छुटकू का क्या दोष?


इस किशोर का वास्तविक नाम क्या है, इस पर मत जाईए। इसके नाम से हमें कोई लेना-देना नहीं। बस, काम चलाने के लिए इसे छुटकू कहेंगे। वह भी इसलिए कि अपने कुटुम्ब की, इसकी पीढ़ी में यह सबसे छोटा सदस्य है। इसका कुटुम्ब अपने कस्बे का अग्रणी व्यापारी परिवार है-कस्बे के प्रथम पाँच बड़े व्यापारियों में शामिल।

बरहवीं उत्तीर्ण कर, बी. कॉम. और उसके साथ ही साथ सी ए करने के लिए यह अपने कस्बे के पासवाले, महानगर होने को कुलबुला रहे बड़े नगर में गया था। लेकिन जल्दी ही इसका मन उचट गया। सी ए करने का इरादा छोड़ दिया है। व्यक्तिगत परीक्षार्थी (प्रायवेट स्टूडेण्ट) के रूप में बी. कॉम. की तैयारी अभी भी कर रहा है। किन्तु मुख्यतः अपने पारिवारिक व्यापार में हाथ बँटा रहा है। पढ़ाई बीच में छोड़ने के अपने निर्णय पर इसे और इसके परिवार को रंच मात्र भी कष्ट नहीं है। सब इस बात पर प्रसन्न हैं कि इसने सब कुछ जल्दी ही समझ लिया और ‘समय धन’ बचा लिया।

अपने काम से इसके संस्थान् पर गया तो उस दिन सेठ की कुर्सी पर यही बैठा हुआ था। मैं अपनी बात कहता उससे पहले ही कूरीयर सेवा का आदमी आया और पत्रों का ढेर और पावती के लिए हस्ताक्षर करनेवाला कागज इसके सामने रख दिया। इसे अंग्रेजी में हस्ताक्षर करता देख मैंने टोका - ‘छुटकू! तू हिन्दी में हस्ताक्षर क्यों नहीं करता?’ वह चौंका भी और घबराया भी। तनिक सहम कर बोला - ‘अंकल! हिन्दी में सिगनेचर? बुरा मत मानना, हिन्दी में सिगनेचर करना तो दूर, मैं हिन्दी में छुटकू का छ नहीं लिख पाऊँगा।’ मुझे सदमा लगा। ऐसे उत्तर की तो कल्पना भी नहीं की थी मैंने! पूछा - ‘क्यों भला?’ जवाब मिला - ‘आज से पहले इस बारे में न तो किसी ने कहा न ही मैंने कभी सोचा। अब तो यह पॉसीबल ही नहीं।’

जवाब भले ही मेरे लिए आघात से कम नहीं था किन्तु छुटकू ने कोई बहाना नहीं बनाया। दो-टूक सच कह दिया। उससे ज्यादा पूछताछ करना उसके साथ अत्याचार ही होता। मैं विचार में पड़ गया।

छुटकू के परिवार की पृष्ठभूमि में अंग्रेजी कहीं नहीं है। घर में भी हिन्दी कम और मालवी अधिक बोली जाती है। अंग्रेजी में कोई सम्वाद, कोई व्यवहार नहीं होता। इसके परिवर के प्रायः समस्त पुरुष सदस्य, हिन्दी में ही हस्ताक्षर करते हैं। इसकी माँ एक सरकारी माध्यमिक विद्यालय में, बरसों से प्रधानाध्यापिका है और पिता ठेठ मालवी।

फिर वह क्या कारण रहा होगा कि छुटकू ने ऐसा जवाब दिया? शायद किसी ने, कभी भी इस ओर ध्यान नहीं दिया होगा। ध्यान देना तो दूर की बात रही होगी, इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता भी अनुभव नहीं की होगी। बच्चा पढ़ रहा है और परीक्षाओं में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो रहा है - इतना ही पर्याप्त रहा होगा। लेकिन भाषा के भी संस्कार होते हैं, इस बारे में किसी ने, कभी नहीं सोचा होगा।

निश्चय ही, घर-घर का यही किस्सा होगा। होगा क्या, है ही। हम अपने बच्चों की पढ़ाई की चिन्ता करते हैं और उसी पर सारा ध्यान केन्द्रित करते हैं। किन्तु परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के अतिरिक्त भी तो उसका जीवन है! उसके सामाजिक व्यवहार, भाषिक संस्कार आदि के बारे में हम कभी नहीं सोचते। मान कर चलते हैं कि इन बातों पर सोचनेे की आवश्यकता ही नहीं। ये बातें तो या तो बच्चा खुद-ब-खुद सीख-समझ जाएगा या फिर इन बातों को सीखने-समझने की जरुरत ही क्या?

मुझे लग रहा है कि हिन्दी के नाम पर स्यापा करनेवाले और आत्म धिक्कार में जीनेवाले हम तमाम लोगों को अपने-अपने घर में ही सबसे पहले देखना चाहिए। हम तब चिन्तित होते हैं जब सुधार की सम्भावनाएँ लगभग धूमिल हो जाती हैं। बच्चे जब कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं तभी हमने इन सन्दर्भों में उनकी तरफ देखना चाहिए। लेकिन तब हमें फुरसत नहीं होती। हमें फुरसत मिलती है तब तक वे हाँडे पक चुके होते हैं और उनमें मिट्टी न लगा पाने की अपनी अक्षमता को हम हिन्दी की अस्मिता का सवाल बना कर प्रलाप शुरु कर देते हैं।

दोष तो हमारा ही है। छुटकू का क्या दोष?

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7 comments:

  1. कहीं और की गई मेरी टिप्‍पणी का अंश है-
    ''हम में से अधिकतर बच्‍चों के अंगरेजी ज्ञान से संतुष्‍ट नहीं होते बल्कि उसकी फर्राटा अंगरेजी पर चमत्‍कृत फिर गौरवान्वित होते हैं. चैत-बैसाख की कौन कहे हफ्ते के सात दिनों के नाम और 1 से 100 तक की क्‍या 20 तक की गिनती पूछने पर बच्‍चा कहता है, क्‍या पापा..., पत्‍नी कहती है आप भी तो... और हम अपनी 'दकियानूसी' पर झेंप जाते हैं''.

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  2. स्वयं हिन्दी पढ़कर बच्चों को अंग्रेजी पढ़वाने को लालायित लोगों के सम्मुख छुटकू का क्या दोष।

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  3. अपने सही कहा। हम अपनी राष्ट्रीयता खो रहे हैं जब राष्ट्र्भाशा का ही ग्यान नही तो देश के लिये और क्या सोचेंगे। हम अभी भी न चेते तो बहुत देर हो जायेगी। धन्यवाद।

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  4. आप से सहमत हे जी, हम बाते तो बडी बडी करते हे, लेकिन सिर्फ़ दुसरो के लिये हमारे अपने घरो मे अग्रेजी ही चलती हे, मैने यहां रह कर भी बच्चो को स्कुल जाने से पहले ही हिन्दी पढनी सिखा दी थी आज वो काम चलाऊ हिन्दी पढ लेते हे, इस के साथ ही मैने उन्हे हिन्दी मे गिनती ओर २५ तक पहाडे सिखा दिये, बडी से बडी हिन्दी की रकम को वो मिंटो मे हल कर लेते हे महीनो के नाम, दिनो के नाम सब उन्हे स्कुल जाने से पहले सीखा दिये, लेकिन भारत आते ही जब वहां के बच्चो को देखता हुं तो हेरान रह जाता हुं, ओर बहुत से बच्चे तो हिन्दी बोलने मे शर्म महसुस करते हे, जेसे कोई गुनाह कर रहे हो...... क्या यही देश प्रेम हे?
    आप का लेख बहुत अच्छा लगा, एक शिक्षा लेने वाला,काश भारत मे हम सब को हिन्दी से प्यार होता ना कि इस फ़िरंगी भाषा से लेकिन क्या करे गुलामी हमे विरासत मे मिली हे. धन्यवाद

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  5. सहमत जी। आखिर हम भी अति अंग्रेजी के शिकार हैं। आज भी - हिन्दी ब्लॉग ३-४ साल से लिखने पर भी।

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  6. दोष तो है। छुटकू हिन्दी में अपना नाम भी नहीं लिख सकता है, (या लिखने में अपनी हेठी समझता है) तो इसमें दोष पूरी तरह उसका और अपनी पृष्ठभूमि के प्रति उसकी हीनभावना का ही है।

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