भ्रष्टाचार: परछाई पर प्रहार

भले ही यह सच हो कि भ्रष्टाचार देश की सबसे बड़ी समस्या है और यह भी कि इसी के चलते विकास (वह जितना भी, जहाँ भी हो पा रहा है) के लाभ वाजिब लोगों तक नहीं पहुँच पा रहे हैं किन्तु इससे भी बड़ा सच यह है कि हममें से कोई भी भ्रष्टाचार को शायद ही नष्ट करना चाहता है। भ्रष्टाचार निर्मूलन के लिए ईमानदारी भरा निरपेक्ष अभियान अपरिहार्य होता है और इस बारे में हम सब सापेक्षिक सोच से काम करते हैं।
एक रोचक उदाहरण मेरी बात को तनिक अधिक प्रभाव से स्पष्ट कर सकेगा।
मेरे कस्बे के पास करमदी नामका एक गाँव है। अखबारों के अनुसार यहाँ ‘करमदी विकास समिति’ के नामसे एक समिति काम कर रही है। समिति की विशेषता यह है कि इसमें जितने लोग करमदी के हैं उनसे यदि ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं, करमदी से बाहर के लोग सदस्य हैं। शायद करमदी के लोगों में इतनी सूझ-समझ-क्षमता नहीं रही होगी कि वे अपने गाँव के विकास के बारे में समुचित रूप से सोच-विचार सकें, काम कर सकें। इसीलिए बाहर के लोगों की आवश्यकता अनुभव हुई होगी।लेकिन इस समिति के काम को इसके नाम से जोड़ कर वैसी ही शुभ धारणा बनाना तनिक जल्दीबाजी होगी। शायद अविवेक भी। इस समिति ने मेरे कस्बे में (याने अपने गाँव से कुछ किलो मीटर दूर आने का विकट परिश्रम कर) 16 दिसम्बर से, ‘बड़े घोटालों के विरुद्ध, भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम’ छेड़ी है। इसके तहत, जन सामान्य से, राष्ट्रपति को एक हजार पोस्ट कार्ड भिजवाए जाएँगे जिनमें यह जन भावना राष्ट्रपति तक पहुँचाई जएगी कि भ्रष्टाचार के इतने बड़े मामले सामने आने के बाद भी प्रधान मन्त्री द्वारा कोई कार्रवाई न करने से आम जनता त्रस्त है। यह रोचक और ध्यानाकर्षित करनेवाला संयोग है कि समिति के सारे के सारे सदस्य संघ और/या भाजपा से जुड़े हैं। जाहिर है कि समिति का यह अभियान ‘भ्रष्टाचार के विरुद्ध’ न होकर ‘केन्द्र की कांग्रेस नीत सरकार के भ्रष्टाचार’ के विरुद्ध है। यही इस देश का संकट है और इसी कारण मैं कह पा रहा हूँ कि भ्रष्टाचार से दुखी इस देश मे कोई भी भ्रष्टाचार समाप्त करने को उत्सुक नहीं है।
यदि हम सचमुच में भ्रष्टाचार के विरोध में हैं तो हमें इस बात से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए कि भ्रष्टाचार कौन कर रहा है या किसने किया है। किन्तु यदि हमारे विरोध का आधार निरपेक्ष नहीं है, केवल सामनेवाले को अपराधी करार देना है या केवल सामनेवाले के भ्रष्टाचार को उजागर करना है तो यह अभ्यिान और ऐसी कोई भी लड़ाई कभी भी कामयाब नहीं हो सकती क्योंकि इसका लक्ष्य भ्रष्टाचार निर्मूलन नहीं, सामनेवाले के भ्रष्टाचार से अपना राजनीति लाभ लेना होता है। सुनिश्चत और निहित राजनीतिक लाभ के लिए चलाए जानेवाले ऐसे अभियान न केवल अन्ततः भ्रष्टाचार को ही मजबूत करते हैं अपितु ईमानदार लोगों/संगठनों द्वारा चलाए जानेवाले भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों को कमजोर भी बनाते हैं।
सारे राजनीतिक दलों ने देश पर एक उपकार अवश्य किया है। उन्होंने एक दूसरे की पोल खोलकर सारे देश को बता दिया है कि नागरिकों को इनमें से किसी पर भी भरोसा नहीं करना चाहिए। देश के तमाम राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के मामले में एक दूसरे को पछाड़ने की प्रतियोगिता में लगे हुए हैं। हर कोई प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए जी-जान से लगा हुआ है। इसीलिए इनमें से किसी को भी अपना भ्रष्टाचार नजर नहीं आता। अपने भ्रष्टाचार का औचित्य साबित कर खुद को निरपराध साबित करने के लिए वे अपने प्रतिस्पर्धी (ध्यान दीजिए, मैं यहाँ ‘विरोधी’ शब्द प्रयुक्त नहीं कर रहा हूँ) को अपराधी साबित करने में ही लगे हुए हैं।
आदर्शों की दुहाइयाँ देने में हम भारतीयों का कोई मुकाबला नहीं। दुहाइयाँ देने की किसी भी वैश्विक प्रतियोगिता में हम प्रथम स्थान पर, आजीवन अधिकार बनाए रखने की क्षमता और दम-कस रखते हैं। किन्तु आचरण की बात आते ही हम पुरुस्कार-सूची में, सबसे अन्तिम स्थान पर आ जाते हैं। श्रीमद् भागवत गीता की दुहाई देना हमारा फैशन और उसके निर्देशों की अवहेलना हमारा आचरण बन गया है।गीता में कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने कहा है - ‘केवल प्रयत्नों पर तुम्हारा नियन्त्रण है, परिणामों पर नहीं। इसलिए, कर्म करो।’ हमारे राजनीतिक दलों ने इसे ‘केवल दूसरों को सुधारने के प्रयत्नों ही पर तुम्हारा नियन्त्रण है’ बना लिया है जबकि योगीराज श्रीकृष्ण ने यह नियन्त्रण ‘स्वयम्’ के लिए उल्लेखित किया है। याने, तुम्हारा नियन्त्रण यदि है तो केवल तुम पर ही है। दूसरों पर नहीं। इसलिए यदि सुधार करना चाहते हो तो खुद को सुधारो। दूसरों को सुधारने की कोशिशें मूर्खता के सिवाय और कुछ भी नहीं। इसलिए, हमारे राजनेता यदि सचमुच में भ्रष्टाचार समाप्त करने में ईमानदार हैं तो यह शुभारम्भ अपने-अपने घरों से करें। कांग्रेसियों पर भाजपाइयों का और भाजपाइयों पर कांग्रेसियों का क्या नियन्त्रण? लेकिन कांग्रेसियों का कांग्रेसियों पर और भाजपाइयों का भाजपाइयों पर तो नियन्त्रण है। दूसरे के भ्रष्टाचार की दुहाई देकर अपने भ्रष्टाचार का औचित्य सिद्ध करने के बजाय खुद को भ्रष्टाचार रहित कीजिए। यह अधिक आसान है क्योंकि यदि आप अपना सुधार करेंगे तो आपको रोकने-टोकनेवाला कोई नहीं होगा। यदि आप भ्रष्टाचारविहीन होंगे तो आपकी बात हर कोई न केवल ध्यान से सुनेगा बल्कि आपके साथ शरीक भी होगा। दूसरे की गरेबान में झाँकने के लिए आपको अधिक तथा अतिरिक्त श्रम करना पड़ेगा जबकि अपनी गरेबान में झाँकने में तो पल भर भी नहीं लगेगा। दूसरे को दुरुस्त करने के मुकाबले खुद को दुरुस्त करने में समय भी कम लगेगा और मेहनत भी। सामनेवाले के भ्रष्टाचार की गन्दगी बताकर आप कोई अनोखा काम नहीं कर रहे। सबको पता है। उसकी सड़ाँध को समाप्त करने के लिए आपको अपनी खुशबू फैलानी पड़ेगी।
हमारे दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दल, कांग्रेस और भाजपा, गाँधी की दुहाई देने का कोई मौका नहीं छोड़ते। किन्तु गाँधी की कही बात पर अमल करने को कोई भी तैयार नहीं। गाँधी ने आत्म-चिन्तन से शुरु होकर आत्म-निरीक्षण, आत्म-परीक्षण, आत्म-विश्लेषण से गुजरते हुए आत्मोन्नयन की बात कही थी। गाँधी का प्रत्येक विचार खुद से शुरु होकर खुद पर समाप्त होता है। गाँधी विचार में जो भी है वह है - आचरण। वहाँ आरोप, प्रत्यारोप, आग्रह, अपेक्षा का कोई स्थान नहीं है। सत्याग्रह का आग्रह भी वहीं है जब सत्याग्रही स्वयम् उस विकार से मुक्त हो जिसके विरोध में वह सत्याग्रह कर रहा है।
इसे मैं यूँ कहना चाहूँगा कि रिश्वत देना मेरी मजबूरी हो सकती है किन्तु लेना नहीं। यदि मैं रिश्वत लेने की स्थिति में हूँ और रिश्वत नहीं लेता हूँ तभी मैं रिश्वत देने का विरोध करने का नैतिक अधिकार और आत्म बल पा सकता हूँ। बेटे के विवाह में दहेज लेकर, बेटी के विवाह में दहेज विरोधी कैसे हो सकता हूँ?
इसलिए, बेहतर यही होगा (और आवश्यक भी यही है) कि विरोधी के भ्रष्टाचार को नहीं, अपनी भ्रष्टाचारविहीनता को अपनी ताकत बनाएँ। तभी आपकी लड़ाई वास्तविक भी होगी और अपेक्षित परिणामदायी भी। तभी आपकी लड़ाई ईमानदार और नैतिक स्तर बलशाली होगी। यदि ऐसा नहीं है तो आप जो भी कर रहे हैं, वह झूठ है, ढोंग है, पाखण्ड है।
सारे राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को समझना चाहिए कि जरूरत जडों को काटने की है। आप फुनगियों पर प्रहार कर रहे हैं। आप खलनायक पर नहीं, उसकी परछाई पर तलवारें भाँज रहे हैं और चाहते हैं कि लोग आपकी ईमानदारी पर शक न करें।
यह आपकी मासूमियत नहीं, निर्लज्ज सीनाजोरी है।
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7 comments:

  1. भ्राष्टाचार का मूल कारण यह है कि हमारे समाज के मूल्य भ्रष्ट हो गये हैँ।
    लोगों को अपने अन्दर झांकना चाहिये।

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  2. विरोधी के भ्रष्टाचार को नहीं, अपनी भ्रष्टाचारविहीनता को अपनी ताकत बनाएँ। तभी आपकी लड़ाई वास्तविक भी होगी और अपेक्षित परिणामदायी भी।
    सहमत हूं !!

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  3. समाज का ही अक्‍स हैं राजनैतिक दल और नेता.

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  4. कहीं से भी असहमत होने की गुंजाईश नहीं दिखती..
    बिलकुल सही कहा आपने भर्ष्टाचार चाहे बाहर हो या घर में दोनों का विरोध करके ही हम उसपे काबू प् सकते हैं. पर अगर कोई विरोधियों के भ्रष्टाचार पर कसके हल्ला मचा रहा है तो भी उसे चुप रहने से तो बेहतर ही मानता हूँ मैं.. .
    ब्लॉगिंग: ये रोग बड़ा है जालिम

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  5. भ्रष्टाचार तो भ्रष्टाचार ही हे ,

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  6. परछाई में प्रहार करते करते जब व्यकित आगे बढ़ जाता है तो लगता है कि परछाई डर गयी।

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  7. ‘ इससे भी बड़ा सच यह है कि हममें से कोई भी भ्रष्टाचार को शायद ही नष्ट करना चाहता है।’

    ऐसी बात नहीं है बैरागी जी। यदि नियम ऐसे हो जिनके पालन करने में कोई कठिनाई न हों तो सभी सत्यवादी हो जाएंगे। क्या हम लाइसेंस राज समाप्त करने के पक्षधर है? क्या कानून का उल्लंघन करने वाले को उचित सज़ा मिलती है?

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