जन प्रतिनिधि: ‘तब’ के और ‘अब’ के (3)

दादा का ही एक और किस्सा इस समय याद आ रहा है।

मनासा से कंजार्ड़ा की दूरी कोई 14 मील है। वहाँ बिजली नहीं थी। 14 मील की बिजली लाइन खड़ी करना काफी खर्चीला काम था। कंजार्ड़ा के लोग भोपाल पहुँचे। दादा ने तलाश किया तो मालूम हुआ कि मुख्यमन्त्री श्यामा भैया तो दिल्ली हवाई यात्रा के लिए बंगले से निकल चुके हैं। कंजार्ड़ा से आए सब लोगों को लेकर दादा बैरागढ़ हवाई अड्डे पर पहुँचे। श्यामा भैया, ‘स्टेट प्लेन’ की सीढ़ियों तक पहुँच चुके थे। वहीं दादा ने कंजार्ड़ा के लोगों से श्यामा भैया की भेंट कराई। पूरी बात समझाई। ‘सिंचाई और ऊर्जा’ श्यामा भैया के प्रिय विषय थे। उन्होंने मनासा-कंजार्ड़ा बिजली लाइन को स्वीकृति दे दी। लेकिन मौखिक स्वीकृति से काम नहीं चलता। उन्होंने कागज माँगा। किसी के पास कागज नहीं था। दादा को अचानक ध्यान आया कि कंजार्ड़ा से आए एक सज्जन सिगरेट पीते हैं। उन्होंने उनसे सिगरेट का पेकेट माँगा। पेकेट के जिस कागज पर सिगरेटें बिछा कर रखी जाती हैं, वह कागज निकाल कर श्यामा भैया के सामने कर दिया। श्यामा भैया ने उसी पर स्वीकृति लिख कर हस्ताक्षर कर दिए। उस प्रकरण की मूल और पहली नोट शीट वही, सिगेरट का कागज बना। दादा के उसी कार्यकाल में मनासा-कंजार्ड़ा बिजली लाइन का सपना साकार भी हुआ।

सुरेश सेठ अब तक इन्दौर नगर निगम के ‘ऐतिहासिक महापौर’ बने हुए हैं। कुछ सरकारी अधिकारी और परिषद् के लोग उनकी योजानाओं में जब बार-बार बाधाएँ खड़ी करने लगे तो एक दिन वे कानून की किताब घर ले गए। उन्होंने पाया कि किताब की धारा 27/2 के माध्‍यम से वे अपनी सारी योजनाएँ क्रियान्वित कर सकते हैं। उन्होंने इस धारा का ऐसा प्रचुर उपयोग किया कि उन्हें ‘महापौर 27/2’ के नाम से पुकारा और पहचाना जाने लगा। इन्दौर के जिला न्यायालय के बाहर, महात्मा गाँधी मार्ग पर बने, वकीलों के चेम्बर, सुरेश भाई ने इसी धारा का उपयोग कर बनवाए जबकि सब लोग इस योजना का विरोध कर रहे थे। नगर निगम के लिए एक मँहगी कार भी उन्होंने इसी धारा का उपयोग कर खरीदी थी।

आज जब मैं किसी ‘निर्वाचित उत्तरदायी जनप्रतिनिधि’ को ज्ञापन हाथों में लिए देखता हूँ (वह भी किसी सरकारी अधिकारी के सामने?) तो मुझे न केवल अविश्वास होता है अपितु पहले तो लज्जा आती है और बाद में हताशा घेरने लगती है। निर्वाचित जनप्रतिनिधि ‘एक व्यक्ति मात्र’ नहीं होता। वह विशाल नागर-समुदाय का प्राधिकृत प्रतिनिधि होता है जो अपने मतदाताओं की इच्छाओं को मुखरित कर उनका क्रियान्वयन कराता है। इसके लिए उसे कार, बंगले, चमचों-चम्पुओं की फौज, गिरोहबाजी की आवश्यकता नहीं होती। इसके लिए चाहिए नैतिक और आत्म बल, भरपूर आत्म विश्वास, अपने नागरिकों की इच्छाओं को अनुभव कर उन्हें साकार कराने की शुध्द और ईमानदार नीयत।

कोई सरकारी अधिकारी किसी भी जनप्रतिनिधि पर तब ही हावी हो पाता है जब उस जनप्रतिनिधि की नीयत में खोट हो, कुर्सी पर बने रहना और उस कुर्सी के लाभ, उस कुर्सी से उपजी सुविधाएँ उसके जीवन का लक्ष्य बन जाएँ।

लालची और भ्रष्ट जनप्रतिनिधि किसी भी तन्त्र के लिए सबसे कमजोर, सबसे आसान और सर्वाधिक सुविधाजनक मोहरा होता है। ऐसे जनप्रतिनिधि ही सरकारी अधिकारियों द्वारा उपेक्षित किए जाते हैं, हड़काए जाते हैं और इन्हीं कारणों से लोक उपहास के पात्र बनते हैं।

जो जन प्रतिनिधि पद त्याग का साहस नहीं कर पाते, वे कभी भी जन सम्मान अर्जित नहीं कर पाते.

पाता वही है जो कुछ खोने का साहस कर सके.
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6 comments:

  1. नैतिक मूल्यों को पुनः स्थापित करने की दिशा में पूरे समाज को एकजुट होना होगा. वो सुबह कभी तो आएगी!

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  2. समाज मे आई गिरावट का असर जनप्रतिनिधियो पर हुआ है या जनप्रतिनिधियो मे आई गिरावट का असर समाज पर,कहीं न कहीं,कुछ न कुछ तो गड़बड़ है।

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  3. जो काम करना चाहता है उस के लिए रास्ते का पत्थर भी साधन बन जाता है। जो काम ही नहीं करना चाहते उन के लिए सौ बहाने हैं। यही अंतर है। जनप्रतिनिधियों के चरित्र में बहुत अंतर आ चुका है। जिस तरह चुनाव लड़े और जीते जाते हैं। सब से पहली फिक्र तो चुनाव लड़ने में खर्च हुए धन की ब्याज सहित वसूली का होता है। बाकी काम तो उस के बाद के हैं।

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  4. आपने सहीए कहा - पाता वही है जो कुछ खोने का साहस क सके लेकिन मौजूदा दौर में
    केवल सबकुछ पाने की दौड़ में नित्यप्रति आश्था / दल बदलनेवाले गिरोहबाजों से भला
    क्या उम्मीद...............?

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  5. सुरेश सेठ तो वाकई धाकड़ नेता रहे हैं, पर ऐसे लोग अब देखने को नहीं मिलते और शायद पैदा ही नहीं होते.

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