बापू कथा: तीसरी शाम (11 अगस्त 2008)

काश ! मेरी आंखों-कानों को जबान मिली होती

नारायण भाई देसाई आज अपने पूरे रंग में नजर आए । जिस काल खण्ड की चर्चा आज उन्होंने की, उसकी अनेक घटनाओं के वे प्रत्यक्ष साक्षी या फिर भागीदार रहे । इसलिए, आज उन्हें तीन घण्टों का समय कम पड़ गया । समय का अनुशासन भंग करने के लिए आज उन्हें अपने श्रोताओं से क्षमा मांगनी पड़ी जबकि श्रोता चाहते थे कि नारायण भाई अपने ‘इस अपराध’ की अवधि और बढ़ा दें ।

आज के प्रसंगों की अधिसंख्य घटनाएं चूंकि सीधे-सीधे नारायण भाई से जुड़ी थीं, सो आज केवल उनकी जबान नहीं बोल रही थी, उनका रोम-रोम बोल रहा था । घटनाओं की अव्यक्त कथाएं आज बिलकुल ‘बिटविन द लाइन्स’ की तरह बह-बह कर चली आ रही थीं और श्रोता निहाल हुए जा रहे थे ।

गए दो दिनों से केवल प्रस्तोता की तरह व्यवहार कर रहे नारायण भाई आज, समूची कथा के लेखक, इसकी पट कथा के लेखक, दृष्य संयोजक, सम्वाद लेखक, निदेशक ही नहीं, तमाम घटनाओं के सारे पात्रों की भूमिका निभाते भी नजर आए । आज उनकी वाणी में जो उछाह, बोलने में जो ऊर्जा, वाणी का जो आरोह-अवरोह और तमाम पात्रों के सम्वादों की साभिनय जो अदायगी उन्होंने की वह किसी कुशल नाटककार और निष्णात अभिनेता की छवि बना रही थी । नारायण भाई के ‘एक शरीर में अनेक शरीर’ अनुभव हो रहे थे । मालवा में जिसे ‘मोहिनी मन्तर’ (सम्मोहन) कहते हैं, लगता रहा आज नारायण भाई ने वही अपने श्रोताओं पर चला दिया है । दाण्डी यात्रा से पूर्व गांधी-जवाहर के वार्तालाप को उन्होंने शब्दाघात की जिस चरम श्रेष्ठता से प्रस्तुत किया तो लगा हम लोग दोनों जन नायकों को बात करते हुए साक्षात् देख रहे हों । अपने महबूब की तलाश में कोई आशिक खुद अपने महबूब की शकल कैसे अख्तियार कर लेता होगा - यह मैं ने आज नारायण भाई को सुनते-सुनते देख कर अनुभव किया । आज कथा पीछे रह गई और कथाकार कोसों आगे निकल गया । नारायण भाई ने आज विनोबा की भी याद दिला थी जो प्रसन्नता में बच्चों की तरह ताली बजाने लगते थे । काश ! मेरी आंखों और कानों को जबान मिली होती तो आपको मालूम हो पाता कि आज मैं ने क्या देखा-सुना । यह ऐसा विरल चमत्कारिक अनुभव है जिसे मैं कभी नहीं भूलना चाहूंगा ।


गांधी की वापसी


अपने राजनीतिक गरु गोखलेजी के कहने पर गांधी दक्षिण अफ्रीका से जब भारत लौटने लगे तो उन्होंने अपने आप से पूछा - मैं क्या लेकर जा रहा हूं ? उन्होंने अनुभव किया कि वे ‘सत्याग्रह’ अपने साथ लेकर लौट रहे हैं जो भारतवासियों के लिए नई चीज थी । दक्षिण अफ्रीका में गांधी तीन सत्याग्रह कर चुके थे । लेकिन गांधी ने तय किया कि वे दक्षिण अफ्रीका की इस पूंजी को भारत में नहीं भुनाएंगे ।

गोखलेजी ने उनसे कहा - मैं तुम्हें कोई काम नहीं बताऊंगा और न ही कोई सलाह दूंगा । लेकिन तुम जो भी काम करो, उससे पहले देश को अच्छी तरह समझ लेना और समझने का उपाय है - आंखें खुली रखकर देखना, कान खुले रखकर सुनना लेकिन एक वर्ष तक बोलना कुछ भी मत, किसी भी सभा में भाषण मत देना ।

देश को समझने का सबसे अच्छा उपाय गांधी को देशाटन नजर आया । सो, वे यात्रा पर निकल पड़े । दक्षिण अफ्रीका में, रेल की प्रथम श्रेणी में यात्रा करने वाले बैरिस्टर गांधी ने भारत में रेल के तीसरे दर्जे में सफर करने का निर्णय लिया क्यों कि वहीं ‘देश’ से मुलाकात हो सकती थी । उस एक वर्ष में उन्होंने, अण्डमान-निकोबार और लक्षद्वीप को छोड़कर पूरे भारत की यात्रा की । इस यात्रा में फीनिक्स आश्रम के उनके सहयोगी कुछ कुमार भी साथ थे और कस्तूर बा भी बीच-बीच में शामिल हो जाया करती थी । यात्रा के दौरान वे देश में सक्रिय तमाम राजनीतिक पार्टियों के दतरों में गए, जिस भी संस्था या संगठन ने बुलाया वहां गए, मुम्बई में गुजरात के लोगों ने गांधी का सम्मान किया तो वहां सब लोग अंगे्रजी में बोल, केवल गांधी गुजराती में बोले । उन्होंने तय किया कि वे या तो राष्ट्रभाषा में बोलेंगे या मातृ भाषा में ।

जड़ता-अर्द्ध निन्द्रा में पड़े गुलाम देश को झकझोरे जाने की जरुरत थी । लेकिन कैसे-गांधी को इस सवाल के जवाब की तलाश थी । उस समय देश को आजाद कराने के लिए चार विचारधाराएं चल रही थीं - गोखलेजी का नरम दल, तिलकजी गरम दल, क्रान्तिकारियों के समूह और श्री अरविन्द के नेतृत्व में तत्वदर्शी वैचारिकता वालों का दल । गांधी ने पाया कि चारों विचारधाराओं का मेल सत्याग्रह में सम्भव है । उन्होंने निर्णय लिया कि वे जो भी अभियान चलाएंगे वह रजोगुण प्रधान, तमोगुण के सहयोग से चलेगा लेकिन उस पर सत्गुण का पुट अनिवार्यतः रहेगा ।

आश्रम कहां बने


उनकी भेंट गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुई । गरुदेव, गांधीजी से सात वर्ष बड़े थे लेकिन गांधीजी को अत्यन्त आदर देते थे । गुरुदेव ने कहा - आप जहां भी जाते हो, वहां आश्रम बना लेते हो । यहां भी बनाओगे ही । आश्रम बनेगा तब बनेगा तब तक आपके, फीनिक्स के कुमार शान्ति निकेतन में रहेंगे ।


गांधीजी को हरिद्वार और बैजनाथ धाम में आश्रम बनाने के प्रस्ताव मिले । एक प्रस्ताव अहमदाबाद से भी आया जिसमें कहा गया था कि आश्रम वहां स्थापित होने की दशा में प्रथम दो वर्षों का खर्च प्रस्तावक देंगे । गांधीजी ने अहमदाबाद में आश्रम बनाने का निर्णय तो लिया लेकिन उसका कारण यह प्रस्ताव नहीं था । उन्होंने कहा - मैं व्यावहारिक आदर्श में विश्वास करता हूं । मुझे जिन लोगों की सेवा करनी है, उन्हीं की भाषा में बात कर सकूं तो ही वास्तविक सेवा कर सकूंगा । इसी ‘व्यावहारिक आदर्श’ की दृष्टि से अहमदाबाद का चयन किया गया ।

आश्रम की नियमावली बनी और शर्त रही कि आश्रम के निवासियों को नियमावली के पालन का आग्रह रखना पड़ेगा । ठक्कर बापा की सिफारिश पर दुधा भाई नामक एक दलित के परिवार को भी इसी शर्त पर प्रवेश दिया गया । इससे आश्रम को प्रथम दो वर्षों तक सहयोग करने वाला श्रेष्ठि वर्ग अप्रसन्न हो गया । सहायता बन्द हो गई । उस समय अम्बाराम साराभाई चुपचाप तेरह हजार रुपयों का चेक देकर आश्रम के बाहर से ही चले गए । इस रकम में आश्रम का एक वर्ष का खर्च चल सकता था ।

दलित परिवार के प्रवेश पर कस्तूर बा ने भी अप्रसन्नता प्रकट तो की लेकिन अपने पति के प्रत्येक निर्णय में साथ देने वाली कस्तूर बा ‘पति के पुण्य में सती का पुण्य’ वाली कहावत पर अमल कर, बापू के साथ बनी रही । इसी समय विनायक नरहरि भावे नामके युवक ने कलकत्ता से, आश्रम प्रवेश के लिए पत्र-सम्पर्क किया । पहली बार भेजे उत्तर पर विनायक भावे ने कुछ जिज्ञासाएं प्रकट कीं जिन्हें पढ़कर गांधीजी ने विनायक की प्रतिभा को भांप लिया । बकौल नारायण भाई -‘बापू, मनुष्यों के मछुआरे’ (फिशरमेन आफ मेन) थे, अच्छे लोगों को साथ करने में माहिर । उन्होंने विनायक को लिख भेजा कि व्यक्तिश: आकर सारी बातें समझ लें । विनायक आया तो फिर नहीं लौटा । विनायक उहापोह में था - हिमालय में जाकर साधना करूं या बंगाल के क्रान्तिकारियों से जुड़ जाऊं ? लेकिन साबरमती आश्रम में आने के बाद विनायक ने कहा - इस आश्रम में मुझे हिमालय की शान्ति और बंगाल की क्रान्तिकारिता एक साथ मिली । यह आश्रम दोनों का संगम है । इसी विनायक को गांधीजी ने ‘विनोबा’ बनाया । विनोबा ने कहा - कर्मयोग की पहली दीक्षा मुझे बापू से ही मिली ।


कालान्तर में बापू ने आश्रम की नियमावली को आश्रम के संविधान में बदला । यह संविधान बापू ने खुद लिखा । जैसा कि प्रत्येक संविधान में होता है, इसका उद्देश्य भी बताया जाना था । बापू ने उद्देश्य लिखा - विश्व के हित में अविरोध की देश सेवा करना । बापू का हस्तलिखित यह संविधान आज भी साबरमती आश्रम के संग्रहालय में रखा हुआ है ।

रोगी को नहीं, रोग को मारना


चम्पारण के, नील की खेती करने वाले किसानों को अत्याचारी कानून से मुक्त कराने के गांधी के अभियान का वर्णन नारायण भाई ने अत्यधिक सूक्ष्मता से (माइक्रो लेवल तक) सुनाया । एक बीघा जमीन में कम से कम तीन कट्ठा जमीन में नील की खेती करने की अनिवार्यता समाप्त करने के लिए गांधी ने जो विशद् अभियान चलाया और चार हजार किसानों के आवेदन प्रस्तुत किए उसके कारण मजबूरन गठित की गई समिति में, किसानों का पक्ष रखने के लिए कुल एक व्यक्ति था - गांधी । शेष छ व्यक्ति अंगे्रज नील व्यापारियों (नीलगरों) और सरकार के थे । इसके बावजूद, समिति ने सर्वानुमति से इस अनिवार्यता को समाप्त करने की सिफारिश की । यह कैसे हो पाया ? जवाब में गांधी ने कहा - मेरा मकसद रोग को मारना था, रोगी को नहीं । रोग था - नील की खेती करने की अनिवार्यता । यदि मैं अंग्रेज नीलगरों के अत्याचारों पर कार्रवाई करने और उन्हें सजा देने की बात करता तो न तो उन्हें सजा मिलती और न ही यह अनिवार्यता खत्म होती ।

भय निर्मूलन का पाठ अपने जीवन से


नारायण भाई ने बताया - गांधी को भारत में सबसे पहली सजा ‘तड़ीपार’ (जिला बदर) की, इसी मामले में सुनाई गई थी ।

चम्पारण आन्दोलन के दौरान ही गांधी द्वारा वहां के शिक्षित और सम्भ्रान्त लोगों को ‘निर्भय’ होने का पाठ पढ़ाने का प्रसंग नारायण भाई ने बड़ी ही रोचकता और प्रभावशीलता से सुनाया ।

चम्पारण में सर एण्ड्रयूज का आना, उनके वहां रुकने में वहां के सम्भ्रान्त लोगों की रुचि लेना क्यों कि सर एण्ड्रयूज के सीधे सम्पर्क वायसराय से थे और सर एण्ड्रयूज से सम्पर्क बढ़ाने-बनाने से इन सम्भ्रान्त लोगों को लाभ हो सकता था, सर एण्ड्रयूज का यह कहना कि मोहनदास कहेंगे तो रुक जाऊंगा, मोहनदास का इससे न केवल इंकार करना बल्कि सर एण्ड्रयूज से चले जाने का आग्रह करना, उनके जाने के बाद गांधी का उन सबसे कहना - एण्ड्रयूज तो खुद अंगे्रज है और हमें अंग्रेजों से देश को आजाद कराना है । एण्ड्रयूज आपको व्यक्तिगत रूप से लाभ पहुंचा सकता है लेकिन देश को आजाद कराने में सहायक नहीं हो सकता । अन्त में कहना - आजादी दूसरों की मदद से नहीं, अपने पैरों पर खड़े होने से मिलती है ।

लोगों में व्याप्त भय का निर्मूलन करने के लिए निर्भयता का पाठ गांधी ने अपने जीवन से दिया । चम्पारण आन्दोलन के दौरान वे सुबह से रात तक किसानों से घिरे रहते थे । तब एक अंग्रेज ने इसे गांधी की कायरता कहा और कहा कि अपनी जान बचाने के लिए गांधी किसानों को आसपास बनाए रखता है । यदि मुझे अकेला मिल जाए तो मैं शूट कर दूं । यह बात गांधी तक भी पहुंची । एक सुबह, कोई चार बजे, वे कई कोस पैदल चल कर उस अंगे्रज के बंगले पर पहुंच गए और कहा कि किसानों के काम के कारण दिन भर तो उन्हें फुर्सत मिलती नहीं, सो आज वे बड़े सवेरे अकेले आए है । अब वह अपनी इच्छा पूरी कर ले । अंग्रेज पानी-पानी हो गया । गांधी की निर्भयता का यह किस्सा चम्पारण के उन सम्भ्रान्त सज्जनों ने सुना तो उन्हें अपने आप पर शर्मिन्दगी हो आई ।

खादी का जन्म और लोक विश्वसनीयता

खादी का जन्म, गांधी की, देश को समझने के लिए की गई इस यात्ऱा के दौरान ही कैसे हुआ और क्यों कर गांधी ने अर्द्ध नग्न रहना शुरु किया, इसका मर्मान्तक पीड़ादायक प्रसंग नारायण भाई ने अत्यन्त भाव विह्वलता और विकलता से सुनाया । इसके साथ ही साथ नारायण भाई ने, खादी की लोक विश्वसनीयता का अनूठा और सर्वथा अछूता प्रसंग भी सुनाया । ये दोनों प्रसंग अपने आप में सम्पूर्ण विषय हैं जिन्हें मैं दो अलग-अलग पोस्टों में प्रस्तुत करना चाहूंगा ।

दाण्डी यात्रा अपने आप में महा अभियान थी । इसका क्रम आते-आते नारायण भाई की समय सीमा पूरी होने लगी थी । फिर भी उन्होंने समय को साधने की कोशिश करते हुए इसके साथ न्याय किया । इस प्रसंग के बारे में उन्होंने एक नई बात कही । बापू ने कहा था कि जिस दिन मैं नमक पकाऊंगा उसके बाद सारे देश में नमक पकाना शुरु हो जाएगा । 6 अप्रेल 1930 की शाम बापू ने पहली चुटकी नमक पकाया और उसके बाद उसी शाम को, दाण्डी के आसपास के गांवों में डेड़ मन नमक पका लिया गया । सारा देश बापू के प्रति कितना समर्पित और निष्ठावान था कि जब तक बापू ने एक चुटकी नमक नहीं बनाया तब तक किसी ने नमक बनाने का सोचा भी नहीं ।

दाण्डी यात्रा में बापू ने महिलाओं को शामिल नहीं किया था । आश्रम की महिलाओं ने सवाल किया तो बापू ने कहा कि पुरुषों के मुकाबले स्त्रियां अधिक साहसी होती हैं । दाण्डी यात्रा में तो कुछ भी नहीं होना है - रास्ते में पड़ने वाले गांवों में यात्रियों का स्वागत होगा । सो, बापू ने महिलाओं को अधिक साहसी काम के लिए ‘अमानत’ रखा । बाद में शराब की दुकानों के सामने पिकेटिंग करने के लिए बापू ने महिलाओं को ही आगे किया ।

दाण्डी यात्रा के प्रसंग में ही नारायण भाई ने गांधी-जवाहर के बीच हुआ वह सम्भावित वार्तालाप सुनाया जिसका जिक्र मैं ने इस पोस्ट के प्रारम्भ में किया है । जवाहर चाहते थे कि चूंकि यह ‘मार्च’ है तो इसमें भाग लेने वालों के लिए कोई ‘यूनिफार्म’ होना ही चाहिए । बापू ने इस बारे में तो सोचा भी नहीं था । अन्ततः बापू ने कहा - मार्च में भाग लेने वाले सब लोग खादी के वस्त्र पहने हुए रहेंगे सो खादी ही इस मार्च की यूनिफार्म है । जवाहर इससे असहमत रहे और खिन्न ही हुए । वे अपने साथ, यूनिफार्म पर लगाने के कुछ ‘कागज के बैज’ लाए थे जिन्हें, उन्होंने सब यात्रियों के कपड़ों पर लगा दिया लेकिन गांधीजी तो धड़ तक निर्वस्त्र ही रहते थे । उनका बैज कहां लगाया जाए ? तब जवाहर ने, बापू की उस चादर पर बैज लगा दिया जो वे कन्धे पर डाल कर जाने वाले थे । बापू को यह मालूम हुआ तो उन्होंने कुछ भी नहीं कहा । मुस्कुराते हुए चादर की घड़ी इस तरह की कि बैज अन्दर दब गया और बापू उसी दशा में चादर को कन्धे पर डाल कर मार्च के लिए चल दिए ।

इस यूनिफार्म वाले मुद्दे पर हुआ गांधी-जवाहर सम्वाद सुनाते समय नारायण भाई ने दोनों नायकों को मंच पर साकार कर दिया । जवाहर किस तरह तैश में बोले, बापू ने किस तरह शान्त और विनम्र शब्दावली और मन्द स्वरों में उत्तर दिया - वह सब कुछ कोई ‘निपुण मानव मनोवैज्ञानिक’ ही कर सकता था और नारायण भाई ने आज यही किया ।

बापू ने कहा - स्त्रियां न केवल पुरुषों के मुकाबले अधिक साहसी होती हैं बल्कि मनुष्य जाति की संसृति को बचाने की ताकत भी केवल स्त्रियों में ही है ।

(कल, नारायण भाई, बापू से जुड़े प्रमुख मतभेदों, कस्तूर बा की बिदाई और 1942 के आन्दोलन की चर्चा करेंगे । यह मुझ पर ईश्वर की कृपा ही है कि मैं नारायण भाई के व्याख्यान आप तक लगातार दो दिनों तक पहुँचा सका । मैं कोशिश करूंगा कि बापू कथा की चैथी शाम भी आप तक पहुंचा सकूं ।

यह आयोजन, इन्दौर में, कस्तूरबा गांधी रा’ट्रीय स्मारक ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा स्व. श्री जयन्ती भाई संघवी की स्मृति में, बास्केटबाल स्टेडियम में किया जा रहा है ।)

6 comments:

  1. बहुत सुन्दर. आपको बहुत धन्यवाद.

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  2. खादी के जन्म तथा उसकी लोक विश्वसनीयता पर आपकी पोस्टों का इन्तेज़ार है।
    कथा तथा कथा के गीतों के सी.डी. उपलब्ध हुए? रविजी तक पहुँच जाएँ तो नेट पर सुनना/देखना मुमकिन हो जाएगा।
    पूरी रपट पीडीएफ़ में ऑनलाइन - पुस्तिका के रूप प्रस्तुत करें - दिक्कत हो तो रविजी से मदद लें।
    महादेव देसाई और नारायण देसाई ऐसी समग्र रपट बनाने के लिए याद किए जाते हैं। बधाई।

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  3. विष्णु जी यह कथा हम तक पहुँचाने की जो मेहनत आप कर रहे हैं उसके लिए बहुत बहुत आभार। हर दिन आपके चिट्ठे की प्रतीक्षा रहेगी।
    घुघूती बासूती

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  4. अहा...आनंद वर्षा करवा रहे हैं आप...धन्य हैं...
    नीरज

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  5. बहुत बहुत शुक्रिया, बैरागी जी.

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  6. यह अविस्मरनीय संस्मरण हम तक पहुँचने का आभार.

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