खुद से दूर होने की कोशिश‍

14 अक्टूबर 2007 को मैं ने अपनी अन्तिम पोस्ट लिखी थी । उसके बाद बकौल मेरे उस्ताद श्री रवि रतलामी ‘राइटर्स ब्लाक’ का शिकार हो गया । मैं ‘राइटर्स ब्लाक’ से उबरूँ, इस हेतु इस इन सवा सात महीनों में रविजी ने क्या नहीं किया ? जब-जब मिले, तब-तब टोका, पे्ररित-प्रोत्साहित किया । लेकिन इस पके हाँडे पर मिट्टी नहीं लगी सो नहीं लगी ।

ऐसा भी नहीं कि इस अवधि में ‘एकोऽहम्’ ने कुरेदा नहीं । कुरेदा और बार-बार कुरेदा । लेकिन असर फिर भी नहीं हुआ । इस बीच, 18 अपे्रल को एक विवाह समारोह में भोजन करते हुए रविजी की पकड़ में आ गया । उन्होंने फिर पे्रमपूर्वक टोका । उनकी जीवनसंगिनी रेखाजी भी साथ में थी । उन्होंने कहा तो कुछ नहीं किन्तु जिस नजर से मुझे देखा, वह मुझे ठेठ भीतर तक भेद गई । मुझे बड़ी शर्म आई । सोचा - घर जाते ही पोस्ट लिखूँगा । लेकिन सोच, हकीकत में नहीं बदल पाई ।

23 अपे्रल को मै ने अपना मेल-बाक्स खोला (इन दिनों मेल बाक्स खोलने में भी अच्छा-खासा अलालपन छाया रहा) तो रविजी का मेल पाया जिसमें उन्होंने अपने चिट्ठे पर, 19 अपे्रल को लिखी पोस्ट भेजी थी । इसमें 18 अपे्रल की, भोजन वाली मुलाकात का जिक्र रविजी ने किया था । लेकिन मानो रविजी की पोस्ट ही काफी नहीं थी, इस पोस्ट पर युनूस भाई और मैथिलीजी की टिप्पणियों ने तो पानी-पानी कर दिया । मैं ने रविजी को लिखा - ‘अब तो शर्म को भी शर्म आने लगी है ।’ यह लिखते समय फिर तय किया कि अब तो पोस्ट लिख ही देनी है । लेकिन फिर भी नहीं लिख पाया ।

29 अपे्रल को मनासा गया । मनासा मेरा जन्म स्थान है । वहाँ मेरा घर हुआ करता था - अब नहीं है । वहाँ डाक्टर संघई साहब (वे और उनका परिवार हमारे परिवार का ‘रखवाला परिवार’ है) के बड़े बेटे प्रिय डाक्टर मनोज संघई ने मुझे ‘जोर का धक्का, धीरे से' दिया यह पूछ कर कि मैं अपना ब्लाग क्यों नहीं लिख रहा हूँ ? मनोज के सवाल ने मुझे एक बार फिर अपनी ही नजरों में गिरा दिया । मैं सफाई देता तो क्या देता ? लेकिन शुरूआत फिर भी नहीं हो सकी ।

यह शायद शुक्रवार 16 मई की बात है । उस दिन दैनिक भास्कर में मेरा एक पत्र छपा था । रविजी ने फोन किया और तनिक आहत स्वरों में उलाहना दिया कि मैं साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में अपना स्तम्भ नियमित लिख रहा हूँ, अखबारों में सम्पादक के नाम पत्र लिख रहा हूँ, अपना नियमित पत्राचार बराबर कर रहा हूँ तो फिर अपना ब्लाग क्यों नहीं लिख रहा हूँ ? रविजी की बात ने नहीं, उनके स्वरों की पीड़ा ने मुझे व्यथित कर दिया । वे मेरे गुरू हैं और मैं हूँ कि उनकी अनदेखी और उनकी बातों को अनसुनी किए जा रहा हूँ ! मेरे ब्लाग लेखन से उन्हें क्या मिलेगा ? उनका क्या स्वार्थ ?

बस ! ‘सतसैया’ के इस ‘दोहरे’ ने गम्भीर घाव किया । रविवार 18 मई को मैं रविजी के निवास पर पहुँचा । सच कहूँ, मेरा पोर-पोर अपराध-बोध से ग्रस्त था । रविजी और रेखाजी ने जिस आत्मीय ऊष्मा से मेरी अगवानी की उससे हिम्मत बँधनी शुरू हुई जो बँधती ही चली गई । कोई सवा-डेढ़ घण्टे बाद जब मैं लौटा तो मानो मेरा कायान्तरण हो चुका था । मेरा लेपटाप, रविजी द्वारा स्थापित ‘फाण्ट कनवर्टर’ से समृध्द हो चुका था ।

14 अक्टूबर 2007 से अब तक मुझे स्वर्गीय मुकेश का एक गीत बराबर याद आता रहा -

तुम्हें जिन्दगी के उजाले मुबारक,
अँधेरे हमें आज रास आ गए हैं ।
तुम्हें पा के हम खुद से दूर हो गए थे,
तुम्हें छोड़ कर खुद के पास आ गए हैं ।।

यकीनन, ब्लाग लेखन बन्द कर मैं खुद के पास था लेकिन बहुत अकेला था । इस अकेलेपन से मुक्ति का एक ही उपाय है - खुद से दूर हो जाना । याने सबके पास आने की कोशिश करना । आज की यह शुरूआत, यह कोशिश ही है । ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना कीजिए कि मै खुद से दूर हो सकूँ और खुद से दूर ही रहूँ ।

इसी में मेरी भलाई भी है ।

7 comments:

  1. पुनर्प्रवेश का स्वागत है वर्ना अपन तो ये गीत गाने वाले थे
    आस्मां पे है खुदा
    और ज़मीं पे हम
    आजकल वो इस तरफ
    देखता है कम...

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  2. आप का स्वागत है। लगता है, ब्लॉगिंग भी अब नया रुप लेने वाली है।

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  3. सही। स्वागत दुबारा!

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  4. "...उनका क्या स्वार्थ ?..."

    मेरा बहुत बड़ा स्वार्थ है. अच्छी, बेहतर रचनाएं पढ़ने को मिलेंगी :)

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  5. विष्‍णु जी
    अप्रैल में दद्दा बालकवि बैरागी विविध भारती आए । कवि सम्‍मेलन के लिए । उनसे आपकी चर्चा हुई । तो बोले कि विष्‍णु मुझसे ज्‍यादा प्रतिभाशाली है पर आलसी है । बताएं उन्‍होंने गलत कहा या सही ।
    हंय । स्‍वागत है फिर से । हम आपका रास्‍ता तक रहे थे ।

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  6. देर हुई आने में उनको, शुक्र है फिर भी आये तो.

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  7. आईये आईये, एक अंतराल के बाद वापसी पर पुनः स्वागत है. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाऐं.

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