जान लेना अपने आप को

यदि आप ऐसे (महान्) व्यक्ति की तलाश में हैं जिसने अपने आपको जान लिया हो, तो आपकी तलाश खत्म। मुझसे मिल लीजिए। मैंने अपने आप को जान लिया है। मैं या तो मूर्ख हूँ या दुस्साहसी या फिर दुस्साहसी-मूर्ख।

भारतीय जीवन बीमा निगम के अभिकर्ताओं के एक मात्र राष्ट्रीय संगठन ‘लियाफी’ (लाइफ इंश्योरेन्स एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया) की, राष्ट्रीय स्तर की एक महत्वपूर्ण बैठक के सिलसिले में मुझे 25, 26 नवम्बर को दिल्ली में रहना था। मेरा लेप टॉप थोड़ी तकलीफ दे रहा था। मरम्मत माँग रहा था। सो, जाने से पहले, स्केनिंग, क्लीनिंग और फारमेटिंग के लिए, 24 की अपराह्न, ‘डॉक्टर’ को सौंप गया। 27 की सुबह वापसी थी और 28 को रविवार। सोचा था कि आते ही लेप टॉप तैयार मिल जाएगा। सो, पूरा रविवार मिल जाएगा, सारा बकाया काम करने के लिए। लेकिन ‘मेरे मन कछु और है, कर्ता के कछु और’ वाली उक्ति चरितार्थ हो गई। लौटते ही मालूम हुआ कि डॉक्टर साहब तो एक शादी में चले गए हैं और सोमवार को मिलेंगे। प्रतीक्षा करने के सिवाय कोई चारा नहीं रह गया था।

सोमवार, 29 को डॉक्टर साहब से मिला। उन्होंने दोनों ‘कम्पाउण्डरों’ से पूछताछ की तो मालूम हुआ कि दोनों को कुछ भी समझ-सूझ नहीं पड़ी। मुझे कहा गया कि बुधवार को तलाश करूँ क्योंकि कम से कम दो-ढाई दिन तो लगेंगे ही। बुधवार को कहा गया - एक दिन और लगेगा। गुरुवार की शाम फोन किया तो खुश खबर मिली - ‘दुरुस्त हो गया है। ले जाईए।’ हवा में उड़ता हुआ पहुँचा तो सवाल आया - ‘आप कौन-कौन से प्रोग्राम चलाते हैं?’ मेरी बोलती बन्द। मैं तो समझता था कि मैं कम्प्यूटर चलाता हूँ। लेकिन ज्ञान प्राप्ति हुई कि कम्प्यूटर नहीं चलता, प्रोग्राम चलता है। बरसों के सम्बन्धों का लिहाज पालते हुए ‘डॉक्टर’ ने पूछा - ‘आप इस पर क्या-क्या काम करते हैं?’ मैंने विस्तार से अपनी हरकतों की जानकारी दी। उन्होंने एक कम्पाउण्डर को कुछ निर्देश दिए। वह तीन-चार सीडियाँ लेकर बैठ गया।

कोई घण्टे भर बाद उसने लेप टॉप मेरी ओर सरकाया। मैंने देखा तो पर्दा आधा-अधूरा लगा। घुटनों की मालिश करने पर याद आया - पर्दे पर, दाहिने कोने पर, ऊपर चिपकी हुई ‘हिन्दी टूल किट’ नजर नहीं आ रही थी। बताया तो न तो कम्पाउण्डर कुछ समझ पाया और न ही डॉक्टर। वहीं से गुरुदेव रविजी को फोन लगाया। उन्होंने कम्पाउण्डर को कुछ समझाइश दी, उसका ई-मेल पता लिया और तत्काल ही वांछित लिंक भेजी। कम्पाउण्डर ने निर्देशों का पालन तो किया किन्तु मुझे पर्दा फिर भी सूना-सूना ही नजर आया। पूछा तो जवाब मिला - ‘हिन्दी टूल किट डाउनलोड कर दी है।’ और, गुरुवार की रात कोई दस बजे मेरा लेप टॉप मेरी टेबल पर आया।

रोटी-पानी भूल कर काम शुरु करना चाहा तो पहले ही क्षण पूर्ण विराम लग गया। हिन्दी टूल किट काम ही नहीं कर रही थी। रात कोई साढ़े दस-पौने ग्यारह बजे फिर रविजी को फोन लगाया, समस्या बताई और कहा कि अगली सुबह तकलीफ दूँगा, तैयार रहें। शुक्रवार की सुबह फोन पर ‘ऑन लाइन’ निर्देश लेकर तीन प्रयासों के बाद हिन्दी टूल किट पर्दे पर विराजमान हो गई।

मेरे हिसाब से अब मेरा लेप टॉप पूरी तरह तैयार था। बीमे का ढेर सारा काम बाकी पड़ा था। उसे निपटाना चाहा तो प्रिण्टर ने साथ देने से मना कर दिया। मालूम हुआ कि इसे भी ड्रायवर चाहिए। पड़ौस से अक्षय छाजेड़ की सहायता से प्रिण्टर स्थापित किया। और इस तरह, मेरी अपेक्षा के पूर छियानबे घण्टों के बाद मेरा काम शुरु हो पाया।

दो दिनों में बीमे का काम निपटा कर सोचा था कि रविवार को एक साथ पाँच-सात पोस्टें लिख कर शेड्यूल कर दूँगा। किन्तु फिर वही ‘मेरे मन कछु और है, कर्ता के कछु और’ वाली बात हुई। सर्वथा अनपेक्षित, अकल्पनीय आकस्मिकताएँ सामने आ गईं और मैं कुछ भी नहीं लिख पाया।

अब, पोस्ट के नाम पर यह खानापूर्ति करने के लिए फॉण्ट परिवर्तक क्लिक किया तो मालूम हुआ कि वह निष्प्रभावी हो गया है। सवेरे लगभग पौने चार बजे रविजी को ई-मेल कर फिर मदद माँगी। सवेरे देर से नींद खुलनी ही थी। दिनचर्या निपटा कर और उत्तमार्द्ध (जीवनसंगिनी) को नौकरी पर छोड़ कर घर आया, ई-मेल खोला। रविजी ने परिवर्तक उपलब्ध करा दिया था। उसी का उपयोग कर जब यह ‘आपबीती’ पोस्ट रहा हूँ तो खुद पर सब कुछ आ रहा/रही है - झेंप भी, हँसी भी, अचरज भी।

कुछ कमियाँ अभी भी हैं। फेस बुक पर वीडियो क्लिप क्लिक करने पर ‘फ्लेश प्लेयर’ माँगा जा रहा है, वेब केमरा प्रभावी नहीं हो पाया है और दूसरा केमरा (जिससे मैं आउट-डोअर चित्र लेता हूँ) जोड़ने पर उसकी उपस्थिति ‘माय कम्प्यूटर’ में नजर नहीं आ रही। इन सबके लिए सोमवार को फिर डॉक्टर के पास जाना है।

मैंने अपने आप को जान लिया - मुझे न तो कम्प्यूटर की तकनीक की समझ है, न इसकी प्रक्रिया की और न ही इसकी शब्दवाली की। फिर भी मैं ‘ब्लॉगीया’ बनने का दम्भ पाले हुए हूँ जो वास्तव में आत्म-भ्रम के सिवाय और कुछ भी नहीं है।

यह मूर्खता या दुस्साहस या दुस्साहसी-मूर्खता नहीं तो और क्या है? यह जो भी हो, मैं एक बार फिर दम्भी होना चाह रहा हूँ - अपने आप को जान लेनेवाला दम्भी।
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8 comments:

  1. एक ब्लागिया भी दम्भीया हो गया... कमाल हो गया :)

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  2. जैसे स्कूटर चलाने के लिये आपको मिस्त्री का काम जानने की आवश्यकता नहीं है वैसे ही कम्प्यूटर चलाने के लिये अन्दरूनी जानकारी की ज़रूरत नहीं है, परंतु आपके कम्प्यूटर "डॉक्टर" को यह सब पता होना चाहिये था। उसने आपके कम्प्यूटर को सिरे से उडा (फॉर्मट करना) दिया और आपको एक खाली मशीन दे दी, इंजन था मगर हैड्लाइट, स्टैंड, गद्दी आदि नहीं हैं। खराब बात ये है कि उसने सारे प्रोग्राम मिटाने से पहले उनकी सूची भी अपने पास नहीं रखी।

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  3. धीरे धीरे कम्प्यूटर के डॉक्टर की डिग्री मिल ही जायेगी।

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  4. विष्णुभैया,
    धीरे धीरे आप भी डॉक्टर बन जाएंगे, फिक्र न करें। आप उस डॉक्टर से आगे हैं क्योंकि कम्प्यूटर की हिन्दी यानी यूनिकोड़ में काम करना और उसकी एक विधा ब्लॉग के बारे में जानते हैं। हज़ारों कम्प्यूटर प्रवीण ऐसे हैं जिन्होंने यूनिकोड और उसके प्रयोगों के बारे में सुना तक नहीं है।

    दिक्कतें झेलते रहिए, सीखते रहिए। बस, जो कुछ भी कम्प्यूटर पर लिखते हैं, फॉरमेट कराने से पहले उसे कहीं सेव ज़रूर कर लें। इस चक्कर में मैं शब्दों का सफ़र का महत्वपूर्ण डेटा ब्लागिंग के शुरुआती दिनों में गुमा चुका हूँ। उन शब्दों के बारे में लिखी विवेचना और शोध सामग्री से आज तक वंचित हूँ। धीरे धीरे संजो रहा हूँ।

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  5. हमने अपनी अल्‍पज्ञता और अपने धीरज की ऐसी परीक्षा कईयों बार दी है, लेकिन डटे हैं शहसवार बन कर मैदाने जंग में.

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  6. अरे बाबा भारत मे लेपटाप का डेंगू फ़ेला हुआ था, मेरा लेपटाप भी भारत आते ही बीमार हो गया, वो तो शुक्र कि उस की गारंटी थी, आज ही नया आया हे, पुराना कमपनी ने फ़ेंक दिया जी, अब आप भी नया ले ले.....:)अजी जब २६ को दिल्ली मे थे तो रोहतक क्ज़ो नही आये जी?????????

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  7. मुझे न तो कम्प्यूटर की तकनीक की समझ है, न इसकी प्रक्रिया की और न ही इसकी शब्दवाली की। फिर भी मैं ‘ब्लॉगीया’ बनने का दम्भ पाले हुए हूँ जो वास्तव में आत्म-भ्रम के सिवाय और कुछ भी नहीं है।

    विश्णू जी ये मूरखता तो हम भी कर रहे हैं मुझे तो आपसे भी कम पता है। चिन्ता मत कीजिये बस लगे रहिये। शुभकामनायें।

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  8. मशीनों के साथ ये सब तो चलता रहता है ... लगता है कम्पूटर बदलने का समय आ गया है ..

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