पत्राचार का अवसान



‘आपका पोस्टकार्ड मिला। आपका काम तो कर ही रहा हूँ लेकिन मैंने बरसों बाद पोस्टकार्ड देखा। मेरे छोटे बेटे ने तो पोस्टकार्ड ही पहली बार देखा।’ उधर से शास्त्री पुष्पोद्भवजी शर्मा मोबाइल पर बोल रहे थे। अपने मित्र की दो बेटियों की विस्तृत जन्म पत्रिकाएँ बनवाने के लिए उनसे बात हुई थी। यह काम मेरे ‘बकाया कामों की सूची’ में शामिल था। सो, मैंने पोस्टकार्ड लिख कर तकादा किया था।


नहीं जानता कि पोस्टकार्ड को लेकर शास्त्रीजी ने परिहास किया था अथवा कुछ और। किन्तु मुझे लगा, वे समूची पत्राचार विधा के अवसान की सूचना दे रहे हों। मेरे लिए यह पीड़ादायक और आश्चर्यजनक था।


पत्राचार के संस्कार मुझे दादा से मिले। अपनी अवस्था के उन्यासीवें वर्ष में वे अभी भी कम से कम पचास पत्र रोज लिखते हैं। कभी-कभी यह आँकड़ा सौ तक भी पहुँच जाता है। पत्र भेजने वाले ने यदि अपना पता लिखा है तो दादा का उत्तर-पत्र उसे निश्चित रूप से मिलता ही है। यह पत्र व्यवहार उनकी पहचान बन चुका है। निजी खर्च के नाम पर उनके खाता-बही में बस यही एक मद है। उनके पत्रों की संख्या को देखकर डाकघरवालों ने हमारे घर के पास ही डाक का डिब्बा लगवा दिया था।


हम घरवाले कभी-कभी उनके पत्राचार की आदत की खिल्ली उड़ाया करते थे। हम बच्चों में से कोई भी बाहर जाने के लिए निकलता तो दादा आवाज लगा कर दस-बीस पत्र थमा देते-‘ये डाक के डिब्बे में डाल देना।’ बाद-बाद में ऐसा होने लगा कि हम बच्चे लोग घर से निकलने से पहले उनसे पूछ लेते -‘चिट्ठियाँ डालनी हैं क्या?’ यह सवाल कभी-कभी उपहास भाव से पूछ लिया जाता। दादा ने कभी बुरा नहीं माना। डाँटा-फटकारा भी नहीं। एक बार मैंने पूछ लिया-‘क्या मिलता है आपको इतने पत्र लिख कर?’ अपने पास बैठाकर तब उन्होंने मुझे समझाया था कि यह एकमात्र तरीका है जिसके माध्यम से घर से बाहर निकले बिना ही सारी दुनिया से जुड़ा हुआ रहा जा सकता है। फिर उन्होंने कहा-‘डाक विभाग तो अपना अन्नदाता विभाग है। कवि सम्मेलन के निमन्त्रण, पारिश्रमिक के मनी आर्डर, बैंक ड्राट सब कुछ डाक से ही आते हैं। इसी से अपना घर चल रहा है।’ इसके बाद मैंने कभी भी उनकी इस आदत का उपहास नहीं उड़ाया। हाँ, ‘सब राजी खुशी है तो पत्र लिखने का क्या मतलब?’ धारणा वाले घर में अब हम दो ‘मूर्ख’ हो गए थे।


‘पत्र मित्रता’ उन दिनों अतिरिक्त पहचान और प्रतिष्ठा दिलाती थी। अपने परिचय में ‘हॉबी’ में जब ‘पत्र मैत्री’ बताता तो मैं सबसे अलग गिना जाता। मन्दसौर और रामपुरा में कॉलेज के दिनो में मेरे नाम आने वाले पत्रों की संख्या सबके लिए अचरज और ईर्ष्‍या का विषय होती। रामपुरा के नन्दलाल भण्डारी छात्रावास में हमारी सेवा करने वाले ‘नानाजी’ (उनका नाम नानूरामजी था) छात्रावास की डाक लेकर लौटते तो मेन गेट से ही मुझे ‘ले! तेरा पोस्ट आफिस आ गया’ कह कर झोला मुझे थमा देते।


बीमा एजेण्ट के रूप में मुझे जो भी थोड़ी बहुत सफलता और पहचान मिली है उसके पीछे पत्राचार का बड़ा हाथ है। मेरे प्रत्येक पॉलिसीधारक के घर में मेरे लिखे पत्र मेरी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। जन्म दिन और विवाह वर्ष गाँठ पर भेजे मेरे बधाई पत्र कई घरों में केलेण्डरों पर चिपके नजर आते हैं। यह पत्राचार ही है जिसके कारण मुझे साल में कुछ बीमे घर बैठे मिल जाते हैं। डाक विभाग आज मेरा अन्नदाता विभाग बन गया है। जहाँ भी जाता हूँ, मेरे पत्रों की प्रशंसा सुनने को मिलती है। लोग कहते हैं-‘हम लिखें या न लिखें, आप जरूर हमें पत्र लिखते रहिए।’ मुझे तकलीफ भी होती है और हँसी भी आती है। कहता हूँ - ‘पत्र व्यवहार या पत्राचार दो पक्षों से ही सम्भव हो पाता है। मैं अपनी ओर से क्या लिखूँगा और कब तक लिख सकूँगा? व्यवहार के लिए कम से कम दो पक्ष होने चाहिए।’


लेकिन देख रहा हूँ कि मुझे मिलने वाले पत्रों में कमी आ रही है। गए दो वर्षों में स्थिति यह नाम मात्र की बन कर रह गई है। दीपावली प्रसंग पर मैं प्रति वर्ष लगभग आठ सौ पत्र भेजता हूँ। तीन वर्ष पहले तक लगभग सौ के उत्तर आ जाते थे। एक वर्ष पहले यह संख्या तीस के आसपास आ गई। इस वर्ष तो दस लोगों ने भी उत्तर नहीं दिए। हाँ, एसएमएस की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। इस साल लगभग अस्सी एसएमएस मिले अवश्य किन्तु अधिकांश फारवर्ड किए हुए। सो, एसएमएस तो अस्सी आए किन्तु सन्देश दस भी नहीं थे।


कहाँ तो हस्तलिखित पत्र और कहाँ एसएमएस! जड़ और चेतन वाली तुलना याद आ जाती है। विभिन्न हस्तलिपियों में लिखे वाक्यों पर हाथ फेरते हुए लगता मानो लिखने वाले के हाथ अपने हाथों में लेकर उससे बात कर रहा हूँ। कागज पर उभरी पंक्तियाँ प्राणवान होकर बोलती लगतीं। एक बार पढ़ने से जी नहीं भरता तो उलट-पुलट कर दूसरी बार, तीसरी बार, बार-बार पढ़ता। कोई पत्र छोटा, एक पन्ने का तो कोई पत्र पाँच-छः पन्नों का।


लेकिन अब सब कुछ अतीत हुआ जा रहा लग रहा है। एसएमएस और इण्टरनेट पर मिलने वाले सन्देश गतिवान तो हैं किन्तु प्राणवान नहीं। इनमें जिन्दगी नहीं धड़कती। मैं आज भी आठ-दस पत्र रोज लिखता हूँ। आने-जाने वाले हैरत से पूछते हैं -‘आप अभी भी पत्र लिखते हैं! हम से तो नहीं लिखा जाता। आदत ही नहीं रही।’
लगता है, अपनी तीसरी पीढ़ी की सन्तानों को सुनाने के लिए मेरे पास लोक कथाओं के नाम पर पत्राचार के अनुभव होंगे। पोस्टकार्ड, अन्तरदेशीय पत्र, लिफाफा, बुक-पोस्ट, रजिस्टर्ड पत्र, स्पीड पोस्ट, मनी आर्डर, डाक टिकिट, बेरंग पत्र जैसे उल्लेख उन्हें चकित करेंगे।


तब हमारी शुभ-कामनाएँ, बधाइयाँ, उलाहने, शिकायतें या तो इण्टरनेट पर मिलेंगी या फिर शून्य में अदृश्य तैरती रहेंगी।
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6 comments:

  1. जमाना गुजरा जी हस्तलिखित खत देखे.

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  2. हम भी पहले ऐसे सरके हुए मैं गिने जाते थे, और लम्बे लम्बे पत्र लिखते थे पर अब तो बस हम भी ईमेल और एसएमएस तक ही सीमित हो गये हैं पर आज भी कोई पत्र या कूरियर आता है तो हमारे चेहरे की चमक देखी जा सकती है।

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  3. सच कह रहे हैं विष्णु जी ..
    मैं खुद पत्र लिखने में बहुत व्यस्त रहता था ..मगर अब जब सबने जवाब देना ही बंद कर दिया तो ..या फ़िर पत्र का जवाब फ़ोन से मिलने लगे तो क्या किया जाए...।विभिन्न रेडियो सेवाओं में ही लिख भेजता हूं ..दिली तसल्ली तो मिल ही जाती है

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  4. मैं भी एक जमाने में कम से कम दस चिट्ठियाँ रोज लिखा करता था। नतीजा यह था कि डाकिए को रोज ही मेरे घर आना पड़ता था। जिस दिन देर हो जाती माँ पूछ लिया करती थी आज डाकिया बीमार है क्या? वह हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा था। लेकिन अब चिट्ठियाँ कहाँ?

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  5. गुलज़ार साब ने क्या खूब कहा है और कुछ ऐसे ही सिमटते गायब होते अनुभवों को शब्दों मे पिरोया है ---

    किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
    कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे
    कभी गोदी में लेते थे
    कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर
    नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
    वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
    मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
    और महके हुए रुक्के
    किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
    उनका क्या होगा
    वो शायद अब नही होंगे !!
    ज़ुबान पर ज़ाएका आता था जो सफ़हे पलटने का
    अब उँगली ‘क्लिक’ करने से बस इक
    झपकी गुज़रती है
    बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
    किताबों से जो जाती राब्ता था, कट गया है
    कभी सीने पे रख के लेट जाते थे

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  6. विष्णु जी, आपकी बात सही है. पत्राचार का स्वर्णिम काल बीत चुका है. मैं आज भी डाकघर जाकर टिकट खरीदता हूँ मगर चिट्ठियों पर चिपकाने को नहीं बल्कि सिर्फ उन्हें खरीदने की अपनी पुरानी आदत की वजह से. कुछ पुरानी चिट्ठियाँ आज भी अमानत की तरह रखी हुई हैं, बाक़ी अधिकाँश का अंतिम संस्कार हो चुका है. और ये ईमेल फोरवर्ड करने वाले आपको ही नहीं सारी दुनिया को सता रहे हैं.

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