बापू कथा - दूसरी शाम (10 अगस्त 2008)


बापू कथा का दूसरा दिन, पहले दिन से अधिक कसा हुआ और श्रोताओं को कुर्सियांे से चिपकाए रखने वाला रहा । 83 वर्र्षीय नारायण भाई के धाराप्रवाह संस्मरण श्रोताओं को सांस लेने की भी अनुमति नहीं देते । तारतम्यता, निरन्तरता और प्रसंगों की सम्बध्दता वे जिस सुगठित ढंग से पेश कर रहे हैं वह सब देखकर विश्वास नहीं होता कि हिन्दी में कथा बांचने का यह उनका चैथा-पांचवा ही प्रयास है । लगता है मानों वे युगों-युगों से बापू कथा सुनाते चले आ रहे हैं । प्रसंगों से उपजे अन्तप्रसंगों से वापस वे मूल प्रसंग पर जिस तरह से लौटते हैं तो लगता है कि चूल्हे पर रोटी सेकती हुई कोई कुशल गृहिणी, रोटी को तवे पर रख कर, रोते शिशु की ‘मचली’ (देहाती झूला) को दो-चार पेंगे देकर, शिशु को थपथपा कर, चपल-सजग-सहजता से लौट कर रोटी को पलट रही है - रोटी को दाग लगे बिना ।


आज नारायण भाई ने बापू के अफ्रीका प्रवास को सविस्तार बताने से पहले बापू के उन तीन संस्कारों की चर्चा की जिन्होंने ‘मोहनदास’ को ‘गांधी’ बनाया । उन्होंने नागरिकता का संस्कार इंग्लैण्ड से, चरित्र का संस्कार भारत से और जीवन साधना का संस्कार दक्षिण अफ्रीका में प्राप्त किया ।


बापू कभी भी प्रतिभावान छात्र नहीं रहे । कभी मेरिट लिस्ट में नहीं आए । शिक्षा के मामले में दिशाहीन दशा में थे । पिता को उनका डाक्टर बनना पसन्द नहीं था, इस कारण दिशाहीनता में बढोतरी ही हुई । तब उनसे पूछा गया - इंग्लैण्ड जाकर बैरीस्टरी करना पसन्द करोगे ? बापू फौरन ही तैयार हो गए । सात समन्दर पार जाना जिस समाज और समय में धर्म भ्रष्ट हो जाना माना जाता रहा हो वहां बापू के निर्णय का विरोध तो होना ही था । मां के अपने संशय थे जिन्हें बापू ने प्रतिज्ञा ( मांसाहार नहीं करूंगा, सुरापान नहीं करूंगा और परस्त्रीगमन नहीं करूंगा) में बंध कर लांघा । शेष विरोधों को उन्होंने सहजता से निपटा दिया ।

शिक्षा के मामले में पूर्णतः दिशाहीन मोहनदास को इंग्लैण्ड जाने के निर्णय ने दिशावान बना दिया । इंग्लैण्ड में ‘सांस्कृतिक धक्का’ (कल्चरल शाक) उनकी प्रतीक्षा कर रहा था । वे पहले चैंधियाए और फिर व्यामोह में पड़ गए । इंग्लैण्ड में इंग्लैण्डवालों जैसा बनने के व्यामोह में उन्होंने पहले ‘डांस’ सीखना शुरु किया । कदमों ने ताल का साथ नहीं दिया । कहा गया - संगीत की जानकारी के बिना नाच नहीं सीख सकते । सो, वायलीन बजाना सीखना शुरू कर दिया । लेकिन तीन महीने बीतते-बीतते मोहनदास ने अपने आप से वही सवाल एक बार पूछा जो वे बचपन से ही अपने आप से पूछते चले आ रहे थे - ‘कोऽहम्’ और ‘मैं यहां क्यों आया हूं ?’ नारायण भाई ने कहा - आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन के, बचपन के अभ्यास से मोहनदास ने जवाब हासिल किया और व्यामोह से मुक्त हो गए । उन्होंने स्वयम् को अध्ययन पर केन्द्रित किया । बस के मुकाबले ट्राम सस्ती थी, लेकिन उन्होंने ट्राम में भी सफर नहीं किया । विश्वविद्यालय और लायबे्ररी के बीच मकान लिया और सदैव पदयात्रा करते रहे ।


नागरिकता का संस्कार

इंग्लैण्ड में बापू ने देखा कि 18 वर्ष के युवक के साथ भी वही व्यवहार होता है जो वरिष्ठ के साथ । उन्होंने अनुभव किया कि नागरिकता में आयु का अन्तर बाधा नहीं होता । ‘जो स्वतन्त्रता तुम खुद भोगना चाहते हो, वही स्वतन्त्रता तुम दूसरों को भी दो’ यह उन्होंने प्रत्यक्षतः अनुभव किया । इसके पीछे वेजीटेरियन सोसायटी में उनकी भागीदारी के अनुभव भी सहायक रहे । समाज के श्रेष्ठ और सम्भ्रान्त व्यक्ति इस सोसायटी के सदस्य वे लोग होते थे जिन्हें ‘डीसेण्ट’ माना जाता था । बापू इस सोसायटी के सदस्य बने और जब सोसायटी के अगले चुनाव हुए तो बापू को उसका सचिव बनाया गया । उल्लेखनीय बात यह थी कि सोसायटी के अन्य सदस्य, बापू से कम से कम बीस वर्ष बड़े थे । लेकिन यहां उम्र के बजाय सोसायटी के प्रति बापू की निष्ठा और उनकी कार्यक्षमता को तरजीह दी गई । यहीं बापू ने निष्‍कर्ष निकाला कि नागरिकता की पहली शर्त - निष्ठा (कमिटमेण्ट) और कार्यक्षमता (इफिशिएन्सी) परस्पर अपरिहार्य और अनिवार्य पूरक हैं । इन दोनों में तलाक के परिणाम अत्यन्त भयंकर होते हैं । नारायण भाई ने तेलगी और हर्षद मेहता के उदाहरण दिए जिनमें कार्यक्षमता तो अद्भुत थी लेकिन निष्ठा नहीं थी । इस सोसायटी के अपने वरिष्ठों के साथ काम करते हुए बापू ने अनुभव किया कि जवानी और बुढ़ापे का उम्र से कोई रिश्‍ता नहीं होता । जो आने वाले कल को आज से बेहतर बनाने के प्रयास करे, वही जवान है । कांटों से आगे बढ़कर गुलाब के फूल को देखना जवानी और गुलाब को कांटो से घिरा देखना बुढ़ापा होता है । दूर देश में रह रही अशिक्षित मां के सामने की गई प्रतिज्ञा को बापू ने इसी निष्ठा और कार्यक्षमता से निभाया ।


भाषा में नम्रता को बापू ने नागरिकता की दूसरी अनिवार्य शर्त अनुभव किया । लेकिन इस नम्रता में चापलूसी के लिए कोई जगह नहीं होती (जैसी कि भारत में हो गई है) । इंग्लैण्ड प्रवास में अपनी प्रतिज्ञाओं के पालन में मोहनदास ने भाशा की यह विनम्रता अपनी सम्पूर्ण दृढ़ता से सफलतापूर्वक बनाए रखी ।

पढ़ाई के दौरान, भोजन के लिए मोहनदास की टेबल पर बैठने वालों की भीड़ लगी रहती थी । भोजन के साथ वहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए शराब की बोतल रखी रहती थी और मोहनदास ने सुरापान न करने की प्रतिज्ञा ले रखी थी । सो मोहनदास के नाम की बोतल की शराब हासिल करने के लिए लोग मोहनदास की टेबल की ओर लपकते थे ।

परस्त्रीगमन से बचने वाले प्रसंग को नारायण भाई ने उसकी तमाम सूक्ष्मताओं सहित जिस विस्तार से बताया वह अपने आप में अद्भुत था । ऐसा लगता रहा मानो (फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ की तरह ही) बापू प्राम्पटिंग कर रहे हों और नारायण भाई उसे दुहरा रहे हों । किस तरह एक परिवार में भोजन के बाद ताश का खेल शुरु होना, गृहस्वामिनी द्वारा संसर्ग के लिए पहले आंखों से और फिर अंग संचालन से आमन्त्रण देना, मोहनदास को उस सबसे आकर्षित प्रभावित होकर आगे बढ़ते देख कर एक मित्र द्वारा टोकने पर कि ‘मोहनदास तू यह क्या कर रहा है?’, मोहनदास का चिहुंक कर अपने आप में आना - यह सब नारायण भाई ने बिलकुल ही ‘आंखों देखा हाल’ की तरह सुनाया ।

एक फ्रेंच महिला द्वारा मोहनदास को अपनी भानजी के उपयुक्त वर अनुभव कर, मोहनदास को भोजन पर बुलाना, फिर प्रत्येक रविवार को बुलाना, बुला कर, अपनी भानजी के साथ घूमने-फिरने के अवसर देना, स्थिति यह हो जाना कि मोहनदास रविवार आने की प्रतीक्षा करने लगे । तब मोहनदास न केवल विवाहित थे बल्कि एक बेटे के बाप भी थे । ऐसे क्षणों में मोहनदास की मनोदशा का ‘स्ट्रक्चरल नरेशन’ और फिर समापन तक का पूरा किस्सा नारायणभाई ने जिस आत्मपरकता से सुनाया वह किसी भी लोक कथाकार को मात करने वाला था ।

मांसाहार के लिए उनसे आग्रह तब तक होते रहे जब तक वे इंग्लैण्ड में रहे । उनके मकान मालिक ने, मांसाहार के पक्ष में एक किताब पढ़ने के लिए मोहनदास से कहा । मोहनदास ने कहा कि वह किताब तो जरूर पढ़ेगा लेकिन मांसाहार फिर भी नहीं करेगा ।

एक बार वे गम्भीर बीमार पड़े । डाक्टर ने कहा कि स्वस्थ होने के लिए मांसाहार जरूरी है और यदि मोहनदास ‘यह दवा’ नहीं लेते हैं तो वह अगले दिन से उनका उपचार नहीं करेगा । मोहनदास ने निर्णय के लिए 24 घण्टे मांगे । अगले दिन डाक्टर आया तो मांस का गरम-गरम सूप साथ लाया । आते ही उसने कहा - लो पियो । मोहनदास ने पूछा - क्या आप जिम्मेदारी लेते हैं कि यह सूप पीने के बाद (याने मांसाहार करने के बाद) मोहनदास मरेगा नहीं ? डाक्टर ने अचकचाकर कहा - यह तो ऊपरवाले के हाथ में है । तब मोहनदास ने कहा - ‘जीना मरना जरूर ऊपरवाले के हाथ में है लेकिन प्रतिज्ञा पालन करना तो नीचे वाले के हाथ में है ।’ डाक्टर के पास कोई जवाब नहीं था और मोहनदास ने वह सूप नहीं पिया ।

खुद में हुए किसी भी सुधार का श्रेय मोहनदास ने खुद को कभी नहीं दिया । ऐसे प्रत्येक सुधार का श्रेय उन्होंने सदैव ही इसके निमित्त को और ‘निर्बल के बल राम’ को दिया ।

अठारह-बीस वर्षीय मोहनदास को मिले नागरिकता के ये संस्कार केवल ‘ब्रितानी नागरिकता’ तक सीमित नहीं रहे क्यों कि जिन लोगों की संगति मोहनदास को मिली उनमें से कोई भी विश्व नागरिकता से कम पर नहीं सोचता था ।

इस नागरिकता बोध को बापू ने सत्याग्रह से जुड़ा अनुभव किया और कहा कि जो ‘नागरिक’ नहीं होता वह सत्याग्रह करने के योग्य नहीं होता ।’

इसलिए गए बापू दक्षिण अफ्रीका

तीन कारणों से बापू ने दक्षिण अफ्रीका जोन का निर्णय लिया । पहला - वे यहां वकालात में सफल नहीं हो सके थे । दूसरा - काठियावाड़ के राजाओं की आपसी खट-पट ने उन्हें विकर्षित कर दिया । तीसरा - उनके बड़े भाई करसन गांधी ने कहा कि इंग्लैण्ड में पढ़ाई के दौरान जिस अफसर से मोहनदास की दोस्ती हुई थी, वह अभी यहीं है और वह करसन भाई को परेशान करता है । सो मोहनदास उस अफसर से करसन भाई की सिफारिश कर दे । मोहनदास उस अफसर के पास पहुंचे तो वह न केवल नाराज हुआ और न केवल उसने करसन भाई की अत्यधिक बुराई की बल्कि मोहनदास की एक भी बात पूरी नहीं सुनी, अत्यधिक अपमान किया और चपरासी से कहा कि मोहनदास को बाहर का रास्ता दिखा दे । इस घटना से माहनदास को मर्मान्तक पीड़ा हुई । उन्होंने उस अफसर पर दुव्र्यवहार करने का केस लगाने का विचार किया और फिरोज शाह मेहता से इस बारे में सलाह मांगी । फिरोज भाई ने कहा कि यदि यहां रहकर धन्धा करना और कमाना है तो अपमान के ऐसे घूंट तो बार-बार पीना पडेंगे ।

मोहनदास ‘बेकार’ और ‘विकर्षित’ थे तभी उन्हें दक्षिण अफ्रीका से दादा अब्दुल्ला की ओर से मुकदमा लड़ने का प्रस्ताव मिला जिसके लिए 105 पौण्ड वार्षिक का पारिश्रमिक मिलना था । यह मुकदमा अब्दुल्ला भाई और उनके चचेरे भाई के बीच, लगभग 40 हजार पौण्ड की सम्पत्ति को लेकर चल रहा था । मोहनदास ने यह प्रस्ताव मान लिया ।

दक्षिण अफ्रीका में वे अब्दुल्ला भाई से मिलते उससे पहले ही उनकी टक्कर रंग भेद से हो गई । जहाज पर से उन्होंने देखा कि उनकी अगवानी के लिए आ रहे अब्दुल्ला भाई को, उनके पीछे से आ रहा एक गोरा धक्का माकर आगे निकल गया । मोहनदास को यह तो बुरा लगा ही लेकिन उससे अधिक बुरा इस बात का लगा कि अब्दुल्ला भाई को यह हरकत बिलकुल भी बुरी नहीं लगी और सहज बने रहे ।

यूं शुरु हुई बापू की पत्रकारिता

अब्दुल्ला भाई की पैरवी करने के लिए वे ठेठ भारतीय वेशभूषा में कोर्ट में प्रस्तुत हुए तो उन्हें बाहर निकाल दिया गया । ‘अनवाण्टेड गेस्ट’ शीर्षक से एक अखबार ने समाचार तो छापा लेकिन घटना के तथ्यों में हेर-फेर था । बापू ने वास्तविकता बताते हुए सम्पादक के नाम पत्र लिखा । वह पत्र छपा भी । यही पत्र, बापू की पत्रकारिता की शुरुआत बना ।

नारायण भाई ने अनूठी जानकारी दी कि दक्षिण अफ्रीका प्रवास में बापू ने जितने पत्र अखबारों के सम्पादकों के लिखे, उनमें से एक भी पत्र अप्रकाशित नहीं रहा-सबके सब छपे और कई पत्र तो ऐसे थे जिन्हें आधार बना कर सम्पादकों ने सम्पादकीय-अग्रलेख लिखे ।

अब्दुल्ला भाई के मुकदमे के दौरान बापू ने अनुभव किया कि मुकदमे में वकील की जेब भारी होती जाती है और पक्षकार की जेब हलकी । सो उन्होंने अब्दुला भाई को समझौते की सलाह दी और मध्यस्थ की जिम्मेदारी खुद निभाई । उन्होंने अदालत के बाहर समझौता कराया जिसमें अब्दुल्ला भाई के सारे दावे ज्यों के त्यों स्वीकार कर लिए गए । लेकिन बापू ने अनुभव किया कि इतनी बड़ी रकम एक मुश्त चुकाना, किसी भी व्यापारी को दिवालिया बना देगा । सो उन्होंने अब्दुल्ला भाई को यह रकम लम्बी किश्तों में वसूल करने के लिए राजी किया । इस घटना ने अब्दुल्ला भाई पर गहरा असर किया और ‘वकील गांधी’ उनके लिये ‘भाई गांधी’ बन गया ।

नारायण भाई ने कहा - बापू से जब पूछा गया कि उनके जीवन का सर्वाधिक सृजनात्मक क्षण कौन सा था तो बापू ने कहा था - जब मुझे मेरे सामान सहित रेल के डिब्बे से बाहर फेंका गया ।

बकौल नारायण भाई, इस दुर्घटना की पहली प्रतिक्रिया तो वापस वतन लौटने की रही लेकिन मोहनदास के मन में अगला विचार आया - ‘मैं तो चला जाऊंगा लेकिन जो हिन्दुस्तानी पहले से यहां रह रहे हैं और जो हिन्दुस्तानी मेरे जाने के बाद यहां आएंगे उनका क्या होगा ?’ इस विचार ने ही गांधी को, 'व्यक्ति से समष्टि' बनाया ।


सामान सहित रेल से फेंके जाने के अगले ही दिन जब वे बग्गी से जा रहे थे कोचवान द्वारा उनके साथ किए जा रहे अपमानजनक व्यवहार के दौरान एक गोरे ने कोचवान को टोका और गांधी की बात का समर्थन किया । इस घटना ने गांधी को वह विचार दिया जो आज के भारत की सबसे बड़ी समस्या का निदान है लेकिन जिस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा । उन्होंने देखा कि एक गोरे ने उन्हें रेल से उतार फेंका और दूसरे ने बग्गी में उन्हें उनका यथोचित स्थान दिलाया । याने - सब गोरे एक जैसे नहीं हैं । अर्थात् एक आदमी की गलती को पूरी कौम की गलती नहीं मानी जानी चाहिए ।

गांधी ने साधारीकरण को आजीवन अस्वीकार किया । साधारीकरण सदैव समस्याएं खड़ी करता है । जिस देश को तरक्की करनी है उसे साधारीकरण से कड़ा परहेज करना ही होगा ।
नारायण भाई के अनुसार इन घटनाओं ने गांधी का जीवन ऐसे बदला जिसे संस्कृत में ‘द्विज बन जाना’ कहा गया है । जिस प्रकार अण्डा, फूटने के बाद अण्डा नहीं रह जाता, चूजा बन जाता है, उसी प्रकार गांधी का जीवन बदल गया । उन्होंने गोरों के व्यवहार को रोग नहीं माना । उन्होंने अनुभव किया कि रंग भेद इस रोग की जड़ है और उन्हें व्यक्ति से नहीं बल्कि वृत्ति से तथा उससे भी आगे बढ़कर व्यवस्था से संघर्ष करना होगा ।


पहली घटना से गांधी घबराए अवश्य, सम्भवतः अंशतः विचलित भी हुए हों लेकिन उन्होंने भाषा की विनम्रता और अपने विश्वास के प्रति दृढ़ता को बिलकुल नहीं छोड़ा और यहीं उन्होंने अनुभव किया कि सत्याग्रह और कायरता साथ-साथ नहीं चल सकते ।


पहला भाषण

‘समष्टि’ की चिन्ता करते हुए उन्होंने अब्दुल्ला भाई की सहायता से प्रिटोरिया में भारतीयों की सभा बुलाई थी, उसमें दिया गया भाषण, गांधी का पहला भाषण था । इस भाषण में उन्होंने अपने साथ हुए व्यवहार का जिक्र भी नहीं किया और एक भी कड़वा शब्द नहीं कहा । उन्होंने सबकी समस्याओं पर बात की और जब भेद-भाव के विरुध्द पहल पर सहमति हुई तो उन्होंने कहा - पहले हमें तैयार होना पड़ेगा । पहले अपने दोष दूर करने होंगे । हम घर में ईमानदारी वापरें और व्यापार में बेईमानी - इससे हमारी और हमारी बात की इज्जत नहीं होती । घर में और बाहर में एक बात कहने के लिए हिन्दुस्तानियों की प्रतिष्ठा बनानी पड़ेगी । हम सबको हिन्दुस्तानी बनना पड़ेगा और इसके लिए जाति, भाषा, धर्म के आग्रह छोड़ने पड़ेंगे ।


यह बात गांधी ने 1893 में कही थी तब वे ‘भाई गांधी’ थे, ‘महात्मा’ नहीं बने थे ।

वकील की विश्वसनीयता

‘भारत का असफल बैरिस्टर मोहनदास’ दक्षिण अफ्रीका का न केवल सफल वकील बना अपितु उसने वकालात के पेशे को जो वि”वसनीयता और इज्जत दिलाई उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही कहीं मिले । उनकी सफलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी मासिक आमदनी पांच हजार पौण्ड तक होने लगी थी और गोरे वकील उनके जूनीयर के रूप में काम करते थे । लेकिन उन्होंने झूठे मुकदमे कभी नहीं लिए । चलते मुकदमों के दौरान उन्हें जैसे ही मालूम हुआ कि उनके मुवक्किल ने उनसे झूठ बोला है तो उन्होंने वे मुकदमे, न्यायाधीश से क्षमा याचना करते हुए बीच में ही छोड़ दिए ।

जज ने की गांधी की पैरवी

इस कड़ी में नारायण भाई ने रोचक और सर्वथा अविश्वसनीय प्रसंग सुनाया ।


एक मुकदमे में, गांधीजी के प्रतिपक्षी वकील ने जिरह करते-करते जिस तरह से सवाल पूछने शुरु किए वह देख कर जज ने उस वकील को टोका और कहा - यदि आप गांधी की कही बातों को झूठा साबित करने की कोशिश कर रहे हैं तो ऐसा मत कीजिए क्यों कि कोई भी आपकी बात नहीं मानेगा ।

खुदा के नाम पर कतल नहीं

नारायण भाई ने आज के आख्यानों में गांधी की प्रासंगिकता ही नहीं, अनिवार्यता भी जिस शिद्दत और सम्वेदनशीलता से उकेरी उसके लिए मुझे कोई शब्द नहीं मिल रहे हैं । नारायण भाई की बातें महज बातें नहीं मानो ‘ग्लुकोज सलाइन’ हों जो सुनने वालों के बहते खून में तत्काल ही मिल कर खून बनती जा रही हों ।

दक्षिण अफ्रीका में हिन्दुस्तानियों की आमद दर्ज करने और दसों अंगुलियों के निशान लेने की अनिवार्यता समाप्त करने की मांग उठी । गांधी ने कहा - यह अनिवार्यता अनुचित और अनैतिक है लेकिन अवैध आगमन को रोकने के लिए आवश्यक भी है । इसलिए, इसकी अनिवार्यता समाप्त की जाए लेकिन यदि कोई स्वैच्छिक रुप से ये निशान देना चाहे तो इसका विरोध नहीं करेंगे । गांधी ने अनिवार्यता का तो विरोध किया लेकिन इसके समानान्तर स्वैच्छिक स्वरूप का समर्थन किया । इससे उन लोगों को असुविधा हुई जो हिन्दुस्तानियों को अवैध रूप से दक्षिण अफ्रीका लाते थे । ऐसे लोगों ने कुछ गोरों की सहायता से कुछ हिन्दुस्तानियों को गांधी के विरोध में खड़ा कर दिया । गांधी ने घोषणा की कि रजिस्ट्रार के दतर में, आमद रजिस्टर पर दस्तखत और अंगुलियों के निशान सबसे पहले वे करेंगे । घोषित दिन गांधी घर से निकले । रास्ते में मीर आलम नाम का पठान मिला । पहले वह जब भी मिलता तो बड़े अदब से, आगे होकर ‘सलाम वालेकुम’ करता । लेकिन उस दिन उसके तेवर और मुख मुद्रा बदली हुई थी । गांधी ने ‘सलाम वालेकुम’ कहा तो मजबूरी में उसे ‘वालेकुम सलाम’ कहना पड़ा । लेकिन तेवर ढीले नहीं हुए । दोनों साथ-साथ चलने लगे । मीर आलम ने पूछा - कहां जा रहे हो ? जवाब मिला - रजिस्ट्रार के दफतर में दस्तखत करने और निशान देने । कुछ कदम चलने के बाद वही सवाल पूछा । वही जवाब आया । इसके थोड़ी ही देर बाद पीछे से गांधी की गर्दन पर एक लट्ठ पड़ा, दूसरा लट्ठ पड़ा सर पर । खून निकल आया । तीसरा लट्ठ मुंह पर पड़ा । ऊपर का होठ फट गया और एक दांत टूट गया । चेहरा लहू-लुहान हो गया । गांधी ‘हे ! राम’ कहते-कहते मूर्छित हो गए । होश में आते ही रजिस्ट्रार के दतर में जाने की जिद की, मना करने के बावजूद वहां गए और दस्तखत कर अपनी अंगुलियों के निशान दिए । फिर पूछा - ‘मीर आलम कहां है ?’ मालूम पड़ा - उसे तो पुलिस ले गई, जेल भेज दिया है । गांधी ने कहा - ‘मीर आलम ने वही किया जो उसने ठीक समझा । उसे कोई सताए नहीं ।’ फिर उन्होंने एक सन्देश लिखवाया जिसमें कहा - ‘मैं हिन्दू हूं और मीर आलम पठान है । हम दोनों ने वही किया जो हम अपनी-अपनी जगह ठीक समझते थे । इसलिए इस मामले को लेकर केाई साम्प्रदायिकता न हो । मुझे भरोसा है कि मेरे खून से सने कपड़े इस देश में रहने वाले भारतीयों के रिश्तों को मजबूत करेंगे ।’ मीर आलम तक जब सारी बातें पहुंचीं तो गांधी का मुरीद हो गया ।


इसी मीर आलम को गांधी ने जोहानसबर्ग में जो सीख दी वह दुनिया के प्रत्येक धर्म के प्रत्येक अनुयायी के लिए सबसे बड़ा ‘धर्म वाक्य’ है ।

गांधी को जोहनसर्ग में भाषण देना था । गांधी के खिलाफ लोग उत्तेजित थे । गांधी की जान को खतरा था । लोगों के मना करने के बावजूद गांधी वहां भाषण देने पहुंचे । भाषण शुरु होता उससे पहले ही बिजली गुल हो गई, अंधेरा छा गया । अंधेरा होते ही एक ललकार सुनाई दी - ‘गांधी का बाल भी बांका हुआ तो खुदा कसम जान ले लूंगा ।’ गर्जना सुन कर लोगों ने जाना शुरु कर दिया । थोड़ी ही देर में बिजली आ गई तो लोगों ने देखा - गांधी तख्त पर बैठे हैं और मीर आलम पीछे खड़ा है ।


भाषण देने के बाद गांधी ने मीर आलम से कहा - ‘खुदा के नाम पर तो बन्दगी होती है, जान नहीं ली जाती है । आगे से कभी भी खुदा के नाम पर जान लेने की बात मत करना ।’


विश्व का पहला सफल सत्याग्रह और उसकी नेता


नारायण भाई ने आज ऐसी कई अनूठी जानकारियां दीं जो आप-हमको अब तक पता नहीं हैं ।


1913 में, जनरल स्मग्स नामक अफसर ने विचित्र फैसला देकर दक्षिण अफ्रीका में बसे तमाम हिन्दुस्तानियों को कानूनन सामाजिक अपराधी बना दिया । उसने कहा कि वे स्त्री-पुरुष ही पति-पत्नी माने जाएंगे जिनके विवाह की प्रविष्टि सरकारी रजिस्टर में हुई हो या फिर जिनका विवाह चर्च में हुआ हो । इस आदेश के चलते तमाम हिन्दुस्तानी पत्नियां कलम की एक जुम्बिश से ‘रखैलें’ बन गईं । गांधीजी ने यह बात जिज्ञासा पैदा करने वाली शैली में कस्तूर बा के सामने रखी और कुछ इस तरह रखी कि वे इस आदेश के खिलाफ सत्याग्रह करने को तैयार हो गईं । लेकिन ‘बा’ ने कहा - मुझे जेल भेज दिया तो ? गांधी बोले - जेल चली जाना । ‘बा’ ने कहा - मुझे मालूम है वहां खाने को क्या मिलता है और मैं तो फलाहार पर चल रही हूं । गांधी ने कहा - जेलर से फल मांग लेना । ‘बा’ ने आगे पूछा - मुझे फल नहीं दिए तो ? गांधी ने जवाब दिया - उपवास कर लेना । ‘बा’ ने अगला सवाल किया - मैं जेल में मर गई तो ? गांधी ने तुरन्त जवाब दिया - तब मैं आजीवन तुझे जगदम्बा की तरह पूजूंगा ।

सत्याग्रह आख्यान को बीच में ही रोकते हुए नारायण भाई ने कहा - इतिहास साक्षी है कि ‘बा’ की मृत्यु जेल में ही हुई और तब बापू ने कहा - ‘वह वास्तव में जगदम्बा थी ।’ अपने शेष्‍ जीवन में बापू, ‘बा’ को जगदम्बा की तरह ही मानते रहे ।

और नारायण भाई ने आख्यान आगे बढ़ाया - ‘बा’ ने सत्याग्रह का नेतृत्व किया । इस सत्याग्रह में तीन हजार से पांच हजार तक लोगों ने भाग लिया । स्वयम् गांधीजी ने ‘बा’ के नेतृत्व में इस सत्याग्रह में भाग लिया । ‘बा’ को तीन माह की जेल हुई । जेल में उन्होंने अन्नाहार से इंकार कर दिया । वार्डन अत्यन्त कू्र थी । उसने फलों की व्यवस्था से इंकार कर दिया । ‘बा’ ने उपवास शुरु कर दिया । पांचवें दिन अन्ततः वार्डन ने समर्पण कर दिया, ‘बा’ के लिए फलों की व्यवस्था करनी पड़ी । इस सत्याग्रह की परिणति, जनरल स्मग्स के आदेश की वापसी से हुई ।

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच नारायण भाई ने कहा - यह दुनिया का सबसे पहला सफल सत्याग्रह था जिसका नेतृत्व, कस्तूर बा नामकी एक भारतीय स्त्री ने किया ।

विश्व का पहला कूच


श्रोताओं के लिए यह जानकारी भी सर्वथा नई और अत्यधिक रोचक थी कि दुनिया का सबसे पहला ‘कूच’ भी गांधी की देन रहा जो उन्होंने परमिट की अनिवार्यता के खिलाफ प्रिटोरिया तक किया था । इस कूच में लोगों की संख्या के अनुरूप भोजन व्यवस्था न होने पर परोसगारी की जिम्मेदारी गांधी ने खुद ली । जो सामथ्यवान लोग कूच में शरीक नहीं हो सके, उन्होंने दाल, चांवल आदि की सहायता की । कूच में शामिल लोगों के लिए बनी खिचड़ी कम पड़ती नजर आई तो गांधी ने सबको थोड़ा-थोड़ा देना शुरू किया । अपनी फूटी तश्तरी में अत्यल्प मात्रा में रखी खिचड़ी देख रही एक स्त्री का प्रसंग नारायण भाई ने जिस मार्मिकता से सुनाया उसने श्रोताओं को रुला दिया ।


खिचड़ी वितरण में गांधी की विवशता, वापरी जा रही निष्पक्षता और समानता को अनुभव कर उस स्त्री ने कहा - मैं पूर्ण तृप्त हो गई ।

तब नारायण भाई ने कहा - लोक का यह विश्वास ही गांधी की शक्ति था । लोग उसी पर विश्वास करते हैं जो लोगों पर विश्वास करता हो । ऐसा व्यक्ति ही लोक नेता होता है और कहना न होगा कि गांधी के बाद गांधी जैसा लोक नेता आज तक कोई नहीं हुआ ।

गांधी के जीवन में राम-नाम


मरते समय गांधीजी के मुंह से निकले दो शब्दों ‘हे ! राम’ का जिक्र भी प्रसंगवश आया । नारायण भाई ने कहा कि अव्वल तो गांधी के जीवन में कोई खाली क्षण आया ही नहीं और यदि आया भी तो ऐसे प्रत्येक क्षण में वे ‘राम-राम’ जपा करते थे । राम-नाम का साथ उन्हें बचपन से, रम्भा दाई ने दिया था । वह अपने ‘मोहन्या’ से कहती थी घर से बाहर यदि कभी डर लगे तो ‘राम-राम’ बोलते रहना । सेवा ग्राम में बापू के लिए जो पहली कुटिया बनी उसमें शौचालय था । लेकिन जो नई कुटिया बनी उसमें शैचालय की व्यवस्था नहीं थी । पुरानी कुटिया को ‘आदि कुटी’ और नई कुटिया को ‘बापू कुटी’ कहा जाता था । नारायण भाई ने कहा कि बापू सवेरे ‘बापू कुटी’ और ‘आदि कुटी’ के बीच जाते-आते थे तो यही उनका खाली समय होता था और वे (नारायण भाई) प्रायः ही उस समय बापू के साथ रहते थे । नारायण भाई ने कहा - ‘‘ऐसे प्रत्येक अवसर का मैं साक्षी हूं कि वे उस दौरान ‘राम-राम’ जपते रहते थे ।’’

नारायण भाई ने कहा - बापू को जीवन के प्रारम्भ में रम्भा दाई ने जो राम-नाम दिया, वह मध्य में मीर आलम प्रकरण में प्रकट हुआ और प्राणान्त तक उनके साथ बना रहा । वस्तुतः गांधी तो ‘राम से राम तक जाने की सरल रेखा थे ।’

अन्तरात्मा की आवाज

बास्केटबाल काम्पलेक्स के बाहर कुदरत झमाझम बरस रही थी तो अन्दर नारायण भाई अछूते, अन्तरंग प्रसंगो की वर्षा कर रहे थे । जनरल स्मग्स वाले मामले में रानाडेजी ने गांधी को पुनर्विचार कर, सत्याग्रह वापस लेने का परामर्श दिया । उत्तर में गांधी ने सन्देश भिजवाया कि रानाडेजी का विचार सही हो सकता है लेकिन उनकी (गांधीजी की) अन्तरात्मा इसकी अनुमति नहीं देती । अपने संस्कारों की सम्पूर्ण विनम्रता और आत्मा की सम्पूर्ण दृढ़ता बरतते हुए गांधीजी ने अपनी अन्तरात्मा की आवाज सुनी और मानी । नारायण भाई ने इस वाक्य के साथ अपनी बात समाप्त की - अन्तरात्मा की आवाज गांधी के लिए बचपन से लेकर मृत्यु तक अन्तिम आवाज थी ।


(कल, नारायण भाई, बापू के दक्षिण अफ्रीका से वापसी के बाद भारत प्रवेश से लेकर दाण्डी यात्रा तक का काल खण्ड प्रस्तुत करेंगे । यह मुझ पर ईश्वर की कृपा ही है कि अपने शहर से बाहर रह कर, तकनीक की अत्यल्प जानकारी के बावजूद मैं नारायण भाई का कल का व्याख्यान आप तक पहुँचा सका । मैं कोशिश करूंगा कि बापू कथा की तीसरी शाम भी आप तक पहुंचा सकूं । यह आयोजन, इन्दौर में, कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा स्व. श्री जयन्ती भाई संघवी की स्मृति में, बास्केटबाल स्टेडियम में किया जा रहा है ।)

9 comments:

  1. विष्णु भाई
    बापू प्रेमियों के लिए जो इंदोर में नहीं रहते क्या कोई ऐसी व्यवस्था है जिससे वो कैसेट, सी.डी. या अन्य किसी माध्यम से इन भाषणों को सुन सकें, अगर है तो उन्हें प्राप्त करने के विकल्पों से जरूर अवगत करवायें.
    नीरज

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  2. विष्णु जी, आप ने यह सारा विवरण बहुत सहज सरल भाषा में जिस तरह लिखा है उससे वहाँ न हो कर भी, लगा कि मानो स्वयं नारायण भाई देसाई को सुना हो. आप का बहुत धन्यवाद. आशा है कि यह सब बातें रिकार्ड की जायेंगी और इंटरनेट के माध्यम से उन्हें सुनने का मौका भी मिलेगा.

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  3. आपको अनंत साधुवाद.

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  4. यदि वहां इसकी रेक़ॉर्डेड प्रति (ऑडियो या वीडियो जो भी हो,) मिले तो लेते आएं. उन्हें इन्टरनेट पर चढ़ाने की कोशिश करेंगे.

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  5. नारायण देसाई जी की बापूकथा के बारे में जानकारी देने के लिए आभार। मैं उनको सुनने की चाह अभी तक पूरी नहीं कर सकी। आपके माध्यम से बहुत कुछ जानने को मिला। सच में यदि रिकार्ड सुनने को मिल जाता तो अहोभाग्य होते।
    घुघूती बासूती

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  6. बापू कथा बकलम विष्णु बैरागी के अगले अंक की प्रतीक्षा है।

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  7. विष्णु जी,

    सारा आलेख पढ़ डाला और साथ ही सारी टिप्पणियाँ भी. यह जानकर अच्छा लगा कि मैं अकेला ही आपका आभारी नहीं हूँ. वैसे तो गाँधी-कथा ही अपने आप में एक नया प्रयोग जैसा लग रहा है मुझे. ऊपर से आपने जितने श्रम और विस्तार से सब कुछ हम तक पहुंचाया, ह्रदय द्रवित हो गया. आगे अपने कुछ मित्रों को भी URL भेज दिया है ताकि उन्हें भी लाभ पहुंचे. ऐसे मौके पर दूर-दूर बैठे हुए पाठकों का ध्यान रखने का आभार.

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  8. गाँधीजी की लिखी हुई , और उनके बारे में कई रोचक किताबें पढते रहने के बाद भी आपने जो जानकारियाँ दी हैं , वे पहले कभी किसी ने नहीं बताई थी। विष्णु भाई ! कह सकता हूँ कि नारायण देसाई की गांधी-कथा के आप सबसे अच्छे श्रोता रहे होंगे। गांधी तो गांधी , नारायण देसाई आपके भीतर तक उतरते चले गये। यह महत्वपूर्ण दस्तावेज की तरह है। मेरे सहित कई लोग हैं , जिन्होंने आपकी तरह नारायण देसाई को प्रत्यक्ष नहीं सुना , किन्तु आपका लिखा हुआ पढ लेने के बाद हम नारायण देसाई को प्रत्यक्ष सुनने का दावा तक कर सकते हैं । प्रणाम करता हूँ आपको , और आशा करता हूँ , कि वे सब पन्ने खुलेंगे , जो आपके पास हैं , और जिनकी हम सबको बड़ी जरूरत है।⚘

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  9. एक बार पुन: आभार।
    मुरलीधर चाँदनीवाला⚘

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