एक माँगू सो रहा था, एक माँगू रो रहा था (भाग-2)

एक माँगू सो रहा था,
एक माँगू रो रहा था (भाग-2)

अब लौट आईए सन् 46-47 में। शंकरलाली का, चार-पाँच साल का बेटा परमानन्द बीमार हो गया। ‘उस जमाने’ के मुताबिक दवा-दारु शुरु हुआ। लेकिन परमानन्द की तबीयत नहीं सुधरी। अब फारुख भाई शाम से लेकर देर रात तक परमानन्द के पास बैठने लगे।

एक शुक्रवार की रात अचानक ही फारुख भाई ने परमानन्द के बिस्तर के पास बैठ कर विशेष नमाज पढ़ी और परमानन्द की सेहतमन्दी के लिए दुआ की। पता नहीं दवा का असर हुआ या दुआ का, कुछ ही दिनों में परमानन्द चंगा हो गया। बिस्तर से उतर कर परमानन्द खेलने-कूदने लगा तो फारुख भाई ने शंकरलालजी से कहा -‘शंकर भाई! मैंने परमानन्द को मालिक से माँगा था। मेरी गुजारिश है कि आप इसका नाम माँगीलाल रख दो।’ शंकर भाई ने कहा - ‘फारुख भाई! परमानन्द जैसे मेरा बेटा वैसे ही तुम्हारा भी बेटा। आज से उसका नाम माँगीलाल हुआ।’ और उसके बाद से किसी ने परमानन्द को परमानन्द कह कर नहीं पुकारा। वह माँगीलाल हो गया।

अब इसे खुदा का करिश्मा कहिए या कि जोग-संजोग, उपरोक्त घटना के कोई तीन साल बाद, सन् 49-50 में फारुख भाई का बेटा मुश्ताक बीमार हो गया। बीमार भी ऐसा कि न तो कोई दवा असर करे और न ही कोई झाड़ फूँक। परमानन्द की बीमारी के दौरान जैसे फारुख भाई रोज शंकरलालजी के घर देर रात तक बैठते थे, उसी तरह शंकरलालजी, फारुख भाई के घर बैठ रहे थे-बीमार मुश्ताक के पास। वे देखते थे मुश्ताक को लेकिन उन्हें नजर आता था माँगीलाल। अपनी असहायता पर दोनों ही परिवार दुखी थे। इसी दौरान एक मंगलवार की रात शंकरलालजी ने मुश्ताक के बिस्तर के पास अगरबत्ती लगा कर, हनुमान चालीसा का पाठ किया और ईश्वर से मुश्ताक की जीवन-याचना की। यहाँ भी वही हुआ जो परमानन्द बनाम माँगीलाल की बीमारी के वक्त हुआ था। मुश्ताक की सेहत सुधरने लगी और कुछ ही दिनों में वह माँगीलाल के साथ खेलता नजर आने लगा।

शंकरलालजी ने फारुख भाई से कहा - ‘ फारुख भाई! मुश्ताक हमें यूँही नहीं मिला है। मैंने इसे ईश्वर से माँगा था। क्या तुम इसका नाम माँगीलाल रख सकते हो?’ फारुख भाई ने शंकरलालजी वाला वाक्य जस का तस दोहरा दिया - ‘शंकर भाई! इसमें पूछना क्या? मुश्ताक जैसे मेरा बेटा वैसे ही तुम्हारा भी बेटा। इसका नाम माँगीलाल तुम ही रख दो।’ और उसी क्षण से मुश्ताक गुम हो गया और फारुख भाई के आँगन में भी माँगीलाल खेलने लगा।

शुरु-शुरु में कुछ ‘अपनेवालों’ ने फारुख भाई से ऐतराज जताया किन्तु दोस्ती के सामने धर्म परास्त हो गया और रतलाम जैसे छोटे से कस्बे के स्कूल में एक नाम ‘माँगीलाल वल्द फारुख मोहम्मद’ बना रहा।
दोनों माँगीलाल अब ‘माँगू’ पुकारे जाते थे। अन्तर करना होता तो ‘माँगू शंकर’ और ‘माँगू फारुख’ कह कर बात साफ कर दी जाती।

आज न तो शंकरलालजी यादव हैं और न ही फारुख मोहम्मद खान। लेकिन तब का बना यह रिश्ता दोनों परिवारों की तीसरी पीढ़ी तक बराबर निभ रहा है। अन्नकूट के दिन यादव-परिवार में तब भी सब्जी तभी बनती थी जब फारुख भाई के घर से सब्जियों की डाली आती थी आज भी उसके बिना यादव-परिवार का अन्नकूट पूरा नहीं होता। तब भी फारुख भाई को ईद का साफा यादव-परिवार बँधवाता था और आज भी बँधवाता है। शादी हो या गमी, एक दूसरे के बिना इन परिवारों का काम नहीं चलता।

वही माँगीलाल याने ‘माँगू फारुख’, लम्बी बीमारी के बाद, 6 सितम्बर की अपराह्न चल बसा। उसके निधन की खबर सबसे पहले जिन लोगों का दी गई उनमें माँगीलालजी यादव भी शामिल थे ही।

आगे की बात यादवजी के शब्दों में ही सुनिए - ‘उस दिन मेरे हमनाम मृतक के मोहल्ले में कर्फ्यू लगा हुआ था। लोग कर्फ्यू तोड़ कर जनाजे में शामिल हुए। मुझे तो पहुँचना ही था। हम दोनों सहोदर भले ही नहीं थे किन्तु हमारे पिताओं ने अपने-अपने आराध्यों से हमें एक-दूसरे के लिए माँगा था। माँगीलाल के शव को जब जनाजे में रखा गया तो मुझे लगा, मैं अपना ही शव देख रहा हूँ। जनाजे के पीछे चलते समय कब्रस्तान तक के सफर में मुझे लगता रहा कि मैं अपनी ही शव यात्रा में शरीक हूँ। आप तो जानते हैं कि मुसलमानों में, शरीक-ए-जनाजा तभी माना जाता है जब आप जनाजे को कन्धा दें। मैंने जब माँगू के जनाजे को कन्धा दिया तो लगा, मैं अपना ही जनाजा ढो रहा हूँ।

‘जनाजा जब मस्जिद के सामने पहुँचा तो नमाज के लिए रोका गया। नमाज पढ़नेवाले को असुविधा हुई। माँगीलाल तो हिन्दू नाम है! उसके असली नाम की खोज-बीन शुरु हो गई। माँगू के लड़के ने मुझसे पूछा - ‘अब्बा का नाम शायद मुश्ताक था ना?’ मैंने ताईद की।

‘कब्रस्तान पहुँचते-पहुँचते सूरज क्षितिज पर झिलमिलाने लगा था। मैं हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी रहा हूँ। माँगीलाल की मौत को अपनी मौत समझते हुए मुझे पचासों उपमाएँ याद आने लगीं। जनाजे का कब्र में उतारे जाना, उसे मिट्टी देना, कब्र को मिट्टी से भरते हुए देखना - सब कुछ ऐसा लग रहा था कि यह सब मेरे लिए, मेरे साथ हो रहा है।

‘शव को दफन कर जब लोग लौटने लगे तो मेरा जी किया कि मैं वहीं कब्र के पास बैठ जाऊँ। मैं सबसे पीछे रह गया। मैं जोर-जोर से रोना चाहता था। मेरी छाती में गुबार इकट्ठा हो गया था। मेरा अभाग्य कि मैं उस तरह से रो भी नहीं सका जिस तरह से रोना चाहता था।

‘भाई साहब! कल मैंने अपनी मौत देखी, खुद को जनाजे में देखा। खुद को मिट्टी दी और खुद को दफनाया। वह कब्र में अब कभी न उठने के लिए सो रहा था और मैं रो रहा था - उसमें और मुझमें बस यही फर्क रह गया था।’

उस शाम यादवजी ने कॉफी नहीं पी। जितने गमगीन वे आए थे, उतने ही गमगीन वे गए भी। और मैं? जैसा कि मैंने शुरु में ही कहा, उस रात मैं ‘एक नींद’ सो नहीं पाया। हाँ, जब-जब भी नींद टूटी, मैंने खुद को रोता हुआ पाया।


(बॉंया चित्र श्री माँगीलालजी यादव और दाहिना चित्र स्‍वर्गीय श्री माँगीलालजी कुँजडा)

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1 comment:

  1. निशब्द हूँ - ईश्वर दिवंगत आत्मा को शांति दे!

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