चौबीस घण्‍टे वे रेकार्ड बजा-बजा कर सुनता रहा । शुरू-शुरू के कुछ घण्‍टों तक तो सबने आनन्‍द लिया लेकिन जल्‍दी ही वह नौबत आ गई कि मेरी पिटाई हो जाए । मुझे मन मार कर रूकना पडा ।


यह फिल्‍म इन्‍दौर के 'महाराजा' सिनेमा में लगी थी । इन्‍दौर के लोग इस बात की ताईद करेंगे कि इन्‍दौर के सिनेमाघरों में, 'महाराजा' सिनेमा, श्रेष्‍ठता क्रम में अन्तिम स्‍थान पाता था । इस सिनेमा घर में फिल्‍म प्रदर्शित होना ही फिल्‍म के स्‍तर पर टिप्‍पणी होता था और यहां लगने वाली फिल्‍मों का दर्शक वर्ग स्‍थायी और चिर पर‍िचित होता था । इसके बावजूद, फिल्‍म तो देखनी ही थी । सो दादा और उनके दो मित्र श्री कृष्‍ण गोपालजी आगार और श्री मदन मोहन किलेवाला, दादा की पहली फिल्‍म 'गोगोला' देखने हेतु इन्‍दौर के लिए चले । ये दोनों महानुभाव अब इस दुनिया में नहीं हैं । कृष्‍ण गोपालजी रहते तो मनासा में थे किन्‍तु व्‍यापार करते थे नीमच की मण्‍डी में । उन्‍हें मनासा का नगर सेठ होने का रूतबा हासिल था । वे प्रतिदिन नीमच आना-जाना करते थे । वे मनासा के एकमात्र 'कार स्‍वामी' हुआ करते थे । किलेवालाजी नीमच निवासी ही थे । वे न्‍यू इण्डिया इंश्‍योरेंस कम्‍पनी के विकास अधिकारी थे । दादा, कृष्‍ण गोपालजी को 'केजी' और किलेवालाजी को 'एमएम' के सम्‍बोधनों से पुकारते थे । कभी-कभी वे इन्‍हें 'कनु' और 'मनु' भी कहते । लेकिन 'केजी' और 'एमएम' ही इनकी पहचान बन गये थे । 'केजी' बहुत ही कम बोलने वाले, मानो संकोची हों या आत्‍म केन्द्रित जब कि 'एमएम' चुप्‍पी के बैरी । ये दोनों दादा के अन्‍तरंग मित्र थे, सुख-दुख के संगाती और अपनी सम्‍पूर्ण आत्‍मीयता और 'ममत्‍व' से दादा की चिन्‍ता करने वाले लोग थे । इनका विछोह दादा के लिए आज भी मर्मान्‍तक बना हुआ है ।


इन्‍हीं दोनों के साथ दादा इन्‍दौर रवाना हुए । बल्कि कहा जाना चाहिए कि ये दोनों दादा को, दादा के गीतों वाली फिल्‍म दिखाने और खुद देखने, दादा को इन्‍दौर ले गए । कार, 'केजी' की ही होनी थी । यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा था कि इन्‍हें 'गोगोला' देखने की खुशी ज्‍यादा थी या 'महाराजा सिनेमा' में इस फिल्‍म के रिलीज होने का गम । दादा को ऐसी बातों से सामान्‍यत: कोई अन्‍तर नहीं पडता । वे अपने को हर हाल में, हर दशा में समायो‍जित बहुत ही जल्‍दी कर लेते हैं । अभावों को कुशलतापूर्वक जीने का अभ्‍यास उनके बडे काम आता है । लेकिन 'केजी' और 'एमए' के लिए 'महाराजा सिनेमा' में प्रवेश करना 'इज्‍जत हतक' से कम नहीं था । फिर भी अपने 'यार की खातिर' इन दोनों ने, 'महाराजा सिनेमा' को इज्‍जत बख्‍शने का ऐतिहासिक उपकार किया । फिल्‍म में देखने के नाम पर केवल गीतों का फिल्‍मांकन देखना था । लेकिन सारे के सारे गीत एक साथ तो आते नहीं । सो दोनों मित्र खुद को सजा देते हुए, कसमसाते हुए बैठे रहे । फिल्‍म समाप्‍त हुई । तीनों बाहर आए और मुकाम पर चलने के लिए कार में बैठे । कार सरकी ही थी कि 'एमएम' ने कुछ ऐसा कहा - 'यार ! बैरागी, 'गोगोला' देखनी थी सो देख ली । फिल्‍म में तो कोई दम है नहीं । गीतों की तारीफ क्‍या करना ! लेकिन मजा तो तब आए जब तुम्‍हारा गीत लता गाए और उस पर वहीदा रहमान नाचे ।' 'केजी' मुस्‍कुरा दिए, दादा कुछ नहीं बोले, 'महाराजा सिनेमा' के दर्शकों की टिप्‍पणियां उनके कानों में शायद तब भी गूंज रहीं थीं । अपनी बात का ऐसा 'कोल्‍ड रिस्‍पांस' पा कर 'एमएम' को अच्‍छा तो नहीं लगा लेकिन चुप रहने के सिवाय वे और कुछ कर भी क्‍या सकते थे ? सो, 'एमएम' की बात आई-गई हो गई । तीनों मित्र लौटे और अपने-अपने काम में लग गए ।


लेकिन जब 'उस सुबह' दादा को, भोपाल में लताजी का फोन मिला और लताजी से बात कर दादा जैसे ही सामान्‍य-संयत हुए, वैसे ही उन्‍हें 'एमएम' की बात याद आ गई । वे भावावेग में रोमांचित हो गए । तब तक 'रेशमा और शेरा' की कास्टिंग सार्वजनिक हो चुकी थी और सबको पता था कि वहीदाजी इसकी नायिका हैं । 'एमएम' ने इच्‍छा प्रकट की थी या भविष्‍यवाणी की थी ? दादा ने हाथों-हाथ 'एमएम' को फोन लगाया और सारी बात सुनाई । 'एमएम' 'नाइट लाईफ' जीने वाले आदमी थे और उठने के मामले में 'सूरजवंशी' । सो, दादा का फोन उन्‍होंने चिढ कर ही उठाया लेकिन जब किस्‍सा-ए-फोन सुना तो ऐसे चहके मानो सवेरे-सवेरे उनके घर, वंश वृध्दि का मंगल बधावा आ गया हो ।


'रेशमा और शेरा' तीनों ने जब देखी और 'तू चन्‍दा मैं चांदनी' पर वहीदाजी की भाव प्रवण भंगिमाएं देखीं तो उनकी क्‍या दशा रही होगी, यह कल्‍पना करने का कठिन काम या तो आप खुद कर लीजिए या फिर दादा से ही पूछ लीजिएगा । वह प्रसंग उनके लिए आज भी ज्‍यों का त्‍यों जीवन्‍त बना हुआ है । तीनों के गले रुंधे हुए थे और 'एमएम' खुद को, बार-बार चिकोटी काट-काट कर अपने होने को अनुभव कर रहे थे ।


'तू चन्‍दा मैं चांदनी' का विस्‍तार (2) यहीं समाप्‍त हो जाना चाहिए । लेकिन एक और बात बताने से मैं अपने आपको को रोक नहीं पा रहा हूं । सबके लिए यह बात बासी हो सकती है किन्‍तु यहां प्रासंगिक है ।


आज की लोकप्रिय और स्‍थापित गायिका सुनिधि चौहान का रिश्‍ता भी 'तू चन्‍दा मैं चांदनी' से है । मुझे यह तो याद नहीं आ रहा कि किस टी वी चैनल ने कौन सी प्रतियोगिता आयोजित की थी । किन्‍तु उस प्रतियोगिता में प्रथम स्‍थान पा कर ही सुनिधि चौहान ने पार्श्‍व गायन के क्षेत्र में प्रवेश किया था । प्रतियोगी के रूप में सुनिधि ने जो गीत गा कर प्रथम स्‍थान पाया था वह बालकविजी का यही गीत था - तू चन्‍दा मैं चांदनी ।

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9 comments:

  1. संस्मरण अच्छा लगा विष्णु जी जी. बालकवि जी के रेलवे को लिखे पत्रों के उत्तर हमने रतलाम में रहते हुये दिये हैं. हाथ से लिखे सुन्दर पत्र थे.
    जावद में रंगरेजी का भी काम होता था, यह मुझे आज पता चला. मैं तो उसे सीमेण्ट से ही जोड़ कर देखता रहा हूं.
    धन्यवाद.

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  2. इस साहित्यिक रचना से बॉलिवुड का गीत संसार बहुत समृद्ध हुआ है!

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  3. अच्छा लगा कि आपने यह संस्मरण हमारे साथ बांटा।
    आभार!

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  4. धन्‍यवाद बैरागी जी आप तो चिट्ठाजगत के शान हैं ।

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  5. बड़ा रोचक रहा यह संस्मरण पढ़ना, आभार.

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  6. वाह बैरागी जी,
    मुझे तो कल्पना भी नहीं थी कि मेरी एक छोटी सी पोस्ट आपके और कई लोगों की यादों का पिटारा खोल कर रख देगी.. ये मेरे लिये गौरव की बात है कि सुधीजनों ने इसे पढा और व्यक्तिगत चिठ्ठी लिखकर मुझे नवाजा.. बहरहाल इन दोनों प्रस्तुतियों के लिये आपको साधुवाद..

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  7. वो प्रतियोगिता जी टीवी पर प्रसारित "सा रे गा मा पा" थी। बहुत बहुत शुक्रिया इन यादों को बाँटने का !

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    1. आपसे असहमत होने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ मगर जहाँ तक मुझे याद पड़ता है उस प्रतियोगिता का नाम था मेरी आवाज़ सुनो और उसे अन्नू कपूर जी ने होस्ट किया था |

      सादर

      राजेश गोयल
      गाज़ियाबाद

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  8. मन को भिगो देने वाला संस्मरण!

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