हाट में सरस्वती


‘सात लाख?’ सुनकर मैं मानो धड़ाम् से गिरा। लगा, फोन के चोंगे में ज्वालामुखी फूट गया है और लावा बह कर मेरे कानों में समाए जा रहा है। मैं बहरा हो गया हूँ। कानों से बहता हुआ लावा मेरे मुँह में आ पहुँचा है। मेरी जबान जल गई है। मैं बहरा ही नहीं, गूँगा भी हो गया हूँ।

फोन के दूसरे छोर पर बैठे संजय ने निश्चय ही मेरी दशा भाँप ली थी। ‘हलो, हलो, भाई साहब! आप तो परेशान हो गए। यह तो सामान्य बात है। आजकल दस-बारह लाख तो सामान्य बात हो गई है। अपन तो सस्ते में निपट रहे हैं।’

मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था। संजय की बात सुनकर लगा या तो मैं अपने समय में ही ठहरा हुआ था, जड़वत्। या फिर कदम ताल कर रहा था और जमाने के साथ-साथ चलने का भ्रम पाले हुए था। संजय को मेरे घर आना था। अपनी उत्तमार्द्ध के साथ मैं उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। पूरा दिन बाट जोहते निकल गया तो शाम को उसे फोन किया। जवाब में जो कुछ उसने कहा, उसी ने मेरी यह गत बना दी।

बात संजय के बेटे की थी। उसे पूना के एक निजी शिक्षण संस्थान में, एम.बी.ए. में प्रवेश मिल गया था। संजय को यह यह सूचना ई-मेल से मिली थी। उसे और उसके पूरे परिवार को प्रसन्न होना चाहिए था किन्तु सूचना के उत्तरार्द्ध ने संजय को गड़बड़ा दिया था। कहा गया था कि शिक्षण शुल्क के ढाई लाख रुपये और छात्रावास का शुल्क छप्पन हजार रुपये के ड्राट, बाईस तारीख तक पहुँचाने अनिवार्य हैं। संजय को यह सूचना इक्कीस तारीख को मिली, जिस दिन उसे मेरे यहाँ आना था और जिस दिन हम दोनों उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रथमतः तो इतनी बड़ी रकम एक मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा आदमी की जेब में होती नहीं और हो भी और ताबड़तोड़ ड्राट भी बन जाए तो भी चैबीस घण्टों में रतलाम से पूना कैसे पहुँचाए जाएँ? संजय इसी सब में उलझ गया। इसीलिए नहीं आ पाया। यही सब बताते हुए संजय ने कहा - ‘दो वर्ष के एम. बी. ए. पाठ्यक्रम का कुल शुल्क सात लाख रुपये है। छात्रावास शुल्क अलग।’ यह रकम सुनकर ही मैं बहरा-गूँगा हो गया था और संजय मुझे इससे उबारने में लगा हुआ था।

मुझे क्या कुछ याद नहीं आया? यह चार साल पहले की ही तो बात है। सन् 2006 में मेरे बड़े बेटे वल्कल ने एम. बी. ए. किया था। तब, दो वर्ष का सकल शिक्षण शुल्क एक लाख रुपये था। तब हम लोगों को यह रकम कितनी बड़ी, कितनी भारी लगी थी? कैसे हम लोग यह रकम जुटा पाएँगे - हमारे इस सवाल का जवाब किसी भी दिशा में नहीं मिल रहा था। दसों दिशाएँ मानो नीरव हो गई थीं। वल्कल हमारी यह दशा जानता ही था। उसने ही ‘उच्च शिक्षा ऋण’ के लिए भाग दौड़ की। कागज-पत्तर जुटाए। कहा - ‘पापा! आप केवल बैंक में मेरे साथ खड़े रहिएगा और जहाँ कहें, वहाँ दस्तखत कर दीजिएगा। सब हो जाएगा।’ और सचमुच में सब हो गया। ऋण मिल गया, वल्कल ने एम. बी. ए. कर लिया, उसे नौकरी मिल गई और उसीने ब्याज सहित ऋण भी चुका दिया-निर्धारित समय से पहले ही।

किन्तु चार वर्षों में शिक्षण शुल्क में इतनी बढ़ोतरी? सवा-डेड़ रुपये वार्षिक चक्रवृद्धि ब्याज दर भी हो तो भी रकम पाँच साल में दुगुनी होती है। यहाँ तो चार साल ही हुए हैं और रकम सात गुनी हो गई है? इस आँकड़े तक पहुँचनेवाली ब्याज दर निकालने की हिम्मत ही नहीं हुई।

याद आ गई वे लोकोक्तियाँ जिनमें लक्ष्मी और सरस्वती का बैर बताया जाता था। कहा जाता था कि दोनों एक स्थान पर अपवादस्वरुप ही मिलती हैं-बड़े भाग्यवान को। अन्याथ, लक्ष्मी है तो सरस्वती नहीं और सरस्वती है तो लक्ष्मी नहीं। याद आई वे लोक कथाएँ जिनके नायक सरस्वती के दम पर लक्ष्मी लूट लाते थे। एक पोथी लेकर निकलते और किसी राजा के दरबार में अपनी विद्वत्ता प्रमाणित कर अशर्फियों और मोहरों की पोटलियाँ कन्धों पर लादे लौटते थे। अपने अध्यापकों से सुने वे प्रेरक प्रसंग याद आए जिनमें धनपतियों को निर्धन विद्वानों के चरणों में नत मस्तक होते बताया जाता था। कहा जाता था - सरस्वती से लक्ष्मी जुटाई जा सकती है किन्तु लक्ष्मी से सरस्वती नहीं क्यों कि सरस्वती तो भाग्यवानों को ही मिलती है।

संजय की बातें सुनकर ये सारी लोकोक्तियाँ, सारे किस्से, सारी बातें प्रश्न चिह्न का रुप धर, मेरे सामने आ खड़े हुए। आज तो सरस्वती का हाट लगा हुआ है। खरीदनेवाला चाहिए। जिसकी अण्टी में रोकड़ा हो, आए और मनमाफिक डिग्री हासिल करने का मौका पाए। रोकड़ा नहीं तो मौका नहीं। लक्ष्मी नहीं तो सरस्वती नहीं।

बातें यहीं नहीं रुकीं। इतनी मँहगी कीमत चुकाकर डिग्रियाँ लेनेवाले बच्चे ‘मानवीय’ बने रह सकेंगे? वे कैसे भूल पाएँगे कि उनके माँ-बाप ने कितनी कठिनाई से उनके लिए यह रकम जुटाई है? डिग्रियाँ लेकर जब वे नौकरियों पर जाएँगे तो उनके मन में कौन सी बात सबसे पहले उठेगी? यही कि उन्हें जल्दी से जल्दी यह रकम जुटानी है। या तो पिता का कर्जा चुकाना है या फिर बैंक का। देश, मानवीयता, सम्वेदनाएँ - ये सब उनके लिए कोई अर्थ और महत्व रख पाएँगे? वे ‘उच्च शिक्षित, हाड़-माँसवाले, आत्मकेन्द्रित रोबोट’ बन कर न रह जाएँगे?

जानता हूँ कि इन सवालों के जवाब मेरे पास भी हैं और इन बच्चों के पास भी। किन्तु हमारे जवाब अलग-अलग हैं। एक दूसरे से सर्वथा विपरीत।

कितना अच्छा होता कि यही बात मैं नहीं जानता होता?
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7 comments:

  1. ‘उच्च शिक्षित, हाड़-माँसवाले, आत्मकेन्द्रित रोबोट’ बन कर जाएँ!
    यही यह पूँजीवाद चाहता है, इसीलिए मुझे उस से घोर नफरत है।

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  2. bahut sahi mudda uthaya itni fees dene ke baad maanavta nahi reh jaati fir bas jyada se jyada paise kamana dhyey ban jaata hai

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  3. Laxmi se saraswati ki khareed-farokht..

    Sharmnaak !

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  4. आम आदमी की सरकारों की देन है मेरे भाई क्या कर सकते हैं?
    अभी-अभी तो आम आदमी ने 100रूपये किलो दाल वेचने वाली आम आदमी की सरकार को चुना है।
    कुध भी कहो सच्चाई को प्रकट करने का आपका अन्दाज निराला है

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  5. Sach hi hai ab higher education ek aam admi ke bachho ke bas ki baat nahi hai. unhe to bas choti moti naukri se hi khush rahna hoga. sahi hi kaha hai ki paisa hi paise ko khinchta hai.

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  6. Sach hi hai ab higher education ek aam admi ke bachho ke bas ki baat nahi hai. unhe to bas choti moti naukri se hi khush rahna hoga. sahi hi kaha hai ki paisa hi paise ko khinchta hai.

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  7. शिक्षा तो आज बिक रही है और इतनी महंगी शिक्षा लेकर भी ढंग की नौकरी की कोई गारण्टी नहीं।

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